Saturday 31 October 2015

जहां कोई विचार और विमर्श नहीं उठता, जहां सब शून्य और शात हुआ है, जहां झील पर एक भी तरंग नहीं रही—झील बिलकुल विश्रांत हो गयी, शात हो गयी—अपने में लीन बैठा हूं, ऐसी इस शून्य की दशा में—जिसको झेन फकीर नो —माइड़ कहते हैं, चित्तमुक्ति की दशा, जिसको कबीर ने अ—मनी दशा कहा है, नानक ने उन्मनी दशा कहा है, मन से मुक्त हो गयी जो दशा। जब तक मन है तब तक तरंग है। मन एक तरह की तरंगायित अवस्था है। मन का अर्थ है, झील पर बहुत लहरें उठ रही हैं। न—मन का अर्थ है, सब लहरें शांत हो गया, झील बिलकुल दर्पण की तरह मौन हो गयी, जरा भी तरंग नहीं होती। सतह कंपती ही नहीं। अकंप हो गई। ऐसी जो मेरी निर्विचार रूप दशा है, इसमें कहां व्यवहार और कहां परमार्थ?
समझना।
व्यवहार और परमार्थ शब्द दार्शनिकों के शब्द हैं, पारिभाषिक शब्द हैं। दार्शनिक कहते हैं, जगत व्यवहार रूप से सत्य है और परमार्थ रूप से असत्य है। परमात्मा परमार्थ रूप से सत्य है और व्यवहार रूप से असत्य है। यह दार्शनिक तरकीब है, जिससे दो विपरीत को मिलाने की चेष्टा की जाती है। जैसे पश्चिम में एक विचारक हुआ, बर्कले। उसने घोषणा की—ठीक शंकर जैसी घोषणा की—कि जगत माया है। वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है। विचार ही का अस्तित्व है, वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं है। वह डाक्टर जानसन के साथ घूमने गया था, रास्ते पर उसने उनसे कहा कि मैं एक किताब प्रकाशित कर रहा हूं उसमें मैंने सिद्ध किया है कि वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है, केवल विचार का अस्तित्व है। डाक्टर जानसन जिद्दी किस्म का आदमी था, उसने एक पत्थर उठाकर और बर्कले के पैर पर दे मारा। लहूलुहान हो गया पैर, खून बहने लगा और बर्कले उसे पकड़कर बैठ गया। जानसन हंसने लगा, उसने कहा, वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है, तो इस पत्थर के कारण चोट कैसे लगी? खून कैसे बहा? बर्कले कोई उत्तर न दे सका।
बर्कले ने पश्चिम में नयी—नयी यह बात कही थी, उसे पूरब का कुछ पता नहीं था, पूरब में यह बहुत पुरानी बात है, इसके उत्तर बहुत खोज लिए गये हैं। बौद्ध भी ऐसा ही कहते हैं कि जगत सत्य नहीं है जैसा शंकर कहते हैं। वस्तुत: शंकर जो कहते हैं, वह प्रच्छन्न रूप से बौद्धों की ही बात है उसमें कुछ नया नहीं है।
ऐसा कहा जाता है कि एक बौद्ध भिक्षु को एक सम्राट ने पकड़ लिया और उसने कहा कि मैंने सुना है कि तुम कहते हो जगत असत्य है, सिद्ध करना होगा। उसने कहा कि सिद्ध कर देता हूं। उसने बड़े तर्क दिये। और जगत को असत्य सिद्ध किया जा सकता है। समझो कि तुम यहां मेरे सामने बैठे हो, कैसे सिद्ध करें कि तुम असत्य हो! उस दार्शनिक ने कहा कि रात सपने में भी मैं देखता हूं कि लोग सामने बैठे हैं। सुबह जागकर पाता हूं कि नहीं हैं। तो अभी भी क्या पक्का है कि लोग बैठे ही हों? अभी भी क्या पक्का है कि सुबह जागकर मैं नहीं पाऊंगा कि असत्य नहीं है!
च्चांग्त्सु ने कहा है, रात मैंने सपना देखा कि मैं तितली हो गया। फिर सुबह उठकर मैं बड़ा चिंतन करने लगा, विचार करने लगा कि यह तो बड़ी उलझन हो गयी! अगर च्चांग्त्सु रात में तितली हो सकता है तो तितली सो गयी हो और सपना देखती हो कि च्चांग्त्सु हो गयी है! यह भी हो सकता है। फिर कोई कभी अपने से बाहर तो गया नहीं—मैं अपने भीतर बैठा हूं, तुम अपने भीतर बैठे हो। तुम्हें तो मैंने कभी देखा नहीं, मेरे भीतर मस्तिष्क में कुछ प्रतिबिंब बनते हैं उन्हीं को देखता हूं। वे
प्रतिबिंब सच भी हो सकते हैं, झूठ भी हो सकते हैं। सपने में भी बन जाते हैं। ध्री—डायमेंशनल फिल्म देखते हो? जब पहली दफा थी डायमेंशनल फिल्म लंदन में चली, तो एक घुड़सवार आता है दौड़ता हुआ और एक भाला फेंकता है। वह पहली थी डायमेंशनल फिल्म थी, लोग एकदम झुक गये—वह जो हाल में बैठे हुए लोग थे, भाले को निकलने के लिए उन्होंने जगह दे दी, एकदम दोनों तरफ झुक गये। क्योंकि भाला कहीं छिद जाए! तब उनको खयाल आया कि अरे, हम फिल्म देख रहे हैं, झुकने की क्या जरूरत थी? लेकिन चूक हो गयी। वह भाला जो नहीं था, बिलकुल लग गया कि जैसे है।
उस दार्शनिक ने बड़े तर्क दिये और सम्राट ने कहा, सब ठीक है, लेकिन सम्राट भी डाक्टर जानसन जैसा रहा होगा, उसने कहा, अपना पागल हाथी ले आओ। उसके पास एक पागल हाथी था, वह पागल हाथी ले आया गया। उसने पागल हाथी छुड़वा दिया इस दार्शनिक के पीछे, भिक्षु के पीछे। भिक्षु भागा, चिल्लाए और वह पागल हाथी उसके पीछे चिंघाड़े और भागे। और बड़ा शोरगुल मच गया। और राजा के महल के आयन में हजारों की भीड़ इकट्ठी हो गयी और राजा छत पर खड़े होकर देख रहा है और हंस रहा है। और वह उससे कहने लगा, अब बोलो, अगर सब असत्य है, तो यह हाथी भी असत्य है, इतने रो —चिल्ला क्यों रहे हो? वह कहने लगा, मुझे बचाओ, फिर पीछे बात करेंगे, पहले तो इस हाथी से बचाओ। हाथी ने उसे अपनी सूंड़ में लपेट लिया, बमुश्किल उसे छुड़ाया गया। वह कैप रहा है, रो रहा है।
छुड़ाकर जब उसे लाया गया और सम्राट ने कहा, अब बोलो! उसने कहा, महाराज! मेरा रोना, मेरा चिल्लाना, सब असत्य है। माया मात्र। आपका मुझ पर दया करना, मुझे बचा लेना, हाथी का मुझे पकड़ना, फिर महावत का मुझे छुड़ा देना, सब असत्य है।
बर्कले को यह पता नहीं था, क्योंकि वहा नयी—नयी बात वह कह रहा था, भारत में तो बहुत पुराने दिन से लोग कह रहे हैं।
लेकिन जो असत्य कहा जाता है, माया कही जाती है, वह भी है तो। किसी तरह है, सपने ही सही, सपने जैसे ही सही, मगर सपना भी तो है। तो इस सपने को कहते हैं—व्यावहारिक सत्य। आभास होता है, वस्तुत: नहीं है। और परमात्मा को कहते हैं, आभास भी नहीं होता उसका और वस्तुत: है।
जब कोई समाधि में जागेगा तब परमात्मा को जानेगा और संसार खो जाएगा। जैसे रोज तो होता है—रोज रात तुम सोते हो, ये पहाड़—पत्थर, वृक्ष, पशु —पक्षी, पति, पत्नी, बेटे, सब खो जाते हैं। इनका कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। और सपने में नये बेटे और नयी पत्नियां और नये मकान और नये काम शुरू हो जाते हैं। उनका अस्तित्व हो जाता है। सुबह जागकर फिर उनका अस्तित्व खो जाता है। फिर पुरानी पत्नी, मकान, द्वार—दरवाजा, —सब आ जाता है।
ध्यानी कहते हैं कि ऐसा ही एक जागरण समाधि में घटित होता है जब सब विचार शांत हो जाते हैं—परम जागरण। उस जागरण में यह जगत जो अभी दिखायी पड़ रहा है, असत्य मालूम होने लगता है—आभास मात्र, प्रतीति मात्र, स्वप्नवत। और परमात्मा सत्य मालूम होने लगता है, जिसका कि पहले आभास भी नहीं होता था।
लेकिन जनक की बात इससे भी ऊपर जाती है। वह कहते हैं, क्या व्यवहार और क्या परमार्थ! न संसार बचा है, न मोक्ष बचा है। असत्य तो गया ही गया, उसके साथ—साथ सत्य भी जा चुका है।
सत्य और असत्य एक ही तराजू के दो पलड़े थे। वे भिन्न—भिन्न नहीं थे। जब झूठ ही गया तो सच कैसे बचेगा? इसे कभी तुमने सोचा? रावण को हटा दो, तो रामायण खराब हो जाएगी, बच नहीं सकती। अकेले राम से नहीं चलेगी। कि तुम चला लोगे? रावण को काट दो बिलकुल रामायण से, फिर बनाओ रामायण! या कभी रामलीला करो, रावण को हटा दो, बस बिना ही रावण के चलने दो रामलीला, तुम पाओगे, चलती ही नहीं। थोड़े राम उछलेंगे —कूदेंगे, करेंगे क्या? इधर—उधर जाएंगे, करेंगे क्या? रावण के बिना नहीं चलती है। और राम को हटा लो तो रावण भी व्यर्थ हो जाता है। साथ—साथ उनकी सार्थकता है। शुभ और अशुभ साथ—साथ जुड़े हैं। सच और झूठ साथ —साथ जुड़े हैं। सुंदर— असुंदर साथ—साथ जुडे हैं। एक ही साथ उनकी सार्थकता है।
लाओत्सु ने कहा है, जब तक दुनिया में साधु हैं तब तक असाधु भी रहेंगे। बात ठीक कही है। जिस दिन असाधु मिटेंगे, उस दिन साधुओं को भी मिट जाना होगा। होनी चाहिए एक ऐसी दुनिया जहां न साधु हों न असाधु हों। वहां जीवन सरल होगा। वहा जीवन परम निसर्ग को उपलब्ध होगा। वहां जीवन में तथाता होगी, ऋत होगा। न कोई साधु न कोई असाधु। न कोई राम, न कोई रावण। इसको खयाल करो। तुम्हारे साधु असाधुओं को मिटाने में लगे रहते हैं कि जो भी असाधु आए उसको साधु बनाओ। पर उनको पता नहीं कि असाधु अगर मिट जाएं तो साधु भी न बचेंगे। वह आत्महत्या में लगे हैं। बुरे आदमी के सहारे ही भला आदमी जी रहा है। दुर्जन के सहारे ही सज्जन की इज्जत है। वे जो लोग कारागृह में बंद हैं उनके कारण तुम कारागृह के बाहर हो। नहीं तो तुम बाहर कहां? वे जो लोग पागल हैं, उनके कारण तुम स्वस्थ हो। जो के हैं, उनके कारण तुम जवान हो। अन्यथा तुम न रहोगे। द्वैत जब जाता है तो पूरा चला जाता है।

