Saturday 31 January 2015

बहुत बार जीवन में हम पहचान नहीं पाते, कौन मित्र है, कौन शत्रु है। हम यही नहीं समझ पाते कि हम अपने मित्र हैं या शत्रु हैं। वहीं पहली भूल हो जाती है। तुमने अपनी एक प्रतिमा बना रखी है, जो झूठ है। वह प्रतिमा तुमने उन लोगों के हाथ से बनवा ली है, जिन्होंने तुम्हारी प्रशंसा की थी।

तो हर बेटा अपनी मां को सुंदर कहता है, हर मां अपने बेटे को सुंदर कहती है। हर मां अपने बेटे को लाल बताती है, हीरे-जवाहरात बताती है। कारण है; बेटा फल है और अगर फल कडुवा निकल गया तो वृक्ष नीम का हो गया। अगर फल जहरीला निकल गया तो स्रोत जहर का हो गया।
मां का अहंकार दाव पर लगा है बेटे में। बाप का अहंकार दाव पर लगा है बेटे में। तुम जरा मां और पिताओं की बातें सुनो। अगर इन सबकी बातें सच हैं तो इस दुनिया में इतने मेधावी लोग हों कि सारी पृथ्वी मेधा से भर जाए। हर एक मां-बाप यही सोच रहे हैं कि उन्होंने हीरे को जन्म दे दिया। फिर कहो ये हीरे खो जाते हैं? फिर इन हीरों का कोई पता नहीं चलता। ये हीरे और हीरों को जन्म देने लगते हैं। इनके हीरे होने का कुछ पता नहीं चलता। जिंदगी कूड़े-करकट से भरती चली जाती है।
ध्यान रखना, तुम्हारी मां ने तुम्हें एक वहम दे दिया होगा कि तुम बड़े सुंदर हो। तुम्हारे पिता ने तुम्हें वहम दे दिया होगा कि तुम बड़े बुद्धिमान हो। बाप धक्के देता रहता है कि प्रथम आओ परीक्षा में। बाप का अहंकार दांव पर लगा है। तुम्हारा ही नहीं है सवाल, बच्चे ही परीक्षा नहीं दे रहे हैं, मां-बाप परीक्षा. मां-बाप की परीक्षा हुई जा रही है। जब तुम घर आते हो और असफल होकर आते हौं तो मां-बाप दुखी हो जाते हैं तुमसे भी ज्यादा। तुमने उनकी प्रतिमा खंडित कर दी।
तुम जब कुछ दुष्कर्म करते हो, कुछ बुरा काम करते हो, तो मां-बाप इसलिए दुखी नहीं होते कि तुम ने बुरा काम किया; दुख का कारण अहंकार है। अगर तुम्हारा दुष्कर्म छिपा रह जाए तो कोई हर्जा नहीं। मां-बाप भी चेष्टा करते हैं कि तुम्हारा दुष्कर्म पता न चल जाए। छिप जाए, तो ठीक। पता चलने से कष्ट होता है, अहंकार को चोट लगती है-मेरा बेटा!

Friday 30 January 2015

साधारणत: हम उसकी संगति करना चाहते हैं, जो हमारी प्रशंसा करे। प्रशंसा से अहंकार भरता है। कोई कहे कि हम सुंदर हैं, कोई कहे कि हम शुभ हैं, कोई कहे कि हम श्रेष्ठ हैं-सुख मिलता है। लेकिन सुख बड़ा महंगा है। क्योंकि जो हम नहीं हैं, यदि हमने मान लिया कि हम हैं, तो होने के सब द्वार बंद हो जाएंगे।
और कौन सुंदर हो पाता है? सुंदर होने के रास्ते पर हो सकते हैं। यह मार्ग ऐसा नहीं कि इसकी मंजिल आती हो। सुंदर से सुंदरतर होते जाते हैं, लेकिन सुंदर तो कोई कभी नहीं हो पाता। श्रेष्ठतर से श्रेष्ठतर होते चले जाते हैं, लेकिन श्रेष्ठ तो कोई कभी नहीं हो पाता। यात्रा है।
लेकिन प्रशंसा करने वाला ऐसी भ्रांति दे देता है कि मंजिल आ गई। प्रशंसा करने वाले से सावधान रहना। उस पर भरोसा मत कर लेना; उस पर भरोसा किया कि भटके। यद्यपि मन कहेगा, मान लो। क्योंकि इतनी सस्ती श्रेष्ठता मिलती हो, इतने सस्ते में सौंदर्य, सत्य मिलता हो, कौन नासमझ इनकार करेगा? मुक्त में ही मिलता हो, बिना मांगे मिलता हो, कोई अपने से आकर तुम्हारी प्रशंसा करता हो-कौन इनकार करता है?
तुमने कभी खयाल किया? जब कोई तुम्हारी प्रशंसा करने लगता है, इनकार करना भी चाहो तो करते नहीं बन पड़ता। लेकिन ध्यान रखना, जब भी कोई तुम्हारी प्रशंसा करता है, तभी तुम भीतर अपने एक अपराध-भाव भी अनुभव करोगे। तुमने वह स्वीकार कर लिया, जो तुम नहीं हो। तुमने सस्ते में कीर्ति चाही। तुमने बिना कुछ चुकाए, बिना मूल्य दिए स्तुति चाही।
इसलिए तो दुनिया में खुशामद इतनी कारगर होती है; क्योंकि कोई भी इनकार नहीं कर पाता। कुरूप से कुरूप आदमी से कहो, तुम सुंदर हो, इनकार न कर पाएगा। बुरे से बुरे आदमी से कहो, तुम साधु हो, इनकार न कर पाएगा।

जब तुम्‍हारी श्‍वास भीतर आये तो उसका निरीक्षण करो। उसके फिर बाहर या ऊपर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण के लिए, या क्षण के हज़ारवें भाग के लिए श्‍वास बंद हो जाती है। श्‍वास भीतर आती है, और वहां एक बिंदु है जहां वह ठहर जाती है। फिर श्‍वास बाहर जाती है। और जब श्‍वास बाहर जाती है। तो वहां एक बिंदु पर ठहर जाती है। और फिर वह भीतर के लौटती है।
श्‍वास के भीतर या बाहर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण है जब तुम श्‍वास नहीं लेते हो। उसी क्षण में घटना घटनी संभव है। क्‍योंकि जब तुम श्‍वास नहीं लेते हो तो तुम संसार में नहीं होते हो। समझ लो कि जब तुम श्‍वास नहीं लेते हो तब तुम मृत हो; तुम तो हो, लेकिन मृत। लेकिन यह क्षण इतना छोटा है कि तुम उसे कभी देख नहीं पाते।

Wednesday 28 January 2015

हम जन्‍म से मृत्‍यु के क्षण तक निरंतर श्‍वास लेते रहते है। इन दो बिंदुओं के बीच सब कुछ बदल जाता है। सब चीज बदल जाती है। कुछ भी बदले बिना नहीं रहता। लेकिन जन्‍म और मृत्‍यु के बीच श्‍वास क्रिया अचल रहती है। बच्‍चा जवान होगा, जवान बूढ़ा होगा। वह। बीमार होगा। उसका शरीर रूग्‍ण और कुरूप होगा। सब कुछ बदल जायेगा। वह सुखी होगा, दुःखी होगा, पीड़ा में होगा, सब कुछ बदलता रहेगा। लेकिन इन दो बिंदुओं के बीच आदमी श्‍वास भर सतत लेता रहेगा।
श्‍वास क्रिया एक सतत प्रवाह है, उसमें अंतराल संभव नहीं है। अगर तुम एक क्षण के लिए भी श्‍वास लेना भूल जाओं तो तुम समाप्‍त हो जाओगे। यही कारण है कि श्‍वास लेने का जिम्‍मा तुम्‍हारी नहीं है। नहीं तो मुश्‍किल हो जायेगी। कोई भूल जाये श्‍वास लेना तो फिर कुछ भी नहीं किया जा सकता।
इसलिए यथार्थ में तुम श्‍वास नहीं लेते हो, क्‍योंकि उसमे तुम्‍हारी जरूरत नहीं है। तुम गहरी नींद में हो और श्‍वास चलती रहती है। तुम गहरी मूर्च्‍छा में हो और श्‍वास चलती रहती है। श्‍वासन तुम्‍हारे व्‍यक्‍तित्‍व का एक अचल तत्‍व है।
दूसरी बात यह जीवन के अत्‍यंत आवश्‍यक और आधारभूत है। इस लिए जीवन और श्‍वास पर्यायवाची हो गये। इस लिए भारत में उसे प्राण कहते है। श्‍वास और जीवन को हमने एक शब्‍द दिया। प्राण का अर्थ है, जीवन शक्‍ति, जीवंतता। तुम्‍हारा जीवन तुम्‍हारी श्‍वास है।
तीसरी बात श्‍वास तुम्‍हारे और तुम्‍हारे शरीर के बीच एक सेतु है। सतत श्‍वास तुम्‍हें तुम्‍हारे शरीर से जोड़ रही है। संबंधित कर रही है। और श्‍वास ने सिर्फ तुम्‍हारे और तुम्‍हारे शरीर के बीच सेतु है, वह तुम्‍हारे और विश्‍व के बीच भी सेतु है। तुम्‍हारा शरीर विश्‍व का अंग है। शरीर की हरेक चीज, हरेक कण, हरेक कोश विश्‍व का अंश है। यह विश्‍व के साथ निकटतम संबंध है। और श्‍वास सेतु है। और अगर सेतु टूट जाये तो तुम शरीर में नहीं रह सकते। तुम किसी अज्ञात आयाम में चले जाओगे। इस लिए श्‍वास तुम्‍हारे और देश काल के बीच सेतु हो जाती है।

