Friday 31 July 2015

जिस दिन कोई व्यक्ति निर्विचार हो जाता है उस दिन चेतना पर उसका ध्यान जाता है। तब तक ध्यान नहीं जाता। और एक बार चेतना पर ध्यान चला जाए तो फिर चेतना का विस्मरण नहीं होता है। चाहे आप विचार में लगे रहें, दुकान पर लगे रहें, बाजार में काम करते रहें, कुछ भी करते रहें, भीतर चेतना है, इसकी स्पष्ट प्रतीति बनी रहती है। बीमार हो जाएं रुग्ण हो जाएं दुखी हो जाएं हाथ पैर कट जाएं फिर भी भीतर चेतना है, इसकी स्पष्ट स्मृति बनी रहती है। और जब चाहें तब गेस्टाल्ट बदल सकते हैं। एक्सिडेंट हो रहा है और शरीर टूटकर गिर पड़ा, पैर अलग हो गए है। जरूरी नहीं है कि आप पैर को ही देखकर दुखी हों। आप गेस्टाल्ट बदल सकते है। आप चेतना को देखने लगे, शरीर गया। शरीर का कोई दुख नहीं होगा। आप शरीर नहीं रहे।
जब महावीर के कान में खीलियां ठोंकी जा रही है तो आप यह मत समझना कि महावीर आप ही जैसे शरीर है। आप ही जैसे शरीर होंगे तो खीलियों का दर्द होगा। महावीर का गेस्टाल्ट बदल जाता है। अब महावीर शरीर को नहीं देख रहे है, वे चेतना को देख रहे है। तो शरीर में खीलियां ठोंकी जा रही है तो वे ऐसी ही मालूम पड़ती हैं, जैसे किसी और के शरीर में खीलियां ठोंकी जा रही है। जैसे
कहीं और दूर डिस्टेंस पर खीलियां ठोंकी जा रही हैं। महावीर दूर हो गए। महावीर मर रहे हैं तो आप ही जैसे नहीं मर रहे हैं। गेस्टाल्ट और है। महावीर चेतना को देख रहे हैं, जो नहीं मरती।
जब जीसस को सूली पर लटकाया जा रहा है तो गेस्टाल्ट और है। जीसस उस शरीर को नहीं देख रहे हैं, जो सूली पर लटकाया जा रहा है। जब मंसूर को काटा जा रहा है तो गेस्टाल्ट और है। मैसूर उस शरीर को नहीं देख रहा है, जो काटा जा रहा है, इसलिए मैसूर हंस रहा है। और कोई पूछता है—मंसूर, तुम काटे जा रहे हो और हंस रहे हो? तो मंसूर ने कहा कि मैं इसलिए हंसता हूं कि जिसे तुम काट रहे हो वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं तुम उसे छू भी नहीं पा रहे हो तो मुझे बड़ी हंसी आ रही है। तुम्हारी तलवारें मेरे आसपास से गुजर जा रही हैं लेकिन मुझे स्पर्श नहीं कर पाती हैं। यह गेस्टाल्ट का परिवर्तन है, ध्यान का परिवर्तन है, ध्यान का फोकस बदल गया है, वह कुछ और देख रहा है।
तो रात्रि विचार के लिए तीन प्रक्रियाएं—सुबह पहले विचार की प्रतीक्षा की एक प्रक्रिया और शेष सारे दिन साक्षी का भाव, विटनेस है। जो भी हो रहा है उसका मैं साक्षी हूं कर्त्ता नहीं। भोजन कर रहे हैं तो दो चीजें रह जाती हैं। दो भी नहीं रह जातीं, साधारण आदमी को एक ही चीज रह जाती है— भोजन रह जाता है। अगर थोड़ा बुद्धिमान आदमी है तो दो चीजें होती हैं— भोजन होता है, भोजन करनेवाला होता है।
बुद्धिमान से मेरा मतलब है? जो थोड़ा सोच—समझकर जीता है। जो बिलकुल ही गैर—सोच—समझकर जीता है, भोजन ही रह जाता है, इसलिए वह ज्यादा भोजन कर जाता है, क्योंकि भोजन करनेवाला तो मौजूद नहीं था। कल उसने तय किया था कि इतना ज्यादा भोजन नहीं करना है। पच्चीस दफे तय कर चुका है कि इतना ज्यादा भोजन नहीं करना है। इससे यह बीमारी पकड़ती है, यह रोग आ जाता है। रोग से दुखी होता है—यह भोजन इतना नहीं करना। तय कर लिया। कल जब फिर भोजन करने बैठता है तो ज्यादा भोजन करता है और वही चीजें खा लेता है जो नहीं खानी थीं। क्यों? भोजन करनेवाला मौजूद ही नहीं रहता। सिर्फ भोजन रह जाता है। भोजन ने तो तय नहीं किया था, इसलिए भोजन को जितना करवाना है, करवा देता है।
जिसको हम थोड़ा बुद्धिमान आदमी कहें, वह दोनों का होश रखता है— भोजन का भी, भोजन करनेवाले का भी। लेकिन महावीर जिसे साक्षी कहते है, वह तीसरा होश है। वह होश इस बात का है कि न तो मैं भोजन हूं और न मैं भोजन करनेवाला हूं। भोजन भोजन है, भोजन करनेवाला शरीर है, मैं दोनों से अलग हूं। एक ट्राएंगल का निर्माण है, एक त्रिकोण का, एक त्रिभुज का। तीसरे कोण पर मैं हूं। इस तीसरे कोण पर, इस तीसरे बिंदु पर चौबीस घण्टे रहने की कोशिश साक्षीभाव है। कुछ भी हो रहा है, तीन हिस्से सदा मौजूद है और मैं तीसरा हूं मैं दो नहीं हूं। ज्यादा भोजन कर लेनेवाला एक ही कोण देखता है। अगर कहीं प्राकृतिक चिकित्सा के संबंध में थोड़ी जानकारी बढ़ गयी तो दूसरा कोण भी देखने लगता है कि मैं करनेवाला, ज्यादा न कर लूं। पहले भोजन से एकात्म हो जाता था, अब करने वाले शरीर से एकात्म हो जाता है। लेकिन साक्षी नहीं होता। साक्षी तो तब होता है, जब दोनों के पार तीसरा हो जाता है। और जब वह देखता है कि यह रहा भोजन, यह रहा शरीर, यह रहा मै—और मैं सदा अलग हूं।
इसलिए महावीर ने कहा है—पृथकत्व। साक्षी भाव का उन्होंने प्रयोग नहीं किया। उन्होंने पृथकत्व शब्द का प्रयोग किया है—अलगपन। इसको महावीर ने कहा है भेद विज्ञान, द साइंस आफ डिवीजन। महावीर का अपना शब्द है, भेद विज्ञान। द साइंस टु डिवाइड़। चीजों को अपने—अपने हिस्सों में तोड़ देना है। भोजन वहां है, शरीर यहां है, मैं दोनों के पार हूं—इतना भेद स्पष्ट हो जाए तो साक्षी जन्मता है।
तो तीन बातें स्मरण रखें — रात नींद के समय स्मरण, प्रतिक्रमण, पुनर्जीवन। सुबह पहले विचार की प्रतीक्षा, ताकि अंतराल दिखाई पड़े और अंतराल में गेस्टाल्ट बदल जाए। धूलकण न दिखाई पड़े, प्रकाश की धारा स्मरण में आ जाए। और पूरे समय, चौबीस घण्टे, उठते—बैठते—सोते तीसरे बिन्दु पर ध्यान—तीसरे पर खड़े रहना। ये तीन बातें अगर पूरी हो जाएं तो महावीर जिसे सामायिक कहते हैं, वह फलित होती है। तो हम आत्मा में स्थिर होते हैं।
यह जो आत्मस्थिरता है, यह कोई जड़, स्टैगनेंट बात नहीं। शब्द हमारे पास नहीं हैं। शब्द हमारे पास दो हैं—चलना, ठहर जाना; गति, आति; डायनेमिक, स्टैगनेंट। तीसरा शब्द हमारे पास नहीं है। लेकिन महावीर जैसे लोग सदा ही जो बोलते है वह तीसरे की बात है, द थर्ड। और हमारी भाषा दो तरह के शब्द जानती है, तीसरे तरह के शब्द नहीं जानती। तो इसलिए महावीर जैसे लोगों के अनुभव को प्रगट करने के लिए दोनों शब्दों का एक साथ उपयोग करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। तब पैराडाक्सिकल हो जाता है। अगर हम ऐसा कह सकें, और कोई अर्थ साफ होता हो—ऐसी आति जो पूर्ण गति है; ऐसा ठहराव जहां कोई ठहराव नहीं है; मूवमेंट, विदाउट मूवमेंट; तो शायद हम खबर दे पाएं। क्योंकि हमारे पास दो शब्द हैं, और महावीर जैसे व्यक्ति तीसरे बिंदु से जीते हैं। तीसरे बिंदु की अब तक कोई भाषा पैदा नहीं हो सकी। शायद कभी हो भी नहीं सकेगी।
नहीं हो सकेगी, इसलिए कि भाषा के लिये द्वंद्व जरूरी है। आपको कभी खयाल नहीं आता कि भाषा कैसा खेल है। अगर आप डिक्वानरी में देखने जाएं तो वहा लिखा हुआ है—पदार्थ क्या है? जो मन नहीं है। और जब आप मन को देखने जाएं तो वहां लिखा है—मन क्या है? जो पदार्थ नहीं है। कैसा पागलपन है! न पदार्थ का कोई पता है, न मन का कोई पता है। लेकिन व्याख्या बन जाती है, दूसरे के इनकार करने से व्याख्या बना लेते है! अब यह कोई बात हुई कि पुरुष कौन है? जो सी नहीं! सी कौन है? जो पुरुष नहीं! यह कोई बात हुई? यह कोई डेफिनीशन हुई? यह कोई परिभाषा हुई? अंधेरा वह है जो प्रकाश नहीं, प्रकाश वह है जो अंधेरा नहीं! समझ में आता है कि बिलकुल ठीक है, लेकिन बिलकुल बेमानी है। इसका कोई मतलब ही न हुआ। अगर मैं पूछूं, दायां क्या है? आप कहते है, बायां नहीं है। मैं पूछूं बायां क्या है? तो उसी दाएं से व्याख्या करते हैं जिसकी व्याख्या बाएं से की थी! यह व्हिसियस है, सर्कुलर
लेकिन आदमी का काम चल जाता है। सारी भाषा ऐसी है। डिक्शनरी से ज्यादा व्यर्थ की चीज जमीन पर खोजनी बहुत मुश्किल है—शब्दकोश से ज्यादा व्यर्थ की चीज। क्योंकि शब्दकोश वाला कर क्या रहा है? वह पांचवें पेज पर कहता है कि दसवां पेज देखो, और दसवें पेज पर कहता है कि पांचवां देखो। अगर मैं आपके गांव में आऊं और आपसे पूछूं कि रहमान कहां रहते हैं? आप कहें कि राम के पड़ोस में? मैं अं राम कहां रहते है? आप कहें, रहमान के पड़ोस में। इससे क्या अर्थ होता है? हमें अशात की परिभाषा उससे करनी चाहिए जो ज्ञात हो। तब तो कोई मतलब होता है। हम एक अतात की परिभाषा दूसरे अज्ञात से करते है। वन अननोन इज डिफाइड़ बाई एन अदर अननोन। हमें कुछ भी पता नहीं है, एक अज्ञात को हम दूसरे अज्ञात से व्याख्या कर देते हैं। और इस तरह ज्ञात का भ्रम पैदा कर लेते हैं।
नालेज, ज्ञान का जो हमारा श्रम है वह इसी तरह खड़ा हुआ है। मगर इससे काम चल जाता है। इससे काम चल जाता है। काम चलाऊ है यह ज्ञान। पर इससे कोई सत्य का अनुभव नहीं होता। महावीर जैसे व्यक्ति की तकलीफ यह है कि वह तीसरे बिंदु पर खड़ा होता है जहां चीजें तोडी नहीं जा सकतीं। जहां द्वंद्व नहीं रह जाता, जहां दो नहीं रह जाते। जहां अनुभूति एक बनती है और उस अनुभूति को वह किससे व्याख्या करे, क्योंकि हमारी सारी भाषा यह कहती है कि यह नहीं। तो किससे व्याख्या करे? वह ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकता है निषेधात्मक, लेकिन वह निषेधात्मक भी ठीक नहीं है। वह कह सकता है, वहां दुख नहीं, अशांति नहीं। लेकिन जब हम मतलब समझते है, तो हमारा क्या मतलब होता है?
अशांति और शांति हमारे लिए द्वंद्व है, महावीर के लिए द्वंद्व से मुइक्त है। हमारे लिए शांति का वही मतलब है जहां अशांति नहीं है। महावीर के लिए शांति का वही मतलब है जहां शांति भी नहीं, अशांति भी नहीं। क्योंकि जब तक शांति है तब तक थोड़ी बहुत अशांति मौजूद रहती है। नहीं तो शांति का पता नहीं चलता। अगर आप परिपूर्ण स्वस्थ हो जाएं तो आपको स्वास्थ्य का पता नहीं चलेगा। थोड़ी बहुत बीमारी चाहिए स्वास्थ्य के पता होने को। या आप पूरे बीमार हो जाएं तो भी बीमारी का पता नहीं चलेगा। क्योंकि बीमारी के लिए भी स्वास्थ्य का होना जरूरी है, नहीं तो पता नहीं चलता।
तो बीमार से बीमार आदमी में भी स्वास्थ्य होता है, इसलिए पता चलता है। और स्वस्थ से स्वस्थ आदमी में भी बीमारी होती है इसलिए स्वास्थ्य का पता चलता है। लेकिन हमारे पास कोई उपाय नहीं है। हम बाहर से ही खोजते रहते है। और बाहर सब द्वंद्व है। लक्षण बाहर से हम पकड़ लेते हैं और भीतर कोई लक्षण नहीं पकड़े जा सकते क्योंकि कोई द्वंद्व नहीं है। तो महावीर ने वह जो तीसरे बिन्दु पर खड़ा हो जाएगा व्यक्ति ध्यान में, उसे क्या होगा, इसे समझाने की कोशिश बारहवें तप में की है। वह कोशिश बिलकुल बाहर से है, बाहर से ही हो सकती है। फिर भी बहुत आंतरिक घटना है, इसलिए उसे अंतर—तप कहा और अंतिम तप रखा है।
ध्यान के बाद महावीर का तप कायोत्सर्ग है। उसका अर्थ है—जहां काया का उत्सर्ग हो जाता है, जहां शरीर नहीं बचता, गेस्टाल्ट बदल जाता है पूरा। कायोत्सर्ग का मतलब काया को सताना नहीं है। कायोत्सर्ग का मतलब है, ऐसा नहीं है कि हाथ—पैर काट—काट कर चढ़ाते जाना है— कायोत्सर्ग का मतलब है, ध्यान को परिपूर्ण शिखर पर पहुंचना है तो गेस्टाल्ट बदल जाता है। काया का उत्सर्ग हो जाता है। काया रह नहीं जाती, उसका कहीं कोई पता नहीं रह जाता। निर्वाण या मोक्ष, संसार का खो जाना है, जस्ट डिसएपियरेन्स। आत्म—अनुभव, काया का खो जाना है। आप कहेंगे महावीर तो चालीस वर्ष जिए, वह ध्यान के अनुभव के बाद भी काया थी। वह आपको दिखाई पड़ रही है। वह आपको दिखाई पड़ रही है, महावीर की अब कोई काया नहीं है, अब कोई शरीर नहीं है। महावीर का काया—उत्सर्ग हो गया। लेकिन हमें तो दिखाई पड़ रही है। इसलिए बुद्ध के जीवन में बड़ी अदभुत घटना है। जब बुद्ध मरने लगे तो शिष्यों को बहुत दुख, पीड़ा…! सारे रोते इकट्ठे हो गए, लाखों लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा—अब हमारा क्या होगा? लेकिन बुद्ध ने कहा—पागलों, मैं तो चालीस साल पहले मर चुका। वे कहने लगे कि माना कि यह शरीर है, लेकिन इस शरीर से भी हमें प्रेम हो गया। लेकिन बुद्ध ने कहा कि यह शरीर तो चालीस साल पहले विसर्जित हो चुका है।
जापान में एक फकीर हुआ है लिंची। एक दिन अपने उपदेश में उसने कहा कि यह बुद्ध से झूठा आदमी जमीन पर कभी नहीं हुआ। क्योंकि जब तक यह बुद्ध नहीं था, तब तक था, और जिस दिन से बुद्ध हुआ, उस दिन से है ही नहीं। तो लिंची ने कहा—बुद्ध है, बुद्ध हुए हैं ये सब भाषा की भूलें हैं। बुद्ध कभी नहीं हुए थे। निश्‍चित ही लोग घबरा गए, क्योंकि यह फकीर तो बुद्ध का ही था। पीछे बुद्ध की प्रतिमा रखी थी। अभी—अभी इसने उस पर दीप चढ़ाया था। एक आदमी ने खड़े होकर पूछा कि ऐसे शब्द तुम बोल रहे हो? तुम कह रहे हो, बुद्ध कभी हुए नहीं? ऐसी अधार्मिक बात! तो लिंची ने कहा कि जिस दिन से मेरे भीतर काया खो गयी, उस दिन मुझे पता चला। तुम्हारे लिए मैं अभी भी हूं लेकिन जिस दिन से सच में न हुआ, उस दिन से मैं बिलकुल नहीं हो गया हूं।
यह नहीं हो जाने का अन्तिम चरण है। वह एक्सप्लोजन है। उसके बाद फिर कुछ भी नहीं है, या सब कुछ है। या शून्य है, या पूर्ण है।

