Saturday 28 February 2015

लाओत्से को समझने में जो बड़ी से बड़ी कठिनाई है, वह हमारे चिंतन की कोटियां हैं। चिंतन का जो ढंग हमारा है, लाओत्से को उसी ढंग से पकड़ना बहुत मुश्किल होगा। और लाओत्से का चिंतन का ढंग ही विपरीत है; उसका तर्क ही विपरीत है। वह दूसरे ही आयाम से जीवन को देखता है। इसलिए आप जो प्रश्न भी पूछते हैं, वे लाओत्से से कम संबंधित और आपसे ही ज्यादा संबंधित होते हैं।
लाओत्से की दृष्टि को समझना हो, तो अपनी दृष्टि को थोड़ा छोड़ कर ही देखना पड़ेगा। अगर आप अपनी दृष्टि, अपने शब्द और अपने बंधे हुए खयालों से ही लाओत्से को देखेंगे, तो यह निर्णय करना तो बहुत मुश्किल है कि लाओत्से सही है या गलत, आप समझ भी नहीं पाएंगे कि वह क्या कह रहा है।
आपके चिंतन का जो ढंग है, उसे एक तरफ रखें, तो लाओत्से को समझ पाएंगे। फिर निर्णय आपके हाथ में है कि आप तय करें कि वह गलत है या सही। लेकिन समझने के पहले ही तय करना उचित नहीं है। और समझने में अड़चन है। और वह अड़चन यह है कि हमारा एक ढांचा है देखने का; लाओत्से उस ढांचे के बिलकुल प्रतिकूल है। जैसे हम हाथ से छूते हों और वह आंख से देखता हो; या जैसे हम आंख से देखते हों और वह कान से सुनता हो; और सारी भाषा अलग हो। जैसे मैंने कल कहा कि अगर चेतना बढ़ेगी, तो दूसरी तरफ अचेतना बढ़ जाएगी, मूर्च्छा बढ़ जाएगी। चेतना का जो भी अर्थ हमें पता है वह महावीर, कृष्ण और बुद्ध से हमें मिला है। वह अर्थ लाओत्से के साथ काम नहीं पड़ेगा। तो आपके मन में जो प्रश्न उठ आते हैं, वे प्रश्न आपके नहीं हैं। चिंतन की एक धारा आपके मन में है। तब हमें बड़ी घबड़ाहट होती है, इसका क्या मतलब हुआ?
इसका मतलब हुआ कि अगर एक महावीर चेतना को उपलब्ध हो जाएगा, परम चेतना को, तो महावीर के कारण एक व्यक्ति को परम अचेतना में पड़ना पड़ेगा! तो यह तो हिंसा हो गई। और महावीर को ऐसा करते हम सोच भी नहीं सकते कि उनके कारण कोई अचेतना में पड़ जाए। और यह बात अजीब सी लगती है कि कोई आदमी की चेतना बढ़े, तो किसी दूसरे को अकारण ही अचेतना में पड़ना पड़े, जिसका कोई संबंध नहीं है।
लेकिन अगर हम लाओत्से से पूछें, तो लाओत्से नहीं कहेगा कि महावीर की चेतना बढ़ गई। लाओत्से कहेगा, महावीर चेतना-अचेतना दोनों के पार हो गए। और जब कोई दोनों के पार हो जाता है, तो उसका कोई परिणाम, कोई रेखा जगत पर नहीं छूटती है। लाओत्से से हम पूछें, तो वह यह नहीं कहेगा कि कृष्ण जो हैं, परम चैतन्य पुरुष हैं। अगर वे परम चैतन्य पुरुष हैं, तो परम मूर्च्छित पुरुष उनको संतुलित करेगा ही। लाओत्से के हिसाब में वे चेतना-अचेतना के पार गए पुरुष हैं, अतिक्रमण कर गए, द्वंद्व के बाहर हो गए, द्वंद्वातीत हो गए। तब उनके कारण इस जगत में कहीं भी कोई रेखा नहीं पड़ेगी।

Friday 27 February 2015

संदेह पैदा क्‍यों होता है दुनिया में, संदेह पैदा होता है,झूठी श्रद्धा थोप देने के कारण। छोटा बच्‍चा है,तुम कहते हो मंदिर चलो। छोटा बच्‍चा पुछता है किस लिए?
अभी मैं खेल रहा हूं, तुम कहते हो, मंदिर में और ज्‍यादा आनंद आएगा।
और छोटे बच्‍चे को वह आनंद नहीं आता,तुम तो श्रद्धा सिखा रहे हो और बच्‍चा सोचता है,ये कैसा आनंद, यहां बड़े-बड़े बैठे है उदास,यहां दोड भी नहीं सकता, खेल भी नहीं सकता।नाच भी नहीं सकता, चीख पुकार नहीं कर सकता, यह कैसा आनंद।
फिर बाप कहता है, झुको, यह भगवान की मूर्ति है।बच्‍चा कहता है भगवान यह तो पत्‍थर की मूर्ति को कपड़े पहना रखे है।
झुको अभी, तुम छोटे हो अभी तुम्‍हारी बात समझ में नहीं आएगी।
ध्‍यान रखना तुम सोचते हो तुम श्रद्धा पैदा कर रहे हो,वह बच्‍चा सर तो झुका लेगा लेकिन जानता है, कि यह पत्‍थर की मूर्ति है।
उसे न केवल इस मूर्ति पर संदेह आ रहा है।
अब तुम पर भी संदेह आ रहा है, तुम्‍हारी बुद्धि पर भी संदेह आ रहा है।अब वह सोचता है ये बाप भी कुछ मूढ़ मालूम होता है।
कह नहीं सकता, कहेगा, ज‍ब तुम बूढे हो जाओगे,मां-बाप पीछे परेशान होते है, वे कहते है कि क्‍या मामला है।
बच्‍चे हम पर श्रद्धा क्‍यों नहीं रखते, तुम्‍हीं ने नष्‍ट करवा दी श्रद्धा।
तुम ने ऐसी-ऐसी बातें बच्‍चे पर थोपी, बच्‍चो का सरल ह्रदय तो टुट गया।
उसके पीछे संदेह पैदा हो गया, झूठी श्रद्धा कभी संदेह से मुक्‍त होती ही नहीं।
संदेह की जन्‍मदात्री है। झूठी श्रद्धा के पीछे आता है संदेह,मुझे पहली दफा मंदिर ले जाया गया, और कहा की झुको,मैंने कहा, मुझे झुका दो, क्‍योंकि मुझे झुकने जैसा कुछ नजर आ नहीं रहा।
पर मैं कहता हूं, मुझे अच्‍छे बड़े बूढे मिले, मुझे झुकाया नहीं गया।
कहा, ठीक है जब तेरा मन करे तब झुकना,उसके कारण अब भी मेरे मन मैं अब भी अपने बड़े-बूढ़ो के प्रति श्रद्धा है।
ख्‍याल रखना, किसी पर जबर्दस्‍ती थोपना मत, थोपने का प्रतिकार है संदेह।
जिसका अपने मां-बाप पर भरोसा खो गया, उसका अस्तित्‍व पर भरोसा खो गया।
श्रद्धा का बीज तुम्‍हारी झूठे संदेह के नीचे सुख गया।

Thursday 26 February 2015

मैं तुम्‍हारा सम्‍मान करता हूं, क्‍योंकि मुझे लगता है—
तुम्‍हारी निंदा तुम्‍हारे भीतर बैठे परमात्‍मा की निंदा है।
मैं तुमसे यह नहीं कहता हूँ तुम असाधारण हो जाना है।
मैं तुमसे कहता हूं, तुम साधारण हो जाओ, तो सब मिल जाए।
असाधारण होने की दौड़ अहंकार की दौड़ है।
कौन नहीं असाधारण होना चाहता,
मैं तो संन्‍यासी उसको कहता हूं,
जो साधारण होने में तृप्‍त है।
–ओशो

Wednesday 25 February 2015

स्‍वास्‍थ्‍य शब्‍द का अर्थ समझ लो तो रोग का अर्थ समझ में आ जाएगा।स्‍वस्‍थ का अर्थ होता है, स्‍वयं में स्थित हो जाना। यह शब्‍द बड़ा प्‍यारा है।
स्‍वस्‍थ का अर्थ होता है, स्‍वयं में ठहर जाना।जो चीज भी तुम्‍हें स्‍वयं से दूर ले जाए, वह रोग।
जो तुम्‍हें स्‍वयं से भटकाए, अलग करे, तोड़े,अस्‍वस्‍थ कर—वही रोग।
कौन करता है तुम्‍हें अपने से दूर। तुम्‍हारी वासना,तुम्‍हारी तृष्‍णा भविष्‍य में भटकाती है। तुम्‍हारी तृष्‍णा कहती है।
कल, कल होगा धन, कल बनेगा भवन, कल मिलेगी सुंदर स्‍त्री, सुंदर पुरूष,कल होगा एक बेटे का जन्‍म, फिर कल आएगी जीवन में बहारें,आज थोड़ी ही देर की बात है, गुजार दो, आता है कल, लाएगा स्‍वर्ग।
आता है कल सब ठीक हो जाएगा, जरा सी देर और कर लो प्रतीक्षा।थोड़ी और आशा को सम्‍हालो। बुझ मत जाने दो आशा का दीया—जलाए रखो।
उकसाए रखो बाती को, डलते रहो थोड़ा और तेल, बस थोड़ी देर और कल आता है।
कल कभी नहीं आता, आता है काल फिर कुछ नहीं होता।
–ओशो