Tuesday 27 January 2015

मैं वही कहूंगा जो मैं जानता हूं; वही कहूंगा जो आप भी जान सकते हैं। लेकिन जानने से मेरा अर्थ है, जीना। जाना बिना जीए भी जा सकता है। तब ज्ञान होता है एक बोझ। उससे कोई डूब तो सकता है, उबरता नहीं। जानना जीवंत भी हो सकता है। तब जो हम जानते हैं, वह हमें करता है निर्भार, हलका, कि हम उड़ सकें आकाश में। जीवन ही जब जानना बन जाता है, तभी पंख लगते हैं, तभी जंजीरें टूटती हैं, और तभी द्वार खुलते हैं अनंत के।
लेकिन जानना कठिन है, ज्ञान इकट्ठा कर लेना बहुत आसान। और इसलिए मन आसान को चुन लेता है और कठिन से बचता है। लेकिन जो कठिन से बचता है वह धर्म से भी वंचित रह जाएगा। कठिन ही नहीं, जो असंभव से भी बचना चाहता है, वह कभी भी धर्म के पास नहीं पहुंच पाएगा। धर्म तो है ही उनके लिए, जो असंभव में उतरने की तैयारी रखते हैं। धर्म है जुआरियों के लिए, दुकानदारों के लिए नहीं। धर्म कोई सौदा नहीं है। धर्म कोई समझौता भी नहीं है। धर्म तो है दांव। जुआरी लगाता है धन को दांव पर, धार्मिक लगा देता है स्वयं को। वही परम धन है। और जो अपने को ही दांव पर लगाने को तैयार नहीं, वह जीवन के गुह्य रहस्यों को कभी भी जान नहीं पाएगा।
सस्ते नहीं मिलते हैं वे रहस्य, ज्ञान तो बहुत सस्ता मिल जाता है। ज्ञान तो मिल जाता है किताब में, शास्त्र में, शिक्षा में, शिक्षक के पास। ज्ञान तो मिल जाता है करीब—करीब मुफ्त, कुछ चुकाना नहीं पडता। धर्म में तो बहुत कुछ चुकाना पडता है। बहुत कुछ कहना ठीक नहीं, सभी कुछ दाव पर लगा दे कोई, तो ही उस जीवन के द्वार खुलते हैं। इस जीवन को जो दाव पर लगा दे उसके लिए ही उस जीवन के द्वार खुलते हैं। इस जीवन को दाव पर लगा देना ही उस जीवन के द्वार की कुंजी है।

Monday 26 January 2015

ध्‍यान के प्रथम कदम मनुष्‍य के एक नर्म मुलायम मिट्टी पर पड़ें कदमों की तरह होते है जो बहुत गहरी छाप छोड़ जाते है। फिर आप उसमें श्रद्धा की गुड़ाई की हो तो सोने पे सुहागा समझो। अगर उस भूमि में अपने बीज बो दिया तो वह बहुत गहरा और उँचा वृक्ष जरूर बनेगा। जिसे कोई भी मीलों दूर से भी देख सकेगें। इस लिए प्रथम अनुभूतियों को आज भी में अपने बिलकुल पास महसूस करता हूं, जैसे वो अभी कोरी और अनछुई है। ध्‍यान के पहले दिन ही चित मुझे अचेतन की उन गहराइयों में ले गया। जिस की अनुभूति आज मैं रोंए रेशे में मांस मज्‍जा बन कर समा गई है। 

ओशो ने एक जगह कहां है…
‘’जब भी कोई साधक भीतर प्रविष्‍ट होता है, तो प्रकाश से उसकी सीधी मुलाकात कभी नहीं होती। होगी भी नहीं, क्‍योंकि प्रकाश तो बहुत गहरे में छिपा है। हमारे और हमारे ही प्रकाश के बीच अंधकार की गहरी पर्त है। तो पहले तो भीतर आँख बंद करते ही अंधकार हो जाता है। इस अंधकार से भयभीत मत होना। और इस अंधकार में काई कल्‍पित अंधकार निर्मित मत करना। इस अंधकार में प्रवेश करते ही जाना….कल्‍पित प्रकाश भी हम निर्मित कर सकते है। लेकिन इस कल्‍पित प्रकाश के कारण असली प्रकाश का कोई पता नहीं चलेगा।
बहुत सी साधनाएं, जो प्रकाश की कल्‍पना से शुरू होती है; वे साधनाएं इस अंधकार के पार नहीं ले जाती। …….बंद आँख करके हम उस प्रकाश को देखने की कोशिश भी कर सकते है। और कोशिश की तो सफल भी होगें। क्‍योंकि वह प्रकाश हमारी कल्‍पना ने निर्मित किया है। वह आपके ही मन की उत्पती है। वह आपकी ही संतति है। उससे ये अंधकार नहीं कटेगा।
हां वहां एक और भी प्रकाश है; जब हम अंधेरे में प्रवेश करते चले जाते है। तब वह एक दिन उपल्‍बध होगा। जिसे हमने सोच और चाह कर निर्मित नहीं किया। लेकिन अंधकार में डूबते-डूबते एक दिन अंधेरे की वह पर्त टूट जाती है। और हम प्रकाश के लोक में प्रवेश कर जाते है।
पहली मुलाकात वास्‍तविक साधक को अंधकार से होगी….झूठे साधक को प्रकाश से भी हो सकती है।…

Sunday 25 January 2015

प्रश्न जीवन का नहीं है। प्रश्न तुम्हारे मन का है। जीवन को मोक्ष की तरफ नहीं जाना है। जीवन तो मोक्ष है। जीवन नहीं भटका है, जीवन नहीं भूला है। जीवन तो वहीं है जहां होना चाहिए। तुम भटके हो, तुम भूले हो। तुम्हारा मन तर्क की उलझन में है। और यात्रा तुम्हारे मन से शुरू होगी। कहां जाना है, यह सवाल नहीं है। कहां से शुरू करना है, यही सवाल है।
मंजिल की बात बुद्ध ने नहीं की। मंजिल की बात तुम समझ भी कैसे पाओगे? उसका तो स्वाद ही समझा सकेगा। उसमें तो डूबोगे, तो ही जान पाओगे। बुद्ध ने मार्ग की बात कही है। बुद्ध ने तुम जहां खड़े हो, तुम्हारा पहला कदम जहां पड़ेगा, उसकी बात कही है। इसलिए बुद्ध बुद्धि, विचार, अनुशासन, व्यवस्था की बात नही कि उन्हें पता नहीं है कि जीवन कोई व्यवस्था नहीं मानता। जीवन कोई रेल की पटरियों पर दौड़ती हुई गाड़ी नहीं है। जीवन परम स्वतंत्रता है। जीवन के ऊपर कोई नियम नहीं है, कोई मर्यादा नहीं है। जीवन अमर्याद है। वहां न कुछ शुभ है, न अशुभ। जीवन में सर्वस्वीकार है। वहां अंधेरा भी और उजेला भी एक साथ स्वीकार है।
मनुष्य के मन का सवाल है। मनुष्य का मन विरोधाभासी बात को समझ ही नहीं पाता। और जिसको तुम समझ न पाओगे, उसे तुम जीवन में कैसे उतारोगे? जिसे तुम समझ न पाओगे, उससे तुम दूर ही रह जाओगे।
तो बुद्ध ने वही कहा जो तुम समझ सकते हो। बुद्ध ने सत्य नहीं कहा, बुद्ध ने वही कहा जो तुम समझ सकते हो। फिर जैसे-जैसे तुम्हारी समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे बुद्ध तुमसे वह भी कहेंगे जो तुम नहीं समझ सकते।
बुद्ध एक दिन गुजरते हैं एक राह से जंगल की। पतझड़ के दिन हैं। सारा वन सूखे पत्तों से भरा है। और आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि क्या आपने हमें सब बातें बता दीं जो आप जानते हैं न क्या आपने अपना पूरा सत्य हमारे सामने स्पष्ट किया है? बुद्ध ने सूखे पत्तों से अपनी मुट्ठी भर ली और कहा, आनंद! मैंने तुमसे उतना ही कहा है जितने सूखे पत्ते मेरी मुट्ठी में हैं। और उतना अनकहा छोड़ दिया है जितने सूखे पत्ते इस वन में हैं। वही कहा है जो तुम समझ सको। फिर जैसे तुम्हारी समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे वह भी कहा जा सकेगा जो पहले समझा नहीं जा सकता था।
बुद्ध कदम-कदम बढ़े। आहिस्ता-आहिस्ता। तुम्हारी सामर्थ्य देखकर बढ़े हैं। बुद्ध ने तुम्हारी बूंद को सागर में डालना चाहा है।

Saturday 24 January 2015

जीवन दो भांति जीया जा सकता है-एक मालिक की तरह, एक गुलाम की तरह। और गुलाम की तरह जो जीवन है, वह नाममात्र को ही जीवन है। उसे जीवन कहना भी गलत है। बस दिखाई पड़ता हे जीवन जैसा, आभास होता है जीवन जैसा। जैसे एक सपना देखा हो। आशा में ही होता है गुलाम का जीवन। मिलेगा, मिलता कभी नहीं। आ रहा है, आता कभी नहीं। गुलाम का जीवन बस जाता है, आता कभी नहीं।
गुलाम के जीवन का शास्त्र समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जो उसे न समझ पाया, वह मालिक के जीवन को निर्मित न कर पाएगा। दोनों के शास्त्र अलग हैं। दोनों की व्यवस्थाएं अलग हैं। गुलाम के जीवन के शास्त्र का नाम ही संसार है। मालिक और मालकियत के जीवन का नाम ही धर्म है। एस धम्मो सनंतनो। वही सनातन धर्म का सूत्र है।
मालिक से अर्थ है, ऐसे जीना जैसे जीवन अभी और यहीं है। कल पर छोड़कर नहीं, आशा में नहीं, यथार्थ में। मालिक के जीवन का अर्थ है, मन गुलाम हो, चेतना मालिक हो। होश मालिक हो, वृत्तियां मालिक न हों। विचारों का उपयोग किया जाए, विचार तुम्हारा उपयोग न कर लें। विचारों को तुम काम में लगा सको, विचार तुम्हें काम में न लगा दें। लगाम हाथ में हो जीवन की। और जहां तुम जीवन को ले जाना चाहो, वहीं जीवन जाए। तुम्हें मन के पीछे घसिटना न पड़े।