Thursday 30 July 2015

महावीर मूर्च्छा विरोधी है, इसलिए महावीर ने ऐसी भी किसी पद्धति की सलाह नहीं दी जिससे मूर्च्छा के आने की जरा—सी भी सम्भावना हो। यही महावीर के और भारत के दूसरी पद्धतियों का भेद है। भारत में दो पद्धतियां रही है। कहना चाहिए सारे जगत में दो ही पद्धतियां हैं ध्यान की। मूलत: दो तरह की पद्धतियां हैं—एक पद्धति को हम ब्राह्मण पद्धति कहें और एक पद्धति को हम श्रमण पद्धति कहें। महावीर की जो पद्धति है उसका नाम श्रमण पद्धति है। दूसरी जो पद्धति है वह ब्राह्मण की पद्धति है। ब्राह्मण की पद्धति विश्राम की पद्धति है। वह इस बात की पद्धति है जिसे हम कहे—रिलैक्सेशन। परमात्मा में अपने को विश्राम करने दें, छोड़ दो ब्रह्म में अपने को, विश्राम करने दें।
महावीर ने किसी ब्राह्मण पद्धति की सलाह नहीं दी। उन्होंने कहा है कि विश्राम में बहुत ड़र तो यह है, सौ में निन्यानबे मौके पर ड़र यह है कि आप नींद में चले जाएं। सौ में निन्यानबे मौके पर ड़र यह है कि आप नींद में चले जाएं। क्योंकि विश्राम और नींद का गहरा अंतर—संबंध है और आपके जन्मों—जन्मों का एक ही अनुभव है कि जब भी आप विश्राम में गए हैं तभी आप नींद में गए है। तो आपके चित्त की एक संस्कारित व्यवस्था है कि जब भी आप विश्राम करेंगे, नींद आ जाएगी। इसलिए जिनको नींद नहीं आती है उनको डाक्टर सलाह देता है रिलैक्लेशन की, शिथिलीकरण की, शवासन की कि तुम विश्राम करो। शिथिल हो जाओ तो नींद आ जाएगी। इससे उल्टा भी सही है। अगर कोई विश्राम में जाए तो बहुत ड़र यह है कि वह नींद में न चला जाए। इसलिए जिसे विश्राम में जाना है उसे बहुत दूसरी और प्रक्रियाओं का सहारा लेना पड़ेगा, जिनसे नींद रुकती हो, अन्यथा विश्राम नींद बन जाती है।
महावीर ने उन पद्धतियों का उपयोग नहीं किया, महावीर ने जिन पद्धतियों का उपयोग किया वे विश्राम से उल्टी है। इसलिए उनकी पद्धति का नाम है श्रम, श्रमण। वे कहते है— श्रमपूर्वक विश्राम में जाना है, विश्रामपूर्वक नहीं। और श्रमपूर्वक ध्यान में जाना बिलकुल उल्टा है विश्रामपूर्वक ध्यान में जाने के। अगर किसी आदमी को हम कहते हैं कि विश्राम करो तो हम कहते हैं—हाथ पैर ढीले छोड़ दो, सुस्त हो जाओ, शिथिल हो जाओ, ऐसे हो जाओ जैसे मुर्दा हो गए। श्रम की जो पद्धति है वह कहेगी इतना तनाव पैदा करो, इतना टैंशन पैदा करो जितना कि तुम कर सकते हो। जितना तनाव पैदा कर सको उतना अच्छा है। अपने को इतना खींचो, इतना खींचो जैसे कोई वीणा के तार को खींचता चला जाए और टंकार पर छोड़ दे। खींचते चले जाओ, खींचते चले जाओ। तीव्रतम स्वर तक अपने तनाव को खींच लो। निश्‍चित ही एक सीमा आती है कि अगर आप सितार के तार को खींचते चले जाएं तो तार टूट जाएगा। लेकिन चेतना के टूटने का कोई उपाय नहीं है। वह टूटती ही नहीं।
इसलिए आप खींचते चले जाओ। महावीर कहते हैं—खींचते चले जाओ, एक सीमा आएगी जहां तार टूट जाता है, लेकिन चेतना नहीं टूटती। लेकिन चेतना भी अपनी अति पर आ जाती है, क्लाईमेक्स पर आ जाती है। और जब चरम पर आ जाती है, तो अनजाने, तुम्हारे बिना पता हुए विश्राम को उपलब्ध हो जाती है। जैसा मैं इस मुट्ठी को बंद करता जाऊं, बंद करता जाऊं, जितनी मेरी ताकत है, सारी ताकत लगाकर उसे बंद करता जाऊं तो एक घड़ी आएगी कि मेरी ताकत चरम पर पहुंच जाएगी। अचानक मैं पाऊंगा कि मुट्ठी ने खुलना शुरू कर दिया क्योंकि अब मेरे पास बंद करने की और ताकत नहीं है। मुट्ठी को बंद करके खोलने का भी उपाय है।
और ध्यान रहे जब मुट्ठी को पूरी तरह बंद करके खोला जाता है तब जो विश्राम उपलब्ध होता वह बहुत अनूठा है, वह नींद में कभी नहीं ले जाता है। वह सीधा विश्राम में ले जाता है। सौ में से निन्यानबे मौके विश्राम में जाने के है, नींद में जाने का मौका नहीं है। क्योंकि आदमी ने इतना श्रम किया है, इतना श्रम किया है, इतना खींचा है, इतना ताना है कि इस तनाव के लिए उसे इतने जागरण में जाना पड़ेगा कि वह उस जागरण से एकदम नींद में नहीं जा सकता है, विश्राम में चला जाएगा।
महावीर की पद्धति श्रम की पद्धति है, चित्त को इतने तनाव पर ले जाना है। तनाव दो तरह का हो सकता है। एक तनाव किसी दूसरी चीज के लिए भी हो सकता है, उसके लिए महावीर कहते है गलत ध्यान है। एक तनाव स्वयं के प्रति हो सकता है, उसे महावीर कहते है, वह ठीक ध्यान है। इस ठीक ध्यान के लिए कुछ प्रारंभिक बातें हैं, उनके बिना इस ध्यान में नहीं उतरा जा सकता है। उसके बिना उतारिएगा तो विक्षिप्त हो सकते है। एक तो ये दस सूत्र जो मैने कल तक कहे है, ये अनिवार्य हैं। उनके बिना इस प्रयोग को नहीं किया जा सकता। क्योंकि उन दस सूत्रों के प्रयतो से आपके व्यक्तित्व में वह स्थिति, वह ऊर्जा और वह स्थिति आ जाती है जिनसे आप चरम तक अपने को तनाव में ले जाते है। इतनी सामर्थ्य और क्षमता आ जाती है कि आप विक्षिप्त नहीं हो सकते। अन्यथा अगर कोई महावीर के ध्यान को सीधा शुरू करे, तो वही विक्षिप्त हो सकता है, वह पागल हो सकता है। इसलिए भूलकर भी इस प्रयोग को सीधा नहीं करना है, वे दस हिस्से अनिवार्य है। और इसकी प्राथमिक भूमिकाएं है ध्यान की, वह मैं आपसे कह दूं। अभी पश्‍चिम में एक बहुत विचारशील वैज्ञानिक ध्यान पर काम करता है। उसका नाम है, रान हुब्बार्ड। उसने एक नए विज्ञान को जन्म दिया है, उसका नाम है सायंटोलाजी। ध्यान की उसने जो—जो बातें खोज—बीन की है वे महावीर से बड़ी मेल खाती है। इस समय पृथ्वी पर महावीर के ध्यान के निकटतम कोई आदमी समझ सकता है तो वह रान हुब्बार्ड है। जैनों को तो उसके नाम का पता भी नहीं होगा। जैन साधुओं में तो मैं पूरे मुल्क में घूमकर देख लिया हूं एक आदमी भी नहीं है जो महावीर के ध्यान को समझ सकता हो, करने की बात तो बहुत दूर है। प्रवचन वे करते हैं रोज, लेकिन मै चकित हुआ कि पांच—पांच सौ, सात—सात सौ साधुओं के गण का जो गणी हो, प्रमुख हो, आचार्य हो, वह भी एकान्त में मुझसे पूछता है कि ध्यान कैसे करें? यह सात सौ साधुओं को क्या करवाया जा रहा होगा। उनका गुरु पूछता है,
ध्यान कैसे करूं? निश्‍चित ही यह गुरु एकान्त में पूछता है। इतना भी साहस नहीं है कि चार लोगों के सामने पूछ सके।
रान हुब्बार्ड ने तीन शब्दों का प्रयोग किया है, ध्यान की प्राथमिक प्रक्रिया में प्रवेश के लिए। वे तीनों शब्द महावीर के हैं। रान हुब्बार्ड को महावीर के शब्दों का कोई पता नहीं है, उसने तो अंग्रेजी में प्रयोग किया है। उसका एक शब्द है रिमेम्बरिग, दूसरा शब्द है रिटर्निंग और तीसरा शब्द है रि—लिविंग। ये तीनों शब्द महावीर के हैं। रिटर्निंग से आप अच्छी तरह से परिचित हैं—प्रतिक्रमण। री—लिविंग से आप उतने परिचित नहीं है। महावीर का शब्द है—जाति—स्मरण। पुन: जीना उसको जो जिया जा चुका है। और रिमेम्बरिग—महावीर ने, बुद्ध ने, दोनों ने ‘स्मृति’… वही शब्द बिगड़—बिगड़कर कबीर और नानक के पास आते—आते ‘सुरति’ हो गया, वही शब्द—स्मृति!
रिमेम्बरिग से हम सब परिचित हैं, स्मृति से। सुबह आपने भोजन किया था, आपको याद है। लेकिन स्मृति सदा आशिक होती है। क्योंकि जब आप भोजन की याद करते हैं शाम को कि सुबह आपने भोजन किया था, तो आप पूरी घटना को याद नहीं कर पाते, क्योंकि भोजन करते वक्त बहुत कुछ घट रहा था। चौके में बर्तन की आवाज आ रही थी; भोजन की सुगंध आ रही थी; पली आसपास घूम रही थी; उसकी दुश्मनी आपके आस—पास झलक रही थी। बच्चे उपद्रव कर रहे थे, उनका उपद्रव आपको मालूम पड़ रहा था। गर्मी थी कि सर्दी थी वह आपको छू रही थी, हवाओं के झोंके आ रहे थे कि नहीं आ रहे थे—वह सारी स्थिति थी। भीतर भी आपको भूख कितनी लगी थी, मन में कौन से विचार चल रहे थे, कहां भागने के लिए आप तैयारी कर रहे थे, यहां खाना खा रहे थे, मन कहां जा चुका था। यह टोटल सिचुएशन है।
