Saturday 30 January 2016

कन्फूशियस चीन के प्राचीन और प्रसिद्ध दार्शनिकों में से एक है। जैसा कि सभी प्राचीन पौर्वात्‍य व्‍यक्‍तियों के साथ हुआ है, इतिहास में उसके जन्‍म और मृत्‍यु की कोई सुनिश्‍चत तारीख दर्ज नहीं है। जो भी उपलब्‍ध है वह केवल अनुमान है। कन्‍फ्यूशियस का जीवन काल ईसा पूर्व 551-479 बताया जाता है। कुछ इतिहासविद् उससे सहमत है, कुछ नहीं। जो भी हो, उसके जैसे व्‍यक्‍तियों के वचन महत्‍वपूर्ण होते है, उनका इतिहास या भूगोल नहीं। उसके जीवन के संबंध में जो भी आंशिक जानकारी इधर-उधर उपलब्‍ध है उसे जोड़कर जो चित्र बनता है वह यह कि कन्‍फ्यूशियस सामान्‍य परिवार में पैदा हुआ, वह विवाहित था। जीते जी उसकी ख्‍याति एक विद्वान और सर्वज्ञ ऋषि के रूप में फैल चुकी थी। और वह लगातार उसका खंडन करता था। वह इसका इन्‍कार करता था कि वह उसके पास कोई विशेष ज्ञान है। उसके मुताबिक उसके पास जो असाधारण बात थी वह थी सत्तत सीखने की प्‍यास। सुदूर अतीत में जो दिव्‍य शास्‍ता थे उनके आगे वह स्‍वयं को नाकुछ मानता था।
उसका काम सिर्फ इतना था कि प्राचीनतों के ज्ञान को वह हस्‍तांतरित करे। पुरातन में उसका विश्‍वास और निर्भरता अटूट थी।
परंपरा के अनुसार कन्‍फ्यूशियस के 72 शिष्‍य थे और एनेलेक्टस में बीस शिष्‍यों के सूत्र है। एनेलेक्‍टस चीनी शब्‍द ‘’लून यू’’ का अनुवाद है। उसका अर्थ है। चुनिंदा वचन। इस किताब के बीस परिच्‍छेद है और इसकी सामग्री से पता चलता है कि ये कन्‍फ्यूशियस की मृत्‍यु के अरसे बाद लिखे गये है। कन्‍फ्यूशियस के शिष्‍यों की कई शाखाएं बन गई थी। उसके पट्टी शिष्य मास्‍टर त्‍सेंग की मृत्‍यु हो चुकी थी। इन बीस परिच्‍छेदों में से सिर्फ तीन से नौ तक परिच्‍छेद पुराने और कन्‍फ्यूशियस के मूल रूपेण मालूम होते है। 10 और 20 परिच्‍छेद का मूल सूत्रों से कोई संबंध नहीं है। दसवां परिच्‍छेद क्रिया कांडो के नियमों का संकलन है और बीसवें में शु चिंग प्रणाली के वचन है। उन्‍नीसवें परिच्‍छेद में सिर्फ शिष्‍यों के वचन है। 18, 17 और 14 के परिच्‍छेदों में तो कन्‍फ्यूशियस के विरोधकों के वचन संग्रहीत है।
मूल किताब का सर्वसंमत समय है ईसा पूर्व चौथी शताब्दी। लेकिन इस किताब में अलग-अलग लोगों के वचनों की जो खिचड़ी पकाई गई है उसे देखते हुए लगता है कि क्‍या कन्‍फ्यूशियस के कुछ असली सूत्र हमारे हाथ लगेंगे। इस संबंध में चीनी मुहावरों का चलन समझ लें तो हम रिलैक्‍स हो जायेंगे। चीन सदा से प्राचीन प्रज्ञा को मानता रहा है। और इसीलिए जो भी सूत्र वहां प्रचलित है वे प्राचीन समय में चले आ रहे है। कोई भी एक व्‍यक्‍ति उनका लेखक नहीं है। कन्‍फ्यूशियस भी खुद को एक माध्‍यम मानता है, द्रष्‍टा नहीं।
अब हम उन परिच्‍छेदों को देखें जो यकीनन कन्‍फ्यूशियस के माने जाते है। वे है तीन से लेकर नौ तक। इनकी आबोहवा, सोच, अभिव्‍यक्‍ति कन्‍फ्यूशियस दर्शन से मेल खाती है। उनके विषय है—क्रिया कांड, भलाई, शिष्‍यों का मूल्यांकन, कन्‍फ्यूशियस का स्‍वयं के संबंध में वक्तव्य और कुछ शिष्‍यों की कहानियां। कन्‍फ्यूशियस के वचन ‘’दि मास्‍टर सैड’’ इन शब्‍दों से शुरू होते है। अन्‍य शिष्‍यों को भी मास्‍टर कहा गया है। लेकिन आगे उनका नाम भी आता है।
किताब की एक झलक:
मास्‍टर ने कहा: उच्च पद पर संकीर्ण दृष्‍टि के लोग, कोई भी धार्मिक क्रिया बिना आदर के साथ बिना दुःख के निभाई गई मृत्‍यु शोक की रस्‍में–इन्‍हें देख सकता ।
मास्‍टर ने कहा: भलाई के बगैर आदमी लंबे समय तक विपदा नहीं झेल सकता। और न ही लंबे समय तक संपदा को भोग सकता है।
मास्‍टर ने कहा: धन और पद हर व्‍यक्‍ति को चाहत होती है। लेकिन यदि वे उसके मार्ग में अवरोध बनते है तो उन्‍हें छोड़ देना चाहिए। गरीबी और अपनी पहचान नहीं होना, इससे हर कोई नफरत करता है। लेकिन यदि वे उसके मार्ग में बाधा नहीं बनते है तो उनका वरण करना चाहिए। जो सज्‍जन भलाई का दामन छोड़ते हों वे सज्‍जन कहलाने योग्‍य नहीं है। सज्‍जन भलाई की राह से कभी भटकते नहीं है। वे कभी इतने परेशान नहीं होते कि इसके आगे घुटने टेक दें। या कभी इतने बेहाल नहीं होते कि इसके आगे झक जाएं।
मास्‍टर ने कहा: सुबह को मार्ग के संबंध में सुनो, सांझ संतुष्‍ट मर जाओ।
मास्‍टर ने कहा: मेरे मार्ग पर एक ही धागा है जो उसके भीतर से बहता है।
मास्‍टर चेंग ने कहा, ‘’हां’’
जब मास्‍टर बाहर चले गये तब शिष्‍यों ने पूछा इसका क्‍या मतलब हुआ। मास्‍टर चेंग ने कहा, ‘’हमारे मास्‍टर का मार्ग है: वफादारी है, सोच।‘’
मास्‍टर ने कहा: भले आदमी की मौजूदगी में सतत सोचो कि तुम उसके जैसे कैसे हो सको। बुरे आदमी की मौजूदगी में अपनी आंखें भीतर मोड़ लो।
मास्‍टर ने कहा: पुराने जमाने में व्‍यक्‍ति अपने शब्‍दों पर नियंत्रण रखता था क्‍योंकि उसे यह डर होता था कि अगर वह शब्‍दों को आचरण में न उतार सके तो उसकी कितनी बेइज्‍जती होगी।
मास्‍टर ने कहा: सज्‍जन यह ख्‍याति चाहता है कि वह बोलने में धीमा है लेकिन काम करने में तेज है।
मास्‍टर ने कहा: जान युंग भला है लेकिन बोलने में कमजोर है।‘’
मास्‍टर ने कहा: उसे अच्‍छा वक्‍ता होने की जरूरत क्‍या है?