Tuesday 24 February 2015

मनुष्‍य-जाती ने बच्‍चों पर जितना अनाचार किया है किसी और पर नहीं।
जब सारी दुनिया में सब अनाचार मिट जाएंगे, जब अंतिम अनाचार जो मिटेगा,वह होगा मां-बाप के द्वारा किया गया बच्‍चों के प्रति अनाचार होगा।
वह अनाचार दिखाई नहीं पड़ता, क्‍योंकि प्रेम की बड़ी हमने बकवास उठा रखी है।
कि हम सब प्रेम के कारण कर रहे है, तुम बच्‍चे को मारो प्रेम के कारण,सिखाओ कुछ तो प्रेम के कारण, तो बच्‍चा इनकार भी नहीं, विद्रोह भी नहीं कर सकता।
सबसे पहले विद्रोह किया गरीबों ने अमीरों के खिलाफ,तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि ए‍क दिन स्त्रीयां पुरूषों के खिलाफ बगावत कर देंगी।
अब स्त्रियों ने बगावत की है पुरूषों के खिलाफ़।
अभी कोई सोच भी नहीं सकता है कि एक दिन बेटे,बच्‍चे मां-बाप के खिलाफ बगावत करेंगे, मैं तुमसे कहता हूं, आगाह रहना।
वो दिन जल्‍दी ही आएगा, करना ही पड़ेगा।
जिस दि बच्‍चें मां-बाप के खिलाफ बगावत करेंगे,उस दिन साफ होगी बात कि मनुष्‍य–जाति ने अनंतकाल से कितने अनाचार बच्‍चों पर किया है।


Monday 23 February 2015

अगर मां बाप इतना ही कहे जितना वो जानते है,बच्‍चे को मुक्‍त रखे, उसकी सरल श्रद्धा नष्‍ट न करे।
तो ये सार दुनियां धार्मिक हो सकती है,ये दुनिया अधार्मिक नास्तिकों के कारण नहीं है।
तुम्‍हारे थोथे आस्तिकों के कारण अधार्मिक है।
ध्‍यान देना, सिद्धांत मत देना,यह मत कहना की भगवान है,यह कहना की शांत बैठने से धीरे-धीरे पता चल जाएगा।
निर्विचार होने से पता चल जाएगा,ध्‍यान दिया तो धर्म दिया, सिद्धांत दिया तो अधर्म दे दिए।
शास्‍त्र मत देना, शब्‍द मत देना, नि:शब्‍द होने की क्षमता देना। प्रेम देना।
ध्‍यान और प्रेम अगर दो चीजें तुम दे सको किसी बच्‍चे को,तो तुमने अपना कर्तव्‍य पूरा कर दिया।
तुमने बच्‍चे की आधारशिला रख दी।
इस बच्‍चे के जीवन में मंदिर बनेगा,इस बच्‍चे के शिखर आकाश में उंठेंगे,और इसके स्‍वर्ण-शिखर सूरज की रोशनी में चमकेगे।
और चाँद तारों से बातें करेंगें।
–ओशो


Sunday 22 February 2015

ध्‍यान रहे—असत्‍य के मार्ग पर,सफलता मिल जाए तो व्‍यर्थ है,असफलता भी मिले तो सार्थक है।
सवाल मंजिल का नहीं,सवाल कहीं पहुंचने का नहीं,कुछ पाने का नही—दिशा का नहीं, आयाम का नहीं।
कंकड़-पत्‍थर इकट्ठे भी कर लिए किसी ने,तो क्‍या पाया।और हीरों की तलाश में खो भी गए,तो भी बहुत कुछ पा लिया जाता है—
उस खोने में भी,
अंनत की यात्रा पर जो निकलता है,
वे डूबने को भी उबरना समझते है।
–ओशो

Thursday 12 February 2015

जो कहता है, परमात्मा हो तो हम प्रार्थना करेंगे, वह आस्तिक नहीं, नास्तिक है। जो कहता है, प्रेम है, हम तो प्रेम करेंगे, वह आस्तिक है। वह जहा उसकी नजर पड़ेगी वहां हजार परमात्मा पैदा हो जाएंगे। प्रेम से भरी हुई आंख जहा पड़ेगी वहीं मंदिर निर्मित हो जाएंगे। जहां प्रेम से भरा हुआ हृदय धड़केगा, वहीं एक और नया काबा बन जाएगा, एक नई काशी पैदा होगी। क्योंकि जहा प्रेम है, वहां परमात्मा प्रगट हो जाता है।
प्रेम भरी आंख कण-कण में परमात्मा को देख लेती है। और तुम कहते हो, पहले परमात्मा हो तब हम प्रेम करेंगे। तो तुम्हारा प्रेम खुशामद होगी। तुम्हारा प्रेम-प्रेम न होगा, सिर का झुकना होगा-हृदय का बहना नहीं।
असली सवाल प्रेमपात्र का नहीं है, असली सवाल प्रेमपूर्ण हृदय का है। बुद्ध ने इस बात पर बड़ा अदभुत जोर दिया। इसलिए बुद्ध ने परमात्मा की बात नहीं की। और जितने लोगों को परमात्मा का दर्शन कराया, उतना किसी दूसरे व्यक्ति ने कभी नहीं कराया। ईश्वर को चर्चा के बाहर छोड़ दिया और लाखों लोगों को ईश्वरत्व दिया। भगवान की बात ही न की और संसार में भगवत्ता की बाढ़ ला दी। इसलिए बुद्ध जैसा अदभुत पुरुष मनुष्य के इतिहास में कभी हुआ नहीं। बात ही न उठाई परमात्मा की और न मालूम कितने हृदयों को झुका दिया।
और ध्यान रखना, बुद्ध के साथ सिर को झुकने का तो सवाल ही न रहा। न कोई भय का कारण है, न कोई परमात्मा है, न डरने की कोई वजह है। न परमात्मा से पाने का कोई लोभ है। मौज से झुकना है, आनंद से झुकना है। अपने ही अहोभाव से झुकना है, अनुग्रह से झुकना है।

बुद्ध ने जगत को एक धर्म दिया, मनुष्य को एक दिशा दी, जहां प्रार्थना परमात्मा से बड़ी है, जहां मनुष्य का हृदय-पूजा-अर्चना से भरा-परमात्मा से बड़ा है। असली सवाल इसका नहीं है कि परमात्मा हो। असली सवाल इसका है कि मनुष्य का हृदय प्रार्थना से भरा हो। प्रार्थना में ही मिल जाएगा वह जिसकी तलाश है। और प्रार्थना मनुष्य का स्वभाव कैसे हो जाए!
परमात्मा हुआ और फिर तुमने प्रार्थना की, तो प्रार्थना की ही नहीं। रिश्वत हो गई। परमात्मा हुआ और तुम झुके, तो तुम झुके ही नहीं। कोई झुकाने वाला हुआ तब झुके, तो तुम नहीं झुके। झुकाने वाले की सामर्थ्य रही होगी, शक्ति रही होगी। लेकिन कोई परमात्मा न हो और तुम झुके, तो झुकना तुम्हारा स्वभाव हो गया। बुद्ध ने धर्म को परमात्मा से मुक्त कर दिया। और धर्म से परमात्मा का संबंध न रह जाए तो धर्म अपने ऊंचे से ऊंचे शिखर को पाता है। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं है, बल्कि इसलिए कि परमात्मा के बिना झुकना आ जाए तो झुकना आ गया। इसे थोड़ा समझने की फिक्र करो।
तुम जाते हो और झुकते हो। झुकने के पहले पूछते हो, परमात्मा है? अगर है तो झुकोगे। परमात्मा के सामने झुकते हो तो इसीलिए कि कुछ लाभ, कुछ लोभ, कुछ भय, कुछ भविष्य की आकांक्षा-कोई महत्वाकांक्षा काम कर रही है। परमात्मा कुछ दे सकता है इसलिए झुकते हो। लेकिन झुकना तुम्हारी फितरत नहीं, तुम्हारा स्वभाव नहीं। बेमन से झुकते हो। अगर परमात्मा कुछ न दे सकता हो, तो तुम झुकोगे? अगर झुकने में और परमात्मा तुमसे छीन लेता हो, तो तुम झुकोगे? झुकने में हर्ग़ने हो जाती हो, तो तुम झुकोगे? झुकना स्वार्थ है। स्वार्थ से जो झुका, वह कैसा झुका? वह तो सौदा हुआ, व्यवसाय हुआ।
ऐसे तो तुम संसार में भी झुकते हो। जिनके हाथ में ताकत है उनके चरणों में झुकते हो। जिनके पास धन है, पद है, उनके चरणों में झुकते हो। तो तुम्हारा परमात्मा शक्ति का ही विस्तार हुआ, धन और पद का ही विस्तार हुआ। इसीलिए तो लोगों ने परमात्मा को ईश्वर का नाम दिया है। ईश्वर यानी ऐश्वर्य। ऐश्वर्य के सामने झुकते हो। ईश्वर को परमपद कहा है। उससे ऊपर कोई पद नहीं। पद के सामने झुकते हो। तो यह राजनीति हुई, धर्म न हुआ। और इसके पीछे लोभ होगा, भय होगा। प्रार्थना कहां?
दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या न हो
और ध्यान रखना, जो किसी मतलब से झुकेगा, उसका सिर झुकेगा दिल नहीं, क्योंकि दिल हिसाब जानता नहीं। उसकी खोपड़ी झुकेगी, हृदय नहीं, क्योंकि हृदय
तो बिना हिसाब झुकता है। हृदय तो कभी उनके सामने झुक जाता है जिनके पास न कोई शक्ति थी, न कोई पद था, न कोई ऐश्वर्य था। हृदय तो कभी भिखारियों के सामने भी झुक जाता है। सिर नहीं झुकता भिखारियों के सामने। वह सदा सम्राटों के सामने झुकता है। हृदय तो कभी फूलों के सामने झुक जाता है। कोई शक्ति नहीं, कोई सामर्थ्य नहीं। क्षणभर हैं, फिर विदा हो जाएंगे। हृदय तो कमजोर के सामने और नाजुक के सामने भी झुक जाता है। सिर नहीं झुकता।
सिर है मनुष्य का अहंकार। हृदय यानी मनुष्य का प्रेम।