जब आप शाम को याद करते हैं तो सिर्फ इतना ही करते हैं कि सुबह बारह बजे भोजन किया था। यह आशिक है। जब आप भोजन कर रहे होते हैं तो भोजन की सुगंध भी होती है और स्वाद भी होता है। आपको पता नहीं होगा कि अगर आपकी नाक और आंख बिलकुल बंद कर दी जाए तो आप प्याज में और सेव में कोई फर्क न बता सकेंगे स्वाद में। आंख पर पट्टी बांध दी जाए और नाक पर पट्टी बांध दी जाए और बंद कर दी जाए, कहा जाए आपके होंठ पर क्या रखा है अब आप इसको चखकर बताइए, तो आप प्याज में और सेव में भी फर्क न बता सकेंगे। क्योंकि प्याज और सेव का असली फर्क आपको स्वाद से नहीं चलता है, गंध से चलता है और आंख से चलता है। स्वाद से पता नहीं चलता आपको।
तो बहुत घटनाएं भोजन की सिचुएशन में है, वे आपको याद नहीं आतीं। आशिक याद है कि बारह बजे भोजन किया था। रिटर्निंग, दूसरा जो प्रतिक्रमण है उसका अर्थ है पूरी की पूरी स्थिति को याद करना—पूरी की पूरी स्थिति को याद करना। लेकिन पूरी स्थिति को भी याद करने में आप बाहर बने रहते हैं। री—लिविंग का अर्थ है—पूरी स्थिति को पुन: जीना।
अगर महावीर के ध्यान में जाना है तो रात सोते समय एक प्राथमिक प्रयोग अनिवार्य है। सोते समय करीब—करीब वैसी ही घटनाएं घटती हैं जैसा बहुत बड़े पैमाने पर मृत्यु के समय घटती हैं। आपने सुना होगा कि कभी पानी में डूब जानेवाले लोग एक क्षण में अपने पूरे जीवन को रि—लिव कर लेते हैं। कभी—कभी पानी में डूबा हुआ कोई आदमी बच जाता है तो वह कहता है कि जब मैं डूब रहा था, और बिलकुल मरने के करीब निश्‍चित हो गया तो उस क्षण को जैसी पूरी जिंदगी की फिल्म मेरे सामने से गुजर गयी—पूरी जिंदगी की फिल्म एक क्षण में मैंने देख डाली। और ऐसी नहीं देखी कि स्मरण की हो, इस तरह से देखी कि जैसे मैं फिर से जी लिया। मृत्यु के क्षण में, आकस्मिक मृत्यु के क्षण में जब कि मृत्यु आसन्न मालूम पड़ती है, आ गयी मालूम पड़ती है, बचने का कोई उपाय नहीं रह जाता है और मृत्यु साफ होती है, तब ऐसी घटना घटती है। महावीर के ध्यान में अगर उतरना हो तो ऐसी घटना नींद के पहले रोज घटानी चाहिए। जब रात होने लगे और नींद करीब आने लगे तो—रि—लिव, पहले तो स्मृति से शुरू करना पड़ेगा। सुबह से लेकर सांझ सोने तक स्मरण करें।
एक तीन महीने गहरा प्रयोग किया जाए तो आपको पता चलेगा कि स्मृति धीरे—धीरे प्रतिक्रमण बन गयी। अब पूरी स्थिति याद आने लगी। और भी तीन महीने प्रयोग किया जाए, प्रतिक्रमण पर तब आप पाएंगे कि वह प्रतिक्रमण पुनजीर्वन बन गया है। अब आप रि—लिव करने लगे। कोई नौ महीने के प्रयोग में आप पाएंगे कि आप सुबह से लेकर सांझ तक फिर से जी सकते हैं—फिर से। जरा भी फर्क नहीं होगा, आप फिर से जिएंगे। और बड़े मजे की बात यह है कि इस बार जब आप जिएंगे तो वह ज्यादा जीवन हो गया बजाय इसके जो कि आप दिन में जिए थे क्योंकि उस वक्त और भी पच्चीस उलझाव थे। अब कोई उलझाव नहीं है। हुब्बार्ड कहता है कि यह ट्रैक पर वापस लौटकर फिर से यात्रा करनी है, उसी ट्रैक पर, जैसे कि टेप रिकार्ड को आपने सुन लिया दस मिनट, उल्टा और फिर दस मिनट वही सुना। या फिल्म आपने देखी, फिर से फिल्म देखी और मन के ट्रैक पर कुछ भी खोता नहीं। मन के पथ पर सब सुरक्षित है, खोता नहीं है।
रात सोने से पहले, अगर महावीर के ध्यान में, सामायिक में प्रवेश करना हो तो कोई नौ महीने का—तीन—तीन महीने एक—एक प्रयोग पर बिताने जरूरी हैं। पहले स्मरण करना शुरू करें, पूरी तरह स्मरण करें सुबह से शाम तक, क्या हुआ। फिर प्रतिक्रमण करें। पूरी स्थिति को याद करने की कोशिश करें कि किस—किस घटना में कौन—कौन—सी पूरी स्थिति थी। आप बहुत हैरान होंगे, और आपकी संवेदनशीलता बहुत बढ़ जाएगी और बहुत सैंसिटिव हो जाएंगे और दूसरे दिन आपके जीने का रस भी बहुत बढ़ जाएगा क्योंकि दूसरे दिन धीरे— धीरे आप बहुत सी चीजों के प्रति जागरूक हो जाएंगे, जिनके प्रति आप कभी जागरूक न थे।
जब आप भोजन कर रहे हैं, तब बाहर वर्षा भी हो रही है, तब उसके बूंदों की टाप भी आपके कान सुन रहे हैं, लेकिन आप इतने संवेदनहीन हैं कि आपके भोजन में वह बूंदों का स्वर जुड़ नहीं पाता है। तब बाहर की जमीन पर पड़ी हुई नयी बूंदों की गंध भी आ रही है, लेकिन आप इतने संवेदनहीन हैं कि वह गंध आपके भोजन में जुड़ नहीं पाती। तब खिड़की में फूल भी खिले हुए हैं, लेकिन फूलों का सौदर्य आपके भोजन में संयुक्त नहीं हो पाता है।
आप संवेदनहीन हैं, इसेसिटिव हो गए हैं। अगर आप प्रतिक्रमण की पूरी यात्रा करते हैं तो आपके जीवन में सौंदर्य का और रस का और अनुभव का एक नया आयाम खुलना शुरू हो जायेगा। पूरी घटना आपको जीने को मिलेगी। और जब भी पूरी घटना जियी जाती है, जब भी पूरी घटना होती है, तो आप उस घटना को दोबारा जीने की आकांक्षा से मुक्त होने लगते हैं, वासना क्षीण होती है।
अगर कोई व्यक्ति एक बार भी, किसी भी घटना से परिपूर्णतया बीत जाए, गुजर आए तो उसकी इच्छा उसे रिपीट करने की, दोहराने की फिर नहीं होती है। तो अतीत से छुटकारा होता है और भविष्य से भी छुटकारा होता है। प्रतिक्रमण अतीत और भविष्य से छुटकारे की विधि है। फिर इस प्रतिक्रमण को इतना गहरा करते जाएं कि एक घड़ी ऐसी आ जाए कि अब आप याद न करें, रि—लिव करें, पुनजग़ॅवत हो जाएं उस घटना को फिर से जिएं। और आप हैरान होंगे वह घटना फिर से जियी जा सकती है।
और जिस दिन आप उस घटना को फिर से जीने में समर्थ हो जाएंगे, उस दिन रात सपने बंद हो जाएंगे। क्योंकि सपने में वही घटनाएं आप फिर से जीने की कोशिश करते हैं, और तो कुछ नहीं करते हैं। अगर आप होशपूर्वक रात सोने के पहले पूरे दिन को पूरा जी लिए है तो आपने निपटारा कर दिया, क्लोब्द हो गये आप। अब कुछ याद करने की जरूरत न रही, पुन: जीने की जरूरत न रही। जो—जो छूट गया था वह भी फिर से जी लिया गया है। जो—जो रस अधूरा रह गया था, जो—जो अनकख्तीट, अपूर्ण रह गया था, वह पूरा कर लिया गया।
जिस दिन आदमी रि—लिव कर लेता है, उस दिन रात सपने बिदा हो जाते है। और निद्रा जितनी गहरी हो जाती है, सुबह जागरण उतना ही प्रगाढ़ हो जाता है। स्‍वप्‍न जब बिदा हो जाते है नींद में तो दिन में विचार कम हो जाते है। ये सब संयुक्त घटनाएं हैं। जब रात स्‍वप्‍नरहित हो जाती है तो दिन विचार शून्य होने लगता है, विचार रिक्त होने लगता है।
इसका यह मतलब नहीं है कि आप फिर विचार नहीं कर सकते, इसका यह मतलब है कि फिर आप विचार कर सकते हैं, लेकिन करने का आब्सेशन नहीं रह जाता, जरूरी नहीं रह जाता कि करें ही। अभी तो आपको मजबूरी में करना पड़ता है। आप चाहें तो भी, न करें तो भी करना पड़ता है। और जिस विचार को आप चाहते है न करें, उसे और भी करना पड़ता है। अभी आप बिलकुल गुलाम हैं। अभी मन आपकी मानता नहीं।
महावीर से अगर पूछें तो विक्षिप्त का यही लक्षण है—जिसका मन उसकी नहीं मानता है। विक्षिप्त का यही लक्षण है, पागल का यही लक्षण है। तो हममें पागलपन की मात्राएं है। किसी का जरा कम मानता है, किसी का जरा ज्यादा मानता है, किसी का थोड़ा और ज्यादा मानता है। कोई अपने भीतर ही भीतर करता रहता है, कोई जरा बाहर करने लगता है वही काम। बस इतनी मात्राओं के फर्क हैं—डिग्रीज आफ मैड़नेस। क्योंकि जब तक ध्यान न उपलब्ध हो तब तक आप विक्षिप्त होंगे ही।
ध्यान का अभाव विक्षिप्तता है। ध्यान को उपलब्ध व्यक्ति के स्‍वप्‍न शून्य हो जाते हैं। ऐसी हो जाती है उसकी रात, जैसे प्रकाश की वल्लरी में धूल के कण न रह गए। जब वह सुबह उठता है तो सच पूछिए वही आदमी सुबह उठता है जिसने रात स्‍वप्‍न नहीं देखे। नहीं तो सिर्फ नींद की एक पर्त टूटती है और सपने भीतर दिनभर चलते रहते है। कभी भी आंख बंद करिए—दिवा—स्‍वप्‍न शुरू हो जाते हैं। सपना भीतर चलता ही रहता है। सिर्फ ऊपर की एक पर्त जाग जाती है। काम चलाऊ है वह पर्त। उससे आप सड़क पर बचकर निकल जाते है, उसमें आप अपने दफ़र पहुंच जाते हैं। उसमें अपने आप काम कर लेते हैं—आदत, रोबोट, आपके भीतर जो यंत्र बन गया है वह काम कर लेता है। इतना होश है बस। इसे महावीर होश नहीं कहते हैं।