जो होशियारी के साथ दूसरों को नीचा दिखाते है वे कभी लोकप्रिय नहीं होते। वह भला है या नहीं। यह मैं नहीं जानता लेकिन उसे कुशल वक्‍ता बनने की कोई जरूरत नहीं है।‘’
मास्‍टर ने कहा: साइ यू दिन में सोता था। सड़ी हुई लकड़ी का शिल्‍प नहीं बन सकता। और न ही सूखे गोबर के कंडों से बनी दीवाल पर पलास्टर लग सकता है। में उसे डांट भी दूँ तो क्‍या फायदा।
मास्‍टर ने कहा: एक समय था जग मैं लोगों की बातें बड़े गौर से सुनता था और मान लेता था कि वे उनके शब्‍दों पर अमल करेंगे। और अब ने केवल उनकी बातों को सुनता हूं वरन वे जो कहते है उस पर भी नजर रखता हूं। त्‍साई यु के साथ मेरा जो तजुर्बा था उसे यह बदलाहट आई है।
मास्‍टर ने कहा: मुझे जो सिखाया गया था, उसे मैंने यथावत हस्‍तांतरित किया, उसमें अपनी और सक कुछ भी जोड़ा नहीं। मैं प्राचीनों के प्रति निष्‍ठावान था और उनसे प्रेम करता था। मैं मौन होकर सुनता रहा और जो कहा गया उसे आत्‍मसात करता गया। मैं सीखने से कभी थका नहीं और जो सीखा उसे दूसरों को सिखाने से भी निश्‍चय ही ये गुण है जिनका मैं दावा कर सकता हूं। ये ख्‍यालात मुझे उद्विग्‍न करते है कि मैंने अपनी नैतिक शक्‍ति की और ध्‍यान नहीं दिया, मेरी शिक्षा को पूरा नहीं किया, कि मैंने ईमानदार लोगों के बारे में सुना लेकिन मैं उनके पास नहीं गया, मैंने दुर्जनों के बारे में सुना लेकिन मैं उन्‍हें सुधार नहीं सका।
विश्राम के समय मास्‍टर का मिज़ाज सहज और मुक्‍त होता था। उनके भाव हमेशा प्रसन्‍न और सजग होते थे।
ओशो का नज़रिया:
मुझे कन्‍फ्यूशियस बिलकुल पसंद नहीं है, और उसमें मुझे कोई अपराध भाव महसूस नहीं होता। मुझे बड़ा हल्‍का लग रहा है यह सोचकर अब यह किताब में दर्ज हो रहा है। कन्‍फ्यूशियस और लाओत्से समसामयिक थे। लाओत्से उम्र में थोड़ा बड़ा था। कन्फ्यूशियस लाओत्से से मिलने भी गया था। लेकिन कंपते हुए वापस आया। जड़ें हिल गई थीं, पसीना-पसीना हो गया था।
उसके शिष्‍यों ने पूछा, ‘’क्‍या हुआ गुफा में? आप दोनों ही थे भीतर, और कोई नहीं था।‘’
‘’वह वास्‍तव में खतरनाक है।‘’
कन्‍फ्यूशियस सच कह रहा था। लाओत्से जैसा आदमी तुम्‍हें मार सकता है। ताकि पुनरुज्जीवित कर सके। और जब तम तुम करने को तैयार नहीं होते तब तक तुम्‍हारा पुनर्जन्‍म नहीं हो सकता है। कन्‍फ्यूशियस अपने ही पूनर्जन्‍म से भाग खड़ा हुआ। मैंने लाओत्से को चुन लिया है। सदा के लिए। कन्‍फ्यूशियस बहुत साधारण, बहुत भौतिक जगत का हिस्‍सा है। ये बात दर्ज हो कि मैं उसे पसंद नहीं करता। वह पाखंडी है। आश्चर्य है कि वह इंग्‍लैंड में पैदा नहीं हुआ। लेकिन उन दिनों चीन इंग्‍लैंड जैसा ही था। उन दिनों इंग्‍लैंड जंगली था, वहशी था, वहां कुछ भी मूल्यवान नहीं था।
कन्‍फ्यूशियस राजनैतिक था, धूर्त और चालाक था। लेकिन बहुत बुद्धिमान नहीं था। अन्‍यथा वह लाओत्से के चरणों में गिर जाता। भागता नहीं। वह सिर्फ लाओत्से से ही डरा नहीं था, वह मौत से भी डर गया था। क्‍योंकि लाओत्से और मौत एक ही है। लेकिन मैं कन्‍फ्यूशियस की कोई प्रसिद्ध किताब सम्‍मिलित करना चाहता था—सिर्फ उसे न्‍याय देने के लिए ‘’एनेलेक्टस’’ उसकी सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण किताब है। मेरे लिए वह एक वृक्ष की जड़ों की भांति है। कुरूप लेकिन आवश्‍यक—जिसे तुम आवश्‍यक अशुभ कहते हो। एनेलेक्टस एक आवश्‍यक अशुभ है। उसमे वह संसार और सांसरिक विषयों के संबंध में, राजनीति और तमाम चीजों के संबंध में बात करता है।
एक शिष्‍य ने पूछा, ‘’मास्‍टर मौन के बारे में क्‍या? वह चिढ़ गया, चिल्‍लाया। चीख कर उसने कहा, खामोश, मौन…. ? मौन का अनुभव तुम कब्र में करोगे। जीवन में उसकी कोई जरूरत नहीं है। बहुत सी महत्‍वपूर्ण चीजें है करने के लिए।‘’
तुम समझ सकते हो मैं उसे पसंद क्‍यों नहीं करता। उस पर दया आती है। भला आदमी था लेकिन दुर्भाग्‍य श्रेष्‍ठतम व्‍यक्‍ति के, लाओत्से के करीब आकर चूक गया। मैं उसके लिए आंसू गिरा सकता हूं
ओशो

Thursday 21 January 2016

एक हार्ट बहुत करीब था। एक कदम और, और संसार का अंत आ जाता—उस पार का लोक खुल जात।