Friday 23 January 2015

कला एक ध्‍यान है। कोई भी कार्य ध्‍यान बन सकता है, यदि हम उसमें डूब जाएं। तो एक तकनीशियन मात्र मत बने रहें। यदि आप केवल एक तकनीशियन हैं तो पेंटिंग कभी ध्‍यान नहीं बन पाएगी। हमें पेंटिंग में पूरी तरह डूबना होगा, पागल की तरह उसमें खो जाना पड़ेगा। इतना खो जाना पड़ेगा कि हमें यह भी खबर न रह जाए कि हम कहां जा रहे है, कि हम क्‍या कर रहे है, कि हम कौन है।
यह पूरी तरह खो जाने की स्थिति ही ध्‍यान होगी। इसे घटने दें। चित्र हम न बनाएं, बल्कि बनने दें। और मेरा मतलब यह नहीं है कि हम आलसी हो जाएं। नहीं, फिर तो वह कभी नहीं बनेगा। यह हम पर उतरना चाहिए, हमें पूरी तरह से सक्रिय होना है और फिर भी कर्ता बनना है। यही पूरी कला है—हमें सक्रिय होना है, लेकिन फिर भी कर्ता नहीं बनना है।
हमें तो मिट जाना चाहिए। हमें मौजूद रहने की जरूरत नहीं है। हमें तो अपनी पेंटिंग में, अपने नृत्‍य में, श्‍वास में, गीत में पूरी तरह खो जाना चाहिए। जो भी हम कर रहे हों, उसमें बिना किसी नियंत्रण के हमें पूरी तरह खो जाना चाहिए।

Thursday 22 January 2015

जब भी आपको लगे कि आपकी मूड अच्‍छा नहीं है और काम करना अच्‍छा नहीं लग रहा है, तो काम करने से पहले पाँच मिनट के लिए गहरी श्‍वास बाहर फेंके। भाव करें कि श्‍वास के साथ खराब मूड भी बाहर फेंक रहे है। और आप हैरान हो जाएंगे कि पाँच मिनट में अनायास ही आप फिर से सहज हो गए और खराब मूड चला गया, काले बादल छंट गए।
यदि हम अपने कार्य को ही ध्‍यान बना सकें तो सबसे अच्‍छी बात है। तब ध्‍यान हमारे जीवन में कभी द्वंद्व नहीं खड़ा करेगा। जो भी हम करें, ध्‍यानपूर्वक करें। ध्‍यान कुछ अलग नहीं है, वह जीवन का ही एक हिस्‍सा है। वह श्‍वास की तरह है—जैसे श्‍वास आती-जाती है, वैसे ही ध्‍यान भी रहता है।
और केवल थोड़ी सी सजगता की बात है—ज्‍यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। जो चीजें आप असावधानी से कर रहे थे, उन्‍हें सावधानी से करना शुरू करें। जो चीजें किसी आकांक्षा से कर रहे थे, उदाहरण के लिए, पैसा;;;;;। वह ठीक है, लेकिन आप उसमें कुछ जोड़ सकते है। पैसा ठीक है और अगर आपके काम से पैसा आता है तो अच्‍छा है; सबको पैसे की जरूरत है। लेकिन वही सब कुछ नहीं है। और साथ ही साथ यदि और भी आनंद मिलते हों, तो उन्‍हें क्‍यों चूकना वे मुफ्त ही मिल रहे है।
हम कुछ न कुछ काम तो करेंगे ही, चाहे प्रेम से करें या बिना प्रेम कि करें। तो अपने काम में सिर्फ प्रेम जोड़ देने से हमें और बहुत कुछ मिल सकता है, जिन्‍हें हम वैसे चूक ही जाते।

Wednesday 21 January 2015

जिस क्षण तुम किसी दूसरे पर भरोसा करने लगते हो, तो अपनी व्‍यक्‍तिगत खोज बंद कर देते हो। और मैं नहीं चाहूंगा। कि तुम अपनी व्‍यक्‍तिगत खोज बंद करों। हजारों वर्ष से व्‍यक्‍ति को इसी तरह छला गया और उसका शोषण किया गया है। मैं इस पूरी रणनीति को समूल नष्‍ट कर देना चाहता हूं। केवल अपने अनुभव पर भरोसा रखो। मैं हां कहूं या न, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अंतर इस बात से पड़ता है कि तुमने इसका अनुभव किया या नहीं। वहीं निर्णायक होगा। उससे तुम्‍हारे जीवन में निश्‍चय ही परिवर्तन आ जाएगा।
मैं चाहता हूं कि तुम जानने वाले बनो। यदि तुम मुझे प्रेम करते हो और मुझ पर भरोसा करते हो, तब तो जांच-पड़ताल करते रहो, खोज-ढूंढ करते रहो। जब तक तुम्‍हें निष्‍कर्ष नहीं मिल जाता। कभी विश्‍वास न करना। मैं यह इतना निश्चय पूर्वक कह सकता हूं क्‍योंकि में जानता हूं कि यदि तुम जांच पड़ताल करोगे तो तुम्‍हें यह मिल जाएगा। यह वही है। मेरे एक भी शब्‍द पर विश्‍वास न किया जाए। किंतु अनुभव किया जाए। मैं तुम्‍हें इसका अनुभव लेने की विधि दे रहा हूं, अधिक ध्‍यानस्‍थ हो जाओ। पुनर्जन्म और परमात्‍मा, स्‍वर्ग-नरक से कोई अंतर नहीं पड़ता। जिससे अंतर पड़ता है, वह तुम्‍हारा सजग हो जाना है। ध्‍यान से तुम जाग्रत हो जाते हो। तुम्‍हें आंखे मिल जाती है। तब तो तुम जो कुछ भी देखते हो, तुम अस्‍वीकार नहीं कर सकते।

Tuesday 20 January 2015

यदि व्‍यक्‍ति का प्रेम जीवन परिपूर्ण है। तुम पुजा स्‍थलों पर बहुत से लोगों को प्रार्थना करते हुए नहीं पाओगे। वे प्रेम क्रीड़ा कर रहे होंगे। कोई चिंता करता है उन मूर्खों की जो धर्मस्‍थलों पर भाषण दे रहे है। यदि लोगों को प्रेम जीवन पूर्णतया संतुष्‍ट और सुंदर हो वे इसकी चिंता नहीं करेंगे कि परमात्‍मा है या नहीं।
धर्मों ने तुम्‍हारे प्रेम को विवाह बना कर नष्‍ट कर दिया है। विवाह अंत है। प्रारंभ नहीं। प्रेम समाप्‍त हुआ। अब तुम एक पति हो। तुम्‍हारी प्रेमिका तुम्‍हारी पत्‍नी है। अब तुम एक दूसरे का दमन कर सकते हो। यह एक राज निति हुई, यह तो प्रेम नही हुआ। अब हर छोटी सी बात विवाद का विषय बन जाती है।
और विवाह मनुष्‍य की प्रकृति के विरूद्ध है, इसलिए देर-अबेर तुम इस स्‍त्री से ऊबने वाले हो। और स्‍त्री तुमसे। और यह स्‍वाभाविक है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं विवाह नहीं होना चाहिए। क्‍योंकि विवाह पूरे विश्‍व को अनैतिक बनता है।
मैं चाहता हूं लोगे पुरी तरह विवाह और विवाह के प्रमाण पत्रों से मुक्‍त हो जाए। उनके साथ रहने का एक मात्र कारण होना चाहिए प्रेम, कानून नहीं। प्रेम एक मात्र कानून होना चाहिए।
तब जो तुम पूछ रहे हो संभव हो सकता है। जिस क्षण प्रेम विदा होता है। एक दूसरे को अलविदा कह दो। विवाह के लिए कुछ नहीं है। प्रेम अस्‍तित्‍व का एक उपहार था। वह पवन के झोंके की भांति आया, और हवा की तरह चला गया। तुम एक दूसरे के आभारी होगे। तुम विदा हो सकते हो। लेकिन तुम उन सुंदर क्षणों को स्‍मरण करोगे जब तुम साथ थे। यदि प्रेमी नही, तो तुम मित्र होकर रह सकते हो। साधारणतया जब प्रेमी जुदा होते है वे शत्रु हो जाते है। वास्‍तव में विदा होने से पहले ही वे शत्रु हो जाते है—इसीलिए वे जुदा हो रहे है।
अंतत: यदि दोनों व्‍यक्‍ति ध्‍यानी है, न कि प्रेमी इस प्रयास में कि प्रेम की ऊर्जा एक ध्यान मय स्‍थिति में परिवर्तित हो जाए—और यही मेरी देशना है। एक पुरूष और एक स्‍त्री के संबंध में। यह एक प्रगाढ़ ऊर्जा है। यह जीवन है। यदि प्रेम क्रीड़ा करते समय, तुम दोनों एक मौन अंतराल में प्रवेश कर सको। नितांत मौन स्‍थल में, तुम्‍हारे मन में कोई विचार नहीं उठता। मानों समय रूक गया हो। तब तुम पहली बार जानोंगे कि प्रेम क्‍या है। इस भांति का प्रेम संपूर्ण जीवन चल सकता है। क्‍योंकि यह कोई जैविक आकर्षण नहीं है जो देर-अबेर समाप्‍त हो जाए। अब तुम्‍हारे सामने एक नया आयाम खुल रहा है।
तुम्‍हारी स्‍त्री तुम्‍हारा मंदिर हो गई है। तुम्‍हारा पुरूष तुम्‍हारा मंदिर हो गया है। अब तुम्‍हारा प्रेम ध्‍यान हुआ। और यह ध्‍यान विकसित होता जाएगा। और जि यह विकसित होगा तुम और-और आनंदित होने लगोगे। और अधिक संतुष्‍ट और अधिक सशक्‍त। कोई संबंध नहीं, साथ रहने का कोई बंधन नहीं। लेकिन आनंद का परित्‍याग कौन कर सकता है। कौन माँगेगा तलाक जब इतना आनंद हो? लोग तलाक इसीलिए मांग रहे है क्‍योंकि कोई आनंद नहीं है। मात्र संताप है और चौबीसों घंटे एक दुःख स्‍वप्‍न।
यदि दोनों व्‍यक्‍ति प्रेमी ओर ध्‍यानी है, तब वे इसकी परवाह नहीं करेंगे कि कभी-कभी वह चाइनीज़ रेस्‍टोरेंट में चला जाए और दूसरा कंटीनैंटल रेस्‍टोरेंट में। इसमे कोई समस्‍या नहीं है। तुम इस स्‍त्री से प्रेम है। यदि कभी वह किसी और के साथ आनंदित होती है, इसमें गलत क्‍या है? तुम्‍हें खुश होना चाहिए कि यह प्रसन्‍न है, क्‍योंकि तुम उससे प्रेम करते हो, केवल ध्‍यानी ही ईर्ष्‍या से मुक्‍त हो सकता है।
एक प्रेमी बनो—यह एक शुभ प्रारंभ है लेकिन अंत नहीं, अधिक और अधिक ध्यान मय होने में शक्‍ति लगाओ। और शीध्रता करो, क्‍योंकि संभावना है कि तुम्‍हारा प्रेम तुम्‍हारे हनीमून पर ही समाप्‍त हो जाए। इसलिए ध्‍यान और प्रेम हाथ में हाथ लिए चलने चाहिए। यदि हम ऐसे जगत का निर्माण कर सकें जहां प्रेमी ध्‍यानी भी हो।