Wednesday 28 October 2015

‘सर्वदा विमलरूप मुझको कहां प्रमाता है और कहां प्रमाण है? कहां प्रमेय है और कहां प्रमा है? कहां किंचित है और कहां अकिचित है?’
प्रमाता का अर्थ होता है—ज्ञाता; प्रमाण का अर्थ होता है —ज्ञान के साधन, जिनसे ज्ञान उत्पन्न होता, प्रमेय का अर्थ होता है—जो जाना जाए, ज्ञेय, प्रमा का अर्थ होता है —ज्ञान। जनक कह रहे हैं कि अब न तो मुझे कुछ ज्ञान जैसा है, न मेरे भीतर ज्ञाता जैसा कुछ बचा, न कुछ ज्ञेय शेष रहा, न ज्ञान के कुछ साधन बचे। ये सारे भेद तो अज्ञान के हैं।
अब तुम समझना, यह बड़ी क्रांतिकारी बात है।
अगर तुम पंडितों से पूछो तो वे कहेंगे, ये भेद ज्ञान के हैं। प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय, प्रमा। प्रमा का अर्थ होता है—ज्ञान। प्रामाणिक ज्ञान का नाम प्रमा। जिससे प्रमा सिद्ध हो, वह प्रमाण। जिसके ऊपर सिद्ध हो, वह प्रमाता। जिसके संबंध में सिद्ध हो, वह प्रमेय। यह तो ज्ञान का विभाजन है, इसको तो पूरा—पूरा इपेस्टोमोलाजी, ज्ञानमीमांसा कहते हैं। और जनक कह रहे हैं, अब यह कुछ भी नहीं बचे। न कोई जानने वाला है, न कुछ जाना जानेवाला। दो तो गये, तो अब कैसा सब्जेक्ट, कैसा आब्जेक्ट! अब कैसा ज्ञाता और कैसा ज्ञेय। अब कौन द्रष्टा और कैसा दर्शन! दो तो रहे नहीं। यह तो दो हों तो ये बातें घट सकती हैं। जब एक ही बचा तो कौन जाने, किसको जाने, कैसे जाने, क्या जाने। ज्ञान की अंतिम घडी में ज्ञान भी समाप्त हो जाता है, यह इस सूत्र का मूल है।
इसलिए तो सुकरात ने अंतिम क्षणों में कहा, मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। उपनिषद कहते हैं जो कहे मैं जानता हूं, जान लेना कि नहीं जानता। और जो कहे कि मैं नहीं जानता हूं पकड़ लेना उसका पीछा, वहां कुछ है। उसे कुछ मिला है। लाओत्सु ने कहा है, सत्य को मैं न कहूंगा, क्योंकि कहा कि चूक हो जाएगी। सत्य कहते ही झूठ हो जाता है। क्यौंकि कहने में दावा हो जाता है, कहने वाला आ जाता है। तो मैं सत्य को न कहूंगा, मैं चुप ही रहूंगा। मैं मौन ही रहूंगा। तुम मेरे मौन से ही समझ लो तो ठीक।
परम सदगुरु हुआ, रिंझाई। उससे एक सम्राट ने पूछा है कि मुझे कुछ मार्ग बता दें। कैसे पहुंचूं सत्य तक? तो रिंझाई चुप बैठा रहा, देखता रहा, देखता रहा सम्राट को, सम्राट जरा बेचैन हो गया। उसने कहा, महानुभाव, क्या आपने सुना नहीं मैंने क्या पूछा रम मैंने पूछा कि सत्य को पाने का कोई मार्ग बता दें। फिर भी रिंझाई चुप रहा। सम्राट ने अपने वजीर से कहा कि यह सज्जन सुनते हैं कि नहीं? कान वगैरह खराब तो नहीं हैं। वजीर ने कहा कि नहीं, कोई कान खराब नहीं है, वह बराबर सुन रहे हैं, उत्तर भी दे रहे हैं। सम्राट ने कहा, यह कैसा उत्तर हुआ? रिंझाई ने कहा कि तुमने बात ही ऐसी पूछी है कि उसका उत्तर चुप रहकर ही हो सकता है। सम्राट ने कहा, मैं न समझूंगा, यह बात मैं न समझूंगा। चुप रही सूचना मेरे पकड़ में न आएगी, तुम कुछ बोलो।
तो रिंझाई ने, रेत पर बैठा था, सामने ही लकड़ी उठाकर लिख दिया, ध्यान। सम्राट ने कहा कि कुछ और थोड़ा विस्तार करो। ध्यान, बस इतना कह दिया काम हो जाएगा? तो रिंझाई ने दुबारा लिख दिया और बडे अक्षरों में— ध्यान। सम्राट ने कहा कि आपका दिमाग ठीक है? मैं पूछता हूं, थोड़ा विस्तार करो। तो रिंझाई ने बहुत बड़े —बड़े अक्षरों में लिख दिया—ध्यान। और जब सम्राट ने कहा कि नहीं, मेरी समझ में इतने से न आएगा। तो रिंझाई ने कहा—तुम क्या मेरी बदनामी करवाकर रहोगे? अब मैं ज्यादा बोला तो फंस जाऊंगा। इतना ही काफी हो गया फंसने के लिए। चुप था, तब तक सत्य के बिलकुल निकट था, जो कह रहा था चुप से, वह बिलकुल सत्य था। फिर जब ध्यान लिखा तो कुछ तो असत्य हो गया। जब और बड़ा लिखा तो और असत्य हो गया। जब और बड़े में लिखना पड़ा तो और असत्य हो गया। अब अगर मैं बोला, और विस्तार किया, तो मुश्किल हो जाएगी।
बुद्ध बोले हैं, अष्टावक्र बोले हैं, लेकिन ध्यान रखना—उनके बोलने की सारी चेष्टा ऐसे ही है जैसे पैर में एक काटा लगा हो तो दूसरे काटे से निकाल देना। दूसरे काटे का कोई मूल्य नहीं है, बस पहला काटा निकल गया कि दूसरा भी पहले ही जैसा व्यर्थ है। दोनों कौ फेंक देना है। ऐसा नहीं है कि दूसरे को संभालकर रख लेंगे छाती में, मंदिर बनाएंगे दूसरे के लिए, पूजा करेंगे कि यह काटा बडा अदभुत है, इसने कांटे से बचाया। दूसरा भी काटा है।
शब्द से शब्द को निकाल लेना है, ताकि पीछे निःशब्द रह जाए।
जनक कहते हैं, अब न कोई जाननेवाला, न कुछ जाना जानेवाला, न कोई प्रमाण, न कोई प्रमा। ज्ञान गया। जब ज्ञान चला जाए, तभी ज्ञान है।
अब समझो।
साधारण हालत तो ऐसी है कि ज्ञान तो बिलकुल नहीं, लेकिन दावा हर एक को है कि हम जानते हैं। तुम्हें ऐसा आदमी मिलेगा जो कहे कि मैं नहीं जानता? मूढ़ से मूढ़ भी यही कहेगा, मैं जानता हूं। जानने का दावा कौन छोड़ता है! तुम जब नहीं भी जानते तब भी तुम जानने का दावा करते हो। कोई तुमसे पूछता है, ईश्वर है? तुम्हें जरा—सा भी पता नहीं है, तुम्हें जरा भी खबर नहीं है, तुम कहते हो—हा, है। तुम मरने—मारने को तैयार हो जाते हो, उस पर जिसका तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। तुमने कभी सोचा तुम क्या कह रहे हो?
मेरे गांव में एक वैद्यराज थे। उनका मेरे घर से लगांव था बहुत, और अक्सर मैं उनके वहां जाता। उनको रस था उपनिषद, वेद पढ़ने में। और वे सदा शिक्षा देते रहते कि सच बोलो, सच बोलो। मैंने उनसे पूछा एक दिन, ईश्वर है? मैं उनसे दादा कहता, मैंने कहा—दादा, ईश्वर है? उन्होंने कहा, है। मैंने कहा, सच बोल रहे हैं? वे थोड़े घबडाए। ईमानदार आदमी थे। छोटे बच्चे को भी धोखा नहीं दे सके। उन्होंने कहा, तो फिर मैं जरा सोचूंगा। मैंने कहा, सोचना क्या है? या तो आपको पता है, या आपको पता नहीं है। इसमें सोचना क्या है? पता हो तो कह दें कि पता है, मैं मान लूंगा। पता न हो तो कह दें कि पता नहीं है। तो उन्होंने कहा, झूठ तुझसे नहीं बोल सकूंगा, मुझे पता तो नहीं है। तो फिर मैंने कहा, अब दो में से कुछ एक तय कर लें, या तो यह सच बोलना चाहिए यह बात आप बंद कर दें। आप निरंतर उपदेश दे रहे हैं कि सच बोलना चाहिए। और या फिर सच बोलना शुरू करें।
जब मैं चलने लगा, उन्होंने कहा, सुन! जो मैंने तुझसे कहा, किसी और को मत बताना। क्योंकि उनकी सारी प्रतिष्ठा इस पर थी। गांव भर उनको मानता, आदर देता कि वे जानी हैं। किसी और से मत कहना! मैंने कहा, यह किस प्रकार का सच हुआ? अगर आपको पता नहीं, तो कह दें, कम—से—कम सच ही के तो पीछे चलें। सच के पीछे चलनेवाला शायद कभी परमात्मा तक पहुंच जाए। लेकिन झूठ परमात्मा के संबंध में जो बोल रहा है, वह तो कैसे कहीं पहुंचेगा! कम—से —कम इतनी सचाई तो हो।
लेकिन बहुत कठिन है। अगर तुमसे कोई पूछे, तो उत्तर दिये बिना नहीं रहा जाता। एक बड़ी उत्तेजना उठती है कि उत्तर देना ही है, क्योंकि नहीं तो लोग समझेंगे कि तुम जानते ही नहीं हो। और ध्यान रखना, अज्ञानी दावा करता है ज्ञान का और ज्ञानी कोई दावा नहीं करता। अज्ञानी ही दावा करता है। ज्ञानी का दावा नहीं है, ज्ञानी दावेदार नहीं है।
इसलिए बुद्ध चुप रह गये। जब लोगों ने पूछा, ईश्वर है? तो बुद्ध चुप रह गये। हिंदुस्तान के पंडितों ने यह घोषणा की कि बुद्ध को पता नहीं है, इसलिए चुप हैं। हिंदुस्तान के पंडितों ने बुद्ध के धर्म को उखाड़कर फेंक दिया, ब्राह्मणों ने टिकने न दिया। क्योंकि उनके लिए एक बड़ी सहूलियत की बात मिल गयी। लेकिन उनको पढ़ना चाहिए अष्टावक्र को, सुनना चाहिए जनक के वचन। उन्हें अपने उपनिषदों में ही खोज करनी चाहिए। बुद्ध जो व्यवहार कर रहे थे चुप रहकर, वह शुद्धतम उपनिषद का व्यवहार है। उन्होंने नहीं उत्तर दिया, क्योंकि बुद्ध ने जाना, जो भी उत्तर दिया जाएगा, गलत होगा। उत्तर मात्र में यह दावा आ जाएगा कि मैं जानता हूं —ही कहूं, या न कहूं। मैं कहां? जानना कहां? जानने को शेष क्या? ऐसी परम शून्यता की जो दशा है। और तब जनक कहते हैं, कहां किंचित और कहां अकिचित! अब ऐसा भी नहीं है कि थोडा जानता हूं और थोड़ा नहीं जानता—कहां किंचित, कहां अकिचित?
इस बात को भी समझना।
तुम कई दफा किसी से कहते हो कि मुझे तुमसे बहुत प्रेम है। तुमने शायद कभी विचार नहीं किया। प्रेम भी बहुत और थोड़ा हो सकता है? प्रेम होता है या नहीं होता, यह बात समझ में आती है, लेकिन थोड़ा और ज्यादा कैसे होता है ? प्रेम थोड़ा और ज्यादा कैसे हो सकता है? शायद तुमने बहुत सोच—विचार कर नहीं बात कही। शायद तुमने बहुत होशपूर्वक नहीं कही। यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई आदमी एक लकीर खींच दे और कहे कि यह आधा वर्तुल है। आधा वर्तुल नहीं होता, वर्तुल तो तब होता है, तब पूरा ही होता है। अगर आधा है वर्तुल तो वर्तुल नहीं है, लकीर ही है। कुछ और होगा, वर्तुल नहीं है। शून्य आधा थोड़े ही होता है। कम—ज्यादा थोड़े ही होता है। पूर्ण भी कम —ज्यादा थोड़े ही होता है, पूर्ण ही होता है। जीवन में जो परम मूल्य हैं, उनके खंड़ नहीं होते।
इसलिए जनक कहते हैं, कहां किंचित और कहां अकिचित? अब न तो मैं यह कह सकता हूं कि मैंने थोड़ा पाया, न मैं यह कह सकता हूं कि मैंने ज्यादा पाया। तुलना, सापेक्षताएं, मात्राएं, सब खो गयीं। एक गुणात्मक रूपातरण हुआ, एक क्रांति हुई। पुराना सब गया, उससे जरा भी संबंध नहीं रहा। और जो नया हुआ है, वह इतना नया है कि उसको पुरानी भाषा में ढाला नहीं जा सकता। पुराने और नये में सारे संबंध विच्छिन्न हो गये हैं। सातत्य टूट गया है।
एक ही बच रहता है। इसलिए ज्ञान के, द्वैत के सब संबंध विलीन हो जाते हैं।