तुम बेहोश हो। शराब तो तुमने पी ही रखी है। संसार की शराब। किसी ने धन की शराब पी रखी है और धन में बेहोश है। किसी ने पद की शराब पी रखी है और पद में बेहोश है। किसी ने यश की शराब पी रखी है। जिनको न पद, यश, धन की शराब मिली, वे सस्ती शराब मयखानों में पी रहे हैं। वे हारे हुए शराबी हैं।
और बडा मजा तो यह है कि बड़े शराबी छोटे शराबियों के खिलाफ हैं। जो दिल्ली में पदों पर बैठे हैं, वे छोटे-छोटे मयखानों में लोगों को शराब नहीं पीने देते। उन्होंने खुद भी शराब पी रखी है। लेकिन उनकी शराब सूक्ष्म है। उनका नशा बोतलों मैं बंद नहीं मिलता। उनका नशा बारीक है। उनके नशे को देखने के लिए बड़ी गहरी आंख चाहिए। उनका नशा स्थूल नहीं है।
बहुत तरह की शराबें हैं। संसार शराब है। उमर खैयाम, सूफी या भक्त जिस शराब की बात कर रहे हैं, वह ऐसी शराब है जो संसार के नशे को तोड़ दे। जो तुम्हें जगा दे।
परमात्मा की शराब का लक्षण है जागरण। इसलिए बुद्ध और उमर खैयाम की बातों में फर्क नहीं है। जानकर ही बुद्ध के साथ इन मस्तानों की भी बात कर रहा हूं। क्योंकि अगर तुम्हें फर्क दिखाई पड़ता रहा, तो न तो तुम बुद्ध को समझ सकोगे और न इन दीवानों को। जब इन दोनों में तुम्हें कोई फर्क न दिखाई पड़ेगा, तभी तुम समझोगे।
‘परमात्मा का भी एक नशा है। लेकिन नशा ऐसा है कि और सब नशे तोड़ देता है। नशा ऐसा है कि तुम्हारी नींद ही तोड़ देता है। नशा ऐसा है कि जागरण की एक अहर्निश धारा बहने लगती है। फिर भी उसे नशा क्यों कहें? तुम पूछोगे। जब होश आता है, तो नशा क्यों कहें? नशा इसलिए है कि होश तो आता है, मस्ती नहीं जाती। होश तो आता है, मस्ती बढ़ जाती है। और ऐसा होश भी क्या जो मस्ती भी छीन ले! फिर तो मरुस्थल का हो जाएगा होश। फिर तो रूखा-सूखा होगा। फिर तो हरियाली न होगी, फूल न खिलेंगे, और पक्षी गीत न गाएंगे, और झरने न बहेंगे, और आकाश के तारों में सौंदर्य न होगा।

जीवन—सत्य की खोज दो मार्गों से हो सकती है। एक पुरुष का मार्ग है—आक्रमण का, हिंसा का, छीन—झपट का। एक सी का मार्ग है—समर्पण का, प्रतिक्रमण का।
विज्ञान पुरुष का मार्ग है; विज्ञान आक्रमण है। धर्म सी का मार्ग है; धर्म नमन है।
इसे बहुत ठीक से समझ लें।
इसलिए पूर्व के सभी शास्त्र परमात्मा को नमस्कार से शुरू होते है। वह नमस्कार केवल औपचारिक नहीं है। वह केवल एक परंपरा और रीति नहीं है। वह नमस्कार इंगित है कि मार्ग समर्पण का है, और जो विनम्र है, केवल वे ही उपलब्ध हो सकेंगे। और, जो आक्रमक है, अहंकार से भरे है; जो सत्य को भी छीन—झपटकर पाना चाहते है; जो सत्य के भी मालिक होने की आकांक्षा रखते है; जो परमात्मा के द्वार पर एक सैनिक की भांति पहुंचे हैं—विजय करने, वे हार जायेंगे। वे छ को भला छीन—झपट लें, विराट उनका न हो सकेगा। वे व्यर्थ को भला लूटकर घर ले आयें; लेकिन जो सार्थक है, वह उनकी लूट का हिस्सा न बनेगा।
इसलिए विज्ञान व्यर्थ को खोज लेता है; सार्थक चूक जाता है। मिट्टी, पत्थर, पदार्थ के संबंध में जानकारी मिल जाती है, लेकिन आत्‍मा और परमात्मा की जानकारी छूट जाती है। ऐसे ही जैसे तुम राह चलते एक स्‍त्री पर हमला कर दो, बलात्कार हो जाएगा, स्‍त्री का शरीर भी तुम कब्जा कर लोगे, लेकिन उसकी आत्मा तुम्हें नहीं मिल सकेगी। उसका प्रेम तुम न पा सकोगे।
तो जो लोग आक्रमण की तरह जाते है परमात्मा की तरफ, वे बलात्कारी है। वे परमात्मा के शरीर पर भला कब्जा कर लें— इस प्रकृति पर, जो दिखाई पड़ती है, जो दृश्य है— उसकी चीर—फाड़ कर, विश्लेषण करके, उसके कुछ राज खोज लें, लेकिन उनकी खोज वैसी ही क्षुद्र होगी, जैसे किसी पुरुष ने किसी स्‍त्री पर हमला किया हो, बलात्कार किया हो। स्‍त्री का शरीर तो उपलब्ध हो जायेगा, लेकिन वह उपलब्धि दो कौड़ी की है; क्योंकि उसकी आत्मा को तुम छू भी न पाओगे। और अगर उसकी आत्मा को न छूआ, तो उसके भीतर प्रेम की जो संभावना थी— वह जो छिपा था बीज प्रेम का— वह कभी अकुंरित न होगा। उसकी प्रेम की वर्षा तुम्हें न मिल सकेगी। विज्ञान बलात्कार है। वह प्रकृति पर हमला है; जैसे कि प्रकृति कोई शत्रु हो; जैसे कि उसे जीतना है, पराजित करना है। इसलिए विज्ञान तोड़—फोड़ में भरोसा करता है— विश्लेषण तोड़—फोड़ है; काट—पीट में भरोसा करता


पुनरुक्ति शक्ति पैदा करती है। मंत्र का अर्थ है: किसी चीज को बार—बार दोहराना। यह सूत्र कह रहा है: चित्त ही मंत्र है—चित्त मंत्र:। यह कहता है, और किसी मंत्र की जरूरत नहीं; अगर तुम चित्त को समझ लो तो चित्त की प्रक्रिया ही पुनरुक्ति है। तुम्हारा मन कर क्या रहा है जन्मों—जन्मों से—सिर्फ दोहरा रहा है। सुबह से सांझ तक तुम करते क्या हो—रोज वही दोहराते हो, जो तुमने कल किया था, जो परसों किया था, वही तुम आज कर रहे हो; वही तुम कल भी करोगे, अगर न बदले। और तुम जितना वही करते जाओगे उतनी ही पुनरुक्ति प्रगाढ होती जायेगी और तुम झंझट में इस तरह फंस जाओगे कि बाहर आना मुश्किल हो जायेगा।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि सिगरेट नहीं छूटती। सिगरेट मंत्र बन गयी है। उन्होंने इतनी बार दोहराया है—दिन में दो पैकेट पी रहे है। इसका मतलब हुआ कि चौबीस बार दोहरा रहे है; बीस बार दोहरा रहे हैं, बार—बार दोहराया है और सालों से दोहरा रहे है; आज अचानक छोड़ देना चाहते हैं। लेकिन जो चीज मंत्र बन गयी, उसको अचानक नहीं छोड़ा जा सकता। तुम छोड़ दोगे इससे क्या फर्क पड़ता है; पूरा मन मांग करेगा। पूरा शरीर उसको दोहरायेगा। वह कहेगा—चाहिए। उसी को तुम तलफ कहते हो। तलफ का मतलब हुआ कि जिस चीज को तुमने मंत्र बना लिया, उसे अचानक छोड़ना चाहते हो—यह नहीं हो सकता। तलफ का मतलब है कि जो चीज मंत्र बन गयी है, उसके विपरीत मंत्र से तोड़ना होगा।