Wednesday 29 July 2015

कई बार विज्ञान जिन अनुभूतियों को बहुत बाद में उपलब्ध कर पाता है, रहस्य में डूबे हुए संत उसे हजारों साल पहले देख लेते है। दस—पंद्रह वर्ष का वक्त है, इस बीच काम जोर से चल रहा है। बड़ा काम रूस के वैज्ञानिक कर रहे हैं। और वे निरंतर इस बात के निकट पहुंचते जा रहे है कि समय ही मनुष्य की चेतना है। इसे ऐसा समझें तो थोड़ा खयाल में आ जाए तो हमें फिर ध्यान की धारणा में, महावीर की धारणा में उतरना आसान हो जाए। इसे ऐसा समझें कि पदार्थ बिना समय के भी कल्पना की जा सकती है, कंसीवेबल है। लेकिन चेतना बिना समय के कल्पना भी नहीं की जा सकती। सोच लें कि समय नहीं है जगत में, तो पदार्थ तो हो सकता है, पत्थर हो सकता है, लेकिन चेतना नहीं हो सकेगी।
क्योंकि चेतना की जो गति है, वह स्थान में नहीं है, समय में है। चेतना की जो गति है, वह समय में है, वह स्थान में नहीं है, वह स्पेस में नहीं है—वह टाइम में है, समय में है। जब आप यहां उठकर आते हैं अपने घर से, तो आपका शरीर यात्रा करता है, एक वह यात्रा होती है स्थान में। आप घर से निकले, और कार में बैठे, बस में बैठे, ट्रेन में बैठे, चले; यह यात्रा स्थान में है। आपकी जगह एक पत्थर भी रख देते तो वह भी कार में बैठकर यहां तक आ जाता। लेकिन कार में बैठे हुए आपका मन एक और गति भी करता है जिसका कार से कोई संबंध नहीं है। वह गति समय में है। हो सकता है आप जब घर में हों, और जब कार में बैठे हों, तभी आप समय में इस हाल में आ गए हों, मन में इस हाल में आ गए हों। लेकिन कार अभी घर के सामने खड़ी है। सच तो यह है कि आप कार में बैठते ही इसलिए हैं कि आपका मन कार के पहले इस हाल की तरफ गति करता है। इसलिए आप कार में बैठते है, नहीं तो आप कार में नहीं बैठेंगे।
पत्थर खुद कार में नहीं बैठेगा, उसे किसी को बिठाना पड़ेगा। बैठकर भी वह वैसा ही रहेगा जैसा अनबैठा था। बैठकर उसे आप यहां उतार लेंगे, लेकिन उस पत्थर के भीतर कुछ भी न होगा। जब आप कार में बैठे हुए हैं तो दो गतियां हो रही हैं—एक तो आपका शरीर स्थान में यात्रा कर रहा है और एक आपका मन, आपका शरीर स्थान में यात्रा कर रहा है, और आपका मन समय में यात्रा कर रहा है। चेतना की गति समय में है।
महावीर ने चेतना को समय ही कहा है, और ध्यान को सामायिक कहा है। अगर चेतना की गति समय में है तो चेतना की गति के ठहर जाने का नाम सामायिक है। शरीर की सारी गति ठहर जाए ,उसका नाम आसन है, और चित्त की सारी गति ठहर जाए, उसका नाम ध्यान है। अगर आप कार में ऐसे बैठकर आ जाएं जैसे पत्थर आता है तो आप ध्यान में थे। आपके भीतर कोई गति न हो सिर्फ शरीर गति करे और आप कार में बैठकर ऐसे आ जाएं जैसे पत्थर आया है, तो आप ध्यान में थे। ध्यान का अर्थ है—चेतना हो, गति शून्य हो जाये, मूवमेंट शून्य हो जाये। यह ध्यान का अर्थ है महावीर का। अब इस ध्यान की तरफ जाने के लिए महावीर आपको क्या सलाह देते हैं, इसे हम दो—तीन हिस्सों में समझने की कोशिश करें।
कभी आपने छप्पर छाए हुए मकान के नीचे देखा होगा कि कोई रंध से प्रकाश की किरणें भीतर घुस आती हैं। प्रकाश की एक वल्लरी, एक धारा कमरे में गिरने लगती है। सारा कमरा अंधेरा है। छप्पर से एक धारा प्रकाश की नीचे तक उतर रही है। तब आपने एक बात और भी देखी होगी कि उस प्रकाश की धारा के भीतर धूल के हजारों कण उड़ते हुए दिखाई पड़ते है। अंधेरे में वे दिखाई नहीं पड़ते, कमरे में वे सभी जगह उड़ रहे हैं। अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ते, सभी जगह उड़ रहे है। उस प्रकाश की वल्लरी में दिखाई पड़ते है। क्योंकि दिखाई पड़ने के लिए प्रकाश होना जरूरी है। शायद आपको खयाल आता होगा कि प्रकाश की वल्लरी में ही वे उड़ रहे है तो आप गलती में है। वे तो पूरे कमरे में उड़ रहे है। लेकिन प्रकाश की वल्लरी में दिखाई पड़ रहे हैं।
आपकी चेतना ऐसी ही स्थिति में है। जितने हिस्से में ध्यान पड़ता है, उतने हिस्से में विचार के कण दिखाई पड़ते हैं। बाकी में भी विचार उड़ते रहते हैं, वे आपको दिखाई नहीं पड़ते।
इसलिए मनोवैज्ञानिक मन को दो हिस्सों में तोड़ देता है—एक को वह कांशस कहता है, एक को अनकाशस कहता है। एक को चेतन, एक को अचेतन। चेतन उस हिस्से को कहता है जिस पर ध्यान पड़ रहा है और अचेतन उस हिस्से को कहता है जिस पर ध्यान नहीं पड़ रहा है। चेतना उस हिस्से को कहेंगे जिसमें कि प्रकाश की किरण पड़ रही है और धूल के कण दिखाई पड़ रहे है; और अचेतन उसको कहें… बाकी कमरे को जहां अंधेरा है, जहां प्रकाश नहीं पड़ रहा है, धूल कण तो वहां भी उड़ रहे हैं पर उनका कोई पता नहीं चलता है।
आपके चेतन मन में आपको विचारों का उड़ना दिखाई पड़ता है, चौबीस घंटे विचार चलते रहते है। सरकते रहते हैं। कभी आपने खयाल नहीं किया, कि जब प्रकाश की किरण उतरती है अंधेरे कमरे में तो जो धूल का कण उनमें उड़ता हुआ आता है, आपने खयाल किया, वह आसपास के अंधेरे से उड़ता हुआ आता है। फिर प्रकाश की किरण में प्रवेश करता है, थोड़ी देर में फिर अंधेरे में चला जाता है। शायद आपको यह भ्रांति हो कि वह जब प्रकाश में होता है तभी उसका अस्तित्व है, तो आप गलती में हैं। आने के पहले भी वह था, जाने के बाद भी वह है।
आपने कभी अपने विचारों का अध्ययन किया है कि वे कहां से आते हैं और कहां चले जाते हैं। शायद आप सोचते होंगे कि इधर से प्रवेश करते हैं और नष्ट हो जाते हैं। पैदा होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। पैदा और नष्ट नहीं होते। आपके अंधेरे चित्त से आते हैं, आपके प्रकाश चित्त में दिखाई पड़ते है, फिर अंधेरे चित्त में चले जाते हैं। अगर आप अपने विचारों को उठता देखने की कोशिश करें
कि कहां से उठते हैं तो धीरे— धीरे आप पाएंगे कि वे आपके ही भीतर अंधेरे से आते हैं। और अगर आप उनके जन्म स्रोत पर ध्यान रखें तो धीरे— धीरे आप पाएंगे कि वे आपको अंधेरे में भी दिखाई पड़ने लगे हैं, और जब वे चले जाते हैं तब भी आपके सामने से भरे जा रहे हैं, मिट नहीं रहे हैं। अगर आप उनका पीछा करेंगे तो वे धीरे— धीरे आपको अंधेरे में भी जाते हुए दिखाई पड़ेंगे। आप उनका अंधेरे में भी पीछा कर सकते हैं।
चेतना विचार से भरी है; जैसे आकाश वायु से भरा है वैसी चेतना विचार से भरी है। जब वायु का धक्का लगता है, आपको वायु का पता चलता है, और जब धक्का नहीं लगता है तो पता नहीं चलता है। जब कोई विचार आपको धक्का देता है तब आपको पता चलता है, अन्यथा आपको पता भी नहीं चलता। विचार बहते रहते हैं। आप अपने सौ विचारों में से एक का भी मुश्किल से पता रखते है, बाकी निन्यानबे ऐसे ही बहते रहते हैं। और भी मजे की बात है कि हवा तो धक्का देती है तब पता भी चलता है, लेकिन आकाश का आपको कोई पता नहीं चलता क्योंकि वह धक्का भी नहीं देता।
तो आपकी चेतना में जो विचार उड़ते रहते हैं उनका आपको पता चलता है और चेतना का कभी पता नहीं चलता, क्योंकि उसका कोई धक्का नहीं है। दो उपाय हैं—या तो आप इन विचारों से बचना चाहें तो इस खपड़े से जो छेद हो गया है उसे बंद कर दें, तो आपको विचार दिखाई नहीं पड़ेंगे। नींद में यही होता है। वह जो चेतना की थोड़ी—सी धारा आपको दिखाई पड़ती थी जागने में आप उसको भी बंद करके सो जाते हैं। फिर आपको कुछ दिखाई नहीं पड़ता सब बंद हो जाता है।
गहरी बेहोशी में भी यही होता है। हिप्रोसिस, सम्मोहन में भी यही होता है। इसलिए विचार से जो लोग पीड़ित हैं, वे लोग अनेक बार आत्म—सम्मोहन की क्रियाएं करने लगते हैं और आत्म—सम्मोहन को ध्यान समझ लेते हैं। वह ध्यान नहीं है। वह सिर्फ अपनी चेतना को बुझा लेना है। अंधेरे में डूब जाना है। उसका भी सुख है। शराब में उसी तरह का सुख मिलता है, गांजे में, अफीम में, उसी तरह का सुख मिलता है। चेतना की जो छोटी—सी धारा बह रही थी वह भी बंद हो गयी, घुप्प अंधेरे में खो गए। बड़ी शांति मालूम पड़ती है। वह अशांति मालूम पड़ती थी प्रकाश की किरण। महावीर का ध्यान ऐसा नहीं है जिसमें प्रकाश की किरण को बुझा देना है। महावीर का ध्यान ऐसा है जिसमें सारे खपड़ों को अलग कर देना है, पूरे छप्पर को खुला छोड़ देना है ताकि पूरे कमरे में प्रकाश भर जाए। यह भी बड़े मजे की बात है, जब पूरे कमरे में प्रकाश भर जाता है तब भी धूलकण दिखाई पड़ना बंद हो जाते है। जब पूरे कमरे में प्रकाश भर जाता है तब भी धूलकण नहीं दिखाई पड़ते; जब पूरे कमरे में अंधेरा हो जाता है तब भी धूलकण दिखाई नहीं पड़ते। जब पूरे कमरे में अंधेरा होता है और जरा से स्थान में रोशनी होती है तब धूलकण दिखाई पड़ते हैं। असल में धूलकणों को दिखाई पड़ने के लिए प्रकाश की धारा भी चाहिए और अंधेरे की पृष्ठभूमि भी चाहिए।
तो दो उपाय हैं इन कणों को भूल जाने का। एक उपाय तो है कि पूरा अंधेरा हो जाए तो इसलिए दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि प्रकाश ही नहीं है, दिखाई कैसे पड़ेंगे। या पूरा प्रकाश हो जाए तो भी दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि इतना ज्यादा प्रकाश है कि उतने छोटे—से धूलकण दिखाई नहीं पड़ सकते, प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है। पृष्ठभूमि न होने से धूलकण खो जाते हैं।
तो पहला तो यह फर्क समझ लें कि बहुत से प्रयोग है ध्यान के जो वस्तुत: मूर्च्छा के प्रयोग हैं, ध्यान के प्रयोग नहीं है। जिनमें आदमी अपने कांशस को अनकाशस में डुबा देता है। जिनमें वह गहरी नींद में चला जाता है। उठने के बाद उसे शांति भी मालूम पड़ेगी, स्वस्थ भी मालूम पड़ेगा, ताजा भी मालूम पड़ेगा। लेकिन वे उपाय सिर्फ चेतना को डुबाने के थे। उससे कोई क्रांति घटित नहीं होती।