Sunday 25 October 2015

अष्टावक्र ज्ञान को उपलब्ध हुए, इससे तुम्हें भरोसा नहीं आया, कृष्ण ज्ञान को उपलब्ध हुए, इससे तुम्हें भरोसा नहीं आया, बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए, इससे तुम्हें भरोसा नहीं आया, राम, कबीर, नानक, मुहम्मद, फरीद, इनसे तुम्हें भरोसा नहीं आया और चूहड़मल—फूहड्मल ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे तो तुम्हें भरोसा आ जाएगा?
तुम कृष्ण से भी पूछते रहे, बुद्ध से भी पूछते रहे कि कैसे हम मानें कि आपको हो गया है? और मैं यह भी नहीं कहता कि तुम्हारा पूछना अकारण है। असल में दूसरे का ज्ञान दिखेगा कैसे? अंधे आदमी को कैसे समझ में आएगा कि दूसरे की आंख ठीक हो गयी है? मुझे कहो। अंधा आदमी कहेगा, जब तक मुझे दिखायी नहीं पड़ता, यह भी दिखायी कैसे पड़ेगा कि दूसरे की आंख ठीक हो
गयी है? बहरे को कैसे पता चलेगा कि दूसरे को सुनायी पड़ने लगा है? यह तो सुनायी पड़े तो ही सुनायी पडेगा, दिखायी पड़े तो ही दिखायी पड़ेगा।
यह तुम फिकर मत करो कि दूसरों को ज्ञान उपलब्ध हो जाएगा तो तुम्हें भरोसा आ जाएगा। भरोसा तो तुम्हें तभी आएगा जब तुम्हें उपलब्ध होगा। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, तुम भरोसे की प्रतीक्षा मत करो कि पहले भरोसा आएगा तब हम ज्ञान की तरफ जाएंगे। तब तो तुम कभी भी न जाओगे। क्योंकि ज्ञान में जो गया, उसे भरोसा आता है, अनुभव से भरोसा आता है, और तो कोई उपाय नहीं है। और जिसको तुम भरोसा कहते हो, वह धोखा है, थोथा है। विश्वास है, भरोसा नहीं। आस्था नहीं, श्रद्धा नहीं। मान लेते हो कि हुआ होगा! मान लेते हो कि कौन झंझट करे। मान लेते .हो कि कौन विवाद में पड़े। या कि मान लेते हो क्योंकि भीतर वासना है कि कभी हमको भी हो, इसलिए मान लेते हैं कि औरों को भी हुआ होगा या होता होगा। मगर भरोसा आ नहीं सकता। कैसे आएगा? जिस आदमी ने मधु का स्वाद नहीं लिया, लाख लोग कहते रहें कि बहुत मीठा है, बडा स्वादिष्ट है उसे कैसे भरोसा आएगा? और जो आदमी मधु को लेने गया था और उल्टा, मधु तो मिला नहीं मधुमक्खियों ने चीथ डाला, उसको तुम भरोसा दिलवाओगे कि मधु बड़ा मीठा है? वह कहेगा, क्षमा करौ, अब और न उलझाओ, एक दफा झंझट में पड़ गया तो सारा शरीर सूज गया था, दिनों तक घर बिस्तर में पड़ा रहा, मुझे तो एक ही अनुभव आता है कि बड़ा कडुवा है। मधु का स्वाद तो मधुमक्खी के डंक का स्वाद ही उसे मालूम होगा।
लाख कोई तुमसे कहे कि मुझे परमात्मा का दर्शन हो रहा है, तुम कहोगे, हमें तो कंकड़—पत्थर वृक्ष इत्यादि दिखायी पड़ते हैं, परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता। तुम्हें वही दिखायी पड़ेगा जितना तुम देख सकते हो। दूसरे की तो चिंता ही मत करो। अपनी चिंता करो, तुम्हें हुआ या नहीं? शायद बात कुछ और है, तुम कह कुछ और रहे हो। तुम्हारे भीतर यह बात खल रही है कि मुझे हुआ नहीं, अगर यह पक्का हो जाए कि किसी को भी नहीं हुआ, तो निश्चितता हो। कि कोई हम ही अकेले नहीं खो रहे हैं, सभी खो रहे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर में आग लग गयी। सारा पडोस जल गया। मैंने उससे पूछा कि नसरुद्दीन बड़ा बुरा हुआ। उसने कहा, कुछ खास बुरा नहीं हुआ। मैंने कहा, मामला क्या है? उसने कहा, अपना क्या जला, पड़ोसियों का देखो! अपने पास था ही क्या? झोपड़ा था, जल गया। पड़ोसियों के महल जल गये! आज ही तो मजा आया कि अपने पास झोपड़ा था, अच्छा हुआ। सदा तो यह पीड़ा रहती थी कि इनके पास महल है और अपने पास झोपड़ा है, आज सुख मिला कि अपने पास झोपड़ा और इनके पास महल! जला तब पता चला, कि बडा मजा आया! प्रभु की बड़ी कृपा है।
आदमी दूसरे से सोचता है। तुम्हें पता चल जाए कि किसी को नहीं हो रहा है, तुम निश्चित हो गये। रोज तुम अखबार पढ लेते हो, देखते हो कितनी जगह डाके पड़े, कितने लोग मारे गये, कितना युद्ध हुआ, कितनी चोरियां हुईं, कितने लोग बेईमानी कर रहे हैं, कितने लोग पत्नियों को ले भागे किसी की, तुम कहते हो—हम ही भले। करते हैं थोड़ा —बहुत, मगर इतना थोड़े ही! चित्त में बड़ी शांति मिलती है, सांत्वना होती है।
तुम कह तो यह रहे हो कि पता चल जाए कि दूसरों को हुआ तो आस्था आए, भरोसा आए।
नहीं, तुम यह जानना चाहते हो कि किसी को न हुआ हो, कहीं भूल—चूक से किसी को हो न गया हो। किसी को भी नहीं हुआ है तो निश्चित होकर फिर चादर ओढ़ कर सो जाएं कि कोई हम ही नहीं भटक रहे हैं, सारी दुनिया भटक रही है। कुछ अड़चन नहीं है।
तुम अगर मुझसे पूछते हो तो मैं कहता हूं कि सबको हो गया है—सबको था ही—और सबसे मेरा मतलब यह नहीं है कि जो यहां हैं —कहीं भी जो हैं। परमात्मा सबको मिली हुई संपदा है। तुम पहचानो या न पहचानो, तुम उपयोग करो न उपयोग करो, तुम पर निर्भर है। तुम्हारे भीतर हीरा पड़ा है, टटोलो, न टटोलो—बहुत जन्मों तक न टटोला तो शायद भूल भी जाओ—मगर इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता।
मैं तुमसे एक छोटी—सी कहानी कहना चाहता:
एक बादशाह ने अपने दरबारी मसखरे को खुश होकर पुरस्कार में एक घोड़ा दिया। घोड़ा बड़ा मरियल और कमजोर था। चल भी सकेगा, यह भी संदिग्ध था। मसखरा तो मसखरा ठहरा, उसने सम्राट से तो कुछ न कहा, छलांग मारकर घोड़े पर सवार हो गया और एक ओर चलने की कोशिश करने लगा या घोडे को चलाने की कोशिश करने लगा। बादशाह ने आवाज देकर पूछा, बड़े मियां, कहां चल दिये? उसने कहा, हुजूर, जुम्मे की नमाज पढ़ने जा रहा हूं। पर सम्राट ने कहा, आज तो सोमवार है। उसने कहा, यह घोड़ा जुम्मे तक भी पहुंच जाए मस्जिद तो बहुत है! अभी से चले तो ही पहुंच पाएंगे। और मस्जिद दो कदम पर है। घोड़ों घोड़ों की बात है।
कौन पहुंचा, नहीं पहुंचा, इसकी फिकिर छोड़ो। घोड़ों घोड़ों की बात है। मस्जिद दो कदम पर थी, मैं तुमसे कहता हूं, दो कदम पर भी नहीं है। अष्टावक्र कह रहे हैं कि तुम्हारे भीतर है। और कल पहुंचोगे ऐसा भी नहीं है, घडी भर बाद पहुंचोगे ऐसा भी नहीं है, तत्‍क्षण, इसी क्षण, जैसे बिजली कौंध जाए ऐसे क्रांति होती है। आंख बंद करके तुम अगर भीतर देखो तो अभी पहुंच गये, इसी क्षण पहुंच गये। कल पर टालने का प्रश्न ही नहीं है। जनक को हुआ, तुम्हें हो सकता है, क्योंकि जनक से रत्ती भर भी तुममें कमी नहीं है। मुझे हुआ, तुम्हें हो सकता है, क्योंकि मुझसे रत्ती भर भी तुममें कमी नहीं है। और अगर नहीं हो रहा है, तो याद रखना, तुमने कहीं गहरे में निर्णय कर रखा है कि अभी होने नहीं देना है। शायद न होने में तुम्हारा कुछ न्यस्त स्वार्थ है। शायद न होने में तुम अभी सोचते हो, थोड़ा और रस ले लें, थोड़ा और टटोल लें, शायद संसार में कुछ हो, यह तो फिर कभी भी कर लेंगे।
लोग मेरे पास आते हैं, कहते हैं, अभी तो जिंदगी पडी है। ध्यान करना जरूर है, लेकिन आखिर में कर लेंगे। अभी के थोड़े ही हो गये, जब बूढे हो जाएंगे तब कर लेंगे। और का आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े —से —बूढे को पूछो, तो वह भी अभी सोच रहा है कि अभी तो दिन पड़े हैं। मरते दम तक आदमी सोचता है, अभी तो दिन हैं, अभी कर लेंगे। परमात्मा को टालता जाता है, और सब कर लेता है। जो न करने जैसा है, कर लेता है, जो करने जैसा है, उसे टालता जाता है। यह तुम्हारा निर्णय है। तुम मालिक हो। पाना चाहो तो अभी पा सकते हो, न पाना चाहो तो तुम्हें कोई देनेवाला नहीं है।
जनक पा सका, क्योंकि कोई अड़चन न डाली। सीधा उपलब्ध हो गया। अष्टावक्र ने कहा और उसने सुन लिया। सुनने में और अष्टावक्र के कहने में जनक ने कोई व्याख्या न की। उसने ऐसा नहीं
सोचा, कल करेंगे, उसने ऐसा नहीं सोचा कि पता नहीं ठीक हो या न हो, उसने ऐसा भी नहीं सोचा कि यह हो भी सकता है! यह संभव भी है! अनूठा प्रेम रहा होगा जनक को। उसके भीतर अष्टावक्र के प्रति अपूर्व भाव का जन्म हुआ होगा। अष्टावक्र की मौजूदगी पर्याप्त प्रमाण रही होगी। और उसने कोई प्रमाण न मांगा। यही तो अर्थ है शिष्य होने का। गुरु की मौजूदगी प्रमाण हो, और कोई प्रमाण न मांगा जाए। अगर तुमने औंर कोई प्रमाण मांगा, तो तुम शिष्य नहीं हो, विद्यार्थी हो सकते हो। शिष्य का इतना ही अर्थ है कि तुम प्रमाण हो। तुम्हारी मौजूदगी प्रमाण है। तुम्हें हो गया, आ गया। तुमने कहा, बात हो गयी। हम पूरी तरह सुन लेते, हम रत्ती भर इसमें इधर—उधर डावाडोल न होंगे।
लेकिन कुछ कहा जाता है, कुछ तुम सुन लेते हो। तुम जो सुनना चाहते हो, वही सुन लेते हो।
ऐसा हुआ। सड़क —दुर्घटना में चंदूलाल को घातक चोटें आयीं। एक कार वाले ने उन्हें अपनी कार में डाला और पास ही के एक निर्जन से स्थान पर छोड़कर आगे बढ़ गया। एक तो चोटें खाया हुआ आदमी, जब इस कार वाले ने उन्हें अपनी कार में डाला, तो वह थोड़ी हिम्मत बढ़ी उसकी और जब स्वात स्थान में इन्हें छोड़ कर आगे बढ़ गया तो चंदूलाल भी बहुत चकित हुआ कि मामला क्या है! बोलने तक की हिम्मत न थी, जीवन—ऊर्जा बिलकुल क्षीण हो गयी, खून बहुत बह गया। छानबीन के दौरान अदालत में उस आदमी को भी बुलाया गया, वह आदमी था मुल्ला नसरुद्दीन। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि बड़े मियां, जब तुम्हारे पास इतना समय नहीं था कि घायल को अस्पताल तक ले जा सकते, तो उसे एक निर्जन स्थान तक लाकर छोड़ने का क्या आशय था? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, हुजूर, वजह यह थी कि घटनास्थल के सामने लगे बोर्ड पर मेरी नजर पड़ी तो उस पर लिखा था, मौत को सड़क से दूर रखिये। तो मैंने कहा, जो मुझसे बन सके वह करना चाहिए। यह आदमी मरने को था और सड़क पर मौत होती, यह सोचकर मैंने मौत को सड़क से दूर रख दिया। स्वात स्थान पर छोड़कर मैं अपने घर गया। घंटा भर लगा हुजूर! सड्कों पर ऐसे —ऐसे बोर्ड लगे हैं!
आदमी वही पढ़ लेता है जो पढ़ना चाहता है। आदमी अपने को पढ़ लेता है, आदमी अपने को सुन लेता है, आदमी अपनी व्याख्या निकाल लेता है। तुम जब सुन रहे हो, सुन कहां रहे हो! और हजार काम कर रहे हो। मन में न—मालूम कितने विचार चल रहे हैं। उन विचारों की तरंगों को पार करके मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह पहुंच पाएगा? तुम पहुंचने नहीं देते। तुम हजार—हजार बीच में पर्दे खड़े किये हो, उनसे छन—छन कर जब किसी तरह बात पहुंचती है तो इतनी बदल जाती है कि किसी काम की नहीं रह जाती। उससे कोई क्रांति नहीं घटती। दवा इतने जल में मिल जाती है कि उसका सारा असर खो जाता है। सुनने का अर्थ है—जब अष्टावक्र कहते हैं, श्रवणमात्रेण, तो उनका अर्थ है—ऐसे सुनो जैसे तुम्हारे भीतर एक भी पर्दा नहीं है, हृदय को खोलकर सुनो। जैसा प्यासा पानी को पीता है ऐसा गुरु को पी जाओ। तो घटना घटती है। और तब जनक जैसी घटना घट जाती है।
आज जनक का अंतिम सूत्र है। इस अंतिम सूत्र में जनक आखिरी ऊंचाई लेते हैं। शिष्य जिस आखिरी ऊंचाई तक पहुंच सकता है, जहां पहुंचकर शिष्य शिष्य नहीं रह जाता और गुरु में लीन हो जाता है। जो भी वह कह रहे हैं, वह वही है जो अष्टावक्र ने कहा था, फिर भी पुनरुक्ति नहीं है। कह तो वही रहे हैं जो अष्टावक्र ने कहा था, लेकिन अपने प्राणों में उसे पुनरुज्जीवन दिया है। उन शब्दों में अपने प्राण डाल दिये हैं। वह जो गुरु का है, वह गुरु को ही दे रहे हैं, कुछ नया नहीं है, लेकिन
मुर्दा नहीं दे रहे हैं, उसे जीवंत करके दे रहे हैं।
ऐसा ही समझो कि एक प्रेमी अपनी प्रेयसी को गर्भिष्ट कर देता है। तो प्रेमी से नवजीवन का अंकुर प्रेयसी में जाता है। फिर प्रेयसी नौ महीने के बाद उसी अंकुर को नये —नये जीवन, नयी—नयी महिमा से भरकर वापिस लौटाती है। प्रेमी पहचान भी न सकेगा, यह वही बीज है जो प्रेमी ने दिया था। वह बीज तो बड़ा छोटा था। और वह बीज तो कोई बहुत जीवंत न था। अपने— आप रहता तो घडी—दो —घडी में मर जाता। दो घंटे से ज्यादा नहीं जी सकता था। वीर्य — अणु दो घंटे से ज्यादा नहीं जी सकता। बड़ी छोटी—सी उसकी जीवन—लीला है। और बड़ी धीमी—सी ऊर्जा है, जरा—सी ऊर्जा है। जरा—सी ऊर्जा दी थी, प्रेयसी ने उसे संभाला, वह जरा—सी ऊर्जा विराट ऊर्जा बनी। एक नये बच्चे, एक नये अतिथि का आगमन हो गया। और जब प्रेमी अपने बच्चे को देखता है तो भरोसा भी नहीं कर सकता कि यह बच्चा किसी दिन मेरे ही भीतर से एक बीज के रूप में गया था। वही है, और फिर भी वही नहीं है। वही है, बहुत होकर वही है। वही है, और विराट होकर वही है। प्रेयसी ने वही का वही नहीं लौटा दिया है।