जगत में बड़ी—से—बड़ी दुर्घटना है और वह है कि विस्मय का नष्ट हो जाना। जिस दिन तुम्हारा विस्मय नष्ट होता है, उसी दिन तुम्हारे छुटकारे का उपाय नष्ट हो गया। जिस दिन तुम्हारा विस्मय नष्ट हुआ, उसी दिन तुम्हारा बाल—हृदय मर गया, जड़ हो गया, तुम बूढ़े हो गये। क्या अब भी तुम चौकते हो? क्या जीवन तुम्हें प्रश्‍न बनता है? क्या चारों तरफ से पक्षियों की आवाजें, झरनों का शोरगुल, हवाओं का वृक्षों से गुजरना, तुम्हारे लिए किसी पुलक से भर जाता है? तुम आह्लादित हो जाते हो? तुम जीवन को चारों तरफ देखकर अवाक होते हो? नहीं; क्योंकि तुम्हें सब यह पता है कि यह पक्षियों की आवाज है, यह शोरगुल है हवाओं का वृक्षों में—तुम्हारे पास हर चीज के उत्तर है। उत्तरों ने तुम्हें मार डाला है। तुम ज्ञान के पहले ज्ञानी हो गये हो।
विस्मय योग भूमिका:। जो व्यक्ति योग में प्रवेश करना चाहे, विस्मय उसके लिए द्वार है। अपने बचपन को वापस लौटाओ। फिर से पूछो, फिर से कुतूहल करो, फिर से जिज्ञासा जगाओ—तो तुम्हारे भीतर जहां—जहां जीवन के स्रोत सूख गये हैं, फिर हरे हो जायेंगे; जहां—जहां पत्थर अड़ गये है, वहां—वहां वह झरना फिर प्रगट हो जायेगा। तुम फिर से आंख खोलो और चारों तरफ देखो। सब उत्तर झूठे हैं। क्योंकि सब तुम्हारे उत्तर उधार हैं। तुमने खुद कुछ भी नहीं जाना है। लेकिन, तुम उधार ज्ञान से ऐसे भर गये हो कि तुम्हें प्रतीति होती है कि मैंने जान लिया।
विस्मय को जगाओ। तुम्हारे आसन, प्राणायाम से कुछ भी न होगा, जब तक विस्मय न जग जाए। क्योंकि आसन, प्राणायाम सब शरीर के हैं। ठीक है, शरीर—शुद्धि होगी, शरीर स्वस्थ होगा; लेकिन शरीर की शइद्ध और शरीर का स्वास्थ्य तुम्हें कोई परमात्मा से न मिला देगा।
विस्मय मन की शुद्धि है। विस्मय का अर्थ है—मन सभी उत्तरों से मुक्त हो गया। विस्मय का अर्थ है—तुमने हटा दिया उत्तरों का कचरा; तुम्हारा प्रश्‍न फिर नया और ताजा हो गया और तुमने अपने अज्ञान को समझा।
विस्मय का अर्थ है—मुझे पता नहीं; पांडित्य का अर्थ है—मुझे पता है। जितना तुम्हें पता है, उतने ही तुम गलत हो। जब तुम सरल भाव से कहते हो—मुझे कुछ भी पता नहीं है, सारा जगत अज्ञान है। जो भी मुझे पता है वह भी कामचलाऊ है; मैंने अभी कुछ भी नहीं जाना है—ऐसी प्रतीति जैसे ही तुम्हारे हृदय में जितनी गहरी बैठ जायेगी, तुमने योग का पहला कदम उठाया। फिर दूसरे कदम आसान हैं। लेकिन अगर पहला कदम ही चूक जाये, तो फिर तुम कितनी ही यात्रा करो, उससे कुछ हल नहीं होता। क्योंकि, जिसका पहला कदम गलत पड़ा वह मंजिल पर नहीं पहुंच सकेगा। पहला कदम जिसका सही है, उसकी आधी यात्रा पूरी हो गयी। और, विस्मय पहला कदम है।

सौ में निन्यानवे मौके पर जिस प्रेम को हम जानते हैं वह ईर्ष्या का ही दूसरा नाम है। हम बड़े कुशल हैं। हम गंदगी को सुगंध छिड़ककर भुला देने में बड़े निपुण हैं। हम घावों के ऊपर फूल रख देने में बड़े सिद्ध हैं। हम झूठ को सच बना देने में बड़े कलाकार हैं। तो होती तो ईर्ष्या ही है, उसे हम कहते प्रेम हैं। ऐसे प्रेम के नाम से ईर्ष्या चलती है। होती तो घृणा ही है, कहते हम प्रेम हैं। होता कुछ और ही है।


एक देवी ने और प्रश्न पूछा है। पूछा है कि 'मैं सूफी ध्यान नहीं कर पाती और न मैं अपने पति को फी ध्यान करने दे रही हूँ। क्योंकि सूफी ध्यान में दूसरे व्यक्तियों की आँखों में आँखें डाल कर देखना होता है। वहाँ स्त्रियाँ भी हैं। और पति अगर किसी स्त्री की आँख में आँख डाल कर देखे और कुछ से कुछ हो जाए तो मेरा क्या होगा? और वैसे भी पति से मेरी ज्यादा बनती नहीं है।'

जिससे नहीं बनती है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए जाते हैं। जिसको कभी चाहा नहीं है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए चले जाते हैं। प्रेम हमारी कुछ और ही व्यवस्था है - सुरक्षा, आर्थिक, जीवन की सुविधा। कहीं पति छूट जाए तो घबराहट है। पति को पकड़ कर मकान मिल गया होगा, धन मिल गया होगा- जीवन को एक ढाँचा मिल गया है। इसी ढाँचे से अगर तुम तृप्त हो तो तुम्हारी मर्जी। इसी ढाँचे के कारण तुम परमात्मा को चूक रहे हो, क्योंकि परमात्मा प्रेम से मिलता है। प्रेम के अत‍िरिक्त परमात्मा के मिलने का और कोई द्वार नहीं है। जो प्रेम से चूका वह परमात्मा से भी चूक जाएगा।

भय और प्रेम साथ-साथ हो कैसे सकते हैं? इतना भय कि पति कहीं किसी स्त्री की आँख में न आँख डाल कर देख लें! तो फिर प्रेम घटा ही नहीं है। फिर तुम्हारी आँख में आँख डालकर पति ने नहीं देखा और न तुमने पति की आँख में आँख डालकर देखा है। न तुम्हें पति में परमात्मा दिखाई पड़ा है, न पति को तुममें परमात्मा दिखाई पड़ा है। तो यह जो संबंध है, इसको प्रेम का संबंध कहोगे?

अगर प्रेम घटे तो भय विसर्जित हो जाता है। तब पति सारी दुनिय की स्‍त्रियों की आँख में आँख डाल कर देखता रहे तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। हर स्त्री की आँख में तुम्हीं को पा लेगा। हर स्त्री की आँख में तुम्हारी ही आँख मिल जाएगी क्योंकि हर स्त्री तुम्हारी ही ‍प्रतिबिंब हो जाएगी। हर स्त्री को देख कर तुम्हारी ही याद आ जाएगी। लेकिन प्रेम तो घटता नहीं; किसी तरह संभाले है अपने को।

ऐसे ही तुम्हारे सब प्रेम के संबंध हैं। एक-दूसरे पर पहरा है। एक-दूसरे के साथ दुश्मनी है, प्रेम कहाँ! प्रेम में पहरा कहाँ? प्रेम में भरोसा होता है। प्रेम में एक आस्था होती है। प्रेम में एक अपूर्व श्रद्धा होती है। ये सब प्रेम के ही फूल हैं - श्रद्धा, भरोसा, विश्वास। प्रेमी अगर विश्वास न कर सके, श्रद्धा न कर सके, भरोसा न कर सके, तो प्रेम में फूल खिले ही नहीं। ईर्ष्या, जलन, वैमनस्य, द्वेष, मत्सर तो घृणा के फूल हैं। तो फूल तो तुम घृणा के लिए हो और सोचते हो प्रेम का पौधा लगाया है। नीम के कड़वे फल लगते हैं तुममें और सोचते हो आम का पौधा लगाया है। इस भ्रांति को तोड़ो।