Tuesday 28 July 2015

हम सब ऐसी ही हालत में पहुंचते हैं। जब हम सुख में होते हैं तब हमें ध्यान की जरा भी चिंता नहीं पैदा होती और जब हम दुख में होते हैं तब हमें ध्यान की चिंता पैदा होती है। और कठिनाई यह है कि दुखी चित्त को ध्यान में ले जाना बहुत कठिन है, क्योंकि दुखी चित्त गलत ध्यान में लगा हुआ होता है। दुख का मतलब ही गलत ध्यान है। जब आप पैर के बल खड़े होते हैं तब आपकी चलने की कोई इच्छा नहीं होती। जब आप सिर के बल खड़े होते हैं तब आप मुझसे पूछते हैं आकर कि चलने का कोई रास्ता है? और अगर मैं आपसे कहूं कि जब आप पैर के बल खड़े हों तब ही चलने का रास्ता काम कर सकता है, तो आप कहते हैं कि जब हम पैर के बल खड़े होते हैं तब तो हमें चलने की इच्छा ही नहीं होती।
इसलिए महावीर ने पहले तो गलत ध्यान की बात की है ताकि आपको साफ हो जाए कि आप गलत ध्यान में तो नहीं हैं। क्योंकि गलत ध्यान में जो है उसे ध्यान में ले जाना अति कठिन हो जाता है। अति कठिन इसलिए नहीं कि नहीं जाएगा। अति कठिन इसलिए है कि वह गलत ध्यान का प्रयास जारी रखता है। जब आप कहते हैं, मैं शांत होना चाहता हूं तब आप अशांत होने की सारी चेष्टा जारी रखते हैं, और शांत होना चाहते हैं। और अगर आपसे कहा जाए, अशांत होने की चेष्टा छोड़ दीजिए, तो आप कहते हैं वह तो हम समझते हैं, लेकिन शांत होने का उपाय बताएं।
और आपको पता ही नहीं है कि शांत होने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। सिर्फ अशांत होने की चेष्टा जो छोड़ देता है वह शांत हो जाता है। शांति कोई उपलब्धि नहीं है, अशांति उपलब्धि है। शांति को पाना नहीं है, अशांति को पा लिया है। अशांति का अभाव शांति बन जाता है। गलत ध्यान का अभाव कि ध्यान की शुरुआत हो जाती है।
तो गलत ध्यान का अर्थ है—अपने से बाहर किसी भी चीज पर एकाग्र हो जाना। दि अदर ओरिएंटेड़ काशसनैस, दूसरे की तरफ बहती हुई चेतना गलत ध्यान है। और इसलिए महावीर ने परमात्मा को कोई जगह नहीं दी है। क्योंकि परमात्मा की तरफ बहती हुई चेतना को भी महावीर कहते हैं गलत ध्यान। क्योंकि परमात्मा आप दूसरे की तरह ही सोच सकते है और अगर स्वयं की तरह सोचेंगे तो बड़ी हिम्मत चाहिए। अगर आप यह सोचेंगे कि मैं परमात्‍मा हूं तो बड़ा साहस चाहिए। एक तो आप न सोच पाएंगे और आपके आसपास के लोग भी न सोचने देंगे कि आप परमात्मा हैं। और जब कोई सोचेगा कि मैं परमात्मा हूं तो फिर परमात्मा की तरह जीना भी पड़ेगा। क्योंकि सोचना खड़ा नहीं हो सकता जब तक आप जिएं न। सोचने में खून न आएगा जब तक आप जिएंगे नहीं। हड्डी—मांस—मज्जा नहीं बनेगी जब तक आप जिएंगे नहीं।
तो परमात्मा की तरह जीना हो अगर तब तो ध्यान की कोई जरूरत नहीं रह जाती। इसलिए महावीर कहते हैं—परमात्मा को तो आप सदा दूसरे की तरह ही सोचेंगे। और इसलिए जितने धर्म परमात्मा को मानकर शुरू होते है, उनमें ध्यान विकसित नहीं होता है, प्रार्थना विकसित होती है। और प्रार्थना और ध्यान के मार्ग बिलकुल अलग—अलग है।
प्रार्थना का अर्थ है दूसरे के प्रति निवेदन; ध्यान में कोई निवेदन नहीं है। प्रार्थना का अर्थ है दूसरे की सहायता की मांग; ध्यान में कोई सहायता की मांग नहीं है। क्योंकि महावीर कहते हैं—दूसरे से जो मिलेगा वह मेरा कभी भी नहीं हो सकता, मिल भी जाए तो भी। पहले तो वह मिलेगा नहीं, मैं मान ही लूंगा कि मिला। और दूसरे से मिला हुआ, माना हुआ कि मिला हुआ है, तो आज नहीं कल छूटेगा और दुख लाएगा, पीड़ा लाएगा।
इसलिए महावीर कहते हैं—अगर पीड़ा के बिलकुल पार हो जाना है तो दूसरे से ही छूट जाना पड़ेगा। दूसरे के साथ जो भी संबंध है वह टूट सकता है, परमात्मा के साथ संबंध भी टूट सकता है। संबंध का अर्थ ही होता है कि जो टूट भी सकता है। रिलेशनशिप का मतलब ही यह होता है कि जो बन सकती है और टूट सकती है। महावीर कहते है—जो बन सकता है, वह बिगड़ सकता है। इसलिए बनाने की कोशिश ही मत करो। तुम तो उसे जान लो जो अनबना है, अनक्रिएटेड़ है। जो तुम्हारे भीतर है, कभी बना नहीं है, इसलिए उसके मिटने का कोई ड़र नहीं है। वही तुम्हारा हो सकता है, वही शाश्वत संपदा है।
इसलिए महावीर को जो लोग नहीं समझ सके, उन्होंने कहा नास्तिक है यह आदमी। और उन्हें ऐसा भी लगा कि अब तक जो नास्तिक हुए हैं उनसे भी गहन नास्तिक हैं वे। क्योंकि वे नास्तिक कम से कम इतना तो कहते है कि ईश्वर के लिए प्रमाण दो तो हम मान लें। महावीर कहते हैं—ईश्वर हो या न हो, इससे धर्म का कोई संबंध नहीं है, क्योंकि दूसरे को जब भी मैं ध्यान में लेता हूं तो गलत ध्यान हो जाता है। इसलिए महावीर इसकी भी चिंता नहीं करते कि ईश्वर है या नहीं, इसके लिए कोई प्रमाण जुटाएं। निश्‍चित ही ईश्वरवादियों को महावीर गहन नास्तिक मालूम पड़े, नास्तिकों से भी ज्यादा।
इसलिए तथाकथित आस्तिकों ने चार्वाक से भी ज्यादा निंदा महावीर की की है। और भी खतरा था, क्योंकि चार्वाक की निंदा करनी आसान थी क्योंकि वह कह रहा था—खाओ, पियो, मौज करो। महावीर की निंदा और मुश्किल पड़ गई। क्योंकि वे जो नास्तिक थे वे खा, पी और मौज कर रहे थे। यह महावीर तो बिलकुल ही नास्तिक जैसे नहीं थे। यह तो भोग में जरा भी रसातुर नहीं थे। इसलिए इनकी निंदा और भी कठिन, और भी मुश्किल पड़ गई। आदमी तो यह इतने बेहतर थे, जैसा कि बड़े से बड़ा आस्तिक हो पाया है शायद उससे भी ज्यादा बेहतर है। क्योंकि बड़े से बड़ा आस्तिक भी दूसरे पर निर्भर रहता है। ऐसी स्वतंत्रता जैसी महावीर की है, आस्तिक की नहीं हो पाती। या उस दिन हो पाती है जिस दिन या तो भक्त बिलकुल मिट जाता है और भगवान रह जाता है या भगवान बिलकुल मिट जाता है और भक्त रहता है। जिस दिन एक ही बचता है, उस दिन हो पाती है।
महावीर प्रार्थना के पक्षपाती नहीं हैं। महावीर दूसरे के ध्यान करने के पक्षपाती नहीं हैं। फिर महावीर का ध्यान से क्या अर्थ है? वह अर्थ हम समझ लें, और महावीर उस ध्यान तक कैसे आपको पहुंचा सकते है, उसे हम समझ लें।
महावीर का ध्यान से अर्थ है, स्वभाव में ठहर जाना—टु बी इन वनसेल्फ। ध्यान से अर्थ है—स्वभाव। जो मैं हूं जैसा मैं हूं वहीं ठहर जाना। उसी में जीना, उससे बाहर न जाना। अर्थ तो है ध्यान का स्वभाव में ठहर जाना। इसलिए महावीर ने ध्यान शब्द का कम प्रयोग किया, क्योंकि ध्यान शब्द—शब्द ही दूसरे का इशारा करता है। जब भी हम कहते है, टु बी अटेंटिव, तभी यह मतलब होता है किसी और पर। जब भी हम कहते है ध्यान, तो उसका मतलब होता है—कहां, किस पर? लोग आते है पूछने, वे कहते है हम ध्यान करना चाहते हैं, किस पर करें? ध्यान शब्द में ही आब्जेक्ट का खयाल, विषय का खयाल छिपा हुआ है। इसलिए महावीर ने ध्यान शब्द का उतना प्रयोग नहीं किया। ध्यान की जगह ज्यादा उन्होंने प्रयोग किया—सामायिक। वह महावीर का अपना शब्द है, सामायिक। महावीर आत्मा को समय कहते हैं और सामायिक उसे कहते हैं, जब कोई व्यक्ति अपनी आत्मा में ही होता है, तब उसे सामायिक कहते है।
इधर एक बहुत अदभुत काम चल रहा है वैज्ञानिकों के द्वारा। अगर वह काम ठीक—ठीक हो सका तो शायद महावीर का शब्द सामायिक पुनरुज्जीवित हो जाए। वह काम यह चल रहा है कि आइंस्‍टीन ने, प्लांक ने, और अन्य पिछले पचास वर्षों के वैज्ञानिकों ने यह अनुभव किया है कि इस जगत में जो स्पेस है वह श्री—डायमेंशनल है। जो स्थान है, अवकाश है, आकाश है, वह तीन आयामों में बंटा है। हम किसी भी चीज को तीन आयामों में देखते हैं, वह श्री—डायमेंशनल है। लम्बाई है, चौड़ाई है, मोटाई है। वह तीन है, तीन आयाम में स्थान है। और यह तीनों के साथ समय, टाइम है।