एक हार्ट जर्मन का सबसे रहस्यपूर्ण और ग़लतफ़हमियों से घिरा रहस्‍यदर्शी है। एक सदी पहले तक जर्मन रोमांटिक आंदोलन के द्वारा मिस्‍टर एकहार्ट को, ‘’एक अर्ध रहस्‍यवादी चरित्र’’ समझा जाता था। न तो उसके जन्‍म की तारीख मालूम थी, न स्‍थान। जर्मनी में किसी कब्र पर उसका नाम दिवस खुदा नहीं था। कुछ छुटपुट तथ्‍यों की जानकारी थी—मसलन वह परेसा में पढ़ा, सन 1402 में डाक्‍टर ऑफ थियॉलॉजी की उपाधि प्राप्‍त की, जर्मनी के स्‍टैसवर्ग शहर में वह उपदेशक था। 1322 में कालोन के एक विद्यापीठ में उसे ससम्‍मान आमंत्रित किया गया। और पीठाधीश बनाया गया। तब तमक एकहार्ट अपने रहस्‍यवाद से ओतप्रोत प्रवचनों के लिए प्रसिद्ध हो चुका था। कालोन के आर्चबिशप को रहस्यवाद से चिढ़ थी। उसे उसमें बगावत की बू नजर आती थी। 1326 में उसने एकहार्ट पर मुकदमा दायर किया। उस पर इलजाम था, वह सामान्‍य जनों में खतरनाक सिद्धांत फैल रहा है। एकहार्ट जैसे प्रतिष्‍ठित शिक्षक के खिलाफ लगाया गया यह आरोप अभूतपूर्व था। एकहार्ट ने जवाब दिया कि वह सिर्फ पेरिस विश्वविद्यालय या पोप को जवाब देगा। मुकदमा लंबे समय तक चला। न्यायाधीश बदलते रहे। आखिर स्‍वयं पोप ने धर्म शास्‍त्रियों की समिति नियुक्‍त की। हर नयी समिति एकहार्ट के प्रवचनों के कुछ अंश निकालकर उन्‍हें बगावती, गैर धार्मिक करार देती रही। हर आरोप का खंडन एकहार्ट खुद करता रहा। यह सिलसिला जारी ही था कि इस बीच एकहार्ट की मृत्‍यु हो गई। उसके मरने के एक साल बाद भी पोप ने उसके प्रवचनों के कुछ अंश अलग किए और उन्‍हें खतरनाक और बगावती करार किया।
ईसाई चर्च की साजिश की वजह से सन् 1900 तक एकहार्ट के वचनों को अंधेरे में छुपाया गया। जब उसकी खोजबीन शुरू हुई तब एकहार्ट के लेखन की भाषा पुरानी हो चुकी थी। लेकिन उसके शब्‍दों से उठती हुई सत्‍य की, निजी अनुभव सुगंध आज भी उतनी ही ताजा थी। एक सदी पहले तक उसके कुछ ही प्रवचन उपलब्‍ध थे। अन्‍य सब लेखन गायब थे।
ओशो का नजरिया–
आज मेरी सूची में दूसरा नाम है: एकहार्ट, काश वह पूरब में पैदा होता। जर्मन लोगों में पैदा होकर परम तत्‍व के बारे में बात करना थोड़ा मुश्‍किल काम है। लेकिन इस बेचारे ने यह काम किया, और बहुत अच्‍छे तरह किया। जर्मन आखिर जर्मन है। वे कुछ भी करें, परिपूर्णता से करते है।
एकहार्ट गैर पढ़ा लिखा था। आश्‍चर्य की बास है, रहस्यदर्शीयों में से कई लोग पढ़े लिखे नहीं थे। लगता है शिक्षा में कोई गलती है, शिक्षित रहस्यदर्शीयों की संख्‍या इतनी कम क्‍यों है? निश्‍चित ही, शिक्षा कुछ नष्‍ट कर रही है। इसलिए लोग रहस्‍यदर्शी नहीं हो पा रहे। हां, शिक्षा पच्‍चीस साल बरबाद कर देती है—किंडरगार्टन से लेकिर विश्‍वविद्यालय के पोस्‍ट ग्रैजुएट तक तुम्‍हारे भीतर जो भी सुंदर है, उसे नष्‍ट करती चली जाती है। विद्वता के नीचे कमल का फूल कुचल दिया जाता है। तथाकथित प्राध्‍यापक, शिक्षक, उप कुलपति आदमी के भीतर के गुलाब को मसल देते है। उन्‍होंने खुद के लिए कैसे-कैसे खुबसूरत नाम चुने है।
वास्‍तविक शिक्षा अभी शुरू नहीं हुई है। शुरू होनी है। वह ह्रदय की शिक्षा होगी। दिमाग की नहीं—तुम्‍हारे भीतर जो स्‍त्रैण तत्‍व है उसकी, पुरूष तत्‍व की नहीं।
हैरानी की बात है कि एकहार्ट जर्मनी के बीच पैदा होकर—जो कि सर्वाधिक दंभ से भरी जाति है। अपने ह्रदय में बना रहा। और वही से बोलता रहा…..।
एकहार्ट ने थोड़ी सी बात कहीं, लेकिन वह उस समय के कुरूप धर्म गुरूओं को झूंझलाने के लिए काफी थी। पोप, और अन्‍य सारे शैतान जो धर्मोंपदेशकों के इर्दगिर्द होते है उन्‍होंने एकहार्ट पर पाबंदी लगा दी। वे एकहार्ट को सिखाने लगे कि क्‍या कहना है। और क्‍या नहीं कहना है। लेकिन इकहार्ट सरल आदमी था उसने अधिकारियों की बात मान ली। वह तो मेरे जैसा पागल आदमी होता है जो इन मूर्खों की बात नहीं मानता।
….इकहार्ट बहुत करीब था। एक कदम और, और संसार का अंत आ जाता। उस पार का लोक खुल जाता। लेकिन पोप के सारे दबाव के बावजूद उसने खूबसूरत बातें कही। उसके वक्‍तव्‍यों में सत्‍य का अंश प्रवेश कर गया। इसलिए मैं (मेरे मनपसंद लेखकों में) उसे शामिल करता हूं।
ओशो

Tuesday 19 January 2016

इस जगत में जो भी जाना लिया जाता है। वह कभी खोता नहीं है। ज्ञान के खोने का कोई उपाय नहीं है। न केवल शास्‍त्रों में संरक्षित हो जाता है ज्ञान, वरन और भी गुह्म तलों पर ज्ञान की सुरक्षा और संहिता निमित होती है। शास्‍त्र तो खो सकते है। और अगर सत्‍य शास्‍त्रों में ही हो तो शाश्‍वत नहीं हो सकता। शास्‍त्र तो स्‍वयं भी क्षणभंगुर है। इसलिए शास्‍त्र संहिताएं नही है। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। तभी ब्‍लावट्स्‍की की यह सूत्र पुस्‍तिका समझ में आ सकती है।