इसलिए जब मैं तुमसे कहता हूँ कि प्रेम सत्य तक जाने का मार्ग बन सकता है तो तुम मेरी बात को सुन तो लेते हो लेकिन भरोसा नहीं आता। क्योंकि तुम प्रेम को भलीभांति जानते हौ। उसी प्रेम के कारण तुम्हारा जीवन नरक में पड़ा है। अगर मैं इसी प्रेम की बात कर रहा हूँ तो निश्चित ही मैं गलत बात कर रहा हूँ। मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूँ - उस प्रेम की, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, लेकिन जो तम्हें अभी तक मिला नहीं है। मिल सकता है, तुम्हारी संभावना है। और जब तक न मिलेगा तब तक तुम रोओगे, तड़पोगे, परेशान होओगे। जब तक तुम्हारे जीवन का फूल न खिले और जीवन के फूल में प्रेम की सुगंध न उठे, तब तक तुम बेचैन रहोगे। अतृप्त! तब तक तुम कुछ भी करो, तुम्हें राहत न आएगी, चैन न आएगा। खिले बिना आप्तकाम न हो सकोगे। प्रेम तो फूल है।

तुम परमात्मा हो। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारा मंत्र है। यह बडी—से—बडी बात है, जो तुम्हारे संबंध में कही जा सकती है। और, अगर यह तुम्हारा मंत्र बन जाए और यह तुम्हारे जीवन में ओतप्रोत हो जाए तुम्हारे रोएं—रोएं में समा जाए इसकी झंकार, तो तुम धीरे—धीरे पाओगे कि जो तुमने सोचा, वह तुम होने लगे; जो तुमने आ भीतर, वह तुम्हारे जीवन में आना शुरू हो गया है।
धर्म की शुरुआत—तुम नहीं हो, परमात्मा है—इस सूत्र से होती है। माना तुम सोये हो; माना कि तुम बहुत अर्थों में बुरे हो; माना कि बहुत भूल—चूक तुमने की है; लेकिन इससे तुम्हारे स्वभाव में कोई भी फर्क नहीं पड़ता। निर्मलता तुम्हारा स्वभाव है। तुम कितना ही बुरा किये हो, इस बात का स्मरण आ जाए कि ‘मैं परमात्मा हूं,, सब बुराई कट जाएगी। तुम्हें एक—एक बुराई को अलग—अलग काटना हो तो तुम वह भी कर सकते हो; तब जन्मों—जन्मों तक बुराई न कटेगी; क्योंकि अनंत है बुराई और एक—एक बुराई को जो काटने चलेगा, वह कभी भी काट न पाएगा।
जब तुम एक बुराई को काटते हो, तो तुम दस बुराइयां पैदा भी कर रहे हो। एक बुराई काटते हो, निन्यानबे बुराइयां तो तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। वे तुम्हारी एक भलाई को भी रंग देंगी,उसे भी बुरा कर देंगी। इसलिए, तुम पुण्य भी करते हो, तो वह भी पाप जैसा हो जाता है। तुम अमृत भी छूते हो तो जहर हो जाता है; क्योंकि शेष सब बुराइयां उस पर टूट पड़ती हैं। तुम मंदिर भी बनाओ तो भी उससे विनम्रता नहीं आती; उससे अहंकार भरता है। और, अहंकार के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं! व्यर्थ से भी अहंकार भरता है।

तुम्हारे भीतर शिवत्व तो बैठा ही हुआ है। वह तुम्हारा सदा का खजाना है। उसे पाने के लिए देर नहीं करने की जरूरत है, सिर्फ आंख मोड़कर देखने की जरूरत है। अगर वह कहीं भविष्य में होता, तो फिर कठिनाई थी, फिर समय लगता, जन्म—जन्म लगते, पहुंचते। वह तुम्हारे भीतर है। इसलिए शिवत्व को पाना नहीं है, केवल आविष्कृत करना है; सिर्फ उघाड़ना है—जैसे कोई प्याज के छिलकों को उघाड़ता चला जाए। फिर क्या घटता है?—एक—एक छिलका निकलता है, दूसरा छिलका सामने आ जाता है। उघाड़ते ही चले जाओ, उघाडते ही चले जाओ, एक घड़ी आएगी, जब सब छिलके निकल जाएंगे, सिर्फ शून्य हाथ लगेगा। ऐसे ही आदमी के ऊपर छिलके हैं। और शिवत्व तो शून्य जैसा है। इन छिलकों को हम थोड़ा समझ लें, तो उघाड़ने की आसानी हो जाए तो तुम्हारा जीवन भी शिव जैसा हो जाए और तुम्हारा बोलना भी जप हो जाए।
पहली पर्त क्या है? पहली पर्त शरीर की है। और अधिक लोग इस पहली पर्त से ही अपने को एक मानकर जी लेते हैं। वे ऐसे ही है जैसे किसी महल की सीढ़ियों पर बैठकर जी रहे हों, उन सीढ़ियों को ही घर बना लेते है। उन्हें पता ही नहीं कि सीढ़ियां घर नहीं है, सिर्फ घर तक पहुंचने का उपाय है।
पहली पर्त है शरीर की और शरीर में ही तुम जी लेते हो। वह एक तादात्‍म्‍य है, जिससे लगता है कि मैं शरीर हूं। शरीर मेरा है, मैं नहीं; और ‘मेरा’ कभी भी ‘मैं’ नहीं हो सकता। जो भी मेरा है, वह मेरे हाथ में हो सकता है लेकिन ‘मैं’ नहीं हूं। तुम्हारा पैर कोई काट दे, तो भी तुम न कटोगे, पैर ही कटेगा। तुम्हारा शरीर अगर होते तुम, तो पैर कट जाने पर तुम्हें लगता कि अब मैं कुछ कम हो गया; एक पैर कट गया, इतना मै कम हो गया। लेकिन पैर कट जाए, आंखें चली जायें, कान खो जायें, हाथ टूट जायें, तुम्हारे पूरेपन में जरा भी अंतर नहीं पड़ता। शरीर अपंग हो जाता है, लेकिन तुम पूरे ही होते हो।
इसलिए शायद कुरूप से कुरूप आदमी भी भीतर अपने को कुरूप नहीं मान पाता; क्योंकि भीतर तो तुम सुंदर ही होते हो। शायद इसीलिए कुरूप से कुरूप आदमी भी राजी नहीं हो पाता कि मैं कुरूप हूं। और पापी से पापी आदमी भी राजी नहीं हो पाता कि मैं पापी हूं। बुरे से बुरा आदमी भी एक भीतरी झलक से भरा रहता है कि मैं शुभ हूं। बुरे से बुरे आदमी को भी तुम गौर से देखो तो वह यही कहता है कि हो गयी भूल, लेकिन मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं हो गयी गलती, लेकिन मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं। वह कृत्य को गलत मान सकता है, लेकिन खुद को गलत नहीं मान सकता है। वह ठीक है। उसे पता नहीं है कि क्यों ऐसा लगता है।

जब भी तुम उत्सुक होते हो ध्यान में, तो तुम क्या करते हो? तुम अपने कृत्यों के जगत का एक छोटा-सा कोना ध्यान को दे देते हो, जबकि ध्यान कृत्य नहीं है। तुम दुकान करते हो, बाजार जाते हो-करना ही पड़ेगा। काम- धंधा, जीवन की चर्या, बाहर कि परिधि पर चलती ही रहेगी। उसी परिधि पर एक कोना तुम ध्यान के लिए भी देते हो। तुम सोचते हो कि चलो बाजार जाने के पहले दो क्षण मंदिर हो आयें।
इस फर्क को खयाल में ले लेना।
तुम जो करते हो उसी में तुम ध्यान को भी जोड़ लेते हो; और पच्चीस काम करते हो, उसी में एक काम ध्यान है। तुम्हारे संसार में हजार व्यस्ततायें हैं, उसी में ईश्वर भी एक और व्यस्तता है। तब तुम ईश्वर से वंचित रह जाओगे। ईश्वर परिधि पर हो ही नहीं सकता। जहां दुकान है, बाजार है, काम है-वहां से ईश्वर का कोई संबंध नहीं। ईश्वर तुम्हारा अंतस्तल है, जहां तुम हो। काम के जगत में नहीं है वह। तुम्हारा जहां सब काम विश्राम हो जाता है, सिर्फ तुम्हीं बचते हो; जहां कोई कर्ता नहीं बचता, जहां सिर्फ साक्षी बचता है-वही उसका घर है।
ईश्वर तुम्हारे एक अंग को नहीं घेरेगा वह महान है, विराट है, तुम पूरे ही उससे घिरोगे तो ही तुम्हें घेर पाएगा। तुमने अगर कहा कि कुछ थोड़ा-सा समय तुझे भी देंगे, तो तुम भटकोगे। जिस दिन तुम अपने को पूरा ही दे दोगे…। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम कोई काम न कर पाओगे। तुम काम और भी भली- भांति कर पाओगे; लेकिन तब तुम्हारे प्रत्येक काम में ईश्वर की धुन बजने लगेगी। तब वह तुम्हारे भीतर होगा-जैसे श्वांस चल रही है। तुम बाजार जाते हो तो तुम श्वांस लेना बंद तो नहीं कर देते। तुम दुकान पर बैठते हो, तब तुम श्वांस लेना बंद तो नहीं कर देते। तुम किसी से बात करते हो, तो तुम श्वांस लेना बंद तो नहीं कर देते। श्वांस कृत्य का हिस्सा नहीं है। तुम सब करते रहते हो, भीतर श्वांस चलती रहती है। ऐसे ही, जब परमात्मा तुम्हारे भीतर का हिस्सा होगा, तुम सब करते रहोगे और उसकी धारा तुम्हारे भीतर अहर्निश बहती रहेगी।
तुम्हारे करने से उसकी कोई प्रतियोगिता नहीं है। वह संसार का हिस्सा नहीं है। करने से संसार बनता है। कृत्य से संसार बनता है। इसलिए हम कहते हैं कि जब तक कोई कर्म में जुड़ा है, तब तक संसार में बना रहेगा; जब अकर्म को उपलब्ध होता है, तब परमात्मा को उपलब्ध होता है।
अकर्म का अर्थ है—तुम्हारा अस्तित्व, जहां करने का कोई सवाल नहीं; जहा तुम सिर्फ हो, तुम्हारा होना मात्र; वहां से तुम जुडो।

