Thursday 15 January 2015

शुभ का कोई संबंध नीति से नहीं है। नीतियां अनेक हैं, शुभ एक है। हिंदू की नीति एक, मुसलमान की नीति दूसरी, जैन की नीति तीसरी। इसलिए नीतियां तो मान्यताएं है। बदलती रहती हैं। उनका कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। जो कल अनैतिक था, आज नैतिक हो सकता है। जो आज नैतिक है, कल अनैतिक हो जाएगा।
जैसे, महाभारत युधिष्ठिर को धर्मराज कहता है, और धर्मराज जूआ खेलने में जरा भी संकोच अनुभव नहीं करते। जूआ अनैतिक नहीं था। उन दिनों जूआ नैतिक था। धर्मराज के धर्मराज होने में जूआ खेलने से कोई बाधा नहीं आती। और छोटे—मोटे जूआरी भी न रहे होंगे, सब लगा दिया—सब ही नहीं लगा दिया, पत्नी भी लगा दी।
पत्नी कोई संपत्ति नहीं है, पत्नी के पास उतनी ही आत्मा है जितनी पति के पास। किसी को कोई हक नहीं है कि पत्नी को या पति को दाव पर लगा दे। दाव पर लगाने का मतलब है कि पत्नी के बेचने का हक था। इस देश में तो लोग ही कहते है—स्त्री—संपत्ति। यह बड़ी अनैतिक बात है आज। आज धर्मराज को धर्मराज कहना बहुत मुश्किल होगा। अगर धर्मराज धर्मराज हैं तो फिर अधर्मराज कौन? यह बात ही बेहूदी है, असंस्कृत है, पर उस दिन स्वीकार थी, कोई अड़चन न थी।
आज जो नैतिक है, कल अनैतिक हो जाएगा। नीति बदलती है। इसलिए नीति के साथ शुभ को एक मत समझ लेना। शुभ शाश्वत है। शुभ न हिंदू का, न मुसलमान का, न जैन का, न ईसाई का, शुभ तो परमात्मा से संबंधित होने का नाम है। शुभ सासारिक धारणा नहीं है, न सामाजिक धारणा है। शुभ तो अंतस—छंद की प्रतीति है। शांडिल्य से पूछो, या अष्टावक्र से, या मुझ से, उत्तर यही होगा कि जिस बात से तुम्हारे भीतर के छंद में सहयोग मिले, वह शुभ। और जिस बात से तुम्हारे भीतर के छंद में बाधा पड़े, वह अशुभ। जिससे तुम्हारा अंतस गीत बढ़े वह शुभ, जिससे तुम्हारा अंतस गीत छिन्न—छिन्न हो, खंडित हो, वह अशुभ। जिससे तुम समाधि के करीब आओ, वह शुभ, और जिससे तुम समाधि से दूर जाओ, वह अशुभ। कसौटी भीतर है, कसौटी बाहर नहीं है।

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