Saturday 24 October 2015

नुष्‍य का शरीर एक रहस्यमय यंत्र है। और यह दो आयामों में काम करता है। बाहर जाने के लिए तुम्हारी चेतना इंद्रियों के द्वारा यात्रा करती है और संसार से, पदार्थ से मिलती है। लेकिन यह तुम्हारे शरीर के सिर्फ एक आयाम का काम हुआ। तुम्हारे शरीर का एक दूसरा आयाम भी है—वह तुम्हें भीतर ले जाता है। जब चेतना बाहर जाती है तो वह पदार्थ को जानती है। और जब वही चेतना भीतर जाती है तो वह अपदार्थ को जानती है।
यथार्थत: तो कोई विभाजन नहीं है, पदार्थ और अपदार्थ एक हैं। यह सत्य आंख से, इंद्रियों से देखे जाने पर पदार्थ की भांति मालूम होता है। और यही सत्य भीतर. से देखे जाने पर—इद्रियों द्वारा नहीं, बल्कि केंद्र के द्वारा देखे जाने पर—अपदार्थ की भांति मालूम होता है। सत्य तो एक है, लेकिन तुम उसे दो ढंग से देख सकते हो। एक इंद्रियों के द्वारा और दूसरा अतींद्रिय द्वारा।
ये जो केंद्रित होने की विधियां हैं वे तुम्हें तुम्हारे भीतर उस बिंदु पर ले जाने के लिए हैं जहां इंद्रियों का कोई काम नहीं रहता, जहां तुम इंद्रियों के पार चले जाते हो। इन विधियों में प्रवेश करने के पहले तीन चीजें समझने जैसी हैं।
पहली बात। जब तुम आंखों से देखते हो तो आंखें नहीं देखती हैं, वे मात्र देखने के द्वार हैं। द्रष्टा तो आंखों के पीछे है। यही कारण है कि तुम आंखें बंद कर ले सकते हो और तब भी सपने, दृश्य और चित्र देखते रह सकते हो। द्रष्टा तो इंद्रियों के पीछे है, वह इंद्रियों के माध्यम से संसार में गति करता है। लेकिन अगर तुम अपनी इंद्रियों को बंद कर लो तो भी द्रष्टा भीतर बना रहता है।
अगर यह द्रष्टा, यह चेतना केंद्रित हो जाए तो उसे अचानक अपना बोध हो जाता है, वह अपने को जान लेती है। और जब तुम अपने को जान लेते हो तो तुम समग्र अस्तित्व को जान लेते हो, क्योंकि तुम और अस्तित्व दो नहीं हैं।’” लेकिन अपने को जानने के लिए केंद्रित होने की जरूरत है। और केंद्रित होने से मेरा मतलब है कि तुम्हारी चेतना अनेक दिशाओं में बंटी न हो, वह कहीं गति न करती हो, अपने आप में थर हो, अचल हो, आधारित हो; बस भीतर हो।
भीतर होना कठिन लगता है, क्योंकि हमारे मन के लिए भीतर कैसे रहें, इसका विचार भी बाहर जाने जैसा लगता है। हम विचार करने लगते हैं, ‘कैसे’ पर विचार करने लगते हैं। इस भीतर के संबंध में सोचना भी हमारे लिए विचार है। और प्रत्येक विचार बाहर का है, भीतर का नहीं, क्योंकि तुम अपने अंतर्तम केंद्र पर मात्र चेतना हो। विचार बादलों जैसे हैं। वे तुम्हारे पास आए हैं, लेकिन वे तुम्हारे नहीं हैं। सब विचार बाहर से आते हैं, भीतर तुम एक भी विचार नहीं निर्मित कर सकते। प्रत्येक विचार बाहर से आता है, भीतर उसे पैदा करने का कोई उपाय नहीं है। विचार बादलों की भाति तुम्हारे पास आते हैं।
इसलिए जब तुम विचार कर रहे हो तब तुम भीतर नहीं हो, यह याद रहे। विचारणा मात्र बाहर होना है। अगर तुम भीतर के संबंध में, आत्मा के संबंध में भी सोच रहे हो तो भी तुम भीतर नहीं हो। आत्मा, अंतस, भीतर के संबंध के सब विचार बाहर से आए हैं, वे तुम्हारे नहीं हैं। वह जो शुद्ध चेतना है, निरभ्र आकाश की भांति, वही तुम्हारी है। तो क्या किया जाए? भीतर की सीधी—सरल चेतना को कैसे उपलब्ध किया जाए?
इसके लिए कुछ उपाय उपयोग किए जाते हैं, क्योंकि तुम उनके साथ सीधे—सीधे कुछ नहीं कर सकते। कुछ उपाय जरूरी हैं, जिनके द्वारा तुम भीतर फेंक दिए जाते हो, वहां पहुंचा दिए जाते हो। इस केंद्र के साथ सदा परोक्ष रूप से ही कुछ किया जा सकता है, तुम वहां प्रत्यक्ष रूप से नहीं जा सकते। इस बात को बहुत साफ—साफ समझ लो, क्योंकि यह बहुत बुनियादी बात है।
तुम खेल रहे हो। बाद में तुम कहते हो कि खेल बहुत आनंदपूर्ण था, मुझे बहुत सुख मिला, मैंने बहुत मजा लूटा। एक सूक्ष्म सुख पीछे छूट गया है। फिर कोई तुम्हें सुनता है। वह भी सुख की खोज में है। कौन नहीं है? वह कहता है कि तब मैं भी खेलूंगा, क्योंकि अगर खेल से सुख मिलता हो तो मुझे भी यह सुख पाना है। वह खेलता भी है, लेकिन उसका ध्यान सीधे—सीधे सुख, आनंद, खुशी पर है। और तब उसे वह सुख, वह आनंद नहीं मिलता है। सुख तो उप—उत्पत्ति है। अगर तुम समग्रता से खेलते हो, उसमें डूबे हो, तो सुख फलीभूत होता है। लेकिन अगर तुम सतत सुख की चिंता कर रहे हो, उसका पीछा कर रहे हो, तो कुछ भी नहीं होता।
तुम संगीत सुन रहे हो। कोई कहता है कि मुझे बहुत आनंद आ रहा है। लेकिन तुम अगर निरंतर सीधे आनंद के पीछे पड़े रहे तो सुनना भी कठिन हो जाएगा। आनंद के लिए वह फिक्र, वह लालच ही बाधा बन जाएगा। आनंद उप—उत्पत्ति है। तुम उसे सीधे झपट्टा मारकर नहीं ले सकते। वह इतनी नाजुक चीज है कि तुम्हें उसके पास परोक्ष रूप से जाना होगा। कुछ और चीज करो और आनंद घटित होगा। उसके साथ सीधे कुछ नहीं किया जा सकता है।
जो भी सुंदर है, जो भी शाश्वत है, वह इतना नाजुक है, सुकुमार है कि अगर तुमने उसे सीधे पकड़ने की चेष्टा की तो वह नष्ट ही हो जाता है। विधियों और उपायों का यही उपयोग है। ये विधियां तुम्हें कुछ करने को कहती हैं। तुम क्या करते हो, वह महत्वपूर्ण नहीं म् है, लेकिन तुम्हारे मन को करने से, विधि से मतलब रखना चाहिए, उसके फल से नहीं। फल तो आता है, उसे आना ही है। लेकिन वह सदा परोक्ष रूप से आता है। इसलिए फल की फिक्र मत करो। सिर्फ विधि की फिक्र करो; उसे उतनी समग्रता से करो जितनी समग्रता से कर सको, और फल को भूल जाओ। फल घटता है, लेकिन तुम उसकी राह में बाधा बन सकते हो। अगर तुम फल की ही फिक्र करते रहे तो कभी नहीं घटेगा।
और तब एक अजीब बात घटती है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि आपने कहा था कि फलां ध्यान करो तो उससे ऐसा होगा। हम वह ध्यान कर रहे हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा है।
वे सही हैं, लेकिन उन्होंने शर्त भुला दी है। तुम्हें फल को भूल जाना होगा, तभी कुछ होता है। तुम्हें कर्म में समग्रता से जुटना होगा। जितना ही तुम कर्म में होओगे उतना ही शीघ्र फल आएगा। लेकिन फल सदा परोक्ष है। तुम उसके प्रति आक्रामक नहीं हो सकते, हिंसक नहीं हो सकते; वह ऐसी नाजुक घटना है कि उस पर आक्रमण नहीं किया जा सकता। वह तुम्हारे पास तब आता है जब तुम कहीं इस समग्रता से उलझे होते हो कि तुम्हारा आंतरिक आकाश खाली होता है।
ये विधियां सब परोक्ष हैं। आध्यात्मिक घटना के लिए कोई प्रत्यक्ष विधि नहीं है।

Tuesday 20 October 2015

सपने के बिना जिंदगी कैसी होगी? और संन्यास भी सपना है क्या?