Wednesday 11 February 2015

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि किसी तरह अशांति के बाहर निकाल लें। मैं उनसे कहता हूं कि तुम अशांति को स्वीकार कर लो। एकदम उन्हें समझ में नहीं आता, क्योंकि वे आए हैं अशांति को छोड़ने। मैं उनसे कहता हूं, अशांति को स्वीकार कर लो। उनके आने का कारण बिलकुल भिन्न है। वे चाहते हैं कि कोई अशांति से छुड़ा दे। कोई विधि होगी, कोई उपाय होगा, कोई औषधि होगी, कोई मंत्र—तंत्र, कुछ यज्ञ—हवन—कुछ होगा, जिससे अशांति छूट जाएगी। और दुनिया में सौ गुरुओं में निन्यानबे ऐसे हैं कि तुम जाओगे तो वे जरूर तुम्हें कुछ कह देंगे कि यह करो तो अशांति छूट जाएगी।
मेरी अड़चन यह है कि मैं जानता हूं अशांति को छोड़ने का कोई उपाय ही नहीं है—स्वीकार करने का उपाय है। और स्वीकार करने में अशांति विसर्जित हो जाती है। मैं जब कहता हूं अशांति विसर्जित हो जाती है तो तुम यह मत समझना कि अशांति छूट जाती है। अशांति होती रहे या न होती रहे, तुम अशांति से छूट जाते हो। तुमसे अशांति छूटे या न छूटे, तुम अशांति से छूट जाते हो।
इस मन की व्यवस्था को समझें। मन अशांत है, तुम कहते हो शांत होना चाहिए। मन तो अशांत था, एक और नई अशांति तुमने जोड़ी कि अब शांत होना चाहिए। मन की अशांति को समझो। तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं, तुम दस लाख चाहते थे, इसलिए मन अशांत है। जितना है उससे तुम तृप्त न थे। जो नहीं है वह तुम मांग रहे थे। ‘नहीं’ की मांग से अशांति आई। अशांति आती है अभाव से। जो है, उससे अशांति कभी नहीं आती है; जो नहीं है, उसकी मांग से आती है।
जो आदमी साधारणत: अशांत है और शांति की झंझट में नहीं पड़ा है, वह उस आदमी से ज्यादा शांत होता है जो शांत होना चाहने की झंझट में पड़ गया है। यह एक और उपद्रव हुआ। अशांत तो तुम थे ही, तर्क था कि जो नहीं है वह होना चाहिए; अब शांति नहीं है, शांति होना चाहिए। एक और नई झंझट शुरू हुई।
जब भी कोई शांत हुआ है, अशांति को स्वीकार करके हुआ है। सुन कर मुझे, समझ कर मुझे कोई राजी हो जाता है कि ‘ अच्छा, तो स्वीकार कर लेते हैं; फिर शांत हो जाएंगे? स्वीकार कर लेते हैं, फिर शांत हो जाएंगे? कब तक शांत होंगे? चलो स्वीकार कर लेते हैं। ‘तो मैं उनसे कहता हूं यह तुमने स्वीकार किया ही नहीं। अभी भी तुम्हारी मांग तो कायम है कि शांत होना है। स्वीकार करने का अर्थ है. जैसा है, वैसा है; अन्यथा हो नहीं सकता। जैसा है, वैसा ही होगा। जैसा हुआ है, वैसा ही होता रहा है।
जब तुम इस भांति स्वीकार कर लेते हो तो पीछे यह प्रश्न खड़ा नहीं होता कि स्वीकार करने से हम शांत हो जाएंगे? और शांति उसी घटना की स्थिति है, जब जो है स्वीकार है। फिर कैसे अशांत होओगे बताओ मुझे? फिर क्या उपाय है अशांत होने का? जो है, जैसा है—स्वीकार है। फिर तुम्हें कौन अशांत कर सकेगा, कैसे अशांत कर सकेगा? फिर तो अगर अशांति भी होगी तो स्वीकार है। फिर तो दुख भी आएगा तो स्वीकार है। फिर तो मौत भी आएगी तो स्वीकार है। तुमने चुनाव छोड़ दिया, तुमने संकल्प छोड़ दिया, तुम समर्पित हो गये। तुमने कहा, अब जो है वही है। और उसी दिन वह महाक्रांति घटती है।

Tuesday 10 February 2015

मनुष्य उससे ही नहीं बंधता जो करता है; उससे भी बंध जाता है जो करना चाहता है। किया या नहीं, इससे बहुत भेद नहीं पड़ता; करना चाहा था तो बंधन निर्मित हो जाता है। चोरी की या नहीं—अगर की तो अपराध हो जाता है, लेकिन न की हो तो भी पाप तो हो ही जाता है।
पाप और अपराध का यही भेद है। सोचा, तो पाप तो हो गया। कोई पकड़ नहीं सकेगा। कोई अदालत, कोई कानून तुम्हें अपराधी नहीं ठहरा सकेगा, अपने घर में बैठ कर तुम सोचते रहो—डाके डालना, चोरी करनी, हत्या करनी—कौन नहीं सोचता है!
विचार पर समाज का कोई अधिकार नहीं, जब तक कि विचार कृत्य न बन जाए। इस कारण तुम इस भांति में मत पड़ना कि विचार करने में कोई पाप नहीं; क्योंकि तुमने विचार किया, तो परमात्मा के समक्ष तो तुम पापी हो ही गए। तुमने सोचा—इतना काफी है; तुम तो पतित हो ही गए। विचार की तरंग उठी, न बनी कृत्य, इससे भेद नहीं पड़ता; लेकिन तुम्हारे भीतर तो मलिनता प्रविष्ट हो गई।
किया, तो अपराध बन जाता है; न किया, सोचा, तो भी पाप बन जाता है।तुमने देखा, जब तुम भीतर विचार करते हो क्रोध का, तो तुम्हारे लिए तो क्रोध घट ही गया! तुम तो उसी में उबल जाते हो। तुम तो जल जाते हो, तुम तो दग्ध हो जाते हो। फिर तुमने क्रोध किया है या नहीं किया, यह दूसरी बात है। भीतर— भीतर तो छाले पड़ गए, भीतर— भीतर तो घाव हो गए। वह तो क्रोध के भाव में ही हो गए। क्रोध में ही क्रोध का परिणाम है।
इसलिए परमात्मा को धोखा देने का उपाय नहीं है। उसने परिणाम को कारण से दूर नहीं रखा है। आग में हाथ डालो तो ऐसा नहीं कि इस जन्म में हाथ डालोगे और अगले जन्म में जलोगे; हाथ डाला कि जल गये।
यहां भी आदमी ने तरकीबें निकाली हैं। लोग कहते हैं : अभी करोगे, अगले जन्म में भरोगे। क्या मजे की बात कह रहे हैं! वे कह रहे हैं : अभी पाप करोगे, अगले जन्म में मिलेगा फल; इतनी तो अभी सुविधा है! कौन देख आया अगले जन्म की! और तब तक बीच में कुछ पुण्य कर लेंगे, बचने का कुछ उपाय कर लेंगे; पूजा, प्रार्थना, अर्चना कर लेंगे; पंडित, पुरोहित को नौकरी पर लगा देंगे; मंदिर बना देंगे, दान करेंगे, धर्मशाला बना देंगे—कुछ कर लेंगे! अभी तो होता नहीं!