अब तक बड़ी कठिनाई थी कि यह समय को कैसे इन तीन आयामों से जोड़ा जाए। क्योंकि जोड़ तो कहीं न कहीं होना ही चाहिए। समय और क्षेत्र, टाइम और स्पेस कहीं के होने चाहिए, अन्यथा इस जगत का अस्तित्व नहीं बन सकता। इसलिए आइंस्‍टीन ने टाइम और स्पेस की अलग—अलग बात करनी बंद कर दी, और ‘स्पेसिओटाइम’ एक शब्द बनाया, कि समय और क्षेत्र एक ही है। काल और क्षेत्र एक है। और आइंस्टीन ने कहा कि समय जो है, वह स्पेस का ही फोर्थ डायमेंशन है, वह क्षेत्र का ही चौथा आयाम है। वह अलग चीज नहीं है। और आइंस्टीन के मरने के बाद इस पर और काम हुआ और पाया गया कि टाइम भी एक तरह की ऊर्जा, एनर्जी है, शक्ति है। और अब वैज्ञानिक ऐसा सोचते है कि मनुष्य का शरीर तो तीन आयामों से बना है और मनुष्य की आत्मा चौथे आयाम से बनी है। अगर यह बात सही हो गयी तो चौथे आयाम का नाम टाइम होगा। और महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले आला को समय कहा है, टाइम कहा है।

Monday 27 July 2015

ग्‍यारहवां तप या पांचवां अंतर—कर—तप है ध्यान। जो दस तपो से गुजरते है उन्हें तो ध्यान को समझना कठिन नहीं होता। लेकिन जो केवल दस तपो को समझ से समझते हैं, उन्हें ध्यान को समझना बहुत कठिन होता है। फिर भी कुछ संकेत ध्यान के संबंध में समझे जा सकते हैं। ध्यान को तो करके ही समझा जा सकता है, इशारे कुछ बाहर से ध्यान के संबंध में समझे जा सकते हैं। ध्यान प्रेम जैसा है—जो करता है, वही जानता है; या तैरने जैसा है—जो तैरता है, वही जानता है।
तैरने के संबंध में कुछ बातें कही जा सकती हैं, और प्रेम के संबंध में बहुत बातें कही जा सकती हैं। फिर भी प्रेम के संबंध में कितना भी समझ लिया जाए तो भी प्रेम समझ में नहीं आता। क्योंकि प्रेम एक स्वाद है, एक अनुभव है, एक अस्तित्वगत प्रतीति है। तैरना भी एक एक्लिस्टेंशियल, एक सत्तागत प्रतीति है। आप दूसरे व्यक्ति को तैरते हुए देखकर भी नहीं जान सकते कि वह कैसा अनुभव करता है। आप दूसरे व्यक्ति को प्रेम में डूबा हुआ देखकर भी नहीं जान सकते कि उसे प्रेम किन—किन यात्राओं पर ले जाता है। ध्यान में खड़े महावीर को देखकर भी नहीं जान सकते कि ध्यान क्या है।
ध्यान के संबंध में महावीर स्वयं भी कुछ कहें तो भी नहीं समझा पाते ठीक से कि ध्यान क्या है? कठिनाई और भी बढ़ जाती है, प्रेम से भी ज्यादा, कि चाहे कितना ही कम जानते हों लेकिन प्रेम का कोई न कोई स्वाद हम सबको है। गलत ही सही, गलत प्रेम का ही सही, तो भी प्रेम का स्वाद है। गलत ध्यान का भी हमें कोई स्वाद नहीं है, ठीक ध्यान की बात तो बहुत दूर है। गलत ध्यान का भी हमें कोई स्वाद नहीं है जिसके आधार पर समझाया जा सके कि ठीक क्या है। गलत ध्यान में भी हम अपने को रोक लेते हैं।
महावीर ने दो तरह के गलत ध्यान भी कहे है। महावीर ने कहा है कि जो व्यक्ति तीव्र क्रोध में आ जाता है वह एक तरह के गलत ध्यान में आ जाता है। अगर आप कभी तीव्र क्रोध में आए हैं तो एक प्रकार के गलत ध्यान में आपने प्रवेश किया है। लेकिन हम तीव्र क्रोध में भी कभी नहीं आते। हम कुनकुने जीते है, ल्‍यूकवार्म; कभी हम उबलती हालत में नहीं आते। अगर आप गहरे क्रोध में आ जाएं इतने गहरे क्रोध में आ जाएं कि क्रोध ही शेष रह जाए, क्रोध ही एकाग्र हो जाए, जीवन की सारी ऊर्जा क्रोध के बिंदु पर ही दौड़ने लगे। सारी किरणें जीवन की शक्ति की क्रोध पर ही ठहर जाएं तो आपको गलत ध्यान का अनुभव होगा।
महावीर ने कहा है कि अगर कोई गलत ध्यान में भी उतरे तो उसे ठीक ध्यान में लाना आसान है। इसलिए अकसर ऐसा हुआ है कि परम क्रोधी क्षण भर में परम क्षमा की मूर्ति बन गए। लेकिन धीमे— धीमे जलते हुए जो क्रोधी है उन्हें गलत ध्यान का भी कोई पता नहीं है। अगर राग पूरी तरह हो, वासना पूरी तरह हो, पैशन पूरी तरह हो जैसा कि कोई मजनूं या फरियाद जब अपने पूरे राग से पागल हो जाता है तब वह भी एक तरह के गलत ध्यान में प्रवेश करता है। तब लैला के सिवाय मजनूं को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता—राह चलते दूसरे लोगों में भी वही दिखाई पड़ती है; खड़े हुए वृक्षों में भी वही दिखाई पड़ती है; चांद—तारों में भी वही दिखाई पड़ती है। इसीलिए तो हम उसे पागल कहते हैं।
और लैला उसे जैसी दिखाई पड़ती है वैसी हमको, किसी को भी दिखाई नहीं पड़ती। उसके गांव के लोग उसे बहुत समझाते रहे कि बहुत साधारण—सी औरत है। तू पागल हो गया है। गांव के राजा ने मजनूं को बुलाया और अपने परिचित मित्रों की बारह लड़कियों को सामने खड़ा किया जो कि सुंदरतम थीं उस राज्य की। और राजा ने कहा—तू पागल न बन, तुझ पर दया आती है। तुझको सड्कों पर रोते देखकर पूरा गांव पीड़ित है। तू इन बारह सुंदर लड़कियों में से जिसे चुन ले, मैं उसका विवाह तुझसे करवा दूं।
लेकिन मजनूं ने कहा कि मुझे सिवाय लैला के कोई यहां दिखाई नहीं पड़ता।
और उस राजा ने कहा—तू पागल हो गया है? लैला बहुत साधारण लड़की है।
तो मजनूं ने कहा कि लैला को देखना हो तो मजनूं की आंख चाहिए। आपको लैला दिखाई नहीं पड़ सकती। और जिसे आप देख रहे हैं वह लैला नहीं है। उसे मैं देखता हूं।
अब यह जो मजनूं कहता है कि मजनूं की आंख चाहिए, यह गलत ध्यान का एक रूप है। इतना ज्यादा कामासक्त है, इतना राग से भर गया है कि नैरोडाउन, सारी चेतना एक बिन्दु पर सिकुड़कर खड़ी हो गयी है। वह चेतना का बिंदु लैला बन गयी है। महावीर ने इन्हें गलत ध्यान कहा है।
यह बहुत मजे की बात है कि महावीर इस जमीन पर अकेले आदमी हैं जिन्होंने गलत ध्यान की भी चर्चा की है। ठीक ध्यान की चर्चा बहुत लोगों ने की है। यह बड़ी विशिष्ट बात है कि महावीर कहते हैं कि है तो यह भी ध्यान—उल्टा है, शीर्षासन करता हुआ है। जितना ध्यान मजनूं का लैला पर लगा है इतना मजनूं का मजनूं पर लग जाए तो ठीक ध्यान हो जाए। शीर्षासन करती हुई चेतना है— ‘पर’ पर लगी है, दूसरे पर लगी है। दूसरे पर जब इतनी सिकुड़ जाती है चेतना तब भी ध्यान ही फलित होता है, लेकिन उल्टा फलित होता है, सिर के बल फलित होता है। अपनी ओर लग जाए उतनी ही चेतना तो ध्यान पैर पर खड़ा हो जाता है। सिर के बल खड़े हुए ध्यान से कोई गति नहीं हो सकती।
इसलिए सिर के बल खड़े हुए सभी ध्यान सड़ जाते हैं। क्योंकि गत्यात्‍मक नहीं हो सकते। सिर के बल चलिएगा कैसे? पैर के बल चला जा सकता है— यात्रा करनी हो तो पैर के बल। चेतना जब पैर के बल खड़ी होती है तो अपनी तरफ उसुख होती है, तब गति करती है। और ध्यान जो है, वह डायनेमिक फोर्स है। उसे सिर के बल खड़े कर देने का मतलब है, उसकी हत्या कर देना। इसलिए जो लोग भी गलत ध्यान करते हैं वे आत्मघात में लगते हैं, रुक जाते हैं, ठहर जाते हैं। मजनूं ठहरा हुआ है लैला पर और इस बुरी तरह ठहरा हुआ है कि जैसे तालाब बन गया है। अब वह एक सरिता न रहा जो सागर तक पहुंच जाए। और लैला कभी मिल नहीं सकती। यह दूसरी कठिनाई है गलत ध्यान की कि जिस पर आप लगाते हैं उसकी उपलब्धि नहीं हो सकती। क्योंकि दूसरे को पाया ही नहीं जा सकता, वह असंभव है, दूसरे को पाने का कोई उपाय ही नहीं है। इस अस्तित्व में सिर्फ एक ही चीज पायी जा सकती है, और वह मैं हूं वह मै स्वयं हूं उसको ही मैं पा सकता हूं। शेष सारी चीजों पर मैं पाने की कितनी ही कोशिश करूं, वे सारी कोशिशें असफल होंगी। क्योंकि जो मेरा स्वभाव है वही केवल मेरा हो सकता है; जो मेरा स्वभाव नहीं है वह कभी भी मेरा नहीं हो सकता है। मेरे होने की भ्रांतियां हो सकती हैं, लेकिन भ्रांतियां टूटेंगी और पीड़ा और दुख लाएंगी।
इसलिए गलत ध्यान नरक में ले जाता है। सिर के बल खड़ी हुई चेतना अपने ही हाथ से अपना नरक खड़ा कर लेती है। और हम बड़े मजेदार लोग हैं। हम जब नरक में होते हैं, तब हम ध्यान वगैरह के बाबत सोचने लगते हैं। जब आदमी दुख में होता है तो वह पूछता है शांति कैसे मिले। अशांति में होता है तो पूछता है शांति कैसे मिले। मेरे पास लोग आते हैं और वे कहते हैं, और कहते हैं; सुनते हैं ध्यान से बडी शांति मिलती है तो हमें ध्यान का रास्ता बता दीजिए। और मजा यह है कि जो अशांति उन्होंने पैदा की है उसमें से कुछ भी वे छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अशांति उन्होंने पैदा की है, पूरी मेहनत उठायी है, श्रम किया है।