ऐसा बहुत पुराने समय में भारत ने भी माना था। हमने भी माना था कि वेद संहिताओं का नाम नहीं है। शास्‍त्रों का नाम नहीं है। वरन वेद उस ज्ञान का नाम है, जो अंतरिक्ष में , आकाश में संरक्षित हो जाता है। जो इस अस्‍तित्‍व के गहरे अंतस्‍तल में ही छिप जाता है। और होना भी ऐसा ही चाहिए। बुद्ध अगर बोले और वह केवल किताबों में लिखा जाए तो कितने दिन टिकेगा। और बुद्ध का बोला हुआ अगर अस्‍तित्‍व के प्राणों में ही न समा जाए तो अस्‍तित्‍व ने उसको स्‍वीकार ही नहीं किया।
करोड़ों-करोड़ों वर्ष में कोई व्‍यक्‍ति बुद्धत्‍व को उपल्‍बध होता है। वह जो जानता है, वह इस जगत का जो गहनत्म अनुभव है। जो रहस्‍य है। इस जगत की जो आत्‍यंतिक अनुभूति है, यह पुरा जगत उसे सम्‍हाल कर रख लेता है। इस जगत के कण-कण की गहराई में वह अनुभूति छा जाती है। समाविष्‍ट हो जाती है। वहीं अर्थ है कि वेद शास्‍त्रों में वह अनुभूति छा जाती है। समाविष्‍ट हो जाती हे। यही अर्थ है कि वेद शास्‍त्रों में नहीं, वरन आकाश में लिखा जाता हे। शब्‍दों से नहीं बल्‍कि जब बुद्ध जैसे व्‍यक्‍ति के प्राणों में सत्‍य की घटना घटती है। तो साथ ही साथ उस घटना की अनुगूँज आकाश के कोने-कोने में छा जाती है। और जब भी कोई व्‍यक्‍ति बुद्धत्‍व के करीब पहुंचने लगेगा, तब प्राचीन बुद्धों ने जो जाना था, उसके प्राणों में आकाश के द्वारा, उस अनुगूँज की फिर से प्रतिध्‍वनि हो सकती हे।
ब्‍लावट्स्‍की की यह किताब साधारण किताब नहीं है। इसने उसे लिखा नहीं, इसने उसे सुना ओर देखा है। यह उसकी कृति नहीं है, वरन आकाश में जो अनंत-अनंत बुद्धों की छाप छूट गई है, उसका प्रतिबिंब है। ब्‍लावट्स्‍की ने कहा है कि यह जो मैं कह रही हूं, यह आकाश-संहिता से मुझे उपलब्‍ध हुआ है। ऐसा मैंने आकाश से पाया और जाना है।
आकाश से अर्थ है: वह जो चारो तरफ घेरे हुए है हमें, जो हमारे भीतर भी है और हमारे श्‍वास-श्‍वास में है। जिसके बिना हम नहीं हो सकते; और हम नहीं थे तब भी जो था। और हम नहीं होंगे तब भी जो रहेगा। आकाश से अर्थ है: परम अनस्तिव का। ब्‍लावट्स्‍की ने कहा है: इस परम अस्‍तित्‍व ने ही मुझे बताया है। वही इस पुस्‍तक में मैंने संग्रहीत किया है। लेखिका वह नहीं है। सिर्फ संग्रह किया है उसने।
यही वेद ऋषियों ने कहा है कि हमने सुना है वह वाणी। और हमने अपने हाथों लिखी है। लेकिन हमारे हाथों से कोई और ही उसे लिखवाया हे। जीसस ने भी यही कहा है कि मैं जो कह रहा हूं; वाणी मेरी हो, लेकिन जो उस वाणी से बोल रहा है। वह परमात्‍मा का है। मोहम्‍मद ने भी यही कहा हे कि कुरान मैने सुनी है। उसका इलहाम हुआ। उसकी मुझे प्रेरण हुई है; और किसी रहस्‍यमयी शक्‍ति नें मुझे पुकार और कहा कि पढ़।
और मोहम्‍मद के साथ तो बड़ी मीठी घटना है। क्‍योंकि मोहम्‍मद पढ़ नहीं सकते थे। और जब पहली बार उन्‍हें ऐसी भीतर कोई आवाज गूंज गई कि पढ़, तो मोहम्‍मद ने कहा; मैं हूं बे पढ़ा लिखा। मैं पढूंगा कैसे। और कोई किताब तो सामने थी ही नहीं। जिसे पढ़ना था। कुछ और था आंखों के सामने जिसे गैर पढ़ा लिखा भी पढ़ सकता है। जिसको कबीर भी पढ़ लेते है। कुछ और था जो पढ़ना नहीं पड़ता। जो दिखाई पड़ता है। कुछ और था। जो इन आंखों से जिसका कोई संबंध नहीं है। किसी और भीतर की आँख का संबंध है। मोहम्‍मद ने समझा कि इन आंखों से मैं कैसे पढूंगा। मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं। लेकिन कोई और भीतर की आँख पढ़ सकती है। और वही कुरान का जन्‍म हुआ।
ब्‍लावट्स्‍की की यह पुस्‍तक, ‘समाधि के सप्‍त द्वार’ वेद, बाईबिल, कुरान महावीर बुद्ध के वचन, उस हैसियत की पुस्‍तक है। यह भी उसे आकाश में अनुभव हुआ है।
इस पुस्‍तक के एक-एक सूत्र को समझ पूर्वक अगर प्रयोग किया तो जीवन से वासना ऐसे ही झड़ जाती है, जैसे कोई धूल से भरा हुआ आए और स्‍नान कर ले और सारी धूल झड़ जाए। या कोई थका मांदा किसी वृक्ष की छाया के नीचे विश्राम कर ले और सारी थकान विसर्जित हो जाए। ऐसा ही कुछ इस पुस्‍तक की छाया में, इस पुस्‍तक के स्‍नान में आपके साथ हो सकता है। लेकिन इसे बुद्धि से समझने की कोशिश मत करना। इसे ह्रदय से समझने की कोशिश करें।
मैंने इस पुस्‍तक को जान कर चूना है। क्‍योंकि इधर दो सौ वर्षों में ऐसी न के बराबर पुस्‍तकें है, जिनकी हैसियत वेद-कुरान और बाइबिल की हो। उन थोड़ी सी दो चार पुस्‍तकों में है यह पुस्‍तक।