Monday 19 January 2015

ओशो
जिनका न कभी जन्म हुआ, न मृत्यु
जो केवल 11 दिसम्बर 1931 से
19 जनवरी 199० के बीच
इस पृथ्वी ग्रह पर आए
विदा होने के पूर्व वे ऐसे शांत थे— मानो कुछ दिनों की छुट्टियों के लिए कहीं जा रहे हैं!
अपने शरीर से विदा होने के संदर्भ में ओशो के कुछ उद्गार इस प्रकार हैं :
”मैं चाहता हूं कि मेरे संन्यासी मेरी स्वतंत्रता, मेरा होश, मेरा चैतन्य अपने उत्तराधिकार के रूप में ग्रहण कर लें।”
”यदि तुमने मुझे प्रेम किया है तो तुम्हारे लिए मैं हमेशा जिंदा रहूंगा। मैं तुम्हारे प्रेम में जीऊंगा। यदि तुमने मुझे प्रेम किया है तो मेरा शरीर मिट जाएगा तब भी मैं तुम्हारे लिए नहीं मर सकता। ”
”तुम जहां भी हो, मौन तुम्हें मुझसे जोड़ देगा; और तुम्हारी प्रतीक्षा वह पृष्ठभूमि पैदा कर देगी जिसमें मेरा—तुम्हारा ऐसा मिलन हो सके जो अशरीरी, चिन्मय और शाश्वत हो।…"
”मेरे साथ तुम बहुत समय तक रहे हो, तुम अच्छी तरह जानते हो कि मेरी मौजूदगी में तुम्हारे साथ क्या घटता है। बस इसे मौका दो. आंखें बंद कर लो, मौन होकर बैठ जाओ, और उसी घटना की प्रतीक्षा करो। और तुम हैरान होओगे कि मेरी शारीरिक उपस्थिति की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारा हृदय उसी लय में धड़क सकता है—इस अनुभव से तुम परिचित हो। तुम्हारे प्राण उसी गहराई तक शांत हो सकते हैं—उसका तुम्हें भलीभांति अनुभव है। और फिर कोई दूरी नहीं रह जाती।…
”यदि संसार भर में तुम मेरी मौजूदगी को अनुभव करने लगो, तो कोई देश मेरी उपस्थिति को अपनी जमीन में प्रवेश करने से नहीं रोक सकता। कोई सरकार मुझे तुम्हारे हृदय में प्रवेश करने से नहीं रोक सकती।…
”तुम जहां भी हो मैं तुम्हें उपलब्ध हूं। तुम जहां भी हो मैं तुम्हारे साथ हूं। बस खुले रहो, ग्राहक रहो। ”
” (शरीर से विदा होकर ) मैं अपने लोगों में विलीन हो जाऊंगा। ठीक जैसे कि तुम सागर को कहीं से भी चखो तो उसे खारा पाओगे, ऐसे ही मेरे किसी भी संन्यासी को चखोगे और तुम भगवत्ता का स्वाद पाओगे।…
”मैं अपने लोगों को आनंदोत्सवपूर्वक, मस्तीपूर्वक जीने के लिए तैयार कर रहा हूं। तो जब मैं अपने शरीर में न रहूंगा, उससे उनको कोई फर्क न पड़ेगा। वे तब भी उसी ढंग से जीएंगे—और हो सकता है मेरी मृत्यु उनमें और भी त्वरा ला दे। ”
”मैं सब तरह के प्रयास करता रहा हूं कि तुम अपनी निजता के प्रति, अपनी स्वतंत्रता के प्रति सचेत रहो—बिना किसी सहायता के स्वयं के विकास की परम संभावना के प्रति सजग रहो।.. मैं पूरा प्रयास कर रहा हूं कि तुम सबसे मुक्त हो जाओ—मुझसे भी मुक्त हो जाओ और खोज की यात्रा में अकेले होने में तुम समर्थ हो जाओ।. और जो ध्यान की विधियां मैंने तुम्हें दी हैं, वे मुझ पर निर्भर नहीं हैं। मेरी उपस्थिति या अनुपस्थिति से उनमें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा।…
”तो स्मरण रखो, जब मैं विदा हो चुका होऊंगा, तब तुम कुछ खोने वाले नहीं हो। शायद तुम कुछ ऐसा उपलब्ध कर पाओगे, जिसका तुम्हें बिलकुल ही कोई बोध नहीं है।…
”जब मैं विदा हो जाऊंगा, तो मैं जा कहां सकता हूं? मैं यहां ही रहूंगा—हवाओं में, सागरों में। और यदि तुमने मुझे प्रेम किया है, यदि तुमने मुझ पर भरोसा किया है, तो तुम मुझे हजारों रूपों में अनुभव करोगे। अपने मौन क्षणों में अचानक तुम मेरी उपस्थिति को अनुभव करोगे।
”एक बार मैं देहमुक्त हुआ कि मेरी चेतना विश्वव्यापी हो जाएगी। अभी तुम्हें मेरे पास आना पडता है, तब तुम्हें मुझे खोजने और ढूंढने की जरूरत नहीं रहेगी। तुम जहां कहीं भी हो, तुम्हारी प्यास, तुम्हारा प्रेम—और तुम मुझे अपने हृदय में पाओगे, अपने हृदय की धडकन में ही पाओगे। ”
” अस्तित्व में मेरा भरोसा और मेरी आस्था समग्र है। जो मैं कह रहा हूं उसमें यदि कोई भी सत्य है तो वह पीछे जीवित बचेगा। जो लोग मेरे कार्य में उत्सुक बने रहेंगे वे बस मशाल को आगे ले चल रहे होंगे, बिना किसी पर कुछ थोपते हुए—न तलवार (बल प्रयोग ) के जरीए, न ब्रेड (लोभ प्रयोग ) के जरीए। मैं अपने लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहूंगा, और ऐसा अधिकांश संन्यासी अनुभव करेंगे। मैं चाहता हूं कि वे स्वयं ही विकसित हों.. ऐसे सद्गुण जैसे प्रेम—जिसके आसपास कोई चर्च—मंदिर—मस्जिद अथवा धर्म खड़ा नहीं किया जा सकता; जैसे जागरूकता—जिस पर किसी का एकाधिकार नहीं है; जैसे उत्सव, उल्लासमयता, और शिशु जैसी ताजी और निर्दोष आंखें बरकरार रखना। मैं चाहता हूं कि लोग स्वयं को जानें—किसी और के अनुसार न बनें; और इसका मार्ग है—भीतर। ”
”मेरे संबंध में कभी भी अतीत काल में बात मत करना। प्रताड़ित शरीर के बोझ से मुक्त होकर मेरी उपस्थिति कई गुना बढ़ जाएगी। मेरे लोगों को याद दिलाना कि वे अब मुझे और भी अधिक महसूस करेंगे—और वे इसे तत्‍क्षण पहचान जाएंगे। ”
” अब जब मैं अपना शरीर छोड़ रहा हूं और बहुत से लोग आएंगे, बहुत—बहुत से और लोगों का रस जगेगा। और मेरा कार्य इतने अविश्वसनीय रूप से बढ़ेगा, जिसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। ”


Sunday 18 January 2015

मृत्यु ही जीवन को पाने का द्वार है। और जो मरने को राजी है, वही मुक्त हो सकता है। जिसकी तैयारी है मिटने की, उसे स्वतंत्रता का आकाश मिल जाएगा। इससे कम में सौदा नहीं होगा। और इससे कम में जो सौदा करना चाहता है वह धोखे में पड़ेगा। वह धोखा अपने को ही दे रहा है।
परमात्मा को पाना हो…और परमात्मा यानी मुक्ति; परमात्मा यानी मोक्ष; परमात्मा यानी परम स्वतंत्रता; तो तुम बचे हुए उसे न पा सकोगे। तुम खो जाओ तो ही वह मिलेगा। तुम मिट जाओ तो ही वह महामिलन घट सकता है।
जहां हम हैं, वहां लोग आते हैं और जाते हैं; रहता वहां कोई भी नहीं। यह घर नहीं है, यह पड़ाव है। यह मंजिल नहीं है। यहां क्षणभर को हम विश्राम करने रुके हों तो ठीक है। और अगर हमने यही समझ लिया हो कि यह घर है तो हम भटक गये। झाड़ के नीचे कोई यात्री रुक गया हो छाया में थोड़ी देर यात्रा के कष्ट से बचने को, समझ में आता है; लेकिन छाया में रम जाए और भूल ही जाए कि किस तरफ चला था, क्या खोजने चला था, वहीं घर बना ले, तो भटक गया।
संसार एक पड़ाव है; और पड़ाव पर कभी शांति नहीं हो सकती। थोड़ी देर विश्राम हो सकता है, लेकिन आनंद नहीं हो सकता। और विश्राम का तो इतना ही अर्थ है कि फिर हम श्रम करने को तैयार हुए, फिर यात्रा के लिये पैर तैयार हैं। विश्राम का और कोई अर्थ नहीं है। विश्राम तो बीच की एक कड़ी है। यह कोई लक्ष्य नहीं है, वह कोई सिद्धि नहीं है। कोई बड़ी यात्रा चल रही है। और उस बड़ी यात्रा में हम अपने घर से भटक गये हैं। और जहां भी अपने को पाते हैं, बेघर पाते हैं।