Monday 9 February 2015

मनुष्य के जीवन में जो भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वह है समय। समय–जो दिखाई भी नहीं पड़ता। समय–जिसकी कोई परिभाषा भी नहीं की जा सकती है। समय–जो हमें जन्म से लेकर मृत्यु तक घेरे हुए है, वैसे जैसे मछली को सागर घेरे हुए है। लेकिन न जिसका हमें कोई स्पर्श होता है, न जो हमें दिखाई पड़ता है, न हम जिसका कोई स्वाद ही ले सकते हैं–हम निरंतर उसकी बात करते हैं। और कहीं गहरे में कुछ अनुभव भी होता है कि वह है। लेकिन जैसे ही पकड़ने जाते हैं परिभाषा में, हाथ से छूट जाता है।
समय भी ऐसे ही मनुष्य को घेरे हुए है। और जटिलता थोड़ी ज्यादा है। सागर के किनारे तो फेंकी जा सकती है मछली, समय के किनारे मनुष्य को फेंकना इतना आसान नहीं है। और मछली को तो कोई दूसरा मछुआ सागर के किनारे तो फेंक सकता है रेत में, आपको कोई दूसरा आदमी समय के किनारे रेत में नहीं फेंक सकता। आप ही चाहें तो फेंक सकते हैं। मछली खुद ही छलांग ले ले, तो ही किनारे पर पहुंच सकती है।
ध्यान समय के बाहर छलांग है।इसलिए ध्यानियों ने कहा है: ध्यान है कालातीत, बियांड टाइम।
ध्यानियों ने कहा है, जहां समय मिट जाता है, वहां समझना कि समाधि आ गई। जहां समय का कोई भी पता नहीं चलता, जहां न कोई अतीत है, न कोई भविष्य, न कोई वर्तमान; जहां समय की धारा नहीं है, जहां समय ठहर गया, टाइमलेस मोमेंट, समय-रहित क्षण आ गया–तब समझना कि ध्यान हो गया।
ध्यान और समय विपरीत हैं।अगर समय है सागर, तो ध्यान सागर से छलांग है।
और जटिलता है। और जटिलता यह है कि मछली सागर के बाहर तड़पती है, सागर में उसका जीवन है। और हम समय में तड़पते हैं, और समय के बाहर हमारा जीवन है। हम समय में तड़पते ही रहते हैं। समय के भीतर कोई आदमी तड़पन से मुक्त नहीं हो पाता है।
समय के भीतर दुख अनिवार्य है।समय में रहते हुए पीड़ा के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। हां, एक उपाय है, वह धोखा है। और वह है बेहोश हो जाना। बेहोश होकर हम समय भूल जाते हैं, समय के बाहर नहीं होते हैं। जैसे मछली को बेहोशी का कोई इंजेक्शन दे दे, रहे सागर में ही। लेकिन सागर के बाहर जैसे ही हो जाएगी, क्योंकि बेहोश हो जाएगी। जिसका बोध ही नहीं है, उससे हम बाहर मालूम पड़ते हैं।
समय के भीतर जितनी पीड़ाएं हैं, उनका हल बेहोशी है। इसलिए नाराज मत होना लोगों पर, अगर कोई शराब पी रहा है। वह भी ध्यान की तलाश कर रहा है। कोई और मादकता में डूब रहा है–कोई संगीत में, कोई नृत्य में। कोई काम-वासना में लीन हो रहा है–वह भी मूर्च्छा खोज रहा है। वह यह कोशिश कर रहा है कि यह जो समय की पीड़ा का सागर है, इसके बाहर कैसे हो जाऊं?

Sunday 8 February 2015

बोधिसत्व शरीर से मुक्त हो जाता है। जगत उसे देख नहीं पाता, लेकिन वह जगत को देख पाता है। जगत उसे समझ नहीं पाता, लेकिन वह जगत को समझ पाता है। और जगत को न मालूम कितने उपायों से वह सहायता भी पहुंचाता है। उसका कोई धन्यवाद भी उसे नहीं मिलता है। मिलने का कोई कारण भी नहीं, क्योंकि जिन्हें सहायता पहुंचाई जाती है, वे उसे देख भी नहीं सकते हैं।

जाग्रत व्यक्ति का संकल्प होता है, उसकी स्वेच्छा होती है, वह जो चाहे करे।  यह कहता है, स्वेच्छा से जीने के लिए तू बाध्य होगा। कोई तुझे बाध्य न कर सकेगा कि रुक और सेवा कर, रुक और करुणा से लोगों को जगा; और सोए, पीड़ित, दुखी, विक्षिप्त लोगों की बीमारी दूर कर, उनके लिए औषधि बन, उनके लिए चिकित्सक बन। कोई तुझे बाध्य न करेगा, लेकिन तू स्वयं ही बाध्य होगा। यह तेरी स्वेच्छा ही होगी, तू स्वयं ही चुनेगा कि मैं रुक जाऊं।
“लेकिन तू मनुष्यों के द्वारा न देखा जाएगा, और न उनका धन्यवाद ही तुझे मिलेगा। और अभिभावक-दुर्ग को बनानेवाले अन्य अनगिनत पत्थरों के बीच तू भी एक पत्थर बन कर जीएगा। करुणा के अनेक गुरुओं के द्वारा निर्मित उनकी यातनाओं के सहारे ऊपर उठा और उसके रक्त से जुड़ा यह दुर्ग मनुष्य-जाति की रक्षा करता है। क्योंकि मनुष्य मनुष्य है, इसलिए यह उसे भारी विपदाओं और शोक से बचाती है।’
यह एक प्रतीक है सत्य समझने योग्य। पहली तो बात यह है कि बोधिसत्व का कृत्य दिखाई नहीं पड़ता। बोधिसत्व भी दिखाई पड़ जाए, तो भी उसका कृत्य दिखाई नहीं पड़ता। वह जो कर रहा है, वह सूम है। वह जो कर रहा है, वह आपके अचेतन में वहां काम कर रहा है, जहां का आपको भी पता नहीं है। उसके करने के अपने रास्ते हैं।


Saturday 7 February 2015

परमात्मा और प्रकृति के बीच नर्तक और नृत्य जैसा संबंध है। प्रकृति निर्भर है परमात्मा पर। परमात्मा प्रकृति पर निर्भर नहीं है। परमात्मा न हो, तो प्रकृति खो जाएगी, शून्य हो जाएगी। लेकिन परमात्मा प्रकृति के बिना भी हो सकता है। भेद भी है और अभेद भी, भिन्नता भी है और अभिन्नता भी, दोनों एक साथ।
प्रकृति के बीच परमात्मा वैसे ही है, जैसे नृत्य के बीच नर्तक है। लेकिन जब नर्तक नाचता है, तो शरीर का उपयोग करता है। शरीर की सीमाएं शुरू हो जाती हैं। पैर थक जाएगा, जरूरी नहीं कि नर्तक थके। पैर टूट भी सकता है, जरूरी नहीं कि नर्तक टूटे। पैर चलने से थकेगा, पैर की सीमा है। हो सकता है, नर्तक अभी न थका हो। नर्तक नृत्य करते शरीर के भीतर कैटेलिटिक एजेंट की तरह है।
सारी प्रकृति बर्तती है अपने-अपने गुणधर्म से, परमात्मा की मौजूदगी में। सिर्फ उसकी प्रेजेंस काफी है। बस वह है, और प्रकृति बर्तती चली जाती है। लेकिन वर्तन का कोई भी कृत्य परमात्मा को कर्ता नहीं बनाता है। कर्ता और स्रष्टा में मैं यही फर्क कर रहा हूं। उसके बिना सृष्टि चल नहीं सकती, इसलिए उसे मैं स्रष्टा कहता हूं। वह सृष्टि को चलाता नहीं रोज-रोज, इसलिए उसे मैं कर्ता नहीं कहता हूं।

Friday 6 February 2015

प्रिय को जो प्रिय समझकर आकर्षित न होता हो; अप्रिय को अप्रिय समझकर जो विकर्षित न होता हो; जो न मोहित होता हो, न विराग से भर जाता हो; जो न तो किसी के द्वारा खींचा जा सके और न किसी के द्वारा विपरीत गति में डाला जा सके–ऐसे स्वयं में ठहर गए व्यक्तित्व को, ऐसी स्वयं में ठहर गई बुद्धि को कृष्ण कहते हैं, सच्चिदानंद परमात्मा की स्थिति में सदा ही निवास मिल जाता है।
इसमें दोत्तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।
किसे हम कहते हैं प्रिय? कौन-सी बात प्रीतिकर मालूम पड़ती है? कौन-सी बात अप्रीतिकर, अप्रिय मालूम पड़ती है? और किसी बात के प्रीतिकर मालूम पड़ने में और अप्रीतिकर मालूम पड़ने में कारण क्या होता है?
इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती मालूम पड़ती है–देती है या नहीं, यह दूसरी बात–इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती मालूम पड़ती है, वह प्रीतिकर लगती है। इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती नहीं मालूम पड़ती, उसके प्रति तिरस्कार शुरू हो जाता है। और इंद्रियों को जो चीज विधायक रूप से कष्ट देती मालूम पड़ने लगती है, वह अप्रीतिकर हो जाती है। फिर जरूरी नहीं है कि आज इंद्रियों को जो चीज प्रीतिकर मालूम पड़े, कल भी मालूम पड़े। और यह भी जरूरी नहीं है कि आज जो अप्रीतिकर मालूम पड़े, वह कल भी अप्रीतिकर मालूम पड़े। आज जो चीज इंद्रियों को प्रीतिकर मालूम पड़ती है, बहुत संभावना यही है कि कल वह प्रीतिकर मालूम नहीं पड़ेगी।
जब तक कुछ मिलता नहीं, तब तक आकर्षित करता है। जैसे ही मिलता है, व्यर्थ हो जाता है। सारा आकर्षण न मिले हुए का आकर्षण है। दूर के ढोल सुहावने मालूम पड़ते हैं। जैसे-जैसे जाते हैं पास, वैसे-वैसे आकर्षण क्षीण होने लगता है। और मिल ही जाए जो चीज चाही हो, तो क्षणभर को भला धोखा हो जाए, मिलने के क्षण में, लेकिन मिलते ही आकर्षण विदा होने लगता है। बहुत शीघ्र ही आकर्षण की जगह तिरस्कार, और तिरस्कार के बाद विकर्षण जगह बना लेता है।