समाधि के सप्‍त द्वार। और इसलिए भी चुना कि ब्लावट्स्की ने जरा सी भी भूलचूक नहीं की आकाश की संहिता को पढ़ने में। ठीक मनुष्‍य के जगत में उस दूर के सत्‍य को जितनी सही-सही हालत में पकड़ा ह। प्रतिबिंब जितना साफ बन सकता है। उतना प्रतिबिंब साफ बना है। और यह पुस्‍तक आपके लिए जीवन की आमूल क्रांति सिद्ध हो सकती है। फिर इस पुस्‍तक का किसी धर्म से भी कोई संबंध नहीं है। इसलिए भी मैंने इसे चुना है। न यह हिंदू है, न यह मुसलमान हे। और धर्म को जितना निर्वैयक्‍तिक, गैर-सांप्रदायिक ढंग से प्रकट किया जो सकता है। उस ढंग से इसमे प्रकट हुआ है।
ओशो

Monday 4 January 2016

यम्‍हि सच्‍चज्‍च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ।।
क्यों? धर्म सबके पास है। धर्म यानी तुम्हारा अंतरतम स्वभाव; तुम्हारा अंतरतम; तुम जो अपनी मूल प्रकृति में हो, वही है धर्म। धर्म सबके भीतर है। जिसे पता हो जाता है, उसके भीतर सत्य भी होता है।
धर्म तो सबके भीतर है। धर्म को जिसने जागकर देख लिया, वह सत्य को उपलब्ध हो गया।
ब्राह्मण सभी हैं, लेकिन बीज में हैं। जब बीज फूटकर वृक्ष बन जाता है, तो सत्य। स्वभाव को जान लिया, पहचान लिया भर आंख। आमने—सामने खड़े होकर देख लिया; साक्षात कर लिया स्वभाव का, तो सत्य।
इसलिए बुद्ध ने दो शब्दों का उपयोग किया, ‘जिसमें सत्य और धर्म है……।’
धर्म तो सबमें है। उतना ही तुममें है, जितना बुद्ध में है। लेकिन तुममें सत्य नहीं है। तुम्हें सत्य का पता नहीं है। तुमने अभी धर्म का साक्षात्कार नहीं किया है। धर्म को जागकर जान लेने का नाम सत्य का साक्षात्कार है। ऐसे साक्षात्कार से शुचिता पैदा होती है, स्वच्छता पैदा होती है। वही शुचिता ब्राह्मणत्व है।
‘हे दुर्बुद्धि, जटाओं से तेरा क्या बनेगा? मृगचर्म पहनने से तेरा क्या होगा? तेरा अंतर तो विकारों से भरा है, बाहर क्या धोता है?’
लोग बाहर ही धोने में लगे हैं! ऐसा नहीं कि बाहर धोना कुछ बुरा है। धोना तो सदा अच्छा है। कुछ न धोने से बाहर धोना भी अच्छा है। लेकिन बाहर धोने में ही समाप्त हो जाना अच्छा नहीं है। भीतर भी बहुत कुछ धोने को है। जब तुम गंगा में स्नान करते हो, तो बाहर ही साफ होते हो; भीतर नहीं हो सकते। जब तक ध्यान की गंगा में स्नान न करो, तब तक भीतर साफ न हो सकोगे। ऊपर—ऊपर साफ कर लोगे। बुराई कुछ नहीं है इसमें, लेकिन भलाई भी कुछ खास नहीं है।
भीतर कैसे कोई साफ होता है? भीतर किस जल से कोई साफ होता है? ध्यान के जल से। भीतर का विकार क्या है? विचार भीतर का विकार है। भीतर मल का मूल कारण विचार है। जितने ज्यादा विचार, उतना ही भीतर चित्त मलग्रस्त होता है। जब विचार क्षीण होते, विचार शांत हो जाते, कोई विचार नहीं रह जाता, भीतर सन्नाटा छा जाता है, उसी सन्नाटे का नाम है— भीतर धोना। और जो भीतर अपने को धो लेता है, वही ब्राह्मण है।
‘जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है, और संग और आसक्ति से विरत हो जाता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
‘जो सारे संयोजनों को काटकर……।’
हमने जीवन को जो बना रखा है, वह सब संयोजन है। किसी को पत्नी मान लिया है—यह एक संयोजन है। कोई तुम्हारी पत्नी है नहीं, न कोई तुम्हारा पति है। कैसे कोई पति—पत्नी होगा? तुम कहते हो. नहीं, आप भी क्या बात कहते हैं! पुरोहित के सामने, अग्नि की साक्षी में सात फेरे लिए हैं! सात नहीं, तुम सत्तर लो, फेरे लेने से कोई पति—पत्नी होता है?
एक सज्जन अपनी पत्नी से छूटना चाहते थे। वे मेरे पास आए थे। वे कहने लगे. कैसे छूटूं! सात फेरे लिए हैं। मैंने कहा : उलटे सात फेरे ले लो। और क्या करोगे! छूटना ही हो तो छूट जाओ।
फेरे से कोई कैसे बंधेगा? यह सब संयोजन है। यह तरकीब है। ये फेरे, यह आग, ये मंत्र, यह पंडित, यह पुरोहित, यह भीड़— भाड़, यह बारात, यह घोड़े पर बैठना, ये बैंड—बाजे—ये सब तरकीबें हैं, ये संयोजन हैं तुम्हारे मन में यह बात गहरी बिठाने के लिए कि अब तुम पति हो गए; यह पत्नी हो गयी।
मगर ये सब संयोजन हैं।
‘जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है.।’
संयोजन कटे, तभी कोई भयरहित होता है। नहीं तो मेरी पत्नी है, कहीं चली न जाए; मेरा पति है, कहीं छोड़ न दे, मेरा बेटा है, कहीं बिगड़ न जाए—तो हजार चिंताएं और हजार भय उठते हैं। मेरा शरीर है, कहीं मौत न आ जाए; कहीं मैं का न हो जाऊं!
