Friday 9 January 2015

अगर कोई भी शरीर किसी गहरी रिसेप्‍टिव हालत में हो, और दो तरह से शरीर-दूसरे लोगों के शरीर-ग्राहक अवस्‍था में होते है। या तो बहुत भयभीत अवस्‍था में। जितना भयभीत व्‍यक्‍ति होगा, उसकी खुद की आत्‍मा उसके शरीर में भीतर सुकड़ जाती है। मतलब शरीर के बहुत से हिस्‍सों को छोड़ देती है खाली। उन खाली जगहों में पास-पड़ोस की कोई भी आत्‍मा ऐसे गह सकती है जैसे गड्ढे में पानी बह जाता है। तब इसको जो अनुभव होते है वे ठीक वैसे ही हो जाते है जैसे शरीर धारी आत्‍मा को होते है। या बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में कोई आत्‍मा प्रवेश कर सकती है। बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में भी आत्‍मा सिकुड़ जाती है।
लेकिन भय कि अवस्‍था में केवल वे ही आत्‍माएं सरक कर भीतर प्रवेश कर सकती है जो दुःख-स्‍वप्‍न देख रही हो। जिन्‍हें हम बुरी आत्‍माएं कहें। वे प्रवेश कर सकती है। क्‍योंकि भयभीत व्‍यक्‍ति बहुत ही कुरूप और गंदी स्‍थिति में है। उसमें कोई श्रेष्‍ठ आत्‍मा प्रवेश नहीं कर सकती। और भयभीत व्‍यक्‍ति गड़े की भांति है। जिसमें नीचे उतरने वाली आत्‍माएं ही प्रवेश कर सकती है।
प्रार्थना से भरा हुआ व्‍यक्‍ति शिखर की भांति है, जिसमें सिर्फ ऊपर चढ़ने वाली आत्‍माएं प्रवेश कर सकती है। और प्रार्थना से भरा हुआ व्‍यक्‍ति इतनी आंतरिक सुगंध से और सौंदर्य से भरा हुआ होता है कि उनका रस तो केवल बहुत श्रेष्‍ठ आत्‍माएं को हो सकता है। वे भी निकट में है। तो जिनको इनवोकेशन कहते है, आह्वान कहते है। प्रार्थना कहते है। उसमे भी प्रवेश होता है। लेकिन श्रेष्‍ठतम आत्‍माएं का। उस समय अनुभव ठीक वैसे ही हो जाते है जैसे कि शरीर में हुए, इन दोनों अवस्‍थाओं में।

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