Sunday 26 July 2015

‘बुद्धिमान हो।’
बुद्धिमानी का अर्थ ही है कि झगड़ा—फसाद न करता हो, जीवन—ऊर्जा का विध्वंसक उपयोग न करता हो, सृजनात्मक, क्रिणटिव उपयोग करता हो।
‘अभिजात हो।’
अभिजात कीमती शब्द है। अरिस्टोक्रेटिक हो। बड़ा अजीब लगेगा, समाजवाद की दुनियां है, वहां अरिस्टोक्रेसी कैसी? अभिजात्य। लेकिन महावीर के अर्थ में कुलीनता और अभिजात्य का अर्थ है, कता पर ध्यान न देता हो, शालीन हो। खताओं को नजर से बाहर कर देता हो, श्रेष्ठता पर ही ध्यान रखता हो। व्यर्थ को चुनता न हो और दूसरे में श्रेष्ठ होना चाहिए। इसकी तलाश करता हो।
अकुलीन का अर्थ होता है, जो पहले से मान कर बैठा है लोग बुरे है। कुलीन का अर्थ है, जो पहले से मान कर बैठा है कि लोग भले है। मूलतः कभी—कभी भले हो जाते है, यह बात और है।
कुलीन आदमी, अभिजात्य चित्त वाला व्यक्ति, दो दिनों के बीच में एक रात को देखता है। अकुलीन व्यक्ति दो रातों के बीच में एक दिन को देखता है। कुलीन व्यक्ति फूलों को गिनता है, कांटों को नहीं। और मानता है कि जहां फूल होते है वहां थोड़े कांटे भी होते है। और उनसे कुछ हर्जा नहीं होता, कांटे भी फूल की रक्षा ही करते है।
अकुलीन चित्त कांटों की गिनती करता है, और जब सब कीटों को गिन लेता है तो वह कहता है, एक दो फूल से होता भी क्या है! जहां इतने कांटे है, वहां एक दो फूल धोखा है।
कुलीन, अकुलीनता चुनाव का नाम है, आप क्या चुनते है? श्रेष्ठ का दर्शन आभिजात्य है, अश्रेष्ठ का दर्शन शूद्रता है।
‘अभिजात हो, आंख की शर्म रखने वाला स्थिर वृत्ति हो।’
मैने सुना है कि अकबर के तीन पदाधिकारियों ने राज्य को धोखा दिया। राज्य के खजाने को धोखा दिया। पहले पदाधिकारी को बुलाकर अकबर ने कहां, तुमसे ऐसी आशा न थी! कहते है, उस आदमी ने उसी दिन सांझ जाकर आत्महत्या कर ली।
दूसरे आदमी को साल भर की सजा दी। तीसरे आदमी को पंद्रह वर्ष के लिए जेलखाने में डाला और सड़क पर नग्‍न करवाकर कोड़े लगवाये। मंत्री बड़े चिंतित हुए। जुर्म एक था, सजाएं बहुत भिन्न हो गयीं।
अकबर से पूछा मंत्रियों ने, ‘यह कुछ समझ में नहीं आता, यह न्याययुक्त नहीं मालूम होता। तीनों का जुर्म एक था। एक को आपने सिर्फ इतना कहां, तुमसे इतनी आशा न थी!’
अकबर ने कहां, ‘वह आंख की शर्म वाला आदमी था। इतना बहुत था। इतना भी जरूरत से ज्यादा था। सांझ उसने आत्महत्या
कर ली।
‘दूसरे को आपने साल भर की सजा दी!’
अकबर ने कहां, ‘वह थोड़ी मोटी चमड़ी का है।’
‘और तीसरे को नग्‍न करके कोड़े लगवाये, और जेल में ड़लवाया!’
अकबर ने कहां, ‘कि जाकर तीसरे से मिलो, तुम्हें समझ में आ जायेगा।’
एक मंत्री भेजा गया जेलखाने में, जिसके कोड़े के निशान भी अभी नहीं मिटे थे, वह वहां बड़े मजे में था, और उसने कहां कि पंद्रह ही वर्ष की तो बात है, और जितना मैंने खजाने से मार दिया, उतना पंद्रह वर्ष नौकरी करके भी तो नहीं मिल सकता था। और पंद्रह ही वर्ष की तो बात है फिर बाहर आ जाऊंगा। और इतना मार दिया है कि पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चे मजा करें। कोई ऐसी चिंता की बात नहीं। फिर यहां भी ऐसी क्या तकलीफ!
मंत्रियों ने कहां, ‘बड़े पागल हो, सड़क पर कोड़े खाये।’
उस आदमी ने कहां, ‘बदनामी भी हो तो नाम तो होता ही है। कौन जानता था हमको पहले। आज सारी दिल्ली में अपनी चर्चा है।’