यहां कुछ भी मेरा नहीं है। जिसने सारे मेरे के संबंध तोड़ दिए, जिसने जाना कि यहां मेरा कुछ भी नहीं है, उसे एक और बात पता चलती है कि मैं भी नहीं हूं। मैं मेरे का जोड है। हजार मेरे को जुड़कर मैं बनता है। जैसे छोटे—छोटे धागों को बुनते जाओ, बुनते जाओ, मोटी रस्सी बन जाती है। ऐसे मेरे के धागे जोड़ते जाओ, जोड़ते जाओ, उन्हीं धागों से मैं की मोटी रस्सी बन जाती है।
सब संयोजनों को जो छोड़ देता है, उसका पहले मेरे का भाव छूट जाता है, ममत्व। और एक दिन अचानक पाता है कि मैं तो अपने आप मर गया! एक—एक धागा निकालते गए रस्सी से। रस्सी दुबली—पतली होती चली गयी।
निकालते—निकालते एक दिन जब आखिरी धागा निकल जाएगा, रस्सी नहीं बचेगी। फिर कोई भय नहीं है। मरने के पहले मर ही गए! फिर भय क्या? मैं हूं ही नहीं—इस भाव—अवस्था को बुद्ध ने अनत्ता कहा है। यह जान लेना कि मैं नहीं हूं शून्य है—यही निर्वाण है।
बुद्ध कहते हैं ऐसे निर्वाण को जो उपलब्ध हुआ—संग, आसक्ति से मुक्त, भयरहित—उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
ब्राह्मण की जैसी प्यारी परिभाषा बुद्ध ने की है, वैसी किसी ने भी नहीं की है। ब्राह्मणों ने भी नहीं की है! ब्राह्मणों के शास्त्रों में भी ब्राह्मण की ऐसी अदभुत परिभाषा नहीं है। वहा तो बड़ी क्षुद्र परिभाषा है—कि जो ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ!
ब्राह्मण के घर में पैदा होने से क्या होगा? इतना आसान नहीं है ब्राह्मण होना! ब्राह्मण होना बड़ी गहन उपलब्धि है। महान उपलब्धि है। निखार से होती है। जिंदगी को संवारने से होती है, स्वच्छ, शुद्ध करने से होती है। जिंदगी को आग में डालने से होती है, तपश्चर्या से होती है, साधना से होती है। ब्राह्मणत्व सिद्धि है, ऐसे जन्म में मुक्त नहीं मिलती है।
दूसरा दृश्य:
राजगृह में धनंजाति नाम की एक ब्राह्मणी स्रोतापति— फल प्राप्त करने के समय से किसी भी बहाने हो सदा नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स कहती रहती थी।
यह बुद्ध की प्रार्थना है। यह बुद्ध की अर्चना है। यह बुद्ध की उपासना का भाव है। नमो तस्स भगवतो—नमस्कार हो उन भगवान को; नमस्कार हो उन अर्हत को; नमस्कार हो उन सम्यकरूप से संबोधि प्राप्त को। यह बुद्ध के प्रति नमस्कार है। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स।
कोई भी बहाना मिले तो वह चूकतीं नहीं थी ब्राह्मणी धनजाति नाम की। छींक आ जाए, खांसी आ जाए, फिसलकर गिर पड़े, तो वह तत्कण कहती. नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स।
एक दिन उसके घर भोज था। काम की भागा— भागी में उसका पैर फिसल गया। ब्राह्मणी थी; भोज में सारे ब्राह्मण इकट्ठे थे सारा परिवार इकट्ठा था। पति था पति के सब भाई थे; रिश्तेदार थे। सम्हलते ही उसने तत्‍क्षण भगवान की वंदना की. नमो तस्स भगवतों अरहतो सम्मासंबुद्धस्स— नमस्कार हो उन भगवान को नमस्कार हो उन अर्हत को नमस्कार हो उन सम्मासंबुद्धस्स को।
इसे सुनकर उसके पति के भाई भारद्वाज ने उसे बहुत डांटा नष्ट हो दुष्टा! जहां नहीं वहां ही उस मुंडे श्रमण की प्रशंसा करती है। और फिर बोला. आज मैं तेरे उस श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ करूंगा और सदा के लिए उसे समाप्त करूंगा; उसे हराकर लौटूंगा।
ब्राह्मणी हंसी और बोली. नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स। नमस्कार हो उन भगवान को नमस्कार हो उन अर्हत को नमस्कार हो उन सम्यक संबोधि प्राप्त को। जाओ ब्राह्मण शास्त्रार्थ करो। यद्यपि उन भगवान के साथ शास्त्रार्थ करने में कौन समर्थ है! फिर भी तुम जाओ। इससे कुछ लाभ ही होगा। ब्राह्मण क्रोध और अहंकार और विजय की महत्वाकांक्षा में जलता हुआ बुद्ध के पास पहुंचा। वह ऐसे था जैसे साक्षात ज्वर आया हो। उसका सब जल रहा था। लपटें ही लपटें उसमें उठ रही थीं। लेकिन भगवान को देखते ही शीतल वर्षा हो गयी। उनकी उपस्थिति में क्रोध बुझ गया। उनकी आंखों को देख उस व्यक्ति को जीतने की नहीं उस व्यक्ति से हारने की आकांक्षा पैदा हो गयी। उसका मन रूपांतरित हुआ। उसने कुछ प्रश्न पूछे— विवाद के लिए नहीं मुमुक्षा से। और भगवान के उत्तरों को पा वह समाधान को उपलब्ध हुआ। समाधि लग गयी। फिर घर नहीं लौटा। बुद्ध का ही हो गया। बुद्ध में ही खो गया। वह उसी दिन प्रव्रजित हुआ और उसी दिन अर्हत्व को उपलब्ध हुआ।
ऐसी घटना बहुत कम घटी है कि उसी दिन संन्यस्त हुआ और उसी दिन समाधिस्थ हो गया। उसी दिन संन्यस्त हुआ और उसी दिन बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ। ऐसी घटना बहुत मुश्किल से घटती है। जन्मों—जन्मों में भी बुद्धत्व फल जाए, तो भी जल्दी फल गया। यह तो चमत्कार हुआ।