प्रश्‍न स्वाभाविक है, उठता है मन में, सपनों के बिना जिंदगी कैसी होगी? क्योंकि हमने अब तक तो जो जीवन जीया, वह झूठ का जीवन है। हमारा जीवन तो झूठ ही झूठ है। और झूठ की ईंटों से बनाया हमने यह भवन। सपने ही सपनों में हम जीए हैं। आशा, कल्पना, वासना, मिला तो कुछ भी नहीं है। झूठ ही झूठ। तो जब मैं तुमसे कहता हूं छोड़ दो सब झूठ, तो एक घबडाहट आनी स्वाभाविक है, कि फिर जीवन का क्या होगा? यही तो हमने अब तक जीवन जाना है।
कुछ लोग एक ही सपना देखते हैं। उनकी बडी अदम्य वासना होती है। किसी को पद का सपना है, किसी को धन का सपना है। कुछ लोग अनेक सपने देखते हैं—पद का भी, धन का भी, यश का भी। मगर सभी सपने देखते हैं। कुछ लोगों का सपना एकाग्र होता है, कुछ लोगों का सपना अनेक दिशाओं में बंटा होता है। और सपने जब टूटते हैं, तो पीड़ा भी स्वाभाविक है।
मैं नहीं दस—बीस सपनों का धनी हूं
एक ही तो यह मनौती का सपन था
आज वह भी तो खरीदा जा चुका है
जो कि मेरे वास्ते धरती—गगन था
आज मेरे साज का मस्तक झुका है
और तुम कहते हो कि मीठा गीत गाऊं
दाग देकर जिस तरह घर लौटते हैं
उस तरह बस आज मैं खोया हुआ हूं
देखने को ये पलक सूखे पड़े हैं
किंतु मन की आंख से रोया हुआ हूं
आज दृग का देवता तक मर चुका है
और तुम कहते हो कि मीठा गीत गाऊं
मैं समझा। सपना टूटेगा तो तुम यह परमात्मा का मीठा गीत कैसे गाओगे, तुम्हें लगता है। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं सपना टूटेगा तो ही तुम यह मीठा गीत गा पाओगे। सपने के कारण ही नहीं गा पा रहे हो। और सपने के कारण तुम जो सोच रहे हो जीवन में मिठास है, वह है कहा? खयाल है। सिर्फ खयाल है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात उठा और अपनी पत्नी से बोला, जल्दी मेरा चश्मा ला। पत्नी जरा नाराज हुई, आधी रात, बीच नींद में, उसने कहा, चश्मे का करना क्या है आधी रात? मुल्ला ने कहा, बातचीत में समय न गंवा, मैं एक बड़ा प्यारा सपना देख रहा हूं। और आंख कमजोर होने की वजह से ठीक—ठीक नहीं देख पा रहा हूं, तू जरा चश्मा तो ले आ!
सपना ही है, चश्मा लगाकर भी देख लोगे तो क्या देख लोगे? सपना सपना है। सपने का अर्थ ही है कि जो नहीं है।
तो सारी मिठास जो तुम्हें मालूम पड़ती है सपनों में, वह सिर्फ खयाल की मिठास है। और उसी मिठास के कारण जो सत्य की मिठास है, उससे तुम चूके जा रहे हो, क्योंकि सपनों के भोजन करने में जो लीन है, वह सत्य भोजन को नहीं कर पाता। ये दोनों चीजें साथ—साथ नहीं चलतीं। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, जीवन सपना है। और सपने से जागना है।
अब तुम पूछते हो, ‘संन्यास भी सपना है क्या?’
तुम पर निर्भर है। तुम इस ढंग से संन्यास ले सकते हो कि वह भी एक सपना ही रहे। लेकिन तब तुमने मेरा संन्यास न लिया। तुमने अपना कोई संन्यास गढ़ लिया। मेरा संन्यास तो सब सपनों के बाहर आने की विधि है। यह कोई नया सपना नहीं है। यह सब सपनों का ध्वंस है। यह सपनों का अभाव है। लेकिन यह मेरी तरफ से। तुम्हारी तरफ से मैं नहीं कह रहा। तुम्हारी तरफ से तो हो सकता है यह एक नया सपना हो—कि नहीं मिला संसार में कुछ, चलो संन्यास लेकर मिल जाए।
एक मित्र ने परसों संन्यास लिया। मैंने पूछा, क्या करते हैं? उन्होंने कहा, वकालत करता हूं लेकिन चलती नहीं। सोचा, चलो आपके चरणों में झुक आऊं, शायद चल जाए।
अब वकालत चलानी है और संन्यास ले रहे हैं! मैंने कहा, बड़ा मुश्किल है। चलती भी होती तो गड़बड़ हो जाती और तुम्हारी तो चल ही नहीं रही। अब वकालत से ज्यादा गैर—संन्यासी कोई धंधा है! तुमको भी खूब सूझी। अंधे को अंधेरे में दूर की सूझी। तुम कहां आ गए! एक तो वकालत, चल नहीं रही दूसरे, और तुम सोच रहे हो कि वह संन्यास के द्वारा शायद चल जाए। अब कभी न चलेगी, मैंने उनसे कहा, बात ही छोड़ दो! अब संन्यास चलेगा कि वकालत चलेगी?
तो मुझे पक्का नहीं है, तुम्हारी तरफ से क्या है! तुम हजार—हजार वासनाएं दबाकर मन में आते हो। तुम उन्हीं वासनाओं के लिए संन्यास भी ले लेते हो। तुम सोचते हो, चलो संसार में नहीं मिला तो शायद परमात्मा में मिल जाए, लेकिन चाहते तुम वही हो। तुम्हारी दृष्टि वही है। तुम्हारी पकड़ वही है।
तो हो सकता है, तुम्हारे लिए संन्यास भी सपना हो। मेरे लिए नहीं है। और संन्यास लेना हो, तो जो मैं दूं वह लेना। जो तुम लेना चाहते हो वह मत ले लेना, नहीं तो तुमने लिया ही नहीं। तब तुम ऊपर ही ऊपर रह जाओगे। कपड़े रंगकर रह जाओगे, आत्मा न रंग पाएगी।
जाएं कहां न सिर पर छत है
और न पांव तले धरती
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण
सभी दिशाएं सूनी हैं ओ,
मेरे मन भटक न घर—घर
यह नगरी बेगानी है
राहें सभी अजनबी हैं और
हर सूरत बेपहचानी है
अभी—अभी आवाज सुनी जो
तूने उत्सुक कानों से
तेरी ही प्रतिध्वनि लौटी थी
टकराकर चट्टानों से
धीरे— धीरे टूट किसी को
कानों कान पता न चले
यहां आत्महत्याएं वर्जित
मृत जीवन कानूनी है
चारों ओर स्लेटी कुहरा
चारों ओर उदासी है
आधी धरती अनुर्वरा है
आधी धरती प्यासी है
उगे कहा पर बीज कि
पूरा युग बंजर पथरीला है
आसमान पर मेघ नहीं हैं
सिर्फ धुआ जहरीला है
सुबह चले थे दिनभर भटके
शाम हुई तो यह पाया
सारी खुशियां खर्च हो गयीं
और व्यथाएं दूनी हैं
सांस न ले, विष घुल जाएगा
तेरी रक्त—शिराओं में
सुरभि नहीं अणु— धूल तैरती है
आज हवाओं में
चांद—सितारों तक तुझको
कोई न कभी ले जाएगा
सिर्फ अंधेरा अंधगुफाओं में
फिर—फिर भटकाएगा
रंगे हुए शब्दों
भड़कीले विज्ञापन पर ध्यान न दे
सभी कल्पनाएं झूठी हैं
सभी स्वप्न बातूनी हैं
स्वप्न से जागना मन से जागना है। स्वप्न यानी मन। मन में उठी तरंगें। ध्यान यानी मन का निस्तरंग हो जाना, मन का शात हो जाना। और जहां मन निस्तरंग है, वहीं तुम्हारी आत्मा दर्पण की तरह उसे झलकाती है, जो है। जो है, उसे जान लेना सत्य को जान लेना है। कहो उसे ईश्वर, परमात्मा, जो चाहो नाम देना, दो। न देना चाहो नाम, न दो। लेकिन बुद्ध का सारा संदेश यथार्थ के साथ तादात्म्य बना लेने का है, संबंध जोड़ लेने का है। तथागत हो जाने का है।
सपना है संसार। इस सपने के पार भी कुछ है। जो सपने को देख रहा है, वह इस सपने के पार है। जिसके सामने यह सपना चल रहा है, वह इस सपने के पार है। सपना देखने को भी तो देखने वाला चाहिए। देखने वाला तो सच चाहिए, देखने वाला तो होना ही चाहिए।
तुम गए, फिल्म में बैठ गए रात, पर्दे पर चलने लगा झूठ, छायाओं का जाल। वह झूठ है, लेकिन तुम तो सच हो न! तुम, जो देख रहे हो। देखने वाला तो झूठ नहीं हो सकता।
द्रष्टा सच है, दृश्य सपने हैं। द्रष्टा को पहचान लेना आत्मज्ञान है। और द्रष्टा की पहचान की तरफ चलने का जो पहला कदम है, वही संन्यास है।