Thursday 5 February 2015

भय शायद आंतरिक मार्ग पर सबसे बड़ी कठिनाइयों में एक है। और ऐसा भय नहीं, जिससे हम संसार में परिचित हैं, कुछ और ही तरह का भय है। भय दो प्रकार के हैं। एक तो भय है, जिसका प्रत्यक्ष कारण सामने होता है। कोई आदमी छाती के सामने छुरा लेकर खड़ा है, आप भयभीत होते हैं। इस भय का कारण प्रत्यक्ष है, सामने है। एक और भय है।
एक तो भय का यह आयाम है, जहां कारण होते हैं। कारण बाहर होते हैं, भीतर आप भयभीत होते हैं। कारण भी भय पैदा नहीं करते। सिर्फ जो भय भीतर सोया है, उसे जगा देते हैं; वह जो भीतर छिपा है, उसे प्रकट कर देते हैं। कोई छुरा लेकर छाती के सामने खड़ा हो, तो उसके छुरे से भय पैदा नहीं होता। भय तो भीतर है, छुरे से प्रकट हो जाता है। लेकिन कारण है, साफ है।
दूसरा भय और भी गहरा है, जो छुरे के कारण या किसी बाहय स्थिति के कारण नहीं अनुभव होता, बल्कि भीतर जो भय पड़ा है, उसके कंपन से ही प्रतीत होता है। अकारण प्रतीत होता है। अध्यात्म के मार्ग पर वह जो अकारण भय प्रतीत होता है, वही बाधा है। और जैसे-जैसे व्यक्ति संसार से दृष्टि हटाने लगता है, वैसे-वैसे कारण विलीन होने लगते हैं। और खुद का ही भय कंपित होने लगता है। अब कोई कंपाने वाला नहीं होता, अपना ही भय है।
कारण वाले भय से तो छूटना आसान है; क्योंकि कारण की रुकावट की जा सकती है, कारण से बचाव किया जा सकता है। कोई छुरा लेकर खड़ा हो, तो आप तलवार लेकर खड़े हो सकते हैं। अपने चारों तरफ सुरक्षा की दीवाल बना सकते हैं। बीमारी हो, तो औषधि का इंतजाम हो सकता है। बाहर जो कारण हैं, उनके विपरीत कारण बाहर निर्मित किए जा सकते हैं। और भय से सुरक्षा मिल जाती है। लेकिन जब अकारण भय का पता चलता है कि भय बाहर से नहीं आ रहा, कोई उसे जगा नहीं रहा, भय मेरे भीतर ही है, मेरी आत्मा में ही है। मैं अपने से ही कंप रहा हूं, कोई मुझे कंपा नहीं रहा। यह कंपन मेरा ही है, मेरे अस्तित्व में ही यह कंपन छिपा है। तब बड़ी कठिनाई होती है कि उपाय क्या हो? इस भय को मिटाने के लिए क्या किया जाए? इससे सुरक्षित होने के लिए कौन सा आयोजन हो?
जितना ही भीतर होता है कंपन, उतने ही आप दृढ़ नहीं हो पाते हैं। जितना होता है भीतर कंपन, आपको अपनी ही बात का कोई भरोसा नहीं हो पाता। आप जानते हैं कि जो आप कह रहे हैं, वह कहते समय भी आप कंप रहे हैं। आप जानते हैं, जो आप निर्णय ले रहे हैं, निर्णय लेते समय भी कंप रहे हैं। आप जानते हैं कि आपका संकल्प सदा अधूरा है। और अधूरा संकल्प, संकल्प नहीं है। अधूरे संकल्प का कोई अर्थ ही नहीं होता। कोई आदमी कहे कि मैं आधा तैयार हूं, उसका कोई अर्थ नहीं होता। तैयारी या तो पूरी होती है या नहीं होती। आप अगर कहें कि मैं छलांग लगाने को आधा तैयार हूं, तो कैसे छलांग होगी? एक पैर तैयार नहीं है और एक पैर तैयार है–आधे आप तैयार हैं। छलांग होगी कैसे? छलांग तो तभी हो सकती है, जब तैयारी पूरी हो। जरा सा भी विपरीत भाव मन में है, तो छलांग नहीं हो सकती। और जो भय से कंप रहा

Wednesday 4 February 2015

केंद्र से देखें, तो मनुष्य परमात्मा है। और मनुष्य को उसकी परिधि की तरफ से देखें, तो मनुष्य संसार है। बाहर से पकड़ें मनुष्य को, तो पदार्थ है; भीतर से चिन्मय ज्योति है।
मनुष्य दो का मिलन है–आकार का और निराकार का।
और यही मनुष्य की पीड़ा भी है; यही उसका आह्लाद है। मनुष्य की पीड़ा यही है कि वह एक नहीं, दो से निर्मित है, दो विपरीत तत्वों से। इसलिए उसके भीतर निरंतर तनाव है, खिंचाव है। पदार्थ खींचता है अपनी ओर, आत्मा खींचती है अपनी ओर। और मनुष्यता दोनों के बीच में फंस जाती है, जकड़ जाती है, उलझ जाती है।
अगर एक ही तत्व हो, तो कोई तनाव न हो। मरे हुए आदमी में फिर कोई तनाव नहीं होता; उसकी देह फिर शांत हो जाती है। समाधिस्थ आदमी में भी फिर कोई तनाव नहीं होता; आत्मा ही बचती है। मृतक देह पड़ी हो, तो शरीर बचा है, समाधिस्थ व्यक्ति पड़ा हो, तो उसके लिए भीतर अब आत्मा ही बची है, शरीर भूल गया है। जब तक दोनों हैं–और दोनों के बीच हम डांवांडोल हैं–तब तक चिंता, तनाव, संताप, बेचैनी है। और कहीं भी कोई किनारा लगता मालूम नहीं पड़ेगा। और दोनों ही खींचते हैं अपनी ओर। स्वभावतः ठीक है खींचना। पदार्थ खींचता है नीचे की ओर; आत्मा उठ जाना चाहती है ऊपर की ओर।

Tuesday 3 February 2015

ध्यान का इतना ही अर्थ है कि तुम चुप एक घंटा, दो घंटा, तीन घंटा—जितनी देर तुम्हें मिल जाए, खाली बैठ जाओ, कुछ मत करो। सिर्फ देखते रही, ताकि धीरे— धीरे तुम्हारी आंख पैनी और गहरी हो जाए और तुम्हें यह दिखाई पड़ने लगे कि सभी जो हुआ मेरे जीवन में, मैं ही उसका कारण था। यह प्रतीति आते ही व्यर्थ का बोना बंद हो जाएगा। तब एक सार्थक नृत्य पैदा होता है।
धर्म परम आनंद है; वह त्याग की उदासी नहीं, वह अस्तित्व का भोग है। वह महाभोग में सम्मिलित होना है। वह अस्तित्व के नृत्य के साथ एक हो जाना है। धर्म को तुम त्याग और उदासी की भाषा में सोचना ही मत। वह गलत धर्म है, जो त्याग और उदासी की भाषा में सोचता है। सही धर्म हमेशा नृत्य है। वह आनंद का है। सही धर्म हमेशा बजती हुई बांसुरी है।
आत्मा नर्तक है, अंतरात्मा रंगमंच है। और, यह जो नृत्य हो रहा है, यह कहीं बाहर नहीं हो रहा है; यह तुम्हारे भीतर ही चल रहा है। यह संसार रंगमंच नहीं है; तुम्हारी अंतरात्मा ही रंगमंच है। तुम कितना ही सोचो कि तुम बाहर चले गये हो, कोई बाहर जा नहीं सकता जाओगे कैसे बाहर? तुम रहोगे अपने भीतर ही। वहीं सब खेल चल रहा है। सब खेल वहां चलता है, फिर बाहर उसके परिणाम दिखाई पड़ते है। ऐसे जैसे तुम कभी सिनेमागृह में जाते हो, तो पर्दे पर सब खेल दिखाई पड़ता है; लेकिन खेल असल में तुम्हारी पीठ के पीछे प्रोजैक्टर में चलता होता है, पर्दे पर सिर्फ दिखाई पड़ता है। पर्दा असली रंगमंच नहीं है; लेकिन आंखें तुम्हारी पर्दे पर लगी रहती हैं और तुम भूल ही जाओगे— भूल ही जाते हो कि असली चीज पीछे चल रही है। सारा फिल्म का जाल पीछे है, पर्दे पर तो केवल उसका प्रतिफलन है।