Saturday 17 January 2015

ध्यान की साधना तो कठिन है, लेकिन असंभव नहीं; पर ध्यान की अभिव्यक्ति असंभव है। ध्यान करना आसान है। ध्यान क्या है, यह बताना अति कठिन है; करीब-करीब असंभव। क्योंकि ध्यान इतनी भीतरी अनुभूति है, शब्द उसे प्रगट नहीं कर पाते। और जो भी शब्दों में उसे प्रगट करने की कोशिश करता है, वह अनुभव करता है कि जो कहना चाहता था, वह नहीं कहा गया। जो नहीं कहना था, वह शब्दों से प्रगट हो गया। जो कहना था वह भीतर छूट गया। खाली कोरे शब्द चले गए–मुर्दा! निष्प्राण!
ध्यान कर लेना इतना कठिन नहीं, लेकिन ध्यान से जो जाना जाता है वह उसे बता देना, जिसने कभी ध्यान न किया हो; करीब-करीब असंभव है।
भारत की ध्यान की परंपरा अति प्राचीन है। इतिहास के पार जाती है यात्रा; प्रागैतिहासिक है। मोहनजोदड़ो, हरप्पा जैसे पुराने अवशेष, वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई सात हजार वर्ष पुराने हैं। वहां भी मूर्तियां मिली हैं, जो ध्यानस्थ हैं। सात हजार साल पहले भी हरप्पा और खजुराहो में कोई न कोई ध्यान कर रहा था।
फिर बोधिधर्म को भारत में कोई मिल क्यों न सका ग्राहक, खरीददार? परंपरा इतनी पुरानी हो गई, और शब्द इतने रटे-रटाये हो गए, और शास्त्र इतने कंठस्थ हो गए, कि लोग ध्यान के संबंध में तो जानने लगे, ध्यान को भूल गए। और ध्यान के संबंध में जानना एक बात, ध्यान को जानना बिलकुल दूसरी बात।
प्रेम के संबंध में जानना एक बात, और प्रेम को जानना बिलकुल दूसरी बात। आप पंडित भी हो सकते हैं, प्रेम के संबंध में सारा शास्त्र पढ़ डालें। प्रेम पर शोधकार्य भी कर सकते हैं। कोई विश्वविद्यालय आपको डी. लिट. की डिग्री भी दे दे, लेकिन प्रेम करना बात और है; क्योंकि प्रेम करने में तो मिटना होता है। प्रेम तो बड़ी खतरनाक यात्रा है। वहां तो अहंकार समाप्त होता है। वहां तो बूंद खोती है सागर में।
प्रेम तो इस जगत में असंभव जैसी घटना है क्योंकि वहां आप कम महत्वपूर्ण और दूसरा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। वहां आपकी आत्मा जैसे दूसरे में समा जाती है। जैसे उसका जीवन आपका जीवन, उसकी मृत्यु आपकी मृत्यु हो जाती है। यह असंभव घटना है। दूसरे का साधन की तरह उपयोग नहीं, साध्य की तरह उपयोग–असंभव है। तो प्रेम तो बहुत कठिन है। प्रेम के संबंध में जानना बहुत आसान है। शास्त्र खरीदे जा सकते हैं। सिद्धांत कंठस्थ हो सकते हैं।

Friday 16 January 2015

अगर मुझे सुनकर तुम्हारे भीतर मस्ती न आए, तो तुमने सिर्फ मेरे शब्द सुने, मुझे नहीं सुना। अगर तुम्हारे भीतर मस्ती आ जाए, तुम यहा से चलते वक्त डगमगाते लौटो, थोड़ी बेखुदी आ जाए, बेखुद होकर लौटो—मस्ती यानी अहंकार थोड़ा क्षीण हो;मस्ती यानी थोड़ी तरलता आए, बर्फ थोड़ी पिघले, बहाव आए; मस्ती यानी जीवन में और भी अर्थ हो सकते हैं जो तुमने नहीं खोजे, इनकी थोड़ी खबर आए कि जिंदगी जीने का कोई और ढंग भी हो सकता है, कि दुकान और बाजार पर जिंदगी समाप्त नहीं है, कि धन और पद पर जीवन की इति नहीं है, कि यहा और भी आकाश हैं उड़ने को, कि और भी मुकाम हैं पहुंचने को, ऐसी जब तुम्हारे भीतर थिरक आएगी तो नशा मालूम होगा। शुभ हो रहा है। इसी नशे के पैदा हो जाने को मैं मानता हूं कि आदमी संन्यास के लिए पात्र हुआ। इन्हीं नशेलचियो के लिए संन्यास है। ठीक तुम्हारे लिए। और यहा कोई कसौटी नहीं है।
मैं तुम से यह नहीं कहता कि संन्यासी के लिए पहले तुम्हें उपवास करना पड़े, तप करना पड़े, जप करना पड़े; मैं तुम से यह भी नहीं कहता कि संन्यासी के लिए तुम्हें इस—इस तरह का आचरण करना पड़े, इस—इस तरह का चरित्र होना चाहिए, मैं इन क्षुद्र बातो मे जरा भी नहीं उलझा हूं। मगर एक बात तो चाहिए ही, परमात्मा को पाने का नशा तो चाहिए ही। उसे नहीं छोड़ा जा सकता। उसके पीछे सब चला आएगा। जिसके भीतर परमात्मा को पाने की आकांक्षा जग गई, उसके भीतर से क्षुद्र बातें अपने आप गिर जाएंगी। क्योंकि जब कोई हीरे लेने चलता है तो पत्थरों को नहीं सम्हालता, छोड़ देता है। और जब किसी के घर में कोई बड़ा मेहमान आने को होता है तो वह घर की तैयारी करता है, स्वच्छता करता है, घर को पवित्र करता है, यह सब स्वाभाविक है। इसकी मैं चिंता ही नहीं लेता। मैं तो कहता हूं—पहले उस बड़े मेहमान को बुलाओ।
तुम से दूसरे लोग कहते रहे हैं कि घर शुद्ध करो, मैं कहता हूं पहले मेहमान को निमंत्रित करो;घर की शुद्धि तो बड़ी गौण बात है। वह तुम कर ही लोगे, उसकी चिंता मुझे लेने की जरूरत नहीं। जब तुम देखोगे कि परमात्मा करीब आने लगा, तुम अचानक पाओगे तुम्हारे चरित्र में रूपांतरण शुरू हो गया। अब तुम बहुत सी बातें नहीं करते हो, जो करते थे कल तक। और तुमने उन्हें रोका भी नहीं है, मगर करना बंद हो गया है, क्योंकि अब प्रभु करीब आ रहा है, उसके योग्य बनना है, रोज—रोज उसके योग्य बनना है, सिंहासन बनना है उसका;तो अब छुद्र बातें नहीं की जा सकतीं। यह बोध से ही रूपांतरण हो जाता है। उसके लिए कोई चेष्टा अनुशासन, जबर्दस्ती आग्रहपूर्वक, व्रत—नियम इत्यादि नहीं लेने होते।

Thursday 15 January 2015

शुभ का कोई संबंध नीति से नहीं है। नीतियां अनेक हैं, शुभ एक है। हिंदू की नीति एक, मुसलमान की नीति दूसरी, जैन की नीति तीसरी। इसलिए नीतियां तो मान्यताएं है। बदलती रहती हैं। उनका कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। जो कल अनैतिक था, आज नैतिक हो सकता है। जो आज नैतिक है, कल अनैतिक हो जाएगा।
जैसे, महाभारत युधिष्ठिर को धर्मराज कहता है, और धर्मराज जूआ खेलने में जरा भी संकोच अनुभव नहीं करते। जूआ अनैतिक नहीं था। उन दिनों जूआ नैतिक था। धर्मराज के धर्मराज होने में जूआ खेलने से कोई बाधा नहीं आती। और छोटे—मोटे जूआरी भी न रहे होंगे, सब लगा दिया—सब ही नहीं लगा दिया, पत्नी भी लगा दी।
पत्नी कोई संपत्ति नहीं है, पत्नी के पास उतनी ही आत्मा है जितनी पति के पास। किसी को कोई हक नहीं है कि पत्नी को या पति को दाव पर लगा दे। दाव पर लगाने का मतलब है कि पत्नी के बेचने का हक था। इस देश में तो लोग ही कहते है—स्त्री—संपत्ति। यह बड़ी अनैतिक बात है आज। आज धर्मराज को धर्मराज कहना बहुत मुश्किल होगा। अगर धर्मराज धर्मराज हैं तो फिर अधर्मराज कौन? यह बात ही बेहूदी है, असंस्कृत है, पर उस दिन स्वीकार थी, कोई अड़चन न थी।
आज जो नैतिक है, कल अनैतिक हो जाएगा। नीति बदलती है। इसलिए नीति के साथ शुभ को एक मत समझ लेना। शुभ शाश्वत है। शुभ न हिंदू का, न मुसलमान का, न जैन का, न ईसाई का, शुभ तो परमात्मा से संबंधित होने का नाम है। शुभ सासारिक धारणा नहीं है, न सामाजिक धारणा है। शुभ तो अंतस—छंद की प्रतीति है। शांडिल्य से पूछो, या अष्टावक्र से, या मुझ से, उत्तर यही होगा कि जिस बात से तुम्हारे भीतर के छंद में सहयोग मिले, वह शुभ। और जिस बात से तुम्हारे भीतर के छंद में बाधा पड़े, वह अशुभ। जिससे तुम्हारा अंतस गीत बढ़े वह शुभ, जिससे तुम्हारा अंतस गीत छिन्न—छिन्न हो, खंडित हो, वह अशुभ। जिससे तुम समाधि के करीब आओ, वह शुभ, और जिससे तुम समाधि से दूर जाओ, वह अशुभ। कसौटी भीतर है, कसौटी बाहर नहीं है।