Monday 19 October 2015

सुना है कि आप विदेश जा रहे हैं। सच न हो! और हुआ, तो सदियों पुरानी गोपियों और उनके कृष्ण की कहानी फिर दोहर जाएगी। आपकी मीरा भी उसी तरह रोएगी। क्या आपने इसी में हमारा भला सोचा है?
पहली बात तो मेरे लिए देश और विदेश नहीं है। विदेश शब्‍द ही मेरी भाषा में नहीं है। मेरे लिए कोई विदेशी नहीं है। वह शब्‍द अपमानजनक है। किसी को भूलकर विदेशी मत कहना।
हम सब एक देश के वासी हैं, विदेश कहां है? तो मैं यहां रहूं कि इंग्लैंड में, कि अमरीका में, कि जापान में, इससे विदेश जा रहा हूं यह बात तो छोड़ ही देना। जो मुझे समझते हैं, वह विदेश शब्द को तो छोड़ ही दें। विदेश तो कुछ भी नहीं है, यह जमीन तो एक है। यह पृथ्वी तो एक है। सबै भूमि गोपाल की। यह तो सारी भूमि एक ही प्रभु की है। इसमें विदेश कहा!
सोचो, अगर उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले मैं लाहौर चला जाता तो देश जाता, और अब चला जाऊं तो विदेश चला गया। लाहौर वहीं का वहीं है। लेकिन पागल राजनीतिज्ञों ने बीच में एक रेखा खींच दी, तो आज विदेश हो गया।
मैंने सुना है एक पागलखाने के संबंध में। जब उन्नीस सौ सैंतालीस में भारत बंटा, तो सआदत हसन मंटो ने एक कहानी लिखी। कहानी थी कि एक पागलखाना था जो दोनों देशों की सीमा पर पड़ता था। अब पागलखाने में कोई बहुत उत्सुक भी नहीं था कि भारत में रहे कि पाकिस्तान में जाए। किसको फिकर थी पागलखाने की! लेकिन कहीं तो जाना ही चाहिए। आखिर पागलखाने को बांटना तो पड़ेगा, कहां जाए? और कोई उत्सुक नहीं दिखायी पड़ रहा था।
तो पागलखाने के प्रधान ने पागलों ही से पूछा कि तुम्हीं तय कर लो, कहां जाना है! तो पागलों ने कहा, हमें तो कहीं नहीं जाना है, हमें तो यहीं रहना है। अरे, उन्होंने कहा, तुम यहीं रहोगे, जाओगे कहीं भी नहीं। पागल बड़े बेबूझ पड़े। पागल कहने लगे कि हम तो सोचते थे कि हम पागल हैं, तुम पागल हो गए! अगर यहीं रहेंगे, तो तुम यह पूछते ही क्यों हो कि कहां जाना है? जब यहीं रहेंगे, तो ठीक, बात खतम हो गयी। लेकिन उस प्रधान ने समझाया कि समझने की कोशिश करो, पागलो! तुम्हें हिंदुस्तान में जाना है कि पाकिस्तान में जाना है? रहोगे तो यहीं। पागलों ने सिर पीट लिया, उन्होंने कहा कि आपका दिमाग भी हमारे साथ खराब हो गया! जब रहेंगे यहीं, तो कैसा हिंदुस्तान कैसा पाकिस्तान!
बड़ा मुश्किल में पड़ा वह प्रधान, उनको समझा न पाए। कैसे समझाए! वह उनकी जिद्द यह कि जब जाने की बात उठ रही है, तो फिर रहने की बात में बड़ा विरोध है। दोनों बातें साथ—साथ कैसे हो सकती हैं!
आखिर कोई उपाय न देखकर ऐसा किया कि उस पागलखाने के बीच में से दीवाल उठा दी। आधे पागल, उस तरफ जो पड़ गए, जिनकी कोठरियां उस तरफ थीं, वे उस तरफ हो गए। आधे पागल इस तरफ पड़ गए, जिनकी कोठरियां इस तरफ थीं, वे इस तरफ हो गए। उधर पाकिस्तान हो गया, इधर हिंदुस्तान हो गया। मैंने सुना है कि उस पागलखाने की दीवाल पर पागल अभी भी चढ़ आते हैं दोनों तरफ से, बैठ जाते हैं दीवाल पर उचककर, कहते हैं, बड़ा गजब हो गया, तुम भी वहीं हो, हम भी वहीं हैं, तुम पाकिस्तान चले गए, हम हिंदुस्तान चले गए! बड़ा गजब हो गया! अभी तक उनको भरोसा नहीं आता कि यह हुआ क्या मामला!
राजनीति का पागलपन है—देश की सीमाएं, राष्ट्र की सीमाएं! इसलिए पहली बात तो यह तुम भूल ही जाओ कि मैं विदेश जा रहा हूं या जा सकता हूं। क्योंकि मेरे लिए विदेश कोई नहीं। जहां भी हू एक ही पृथ्वी है, एक जैसे लोग हैं, एक जैसी पीडाएं हैं, एक जैसा संताप है, एक जैसी समस्याएं हैं और एक जैसा समाधान है, एक जैसा ध्यान है, एक जैसी समाधि है। एक ही परमात्मा है, एक ही पृथ्वी है।
दूसरी बात, अगर विदेश शब्द से बहुत प्रेम हो तो फिर ऐसा करो कि समझो कि हम सभी विदेशी हैं। अगर शब्द से बहुत लगाव हो गया है और बचाना ही है, तो फिर ऐसा समझो कि हम सभी विदेशी हैं। क्योंकि यहां हमारा घर तो है नहीं, जाना तो पड़ेगा ही किसी और घर की तलाश में, तो यह विदेश ही हो सकता है।
लेकिन तब देश कोई नहीं है। तब सब विदेश है। चाहे भारत में रहो, चाहे पाकिस्तान में, चाहे चीन में, चाहे तिब्बत में, सब विदेश है। क्योंकि घर, देश तो कहीं और है। कबीर कहते हैं, चल हंसा वा देस। उस देश चलें हंस, जो अपना है। सच में अपना है। जहां से हम आए और जहां हमें जाना है।
तो अगर तुम्हें देश शब्द से प्रेम हो, तो सारी पृथ्वी देश है। अगर तुम्हें विदेश शब्द से प्रेम हो, तो सारी पृथ्वी विदेश है। मगर किसी को विदेशी मत कहना और किसी को देशी मत कहना। ये सीमाएं गलत हैं। ये सीमाएं तोड़ देने का यहां उपाय चल रहा है। यहां मैं हिंदू—मुसलमान के बीच की दीवाल गिरा देना चाहता हूं। गोरे और काले के बीच की दीवाल गिरा देना चाहता हूं। पूरब और पश्चिम की दीवाल गिरा देना चाहता हूं। उत्तर और दक्षिण की दीवाल गिरा देना चाहता हूं। यहां दीवालें गिराने का ही काम चल रहा है। जिस दिन तुम्हारे आसपास कोई दीवाल न रहेगी, उस दिन तुम मुक्त हुए।
अब तुम चकित होओगे, तुमने मान लिया है कि मैं हिंदू हूं? मुसलमान हूं? सिख हूं, जैन हूं तुमने कारागृह बना लिया। तुमने मान लिया—हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, अफगानिस्तानी, तुमने फिर कारागृह बना लिया। और फिर कारागृह के भीतर और छोटे कारागृह। और उनके भीतर और छोटे कारागृह—कि महाराष्ट्रियन, कि गुजराती। फिर महाराष्ट्रियन में और छोटे कारागृह—कि देशस्थ, कि कोकणस्थ। चले, बनाते जाते कोठरियों में कोठरियां, कोठरियों में कोठरियां। आखिर में तुम्हीं बचते हो, चारों तरफ दीवाल हो जाती है। फिर तडूफते। फिर चिल्लाते।
एक घर में मैं मेहमान था। सामने एक बड़ा मकान बन रहा था और एक छोटा बच्‍चा, रेत के ढेर लगे थे, ईंटें लगी थीं, उनसे खेल रहा था। उसने अपने चारों तरफ धीरे— धीरे ईंटें रखकर—बैठा—बैठा खेलता रहा, ईंटें जमाता गया चारों तरफ, फिर धीरे — धीरे ईंटें उससे ऊंची हो गयीं, तब वह चिल्लाया। क्योंकि अब निकले कैसे! तब वह चिल्लाया कि मुझे बचाओ! खुद ही रख रहा है ईंटें। अपने चारों तरफ ईंटें जमा लीं, अब ईंटें बड़ी हो गयीं, अब उनके बाहर निकल नहीं सकता, अब घबड़ाया कि यह तो मौत हो गयी।
ये ईंटें तुमने ही रखी हैं। अब चिल्ला रहे हो, बचाओ। अब कहते हो, मोक्ष कैसे हो? और तुम जो भी कर रहे हो उससे जंजीरें निर्मित हो रही हैं।
यहां तो जंजीरें तोड़ने का काम है। इसलिए यह भाषा तो छोड़ दो।
रही इस जगह से किसी और जगह जाने की बात। तो हालात इस देश के कुछ ऐसे होते जा रहे थे कि जैसे देश एक बड़ा कारागृह बन गया। यहां कोई स्वतंत्रता न रही। एक शिकंजा, एक तानाशाही शिकंजा मुल्क को छाती पर कसा जाने लगा। अब मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं, मुझे राजनीति से कुछ लेना—देना नहीं है। कौन हुकूमत में रहे, कौन न रहे, इससे मुझे प्रयोजन नहीं। मैंने अपने जीवन में कभी वोट नहीं दिया। क्योंकि दो पागलों के बीच किसको वोट दो! तो मुझे कोई राजनीति में तो जरा भी रस नहीं है। कौन हुकूमत करे? कोई भी पागल करे—कोई न कोई पागल करेगा। मेरी गिनती में वे सब पागल हैं। राजनीति में पागल ही उत्सुक होते हैं।
लेकिन हालात बिगड़ते चले गए और ऐसा लगा कि लोकतंत्र की कोई स्थिति न रह जाएगी। और, और तो और, राजनीतिज्ञों की तो छोड़ दो, जिनको लोग संत कहते हैं, राष्ट्र—संत कहते हैं—विनोबा भावे को राष्ट्र —संत कहते हैं, कहना चाहिए सरकारी—संत—औरों की तो बात छोड़ दो, विनोबा जैसे व्यक्ति को भी चमचागीरी सूझी। वे भी कहने लगे कि यह अनुशासन का महापर्व है। यह जो डिक्टेटरशिप आ रही, यह जो तानाशाही, अधिनायकशाही आ रही, इसको उन्होंने नयी व्याख्या दे दी। उन्होंने कहा, यह अनुशासन पर्व है।
झूठी बातें हैं। परतंत्रता को अनुशासन पर्व कह दिया।
तो ऐसा लगा कि यहां काम करना मुश्किल हो गया। छोटी—छोटी बात पर इतना उपद्रव कि कोई काम करना संभव नहीं। और मेरा तो सारा काम आदमी को स्वतंत्र बनाने का। सब तरह से स्वतंत्र बनाने का। सब सीमाएं तोड़ने का। और अगर काम असंभव ही हो जाए—तो तुम्हारे लिए ही मैं यहां हूं अगर काम ही न कर सकूं तुम्हारे लिए तो फिर कहीं और से करूंगा। काम तो तुम्हारे लिए ही करूंगा, लेकिन कहीं —गौर से करूंगा। ऐसी मजबूरी के कारण सोचा था। शायद अब जाने की जरूरत न पड़े। लेकिन कहीं भी रहूं —यहां रहूं? वहां रहूं, कहीं भी रहूं —इससे कोई फर्क नहीं पडता। जो काम मैंने चुना है, वह हो जाए। किसी तरह आदमी को स्वतंत्रता का थोड़ा स्वाद आ जाए। थोडे से लोगों को आ जाए, तो उनके द्वारा तरंगें फैलती रहेंगी। वे थोड़े से लोग उदघोषणाए बन जाएंगे। उन थोड़े से लोगों के द्वारा, शुरू—शुरू में चाहे कानाफूसी हो चलेगी, लेकिन खबरें फैलती जाएंगी।
यह बात कुछ ऐसी बात नहीं है कि इसके लिए बहुत प्रचार करना पड़े। यह बात कुछ ऐसी बात है कि इसका प्रचार अपने से हो जाएगा। सत्य का प्रचार करना नहीं होता, सत्य का प्रचार अपने से हो जाता है। झूठ का प्रचार करना होता है। और प्रचार करना बंद किया कि झूठ गिर जाता है।
तो यह बात तो फैलती रहेगी। इतना ही है कि थोड़ी सुविधा हो, तो अनुकूलता से फैल जाए।