फिर उसके भाई ब्राह्मणी के पति को भी बुद्ध पर भयंकर क्रोध आया जब उसे खबर लगी कि उसका छोटा भाई संन्यस्त हो गया। वह भी भगवान को नाना प्रकार से आक्रोशन करता हुआ गाली देता हुआ असभ्य शब्दों को बोलता हुआ वेणुवन गया। और वह भी भगवान के पास जा ऐसे बुझ गया जैसे जलता अंगारा जल में गिरकर बुझ जाता है।
ऐसा ही उसके दो अन्य भाइयों के साथ भी हुआ।
भिक्षु भगवान का चमत्कार देख चकित थे वे आपस में कहने लगे. आवुसो! बुद्ध— गुण में बड़ा चमत्कार है। ऐसे दुष्ट अहंकारी और क्रोधी व्यक्ति भी शांतचित्त हो संन्यस्त हो गए हैं और ब्राह्मण— धर्म को छोड़ दिए हैं।
भगवान ने यह सुना तो कहा भिक्षुओ! भूल न करो। उन्होंने ब्राह्मण धर्म नहीं छोड़ा है। वस्तुत: पहले वे ब्राह्मण नहीं थे और अब ब्राह्मण हुए हैं।

Sunday 3 January 2016

जिसको इस भीतर के दीए की लौ को सम्हालने का मजा आ गया है, जो इसमें रसलीन हो गया है, उसे फिर सारी दुनिया की बातें व्यर्थ हैं। फिर वह फिकर नहीं करता कि कोई लात मार गया। उसकी फिकर कुछ और है। वह भीतर की संपदा को सम्हालता है—कि कहीं इस लात मारने से उद्विग्न न हो जाऊं। कहीं क्रोध न आ जाए। कहीं उत्तेजना में कुछ कर न बैठूं। क्योंकि कुछ भी कर लोगे उत्तेजना में—दीए से हाथ छूट जाएगा। दीया चूक जाएगा। और जिसको वर्षों में सम्हाला है, वह क्षण में खोया जा सकता है।
जब आदमी पहाड़ की ऊंचाइयों पर चढ़ता है, तो जैसे—जैसे ऊंचाई बढ़ने लगती है, वैसे—वैसे सम्हलने लगता है, क्योंकि अब गिरने में बहुत खतरा है। ध्यान रखना, सपाट जमीन पर चलने वाला आदमी गिर सकता है, कोई बड़ी अड़चन नहीं है। खरोंच—वरोंच लगेगी थोड़ी। मलहम—पट्टी कर लेगा। ठीक हो जाएगी। लेकिन जैसे—जैसे पहाड़ की ऊंचाई पर पहुंचने लगता है।
अब तुम गौरीशंकर के शिखर पर इस तरह नहीं चल सकते, जैसे तुम पूना की सड़क पर चलते हो। तुम्हें एक—एक श्वास सम्हालकर लेनी पड़ेगी। और एक—एक पैर जमाकर चलना होगा। क्योंकि वहां से गिरे, तो गए। वहां से गिरे, तो फिर सदा को गए। खरोंच नहीं लगेगी, सब समाप्त ही हो जाएगा।
ऐसी ही अंतरदशा ध्यान में भी आती है। ध्यान के शिखरों पर जब तुम चलने लगते हो, तब बहुत सम्हलकर चलना होता है।
सारिपुत्र उन ध्यान के शिखरों पर है, जहां से गिरा हुआ आदमी बुरी तरह भटक जाता है जन्मों—जन्मों के लिए। अब कोई लात मार गया, इसमें कुछ मूल्य ही नहीं है। इसका कोई अर्थ ही नहीं है। ऐसी घड़ी में उद्विग्न नहीं हुआ जा सकता।
तुम जल्दी से उद्विग्न हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है। याद रखना, तुम इसीलिए उद्विग्न हो जाते हो। तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है। उद्विग्न होने में तुम्हारा कुछ हर्जा नहीं है। खरोंच लगेगी थोड़ी—बहुत। ठीक है। लेकिन सारिपुत्र के लिए महंगा सौदा है। खरोंच ही नहीं लगेगी; सब खो जाएगा। जन्मों—जन्मों की संपदा खो जाएगी। हाथ आते— आते खजाना खो जाएगा।
वे ध्यान में जागे, ध्यान के दीए को सम्हाले चल रहे थे, सो वैसे ही चलते रहे। उलटे मन ही मन वे प्रसन्न भी हुए, क्योंकि साधारणत: ऐसी स्थिति में मन डावाडोल हो उठे, यह स्वाभाविक है। और देखा कि मन डावाडोल नहीं हुआ है। लात लगी—और नहीं लगी। चोट पड़ी—और चोट नहीं हुई। हवा का झोंका आया और गुजर गया। अकंप थी ज्योति, अकंप ही रही। प्रमुदित हो गए होंगे, प्रफुल्लित हो गए होंगे। हृदय—कमल खुल गया होगा। कहा होगा अहोभाग्य!
स्वाभाविक था—वह नहीं हुआ। जिस दिन स्वाभाविक जिसको हम कहते हैं, वह न हो, उस दिन परम स्वभाव के द्वार खुलते हैं।
दो तरह की स्थितियां हैं। एक : जिसको प्राकृतिक कहें। किसी को चोट की। लौटकर देखेगा। नाराज होगा। और किसी को चोट की, और लौटकर भी न देखा, नाराज भी न हुआ—जैसा था, वैसा रहा; जरा भी कंपन न आया; लहर न उठी। यह दूसरी प्रकृति में प्रवेश हो गया।
एक प्रकृति है देह की; एक प्रकृति है आत्मा की। देह की प्रकृति में पहली बात घटेगी। आत्मा की प्रकृति में जो उतरने लगा, उसे दूसरी बात घटेगी।
तो प्रसन्न भी हुए। अब यह बात उलटी हो गयी। और यहीं से बुद्धत्व की शुरुआत है। दुखी तो नहीं हुए। नाराज तो नहीं हुए। बड़े राजी हुए। बड़े प्रसन्न हुए। कि यह तो अदभुत हुआ। मन नहीं डोला था। और ध्यान की ज्योति और भी घिर हो उठी थी।
जितनी बड़ी चुनौती हो, उतनी ध्यान की ज्योति थिर होती है। चूके, तो बुरी तरह गिरोगे। नहीं चूके, तो अदभुत रूप से सम्हल जाओगे। दोनों संभावनाएं हैं। पहाड़ से गिरे, तो गए। और पहाड़ पर थोड़े और सम्हले, तो शिखर तुम्हारा हुआ, कि तुम शिखर हुए।
उनके भीतर इस भांति लात मारने वाले के लिए आभार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था।
वे भीतर ही भीतर कह रहे होंगे धन्य है ब्राह्मण! तूने भला किया। तूने एक अवसर दिया। मुझे पता ही नहीं था कि ज्योति इतनी भी थिर हो सकती है! तूने चुनौती दी। तू हवा का झोंका क्या लाया, मेरी परीक्षा ले ली। मैं तेरा अनुगृहीत हूं।