Wednesday 14 January 2015

जब तक तुम सोचते हो, गलत ही सोचोगे। सोचना मात्र गलत है। जब तक ‘तुम’ सोचोगे, तब तक गलत सोचोगे क्योंकि मैं की अवधारणा ही गलत है।
तुम जोखम भी नहीं लेना चाहते, तुम पाने को भी आतुर हो, और तुम कोई खतरा नहीं उठाना चाहते। तुम कहते हो—क्या यह संभव है कि मैं बगैर संन्यास लिए आपका शिष्य रह सकूं? मेरी तरफ से कोई अड़चन नहीं है, अड़चनें तुम्हारी तरफ से आएंगी। मेरी तरफ से क्या अड़चन है, तुम मजे से शिष्य रहो, विद्यार्थी रहो, कोई भी न रहो, मेरी तरफ से कोई अड़चन नहीं है। मेरी तरफ से तुम मुक्त हो। अड़चन तुम्हारी तरफ से आएगी—तुम बिना संन्यासी हुए शिष्य रहना चाहते हो, अड़चन शुरू हो गयी। इसका मतलब यह हुआ कि मेरे बिना पास आए पास आना चाहते हो। कैसे यह होगा? पास आओगे तो संन्यास फलित होगा। संन्यास से बचना है तो दूर—दूर रहना होगा, थोड़े फासले पर बैठना होगा। थोड़ी गुंजाइश रखनी होगी। कहीं ज्यादा पास आ जाओ और मेरे रंग में रंग जाओ, यह डर तो बना ही रहेगा न! मेरी बात भी सुनोगे तो भी दूर खड़े होकर सुनोगे, कि कितनी लेनी और कितनी नहीं लेनी। चुनाव करने वाले तुम ही रहोगे। और काश! तुम्हें पता होता कि सत्य क्या है तब तो मेरी बात भी सुनने की क्या जरूरत थी! तुम्हे सत्य का कुछ पता नहीं। तुम चुनाव करोगे, तुम्हारे असत्य ही उस चुनाव में आधारभूत होंगे। वही तुम्हारी तराजू होगी, उसी पर तुम तौलोगे;और सदा तुम डरे भी रहोगे कि कहीं ज्यादा पास न आ जाऊं, कहीं इन और दूसरे गैरिक वस्त्रधारियों की तरह मैं भी सम्मोहित न हो जाऊं—मुझे तो संन्यासी नहीं होना है, मुझे तो सिर्फ शिष्य रहना है।
शिष्य का मतलब समझते हो?
शिष्य का मतलब होता है—जो सीखने के लिए परिपूर्ण रूप से तैयार है।परिपूर्ण रूप से तैयार है। फिर संन्यास घटे कि मौत घटे, फिर शर्त नहीं बांधता। वह कहता है—जब सीखने ही चले, तो कोई शर्त न बाधेगे। फिर जो हो। अगर सीखने के पहले ही निर्णय कर लिया है कि इतना ही सीखेंगे, इससे आगे कदम न बढ़ाके, तो तुम अपने अतीत से छुटकारा कैसे पाओगे? तुम अपने व्यतीत से मुक्त कैसे होओगे? तो तुम्हारा अतीत तुम्हे अवरुद्ध रखेगा।

Tuesday 13 January 2015

किरलियान फोटोग्राफी में जब कोई व्‍यक्‍ति संकल्‍प करता है उर्जा का तो वर्तुल बड़ा हो जाता है। फोटोग्राफी में वर्तुल बड़ा आ जाता है। जब आप घृणा से भरे होते है, जब आप क्रोध से भरे होते है तब आपके शरीर से उसी तरह की ऊर्जा के गुच्‍छे निकलते है, जैसे मृत्‍यु में निकलते है। जब आप प्रेम से भरे होते है तब उल्‍टी घटना घटती है। जब आप करूणा से भरे होते है तब उल्‍टी घटती है। इस विराट ब्रह्मा से आपकी तरफ उर्जा के गुच्‍छे प्रवेश करने लगते है। आप हैरान होंगे यह बात जानकर कि प्रेम में आप कुछ पाते है, क्रोध में कुछ देते है। आमतौर से प्रेम में हमें लगता है कि कुछ हम देते है और क्रोध में लगता है हम कछ छीनते है। प्रेम में हमें लगता है कुछ हम देते है, लेकिन ध्‍यान रहे,प्रेम में आप पाते है। करूणा में आप पाते है, दया में आप पाते है। जीवन ऊर्जा आपकी बढ़ जाती है। इसलिए क्रोध के बाद आप थक जाते है और करूणा के बाद आप और सशक्‍त, स्‍वच्‍छ, ताजे हो जाते है। इसलिए करूण वान कभी भी थकता नहीं। क्रोधी थका ही जीता है।

किरलियान फोटोग्राफी के हिसाब से मृत्‍यु में जो घटना घटती है। वह छोटे अंश में क्रोध में घटती है। बड़े अंश में मृत्‍यु में घटती है, बहुत ऊर्जा बाहर निकलने लगती है। किरलियान ने एक फूल का चित्र लिया है जो अभी डाली से लगा है। उसके चारों तरफ ऊर्जा का जीवंत वर्तुल है। और विराट से, चारों और से ऊर्जा की किरणें फूल में प्रवेश कर रही है। ये फोटोग्राफ अब उपलब्ध है। देखे जा सकते है। और अब तो किरलियान का कैमरा भी तैयार हो गया है, वह जल्‍दी उपलब्‍ध हो जाएगा। उसके फूल को डाली से तोड़ लिया फिर फोटो लिया। तब स्‍थिति बदल गई। वे जो किरणें प्रवेश कर रही थीं। वे वापस लौट रही है। एक सेकेंड का फासला, डाली से टूटा फूल। घंटे भर से ऊर्जा बिखरती चली जाती है। जब आपकी पंखुडियां सुस्‍त होकर ढल जाती है। वह वही क्षण है जब ऊर्जा निकलने के करीब पहुंचकर पूरी शून्‍य होने लगती है।

Monday 12 January 2015

सोना एक मात्र धातु है जो सर्वाधिक रूप से प्राण ऊर्जा को अपनी तरफ आकर्षित करता है। और यही सोने का मुल्‍य है, अन्‍यथा कोई मुल्‍य नहीं है। इसलिए पुराने दिनों में, कोई दस हजार साल पुराने रिकार्ड उपलब्ध है, जिनमें सम्राटों ने प्रजा को सोना पहनने की मनाही कर रखी थी। कोई आदमी दूसरा सोना नहीं पहन सकता था। सिर्फ सम्राट पहन सकता था। उसका राज था कि वह सोना पहनकर दूसरे लोगों को सोना पहनना रोककर ज्‍यादा जी सकता था। लोगों की प्राण ऊर्जा को अनजाने अपनी तरफ आकर्षित कर सकता था। जब आप सोने को देखते है। तो सिर्फ सोने को देखकर आकर्षित नहीं होते, आपकी प्राण ऊर्जा सोने की तरफ बहनी शुरू हो जाती है। इसलिए आकर्षित होते है। इसलिए सम्राटों ने सोने का बड़ा उपयोग किया और आम आदमी को सोना पहनने की मनाही कर दी गई था। कि कोई आदमी सोना नहीं पहन सकता है।
सोना सर्वाधिक खींचता है प्राण ऊर्जा को। यही उसके मूल्‍य का राज है अन्‍यथा…..अन्‍यथा कोई राज नहीं है। इस पर खोज चलती है। संभावना है कि बहुत शीध्र जो प्रेशियन स्‍टोन से, जो कीमती पत्‍थर है, उनके भीतर भी कुछ राज छिपे मिलेंगे। जो बता सकेंगे कि वे या तो प्राण ऊर्जा को खींचते है, या अपनी प्राण ऊर्जा ने खींची जा सके, इस लिए कोई रेजिस्टेंस खड़ा करते है। आदमी की जानकारी अभी बहुत कम है। लेकिन जानकारी कम हो या ज्‍यादा, हजारों साल से जितनी जानकारी है उसके आधार पर बहुत काम किया जाता रहा है। और ऐसा भी प्रतीत होता है कि शायद बहुत सी जानकारियाँ खो गई है।

Sunday 11 January 2015

मृत्‍यु मनुष्‍य के जीवन में इतनी बड़ी घटना है कि बाकी जीवन में जो भी घटता है वो उसके सामन तुच्‍छ हो जाता है, बोना हो जाता है। फिर भी क्‍यों मनुष्‍य मृत्‍यु की इस घटना को जान नहीं पाता,समझ नहीं पाता, उसमें खड़ा हो नहीं पाता। क्‍या कारण है मनुष्‍य पूरे जीवन में सब प्रकार की तैयारी करता है पर उस महत्‍वपूर्ण घटना से साक्षात्‍कार नहीं कर पाता उसे ग्रहण नहीं कर पाता उससे आँख चुराता है। अभी कुछ दिनों पहले किरलियान फोटोग्राफी ने मनुष्‍य के सामने कुछ वैज्ञानिक तथ्‍य उजागर किये है। किरलियान ने मरते हुए आदमी के फोटो लिए, उसके शरीर से ऊर्जा के छल्‍ले बहार लगातार विसर्जित हो रहे थे, और वो मरने के तीन दिन बाद तक भी होते रहे। मरने के तीन दिन बाद जिसे हिन्‍दू तीसरा मनाता है। अब तो वह जलाने के बाद औपचारिक तौर पर उसकी हड्डियाँ उठाना ही तीसरा हो गया। यानि अभी जिसे हम मरा समझते है वो मरा नहीं है। आज नहीं कल वैज्ञानिक कहते है तीन दिन बाद भी मनुष्‍य को जीवित कर सकेगें। और एक मजेदार घटना ओर किरलियान के फोटो में देखने को मिली। की जब आप क्रोध की अवस्‍था में होते हो तो तब वह ऊर्जा के छल्‍ले आपके शरीर से निकल रहे होत है। यानि क्रोध भी एक छोटी मृत्‍यु तुल्‍य है।