Sunday 18 October 2015

सिख होने की वजह से मैं नानक से प्रभावित हूं। आपकी वाणी और दर्शन से भी प्रभावित हूं। कृपया बताएं कि कौन सा मार्ग अपनाऊं?
तुम्‍हें भेद कहा दिखायी पड़ा? चुनाव तो तब होता है जब भेद हो। कि नानक कुछ कहते हों, मैं कुछ और कह रहा होऊं, तब चुनाव का सवाल है। अगर तुमने नानक को चाहा है, तो तुम नानक को ही मुझमें देख लोगे। अगर तुमने मुझे चाहा है, तो तुम मुझको ही नानक में देख लोगे, भेद कहां है?
यहां एक अपूर्व घटना घट रही है। यहां जीसस को चाहने वाले लोग हैं, उन्होंने जीसस को मुझमें देख लिया। उन्होंने मुझको भी चाहा उनके प्रेम के कारण। उनका प्रेम सेतु बन गया और मैं और जीसस एक हो गए। यहां कबीर को चाहने वाले लोग हैं। यहां महावीर को चाहने वाले लोग हैं। यहां बुद्ध को चाहने वाले लोग हैं। यहां जरथुस्त्र को चाहने वाले लोग हैं। मोहम्मद को चाहने वाले लोग हैं। यहां सारे धर्मों के लोग हैं। पृथ्वी पर तुम्हें ऐसी कोई दूसरी जगह न मिलेगी, जहा सारे धर्मों के लोग हों। और यहां कोई सर्व— धर्म —समन्वय का पाठ नहीं पढाया जा रहा है, मजा यह है। यहां मैं कह ही नहीं रहा कि सब धर्म एक हैं। सब धर्म बड़े अलग—अलग हैं, बड़े भिन्न—भिन्न हैं, बड़े विशिष्ट हैं।
तो फिर जोड़ क्या है? जोड़, नानक को प्रेम करने वाला जब मेरे प्रेम में पड़ जाता है, तो उसका प्रेम ही मेरे और नानक के बीच सेतु हो जाता है। फिर वह नानक की वाणी को कुछ इस ढंग से समझेगा, कुछ इस रंग से समझेगा कि वह मेरी वाणी हो जाएगी। वह मेरी वाणी को कुछ इस ढंग और रंग से समझेगा कि मेरी वाणी में उसे नानक का स्वर सुनायी पड़ने लगेगा। प्रेम ने भेद कभी जाना नहीं, प्रेम तो अभेद जानता है।
तुम इस चिंता में ही मत पड़ो। यहां कोई विरोध है ही नहीं। यहां कुछ भेद है ही नहीं। तुम अगर मेरे प्रेम में डूबे तो नानक नाराज न होंगे, इतना आश्वासन मैं तुम्हें देता हूं। और तुम अगर नानक के प्रेम में बने रहे, तो मैं नाराज नहीं हूं इतना आश्वासन तुम्हें देता हूं। सच तो यह है, अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम्हें बात समझ में आ जाएगी। तुमने नानक को प्रेम किया और तुम मुझे भी प्रेम कर सके, उसी प्रेम में यह खबर मिल गयी कि जो मैं कह रहा हूं वह नानक से भिन्न नहीं है, अभिन्न है। अन्य नहीं है, अनन्य है। इसीलिए तो तुम मेरे प्रेम में सरक आए। और मेरे प्रेम में बहुत तरह के लोग सरक आए हैं। तरह—तरह के लोग। जिनके जीवन में एक—दूसरे से मिलने की कभी कोई संभावना नहीं थी।
क्या हुआ है? कुछ अपूर्व घटा है। यह कोई धर्म—समन्वय नहीं है। धर्म—समन्वय में मेरी उत्सुकता ही नहीं है। यह टुटपुजियों का धंधा है, जो धर्म—समन्वय की बात करते हैं। क्योंकि मैं मानता हूं, बुद्ध अनूठी बात कहते हैं। नानक अनूठी बात कहते हैं। समन्वय किया नहीं जा सकता।
लेकिन, किसी सदगुरु की विराटता में समन्वय हो सकता है। मेरे पास छोटा हृदय नहीं है, संकीर्ण दरवाजा नहीं है। मेरे बहुत दरवाजे हैं, एक दरवाजा नहीं है।
तुम नानक को प्रेम करते हो, तो मेरा एक दरवाजा है जो नानक से प्रेम करने वाले के लिए है, उससे तुम मेरे भीतर आ जाओ। तुम जीसस को प्रेम करते हो, तुम नानक वाले दरवाजे से भीतर न आ सकोगे, मेरा एक और दरवाजा है, जिसका नाम जीसस। तुम उससे मेरे भीतर आ जाओ। भीतर आकर तुम मुझे पाओगे, वह एक ही है। लेकिन दरवाजे बहुत हैं।
जीसस का एक प्रसिद्ध वचन है कि मेरे प्रभु के मंदिर के बहुत द्वार हैं और मेरे प्रभु के मंदिर में बहुत कक्ष हैं।
रामकृष्ण कहते थे, पहाड़ पर तुम चढ़ों, अलग— अलग दिशाओं से, कहीं से भी चढ़ो, कैसे भी चढ़ो—डोली में, पैदल, घोड़े पर, दौड़ते कि आहिस्ता, कि बूढ़े कि जवान, कि स्त्री कि पुरुष, कि इस रंग में, उस रंग में—लेकिन जब तुम चोटी पर पहूंचते हो तो तुम एक ही जगह पहुंच जाते हो।
मैं जहां खड़ा हूं, अगर तुमने उस तरफ आंख उठायी तो तुमने जिनको भी कभी प्रेम किया है, तुम मुझे पाओगे, मैं उन सबकी परिपूर्ति हूं।
—जीसस से एक आदमी ने पूछा, क्या आप पुराने पैगंबरों के खिलाफ हैं? जीसस ने कहां, नहीं, मैं उन्हें परिपूर्ण करने आया हूं। आई हैव कम नाट टु डिस्ट्राय, बट टु फुलफिल। मैं उन्हें पूरा करने आया हूं विनष्ट करने नहीं।
लेकिन एक बात पक्की है कि मैं कोई सिख नहीं हूं। न मैं ईसाई हूं न मैं जैन हूं न मैं बौद्ध हूं न मैं हिंदू न मैं मुसलमान। मैं हो भी नहीं सकता किसी एक के साथ, क्‍योंकि मुझे सबके साथ होना है। सब मेरे हैं, इसलिए मैं कोई चुनाव नहीं कर सकता।
लेकिन तुम्हारी आंखों में अगर नानक का रंग लगा है, तो वैसा दरवाजा भी मेरे ह्रदय का है, तुम उसी दरवाजे से आ जाओ। तुम नानक की परिपूर्ति पाओगे। तुम नानक को पुन: जीवित पाओगे। इसलिए चिंता न लो।

