Sunday 25 January 2015

प्रश्न जीवन का नहीं है। प्रश्न तुम्हारे मन का है। जीवन को मोक्ष की तरफ नहीं जाना है। जीवन तो मोक्ष है। जीवन नहीं भटका है, जीवन नहीं भूला है। जीवन तो वहीं है जहां होना चाहिए। तुम भटके हो, तुम भूले हो। तुम्हारा मन तर्क की उलझन में है। और यात्रा तुम्हारे मन से शुरू होगी। कहां जाना है, यह सवाल नहीं है। कहां से शुरू करना है, यही सवाल है।
मंजिल की बात बुद्ध ने नहीं की। मंजिल की बात तुम समझ भी कैसे पाओगे? उसका तो स्वाद ही समझा सकेगा। उसमें तो डूबोगे, तो ही जान पाओगे। बुद्ध ने मार्ग की बात कही है। बुद्ध ने तुम जहां खड़े हो, तुम्हारा पहला कदम जहां पड़ेगा, उसकी बात कही है। इसलिए बुद्ध बुद्धि, विचार, अनुशासन, व्यवस्था की बात नही कि उन्हें पता नहीं है कि जीवन कोई व्यवस्था नहीं मानता। जीवन कोई रेल की पटरियों पर दौड़ती हुई गाड़ी नहीं है। जीवन परम स्वतंत्रता है। जीवन के ऊपर कोई नियम नहीं है, कोई मर्यादा नहीं है। जीवन अमर्याद है। वहां न कुछ शुभ है, न अशुभ। जीवन में सर्वस्वीकार है। वहां अंधेरा भी और उजेला भी एक साथ स्वीकार है।
मनुष्य के मन का सवाल है। मनुष्य का मन विरोधाभासी बात को समझ ही नहीं पाता। और जिसको तुम समझ न पाओगे, उसे तुम जीवन में कैसे उतारोगे? जिसे तुम समझ न पाओगे, उससे तुम दूर ही रह जाओगे।
तो बुद्ध ने वही कहा जो तुम समझ सकते हो। बुद्ध ने सत्य नहीं कहा, बुद्ध ने वही कहा जो तुम समझ सकते हो। फिर जैसे-जैसे तुम्हारी समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे बुद्ध तुमसे वह भी कहेंगे जो तुम नहीं समझ सकते।
बुद्ध एक दिन गुजरते हैं एक राह से जंगल की। पतझड़ के दिन हैं। सारा वन सूखे पत्तों से भरा है। और आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि क्या आपने हमें सब बातें बता दीं जो आप जानते हैं न क्या आपने अपना पूरा सत्य हमारे सामने स्पष्ट किया है? बुद्ध ने सूखे पत्तों से अपनी मुट्ठी भर ली और कहा, आनंद! मैंने तुमसे उतना ही कहा है जितने सूखे पत्ते मेरी मुट्ठी में हैं। और उतना अनकहा छोड़ दिया है जितने सूखे पत्ते इस वन में हैं। वही कहा है जो तुम समझ सको। फिर जैसे तुम्हारी समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे वह भी कहा जा सकेगा जो पहले समझा नहीं जा सकता था।
बुद्ध कदम-कदम बढ़े। आहिस्ता-आहिस्ता। तुम्हारी सामर्थ्य देखकर बढ़े हैं। बुद्ध ने तुम्हारी बूंद को सागर में डालना चाहा है।

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