भारतीय योग तो हजारों साल से कहता आया है कि मनुष्‍य के स्थूल शरीर कोई भी बिमारी आने से पहले आपके सूक्ष्‍म शरीर में छ: महा पहले आ जाती है। यानि छ: महा पहले अगर सूक्ष्म शरीर पर ही उसका इलाज कर दिया जाये तो बहुत सी बिमारियों पर विजय पाई जा सकती है। इसी प्रकार भारतीय योग कहता है कि मृत्‍यु की घटना भी अचानक नहीं घटती वह भी शरीर पर छ: माह पहले से तैयारी शुरू कर देती है। पर इस बात का एहसास हम क्‍यों नहीं होता। पहली बात तो मनुष्‍य मृत्‍यु के नाम से इतना भयभीत है कि वह इसका नाम लेने से भी डरता है। दूसरा वह भौतिक वस्तुओं के साथ रहते-रहते इतना संवेदन हीन हो गया है कि उसने लगभग अपनी अतीद्रिय शक्‍तियों से नाता तोड़ लिया है। वरन और कोई कारण नहीं है। पृथ्‍वी को श्रेष्‍ठ प्राणी इतना दीन हीन। पशु पक्षी भी उससे अतीद्रिय ज्ञान में उससे कहीं आगे है। साइबेरिया में आज भी कुछ ऐसे पक्षि है जो बर्फ गिरने के ठीक 14 दिन पहले वहां से उड़ पड़ते है। न एक दिन पहले न एक दिन बाद। जापन में आज भी ऐसी चिडिया पाई जाती है। जो भुकम्‍पके12घन्‍टे पहले वहाँ से गाय हो जाती है। और भी ने जाने कितने पशु पक्षि है जो अपनी अतीन्द्रिय शक्‍ति के कारण ही आज जीवित है।

Saturday 10 January 2015

अल्‍बर्ट आइंस्टीन ने खोज की और निश्‍चित ही यह सही होगी, क्‍योंकि अंतरिक्ष के बारे में इस व्‍यक्‍ति ने बहुत कठोर परिश्रम किया था। उसकी खोज बहुत गजब की है। उसने स्‍वयं ने कई महीनों तक इस खोज को अपने मन में रखी और विज्ञान जगत को इसकी सूचना नहीं दी क्‍योंकि उसे भय था कि कोई उस पर विश्‍वास नहीं करेगा। खोज ऐसी थी कि लोग सोचेंगे कि वह पागल हो गया है। परंतु खोज इतनी महत्‍वपूर्ण थी की उसने अपनी बदनामी की कीमत पर जग जाहिर करने का तय किया।

परंतु गुरुत्वाकर्षण के बाहर होने की अनुभूति ध्‍यान में भी पाई जा सकती है—ऐसा होता है। और यह कई लोगों को भटका देती है। अपनी बंद आँखो के साथ जब तुम पूरी तरह से मौन हो तुम गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो। परंतु मात्र तुम्‍हारा मौन गुरुत्वाकर्षण के बाहर है, तुम्‍हारा शरीर नहीं। परंतु उस क्षण में जब तुम अपने मौन से एकाकार होते हो, तुम महसूस करते हो कि तुम ऊपर उठ रहे हो। इसे योग में ‘’हवा में उड़ना’’ कहते है।
और बिना आंखे खोले तुम्‍हें लगेगा कि यह मात्र लगता ही नहीं बल्‍कि तुम्‍हारा शरीर मौन गुरुत्वाकर्षण के बाहर है—यक सच्‍चा अनुभव है। परंतु अभी भी तुम शरीर के साथ एकाकार हो। तुम महसूस करते हो कि तुम्‍हारा शरीर उठ रहा है। यदि तुम आँख खोलोगे तो पाओगे कि तुम उसी आसन में जमीन पर बैठे हो।

Friday 9 January 2015

अगर कोई भी शरीर किसी गहरी रिसेप्‍टिव हालत में हो, और दो तरह से शरीर-दूसरे लोगों के शरीर-ग्राहक अवस्‍था में होते है। या तो बहुत भयभीत अवस्‍था में। जितना भयभीत व्‍यक्‍ति होगा, उसकी खुद की आत्‍मा उसके शरीर में भीतर सुकड़ जाती है। मतलब शरीर के बहुत से हिस्‍सों को छोड़ देती है खाली। उन खाली जगहों में पास-पड़ोस की कोई भी आत्‍मा ऐसे गह सकती है जैसे गड्ढे में पानी बह जाता है। तब इसको जो अनुभव होते है वे ठीक वैसे ही हो जाते है जैसे शरीर धारी आत्‍मा को होते है। या बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में कोई आत्‍मा प्रवेश कर सकती है। बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में भी आत्‍मा सिकुड़ जाती है।
लेकिन भय कि अवस्‍था में केवल वे ही आत्‍माएं सरक कर भीतर प्रवेश कर सकती है जो दुःख-स्‍वप्‍न देख रही हो। जिन्‍हें हम बुरी आत्‍माएं कहें। वे प्रवेश कर सकती है। क्‍योंकि भयभीत व्‍यक्‍ति बहुत ही कुरूप और गंदी स्‍थिति में है। उसमें कोई श्रेष्‍ठ आत्‍मा प्रवेश नहीं कर सकती। और भयभीत व्‍यक्‍ति गड़े की भांति है। जिसमें नीचे उतरने वाली आत्‍माएं ही प्रवेश कर सकती है।
प्रार्थना से भरा हुआ व्‍यक्‍ति शिखर की भांति है, जिसमें सिर्फ ऊपर चढ़ने वाली आत्‍माएं प्रवेश कर सकती है। और प्रार्थना से भरा हुआ व्‍यक्‍ति इतनी आंतरिक सुगंध से और सौंदर्य से भरा हुआ होता है कि उनका रस तो केवल बहुत श्रेष्‍ठ आत्‍माएं को हो सकता है। वे भी निकट में है। तो जिनको इनवोकेशन कहते है, आह्वान कहते है। प्रार्थना कहते है। उसमे भी प्रवेश होता है। लेकिन श्रेष्‍ठतम आत्‍माएं का। उस समय अनुभव ठीक वैसे ही हो जाते है जैसे कि शरीर में हुए, इन दोनों अवस्‍थाओं में।

Thursday 8 January 2015

पहली तो बात गति और स्‍थिरता विरोधी नहीं है। गति और स्‍थिरता एक ही चीज की तारतम्‍यताएं है। जिसको हम स्‍थिरता कहते है। वह ऐसी गति है। जो हमारी पकड़ में नहीं आती। जिसको हम गति कहते है वह भी ऐसी स्‍थिरता है जो हमारे ख्‍याल में नहीं आती। तो पहली तो बात गति और स्‍थिरता दो विरोधी चीजें नहीं है। बहुत तीव्र गति हो तो भी स्‍थिर मालूम होगी।

उस जगत में जहां शरीर नहीं है। दोनों नहीं होंगी। क्‍योंकि जहां शरीर नहीं है वहां स्‍पेस भी नहीं है। टाइम भी नहीं है। जैसा हम जानते है, ऐसा कोई स्‍थान भी नहीं है। कोई समय भी नहीं है। समय और स्‍थान के बाहर किसी भी चीज को सोचना हमें अति कठिन है। क्‍योंकि हम ऐसी कोई चीज नहीं जानते जो समय और स्‍थान के बाहर हो।
तो वहां क्‍या होगा अगर दोनों नहीं है तो?
तो हमारे पास कोई शब्‍द नहीं है, जो कहे कि वहां क्‍या होगा। जब पहली दफा धर्म के अनुभव में उस स्‍थिति की खबरें आनी शुरू हुई तब भी यह कठिनाई खड़ी हुई। कहें क्‍या? ऐसे ठीक समानांतर उदाहरण विज्ञान के पास भी है। जहां कठिनाई खड़ी हो गई है कि क्‍या कहें? जब भी हमारी धारणाओं से भिन्‍न कोई स्‍थिति का अनुभव होता है तो बडी कठिनाई खड़ी होती है।

Wednesday 7 January 2015

अगर मैं देखता हूं कि आप दिखाई पड़ते है, और छूता हूं और छूने में नहीं आते। तो मैं कहता हूं कि फैंटम है। है नहीं आदमी। वह टेबल में छूता हूं, और छूने में नहीं आती। और मेरा हाथ उसके आर पार चला जाता है। तो मैं कहता हूं कि सब झूठ है। मैं किसी भ्रम में पड़ गया हूं, कोई हैलूसिनेशन है। आपके यथार्थ की कसौटी आपकी इंद्रियों के प्रमाण है। तो एक शरीर छोड़ने के गाद और दूसरा शरीर लेने के बीच इंद्रियाँ तो आपके पास नहीं होती। शरीर आपके पास नहीं होता। तो जो भी आपको प्रतीतियां होती है। वे बिलकुल स्‍वप्‍नवत है—जैसे आप स्‍वप्‍न देख रहे है।
जब आप स्‍वप्‍न देखते है तो स्‍वप्‍न बिलकुल ही यथार्थ मालूम होता है, स्‍वप्‍न में कभी संदेह नहीं होता। यह बहुत मजे की बात है। यथार्थ में कभी-कभी संदेह हो जाता है। स्‍वप्‍न में कभी संदेह नहीं होता। स्‍वप्‍न बहुत श्रद्धावान है। यथार्थ में कभी-कभी ऐसा होता है। जो दिखाई पड़ता है, वह सच में है या नहीं। लेकिन स्‍वप्‍न में ऐसा कभी नहीं होता कि जो दिखाई पड़ रहा है वह सच में है या नहीं। क्‍यों? क्‍योंकि स्‍वप्‍न इतने से संदेह को सह न पाएगा, वह टूट जाएगा, बिखर जाएगा।