इस घटना ने अंधे ब्राह्मण को तो जैसे आंखें दे दीं।
यह लौटकर न देखना; यह उसी मस्ती से चलते जाना, जैसे चल रहे थे; जैसे कुछ हुआ ही नहीं। लात तो पीछे से मारी थी। दौड़कर आगे आया और चरणों में गिर पड़ा।
खयाल रखना. निंदा पीछे से की जाती है। केवल प्रशंसा करते समय ही तुम सामने खड़े हो सकते हो। लात पीछे से मारी जा सकती है, लेकिन चरण पीछे से नहीं छुए जाते; कभी नहीं छुए जाते। चरण सामने से छूने होते हैं। जो झुक सकता है, वही ऐसे पुरुषों के सामने आ सकता है—सारिपुत्र जैसे पुरुषों के।
और यह बड़ी अदभुत बात लगती है कि यह आदमी—ऐसा मिथ्या—दृष्टि, ऐसा क्रोधी, ऐसा दुष्ट प्रकृति का, अकारण लात मारी—यह इतने जल्दी बदल गया! अक्सर ऐसा होता है। जो जितना कठोर हो सकता है, वह उतना ही कोमल भी हो सकता है। जो जितना विरोध में हो सकता है, उतना ही पक्ष में भी हो सकता है। जो जितनी घृणा से भरा होता है, वह उतने ही प्रेम से भी भर सकता है। बदलाहट केवल उनके ही जीवन में नहीं होती, जो कुनकुने जीते हैं।
एक यहूदी फकीर ने देश के सबसे बड़े धर्मगुरु को अपनी लिखी किताब भेजी। जिस शिष्य के हाथ भेजी, उसने कहा. आप गलत कर रहे हैं। न भेजें, तो अच्छा। क्योंकि वे आपके विरोध में हैं। वे आपको शत्रु मानते हैं।
यह फकीर पहुंचा हुआ व्यक्ति था। लेकिन स्वभावत: धर्मगुरु इसको दुश्मन माने, यह स्वाभाविक है। क्योंकि जब भी कोई पहुंचा हुआ फकीर होगा, तथाकथित धर्म, तथाकथित धर्मगुरु, तथाकथित पुरोहित—पंडे, स्थिति—स्थापक—सब उसके विरोध में हो जाएंगे।
वह सबसे बड़ा धर्मगुरु था और उसके मन में बड़ा क्रोध था इस आदमी के प्रति, क्योंकि यह आदमी पहुंच गया था। यही अड़चन थी। यही जलन थी।
लेकिन फकीर ने कहा अपने शिष्य को. तू जा। तू सिर्फ देखना; ठीक—ठीक देखना कि क्या वहा होता है और ठीक—ठीक मुझे आकर बता देना।
वह किताब लेकर गया। फकीर का शिष्य जब पहुंचा धर्मगुरु के बगीचे में, धर्मगुरु अपनी पत्नी के साथ बैठा बगीचे में गपशप कर रहा था। इसने किताब उसके हाथ में दी। उसने किताब पर नाम देखा, उसी वक्त किताब को फेंक दिया। और कहा कि तुमने मेरे हाथ अपवित्र कर दिए; मुझे स्नान करना होगा। निकल जाओ बाहर यहां से!
शिष्य तो जानता था—यह होगा।
तभी पत्नी बोली. इतने कठोर होने की भी क्या जरूरत है! तुम्हारे पास इतनी किताबें हैं तुम्हारे पुस्तकालय में, इसको भी रख देते किसी कोने में। न पढना था, न पढ़ते। लेकिन इतना कठोर होने की क्या जरूरत है! और फिर अगर फेंकना ही था, तो इस आदमी को चले जाने देते, फिर फेंक देते। इसी के सामने इतना अशिष्ट व्यवहार करने की क्या जरूरत है!
शिष्य ने यह सब सुना; अपने गुरु को आकर कहा। कहा कि पत्नी बड़ी भली है। उसने कहा. किताब को पुस्तकालय में रख देते। हजारों पुस्तकें हैं, यह भी पड़ी रहती। उसने कहा कि अगर फेंकना ही था, तो जब यह आदमी चला जाता, तब फेंक देते। इसी के सामने यह दुर्व्यवहार करने की क्या जरूरत थी! लेकिन धर्मगुरु बड़ा दुष्ट आदमी है। उसने किताब को ऐसे फेंका, जैसे जहर हो; जैसे मैंने सांप—बिच्छू उसके हाथ में दे दिया हो।
तुम्हें पता है, उस यहूदी फकीर ने क्या कहा! उसने अपने शिष्य को कहा. तुझे कुछ पता नहीं है। धर्मगुरु आज नहीं कल मेरे पक्ष में हो सकता है। लेकिन उसकी पत्नी कभी नहीं होगी।
यह बड़ी मनोवैज्ञानिक दृष्टि है।
पत्नी व्यावहारिक है—न प्रेम, न घृणा। एक तरह की उपेक्षा है—कि ठीक, पड़ी रहती किताब। या फेंकना था, बाद में फेंक देते। उपेक्षा है। न पक्ष है, न विपक्ष है। जो विपक्ष में ही नहीं है, वह पक्ष में कभी न हो सकेगा।
उस यहूदी फकीर ने ठीक कहा कि पत्नी पर मेरा कोई वश नहीं चल सकेगा। यह धर्मगुरु तो आज नहीं कल मेरे पक्ष में होगा। और यही हुआ।
जैसे ही शिष्य चला गया, वह धर्मगुरु थोड़ा शांत हुआ, फिर उसे भी लगा कि उसने दुर्व्यवहार किया। आखिर फकीर ने अपनी किताब भेजी थी इतने सम्मान से, तो यह मेरी तरफ से अच्छा नहीं हुआ। उठा, किताब को झाड़ा—पोंछा। अब पश्चात्ताप के कारण किताब को पढा—कि अब ठीक है; जो हो गयी भूल, हो गयी। लेकिन देखूं भी तो कि इसमें क्या लिखा है!
पढा—तो बदला। पढा—तो देखा कि ये तो परम सत्य हैं इस किताब में। वही सत्य हैं, जो सदा से कहे गए हैं। एस धम्मो सनंतनो। वही सनातन धर्म, सदा से कहा गया धर्म इसमें है। अभी किताब फेंकी थी; घडीभर बाद झुककर उस किताब को नमस्कार भी किया।
उस यहूदी फकीर ने ठीक ही कहा कि धर्मगुरु पर तो अपना वश चलेगा कभी न कभी। लेकिन उसकी पत्नी पर अपना कोई वश नहीं है। उसकी पत्नी को हम न बदल सकेंगे।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है। मनोविज्ञान की बड़ी जटिल राहें हैं।