Thursday 15 October 2015

मैं कवि हूं। क्या सत्य को पाने के लिए अब संन्यासी भी होना आवश्यक है?
सत्‍य यदि मिल गया हो, तो पूछ किसलिए रहे हो? और कवि होने से सत्य मिलता है! कवि तो कल्पना का ही विस्तार है। ही, कभी—कभी सत्य को पाने वाले भी कवि होते हैं। लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि जो—जो कवि है, सबने सत्य को पा लिया है।
इसलिए इस देश में हमने कवियों के लिए दो नाम दिए हैं—ऋषि और कवि। दोनों का एक ही अर्थ होता है। लेकिन दोनों का बड़ा गहन भेद भी है।
ऋषि हम उसे कहते हैं, जिसे सत्य मिला और जिसने सत्य को गीत में गाया। जिसने सत्य पाया और सत्य को ऋचा बनाया, गीत बनाया, उसको हम ऋषि कहते है। उपनिषद जिसने लिखे, वेद के मंत्र जिसने लिखे। कबीर और नानक और दादू आरे मीरा और सहजों और दया, ये सब ऋषि हैं। इनको तुम कवि कहकर ही भ्रांति में मत पड़ जाना। क्योंकि कवि तो हजारों हैं, लेकिन वे नानक नहीं हैं, और न कबीर है। और यह भी हो सकता है कि वे नानक से बेहतर कवि हों और कबीर से बेहतर कवि हों, क्योंकि कविता एक अलग बात है। नानक कोई बहुत बड़े कवि थोड़े ही हैं! अगर कविता को ही खोजने जाओ तो नानक और कबीर में कोई बहुत बड़ी कविता थोड़े ही है! कविता के कारण उनका गौरव भी नहीं है। गौरव तो किसी और बात से है। जो उन्होंने देखा है, उसको उन्होंने काव्य में ढाला है। उसको गाकर कहा है।
साधारण कवि ने देखा तो कुछ भी नहीं है, ज्यादा से ज्यादा सपने देखे हैं—यह भी हो सकता है कि शराब पीकर देखे हों कि गांजा पीकर देखे हों। इसलिए अक्सर कवि को तुम पाओगे शराब पीते, गांजा पीते, इस तरह के काम करते। किसी कवि कि कविता अच्छी लग जाए तो भूलकर कवि से मिलने मत जाना, नहीं तो बड़ा सदमा पहुंचता है। कविता तो ऐसी ऊंची थी और कवि को देखा तो वे नाली में पड़े है! कि चायघर में बैठे गालियां बक रहे हैं! कवि को देखने जाना ही मत। अगर कविता पसंद पड़े तो भूलकर मत जाना, नहीं तो कविता तक में अरुचि हो जाएगी।
हां, ऋषि की बात और है। अगर ऋषि की पंक्ति पसंद पड़ जाए और ऋषि उपलब्ध हो तो छोड़ना मत। क्योंकि पंक्ति में क्या रखा है! पंक्ति तो कुछ भी नहीं है। जब तुम ऋषि को देखोगे तब तुम्हें पूरा दर्शन होगा। पंक्ति तो जैसे एक किरण थी छोटी। एक नमूना था। जरा सा स्वाद दिया था पंक्ति ने तो। ऋषि के पास जाओगे तो पूरा सागर लहलहाता मिलेगा।
कवि तो कविता में खतम हो गया। कवि को पाओगे तो रिक्त, कोरा पाओगे। ऋषि कविता में खतम नहीं हो गया है। कविता तो ऐसी ही है जैसे ऋषि के भीतर तो आनंद उछल रहा था, कुछ बूंदें —कविता बन गयीं।
तुम कहते हो, ‘मैं कवि हूं। ‘
अच्छा है कवि हो, लेकिन ऋषि न बनना चाहोगे? तुम्हारे काव्य के साथ संन्यास जुड़ जाए तो तुम ऋषि हो जाओ। तुम्हारे काव्य के साथ ध्यान जुड़ जाए तो तुम ऋषि हो जाओ। कवि होने पर मत रुक जाना। कवि कोई बहुत बड़ा गुण नहीं है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने एक युवती से विवाह का प्रस्ताव किया। प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। तो उसने खुशी में डुबकी लेकर पूछा, क्या तुम्हारे माता—पिता को पता है कि मैं कवि हूं शायर? युवती ने कहा, नहीं अभी तक नहीं। मैंने उनसे चोरी के अपराध में तुम्हारी जेल—यात्रा के संबंध में जरूर बताया है। यह भी कि तुम्हें जुआ खेलने की आदत है, और यह भी कि शराब की लत है। लेकिन तुम कवि भी हो, यह मैंने नहीं कहा, सोचा सभी बातें एक साथ बताना ठीक नहीं। धीरे — धीरे बताएंगे।
कवि होना अनिवार्यरूपेण गुण नहीं है। अक्सर तो तुम कविता करते उन लोगों को पाओगे जो जीवन में असफल हो गए हैं। जो कुछ और न कर सके वे कवि हो गए। फिर जो कवि भी नहीं हो सकते, वे आलोचक हो जाते हैं। वह और गयी—बीती दशा है। कवि होने का अर्थ ही इतना है कि तुम कृत्य में नहीं उतार पाए, तो अब कल्पनाओं में उतार रहे हो। जिनके जीवन में प्रेम नहीं घटा, वे प्रेम की कविताएं लिख रहे हैं। ऐसे मन को समझा रहे हैं, बुझा रहे हैं। यह सांत्वना है।
इसलिए कवियों की कविताओं से तुम प्रेम की कोई धारणा मत बना लेना, क्योंकि उनको प्रेम का कुछ पता ही नहीं है। प्रेम का जिनको पता है, वे शायद कविताएं लिखेंगे भी नहीं। अक्सर ऐसा होता है कि जिनके जीवन में प्रेम का कोई अनुभव नहीं घटता, वे किसी तरह के सपने पैदा करके परिपूरक निर्मित करते हैं। सपने का उपयोग ही यही है।
तुम दिन में भूखे सोए, किसी दिन तुमने उपवास किया, तो रात तुम सपना देखोगे कि भोजन कर रहे हो, राजा के घर मेहमान हो, बडा स्वादिष्ट भोजन है, सभी तरह के मिष्ठान्न हैं। ये भूखे आदमी ही इस तरह के सपने देखते हैं। उपवास करने वाले, व्रत इत्यादि ले लिया, कि पर्यूषण आ गए, ऐसा कुछ मौका आ गया, तो रात में सपने आते हैं। जब तुम भरे पेट सोते हो तो रात कभी भोजन के सपने नहीं आते। गरीब आदमी सपने देखता है, सम्राट हो गया है। सम्राट नहीं देखता ऐसे सपने। झोपड़े वाला सपने देखता है, महल में हो गया। महल वाला ये सपने नहीं देखता। 5०
संसार. सीढ़ी परमात्मा तक जाने की तुम तो चकित होओगे, अक्सर महल वाला देखता है कि संन्यासी हो गया, भिक्षु हो गया। अक्सर धन वाला देखता है सपने कि कब इस धन से छुटकारा होगा, कब इस फंदे से बाहर निकलेंगे। कब हो जाएंगे मस्त फकीर। न कुछ फिकर, न कुछ लेन—देन। सपने विपरीत होते हैं, यह मैं कह रहा हूं। जिस चीज की कमी होती है, सपने के द्वारा उसकी हम पूर्ति करते हैं।
कविता एक तरह का सपना है। जो तुम्हारे जीवन में कम है, उसकी तुम सुंदर—सुंदर पंक्तियां रचकर अपने को समझाते हो कि चलो, कविता कर ली। ऐसे मन बहलता है। काव्य कोई जीवन का बड़ा गहरा अनुभव नहीं है। अगर जीवन का गहरा अनुभव करना है तो ऋषि बनो। कवि और ऋषि का फर्क है कवि का अर्थ है, सपने देखने वाला आदमी, ऋषि का अर्थ है, सत्य देखने वाला आदमी। सपने देखकर तुम जो गीत गुनगुनाओगे, उनमें सपनों ही की तो गंध होगी। सत्य देखकर तुम जो गीत गुनगुनाओगे उनमें सत्य की गंध होगी। सपनों में गंध कहा, दुर्गंध ही होती है। गंध तो सत्य की ही होती है।
इसलिए मैं तुमसे कहूंगा, कवि हो, सुंदर। और थोडे आगे बढो, यह कोई मंजिल नहीं आ गयी। यहां रुकने से कुछ होगा नहीं, थोड़े आगे चलो। ऋषि बनो। तब तुम्हारे भीतर से एक नए ढंग के काव्य का अवतरण होगा। तब तुम्हारी गीत की कड़िया तुम्हारी न होंगी, परमात्मा की होंगी। तब तुम बांस की पोगरी हो जाओगे। गीत उसका होगा, ओंठ उसके होंगे, तुम वेणु बन जाओगे। तब भी बांसुरी बजेगी, लेकिन स्वर परमात्मा का होगा। तब बड़ी अनूठी बांसुरी बजती है।
अभी तुम्हीं तो बजाओगे, तुम्हारे पास है क्या? तुम डालोगे क्या बांसुरी में? तुम्हारी संपदा क्या है? तुम्हारे भीतर है क्या? हुआ क्या है? कुछ भी तो नहीं हुआ है। तुम वैसे ही साधारण आदमी हो जैसे दूसरा कोई साधारण आदमी है। तुम्हें परमात्मा की झलक कहा मिली! तो तुम कहोगे क्या कविता में?
तुम्हारे पास डालने को कुछ भी ग्ही है। तो तुम्हारी कविता कोरी—कोरी होगी, सूनी—सूनी होगी, मुर्दा—मुर्दा होगी। शब्दों का अंबार लगा दोगे तुम, लेकिन शब्दों के पीछे जब तक सत्य न हो तब तक बेबुनियाद है भवन। तब तक तुम कागज की नावें जितनी चाहो तैरा लो, लेकिन इनसे भवसागर पार न होगा।