Monday 5 January 2015

अगर कोई व्‍यक्‍ति बुद्धि से जीता है तो वह आक्रामक होता है। बुद्धि आक्रामक होती है। सूर्य ऊर्जा आक्रामक होती है। इसीलिए हमने कभी नहीं सुना कि किसी स्‍त्री ने किसी पुरूष का बलात्‍कार किया हो। यह असंभव है। केवल पुरूष ही स्‍त्री का बलात्‍कार कर सकता है। सूर्य ऊर्जा आक्रामक होती है। चंद्र-ऊर्जा ग्राहक होती है। बुद्धि आक्रामक होती है; अंतर्बोध ग्राहक होती है। अगर तुममें ग्राहकता है, ग्रहण करने की क्षमता है, तो अंतर्बोध से जुड़ जाओगे। फिर वह चीजें दिखाई पड़ने लगती है। जिन्‍हें एक बुद्धि से जीने वाला व्‍यक्‍ति कभी नहीं देख सकता।, क्‍योंकि वह खुला हुआ नहीं है।
और मजेदार बात बुद्धि से जीने वाला व्‍यक्‍ति उन्‍हीं की खोज में होता है, और अंतर्बोध वाला आदमी उनकी तलाश में नहीं होता। लेकिन फिर भी उन्‍हें देख कसता है। सच तो यह है, सभी बड़े-बड़े आविष्‍कार बौद्धिक लोगों से ही संपन्‍न होते है। लेकिन वे आविष्‍कार तभी संभव हो सकते है जब वे अंतर्बोध की भाव दशाओं में होते है। बड़े-बड़े आविष्‍कार अंतर्बोध से संचालित लोगों के द्वारा नहीं हो पाते है। क्‍योंकि उन्‍हें उनकी खोज नहीं होती। अगर वे उसके निकट भी आ जाएं, अगर वे उनके ठीक सामने भी आ जाएं, तो भी वे उनको भूल जाते है।
पुरूषों के लिए बुद्धि से जीना आसान होता है, क्‍योंकि बुद्धि भी उसी दिशा में गति करती है। जिसमे आक्रामकता, तार्किकता गति करती है। स्‍त्रियां अधिक अंतर्बोध से जीती है। वे अपनी अंतस प्रेरणा से जीती है। स्‍त्रियां तुरंत निर्णय ले लेती है। इसी लिए किसी भी स्‍त्री के साथ तर्क करना बहुत कठिन है। वह पहले से ही निर्णय पर पहुंच जाती है। तर्क करने की कोई जगह ही नहीं बचती। स्‍त्री के साथ तर्क करना अपना समय नष्‍ट करना है। वह हमेशा पहले से ही जानती है कि अंतिम परिणाम क्‍या होने वाला है। वह तो केवल परिणाम की घोषणा की प्रतीक्षा में रहती है। तुम किसी भी ढंग से स्‍त्री से तर्क करो…..सब व्‍यर्थ वाला है। वह पहले से ही परिणाम के संबंध में सुनिश्‍चित होती है।

Sunday 4 January 2015

पतंजलि कहते है, ‘’स्‍वार्थ परम ज्ञान ले आता है।‘’
स्‍वार्थ। स्‍वार्थी हो जाओ, यही है धर्म का वास्‍तविक मर्म, यह जानने का प्रयास करो कि तुम्‍हारा वास्‍तविक स्‍वार्थ क्‍या है। स्‍वयं को दूसरों से अलग पहचानने का प्रयास करो—परार्थ, दूसरों से अलग। और यह मत सोचना कि जो लोग तुम से अलग है, बहार है, वहीं दूसरे है। वे तो दूसरे है ही। लेकिन तुम्‍हारा शरीर भी दूसरा है। एक दिन तुम्‍हारा शरीर भी मिट्टी में मिल जायेगा। शरीर भी इस पृथ्‍वी का अंश है। तुम्‍हारी श्‍वास भी तुम्‍हारी नहीं है। वह भी दूसरों के द्वारा दी हुई है; वह हवा में वापस लौट जायेगी। बस कुछ थोड़े समय के लिए ही तुम्‍हें श्‍वास दी गयी है। वह श्‍वास उधार मिली हुई है। तुम्‍हें उसे लौटाना ही होगा। तुम यहां नहीं रहोगे। लेकिन तुम्‍हारी श्‍वास यहीं हवाओं में रहेगी। तुम यहां नहीं रहोगे, लेकिन तुम्‍हारा शरीर पृथ्‍वी में रहेगा। मिट्टी-मिट्टी में मिल जाएगी। जिसे अभी तुम अपना रक्‍त समझते हो, वह नदियों में प्रवाहित हो रहा होगा। सभी कुछ यहीं समाहित हो जाएगा।
लेकिन एक चीज तुमने किसी से उधार नहीं ली। और वह है तुम्‍हारा साक्षी भाव, वह है तुम्‍हारी जागरूकता। बुद्धि खो जायेगी, तर्क खो जाएगा। यह सभी ऐसे ही है जैसे आकाश में बादल आते है: वे आते है और फिर चले जाते है। लेकिन आकाश वहीं का वही रहता है। तुम विराट आकाश की भांति ही बने रहोगे। वहीं अनंत विराट आकाश पुरूष है—अंतर आकाश ही पुरूष है।

Saturday 3 January 2015

तुम्‍हारी चेतना परत मात्र एक है चार परतों में। लेकिन यह तभी संभव है जब तुमने समर्पण कर दिया हो और उसे अपने गुरु के रूप में स्‍वीकार कर लिया हो, उससे पहले यह संभव नहीं है। यदि तुम मात्र एक विद्यार्थी होते हो, सीख रहे होते हो, तब तुम संपर्क में होते हो तभी गुरु संपर्क में होता है; जब तुम संपर्क में नहीं होते तब वह भी संपर्क में नहीं होता।
इस घटना को समझ लेना है। तुम्‍हारे चार मन होते है—वह परम मन जो भविष्‍य की संभावना है जिसके तुम केवल बीज लिए हुए हो। कुछ प्रस्‍फुटित नहीं हुआ; केवल बीज होते है। मात्र क्षमता होती है। फिर होता है चेतन मन—एक बहुत छोटा टुकड़ा जिसके द्वारा तुम विचार करते हो, सोचते हो, निर्णय करते हो, तर्क करते हो, संदेह करते हो, आस्‍था करते हो। वह चेतन मन गुरु के साथ संपर्क में होता है जिसे तुमने समर्पण नहीं किया है। तो जब भी यह संपर्क में होता है गुरु संपर्क में होता है। अगर यह संपर्क में नहीं, तो गुरु संपर्क में नहीं। तुम एक विद्यार्थी हो, और तुमने गुरु को गुरु के रूप में नहीं धारण किया है। तुम अब भी एक शिक्षक के रूप में ही उसके बारे में सोचते हो।
शिक्षक और विद्यार्थी चेतन मन में अस्‍तित्‍व रखते है। कुछ नहीं किया जा सकता क्‍योंकि तुम खुले हुए नहीं हो। तुम्‍हारे दूसरे तीनों द्वार बंद है। परम चेतना मात्र एक बीज है। तुम इसके द्वार नहीं खोल सकते।

Friday 2 January 2015

अब मैं तुम्‍हें तुम्‍हारे अस्‍तित्‍व की एक परम आधारभूत यौगिक संरचना के बारे में बताता हूं।
जैसे कि भौतिकविद सोचते है कि यह सब और कुछ नहीं बल्‍कि इलेक्ट्रॉन, विद्युत-उर्जा से निर्मित है। योग की सोच है कि यह सब और कुछ नहीं वरन ध्‍वनि-अणुओं से निर्मित है। अस्‍तित्‍व का मूल तत्‍व, योग के लिए ध्‍वनि है। क्‍योंकि जीवन और कुछ नहीं बल्‍कि एक तरंग है। जीवन और कुछ नहीं बल्‍कि ध्‍वनि की एक अभिव्‍यक्‍ति है। ध्‍वनि से हमारा आगमन होता है और पुन: हम ध्‍वनि में विलीन हो जाते है। मौन, आकाश, शून्‍यता, अनस्‍तित्‍व, तुम्‍हारा अंतर्तम केंद्र,चक्र की धुरी है। जब तक कि तुम उस मौन, उस आकाश तक न आ जाओ, जहां तुम्‍हारे शुद्ध अस्‍तित्‍व के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं बचता,मुक्‍ति उपलब्‍ध नहीं होती। यह योग का संरचना तंत्र है।

Thursday 1 January 2015

एक सादगी भरा व्‍यक्‍ति जान लेता है कि प्रसन्‍नता जीवन का स्‍वभाव है। प्रसन्‍न रहने के लिए किन्‍हीं कारणों की जरूरत नहीं होती। बस तुम प्रसन्‍न रह सकते हो। केवल इसीलिए कि तुम जीवित हो। जीवन प्रसन्‍नता है जीवन आनंद है लेकिन ऐसा संभव होता है केवल एक सहज सादे व्‍यक्‍ति के लिए ही। वह आदमी जो चीजें इकट्ठी करता रहता है, हमेशा सोचता है कि इन्‍ही चीजों के कारण उसे प्रसन्‍नता मिलने वाली है….। आलीशान भवन, धन, सुख-साधन, वह सोचता है कि इन्‍हीं चीजों के कारण वह प्रसन्‍न है। समस्‍या धन-दौलत की नहीं है, समस्‍या है आदमी की दृष्‍टि की जो धन खोजने का प्रयास करती है। दृष्‍टि यह होती है, जब तक मेरे पास ये तमाम चीजें नहीं हो जाती है, मैं प्रसन्‍न नहीं हो सकता हूं। यह आदमी सदा दुखी रहेगा। एक सच्‍चा सादगी पसंद आदमी जान लेता है कि जीवन इतना सीधा सरल है कि जो कुछ भी है उसके पास, उसी में वह खुश हो सकता है। इसे किसी दूसरी चीज के लिए स्‍थगित कर देने की उसे कोई जरूरत नहीं है।
तब सादगी का अर्थ होगा: तुम्‍हारी आवश्‍यकताओं तक आ जाओ; इच्‍छाएं पागल होती है, है,आवश्‍यकताएं स्‍वाभाविक होती है। भोजन, घर, प्रेम; तुम्‍हारी सारी जीवन ऊर्जा को मात्र आवश्‍यकताओं के तल तक ले आओ। और तुम आनंदित हो जाओगे। और एक आनंदित व्‍यक्‍ति धार्मिक होने के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं हो सकता। और एक अप्रसन्‍न व्‍यक्‍ति अधार्मिक होने के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं हो सकता। हो सकता है वह प्रार्थना करे, हो सकता है, वह मंदिर जाए,हो सकता है। मस्‍जिद जाये। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। एक अप्रसन्‍न व्‍यक्‍ति कैसे प्रार्थना कर सकता है? उसकी प्रार्थना में गहरी शिकायत होगी। दुर्भाव होगा। वह एक नाराजगी होगी। प्रार्थना तो एक अनुग्रह का भाव है, शिकायत नहीं।