Friday 24 July 2015

‘मित्रों के प्रति सदभाव रखता हो।’
यह बड़ी हैरानी की बात है। हम कहेंगे कि मित्रों के प्रति सदभाव होता ही है। बिलकुल झूठ है। मित्रों के प्रति सदभाव रखना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि मित्र का मतलब, जिसको हम जानते हैं, जिसको हम भलीभांति पहचानते है। जिसको नहीं पहचानते उसके प्रति सदभाव आसान है। जिसको जानते है, उसके प्रति सदभाव बड़ा मुश्किल है। मित्रों के प्रति सदभाव बड़ा मुश्किल है।
मार्क ट्वैन ने कहां है कि हे परमात्मा! शत्रुओं से मैं निपट लूंगा, मित्रों से तू मुझे बचाना।
मित्र बड़ी अदभुत चीज है। जिसे हम जानते है, जिसका सब कुछ हमें पता है, उसके प्रति कैसे सदभाव रखें?
अज्ञान में सदभाव आसान है, ज्ञान में मुश्किल हो जाता है। इसलिए जितना हमारे कोई निकट होता है उतना ही दूर भी हो जाता है। और हम मित्रों के संबंध में भी इधर—उधर जो बातें करते रहते है, वे बताते है कि सदभाव कितना है। पीठ पीछे हम क्या कहते रहते है, उससे पता चलता है, सदभाव कितना है। महावीर कहते है, मित्रों के प्रति सदभाव रखता हो, पूरा सदभाव रखता हो।’शास्त्रों से ज्ञान पाकर गर्व न करता हो।’
क्योंकि शास्त्रों से ज्ञान का कोई मूल्य ही नहीं है। इसलिए गर्व व्यर्थ है। और शास्त्रों के ज्ञान से गर्व पैदा होता है, इसलिए विशेष रूप से यह सूचन किया है, क्योंकि शास्त्रों से जब ज्ञान मिल जाता है तो लगता है मैंने जान लिया, बिना जाने। अभी जानना बहुत दूर है। अभी किताब में पढ़ा कि पानी प्यास बुझाता है, अभी पानी नहीं मिला। अभी किताब में पढ़ा कि मिठाई बड़ी मीठी होती है, अभी स्वाद नहीं मिला। अभी किताब में पढ़ा कि सूरज उगता है और प्रकाश ही प्रकाश होता है, जिंदगी अभी अंधेरे में है। तो किताब को पढ़ कर जो गर्व न करता हो। लेकिन किताब को पढ़ कर गर्व आ ही जाता है। लगता है, जाना। इसलिए शास्‍त्रीय आदमी हो और अहंकारी न हो, बड़ा मुश्किल है। शास्त्र अहंकार के लिए बोझिल है। इसलिए पंडित की चाल देखें, पंडित की आंख देखें, उनकी भाव—भंगिमा जरा पहचानें, तो वे जमीन पर नहीं चलते। वे चल नहीं सकते। जमीन और उनके बीच बड़ा फासला होता है। इसलिए दो पंडितों को पास बिठा दें, तो जो घटना दो कुत्तों के बीच घट जाती है, वही घट जाती है।
क्या हो जाता है? एकदम कुत्तों के गले में खराश आ जाती है। एकदम भौंकना शुरू कर देते है। जब तक एक हार न जाये, तब तक दूसरे को शांति नहीं मिलती।
मैंने तो सुना है कि पंडित मर कर कुत्ते बिल्लियां हो जाते हैं। वे पुरानी आदत वश भौंकते चले जाते हैं।
क्या हो जाता होगा? शास्त्र इतना भौंकता क्यों है? शास्त्र नहीं भौंकता। शास्त्र से अहंकार पोषित हो जाता है। लगता है, मैं जानता हूं और जब ऐसा लगता है कि मैं जानता हूं तो फिर कोई और जान सकता है, यह मानने का मन नहीं होता। फिर कोई और भी जानता है जो मुझसे भिन्न जानता है, तो शत्रुता निर्मित हो जाती है। फिर सिद्ध करना जरूरी हो जाता है कि मैं ठीक हूं। पंडित सत्य की खोज में नहीं होता, मैं ठीक हूं इसकी खोज में होता है।
महावीर कहते है— ‘शास्त्री को पाकर गर्व न करता हो, किसी के दोषों का भंडाफोड़ न करता हो।’
कोई प्रयोजन नहीं है। किसी के दोष पता भी चल जायें तो उनकी चर्चा का क्या अर्थ है? आपकी चर्चा से उसके दोष न मिट जायेंगे। हो सकता है, बढ़ जायें। अगर आप सच में ही चाहते है कि उसके दोष मिट जायें तो इन दोषों की सारे जगत में चर्चा करते रहने से कोई मतलब नहीं। लेकिन, एक मामले में हम बड़े सृजनात्मक लोग है। किसी का जरा—सा दोष दिख जाये तो हमारे पास मैग्रीफाइड़ ग्लास है, हम उसको फिर इतना बड़ा करके देखते हैं कि सारा ब्रह्मांड़ का विस्तार छोटा मालूम पड़ने लगता है।
सुना है मैंने, मुल्ला ने एक दिन अपनी पत्नी को फोन किया। फोन करना पड़ा, क्योंकि ऐसी घटना हाथ में लग गयी थी। बताया कि पड़ोसी अहमद के मित्र रहमान की पत्नी को लेकर भाग गया। दोनों के बच्चे सड्कों पर भीख मांग रहे है। और बहुत—सी बातें बतायीं। पत्नी भी रस से भर गयी। क्योंकि पत्नियों को वियतनाम में क्या हो रहा है, इससे मतलब नहीं, पड़ोसी की पत्नी कहां भाग
गयी, यह बड़ा महत्वपूर्ण है।
पली ने कहां, कि जरा मुल्ला विस्तार से बताओ। मुल्ला ने कहां, ‘विस्तार में मत ले जाओ मुझे, जितना मैंने सुना है उससे तीन गुना तुम्हें बता ही चुका हूं। अब और विस्तार में मुझे मत ले जाओ।’
जब किसी का दोष हमें दिखायी पड़ जाये, तब हम तत्काल उसे बड़ा कर लेते हैं। इसमें भीतरी एक रस है। जब दूसरे का दोष बहुत बड़ा हो जाता है तो अपने दोष बहुत छोटे दिखायी पड़ते हैं। और अपने दोष छोटे दिखायी पड़ते हैं तब बड़ी राहत मिलती है कि हम क्या, हमारा पाप भी क्या?
दुनिया में यही एक घट रहा है चारों तरफ? तो हम बड़े पुण्यात्मा मालूम पड़ते है। इसलिए दूसरे के दोष बड़ा कर लेने में अपने दोष छोटा कर लेने की तरकीब है। खुद के दोष छोटा करना बुरा नहीं है, लेकिन दूसरे के बड़े करके छोटा करने का खयाल करना पागलपन है। खुद के दोष छोटे करना अलग बात है।
लेकिन दो तरकीबें हैं, या तो खुद के दोष छोटे करो, तब छोटे होते हैं, या फिर पड़ोसियों के बड़े कर लो, तब भी छोटे दिखायी पड़ने लगते हैं। यह आसान है पड़ोसियों के बड़े करना। इसमें कुछ भी नहीं करना प्रड्ता है।
महावीर कहते हैं, ‘भंडाफोड़ न करता हो, मित्रों पर क्रोधित न होता हो।’
शत्रुओं पर हमारा इतना क्रोध नहीं होता, जितना मित्रों पर होता है। इसलिए मित्र की सफलता कोई भी बर्दाश्त नहीं कर पाता। यह बड़ा मजाक है आदमी का मन। मित्र जब तकलीफ में होता है तब हमें सहानुभूइत बताने में बड़ा मजा आता है। लेकिन मित्र अगर तकलीफ में न हो सफल होता चला जाये, तब हमें बड़ी पीडा होती है। जो आदमी अपने मित्र की सफलता में सुख न पाता हो, जानना कि मित्रता है ही नहीं। लेकिन हमें बड़ा मजा आता है। अगर कोई दुखी है तो हम संवेदना प्रकट करने पहुंच जातेहैं। संवेदना में बड़ा मजा आता है। कोई दुखी है, हम दुखी नहीं है। कभी आपने देखा है? जब आप संवेदना प्रगट करने जाते हैं तो भीतर एक हल्का—सा रस मिलता है।
किसी के मकान में आग लग जाये तो आपकी आंख से आंसू गिरने लगते हैं। और किसी का मकान आकाश छूने लगे, तब आपके पैरों में नाच नहीं आता। तो जरूर इसमें कुछ खतरा है। क्योंकि अगर सच में ही किसी के मकान में आग लगने से हृदय रोता है तो उसका मकान गगनचुंबी हो जाये, उस दिन पैर नाचने चाहिए। लेकिन गगनचुंबी मकान देख कर पैर नाचते नहीं। आग लग जाये तो आंखें रोती हैं। निश्‍चित ही उस रोने के पीछे भी रस है। इसलिए लोगों ‘ट्रेजेडी’, दुखांत नाटक और फिल्मों को देख कर इतना मजा पाते हैं, नहीं तो दुख को देखने में इतना मजा क्या है!
दुख को देख कर एक राहत मिलती है कि हम इतने दुखी नहीं है। अपना मकान अभी भी कायम है, कोई आग नहीं लगी है। दूसरे को सुखी देख कर जब हम सुखी होते हैं तब समझना कि मित्रता है। मित्रता सूक्ष्म बात है।
महावीर कहते हैं, ‘मित्रों पर क्रोधित न होता हो।’ यह भी ध्यान रखना कि शत्रुओं पर तो क्रोधित होने का कोई अर्थ नहीं होता आप क्रोधित हैं। मित्रों पर क्रोधित होने का अर्थ होता है, क्योंकि रोज—रोज होना पड़ता है।
‘मित्रों पर क्रोधित न होता हो, अप्रिय मित्र की भी पीठ—पीछे भलाई ही गाता हो।’
क्यों आखिर? यह तो झूठ मालूम होगा न। आप कहेंगे, बिलकुल सरासर झूठ की शिक्षा महावीर दे रहे हैं। अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछे भलाई गाता हो, पीछे भले की ही बात करता हो। नहीं, झूठ के लिए नहीं कह रहे हैं। कोई आदमी इतना बुरा नहीं है कि बिलकुल बुरा हो। कोई आदमी इतना भला नहीं है कि बिलकुल भला हो। इसलिए चुनाव है। जब आप किसी आदमी की बुराई की चर्चा करते हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि उस आदमी में भलाई है ही नहीं। आपने बुराई चुन ली। जब आप किसी आदमी की भलाई की चर्चा करते है तब भी यह मतलब नहीं होता है कि उसमें बुराई है ही नहीं। आपने भलाई चुन ली।
महावीर कहते हैं कि ऐसा बुरा आदमी खोजना कठिन है, जिसमें कोई भलाई न हो। क्योंकि बुराइयों के टिकने के लिए भी भलाइयों की जरूरत है। तो तुम चुनाव करना भलाई की चर्चा का। क्यों आखिर?
क्योंकि भलाई की जितनी चर्चा की जाये, उतनी खुद के भीतर भलाई की जड़ें गहरी बैठने लगती हैं। बुराई की जितनी चर्चा की जाये, बुराई की जड़ें गहरी बैठनी लगती हैं। हम जिसकी चर्चा करते हैं, अंततः हम वही हो जाते हैं। लेकिन हम सब बुराई की चर्चा कर रहे है। अगर हम अखबार उठा कर देखें तो पता ही नहीं चलता कि दुनिया में कहीं कोई भलाई भी हो रही होगी। सब तरफ बुराई हो रही है। सब तरफ चोरी हो रही है, सब तरफ हिंसा हो रही है। अखबार देख कर लगता है कि शायद अपने से छोटा पापी जगत में कोई भी नहीं है। यह सब क्या हो रहा चारों तरफ? और चेहरे पर एक रौनक आ जाती है। यह सारी बुराई आप संचित कर रहे हैं, अपने भीतर। यह सारी बुराई आपके भीतर प्रवेश कर रही है।

Thursday 23 July 2015

कुतूहलता न हो, गंभीर हो।’
जिज्ञासा गंभीर बात है, कुतूहल नहीं है, क्‍युरिआसिटी नहीं है। इन्क्रवायरी और क्‍युरिआसिटी में फर्क है। बच्चे कुतूहली होते हैं, कुतूहली का आप मतलब समझते हैं? कुछ करना नहीं है पूछकर, पूछने के लिए पूछना है। आ गया खयाल कि ऐसा क्यों है पूछ लिया। इससे क्या उत्तर मिलेगा, उससे जीवन में कोई अंतर करना, यह सवाल नहीं है। इसलिए बच्चों के बड़े मजेदार सवाल होते हैं। एक सवाल उन्होंने पूछा उसका आप उत्तर भी नहीं दे पाये कि द्वत सवाल पूछ लिया। आप जब उत्तर दे रहे है, तब उन्हें कोई रस नहीं है, उनका मतलब पूछने से था।
मेरे पास लोग आते हैं। मै बहुत चकित हुआ। वह एक सवाल—कहते है कि बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है, आपसे पूछना है। वे पूछ लेते है। उन्होंने सवाल पूछ लिया। मैं उनसे पूछता हूं पत्‍नी आपकी ठीक, बच्चे आपके ठीक? वे कहते है, बिलकुल ठीक हैं। वे सवाल ही भूल गये इतने में। वे घंटे भर जमाने भर की बातें करके बड़े खुश वापस लौट जाते हैं। मैं सोचता हूं सवाल का क्या हुआ जो बड़ा महत्वपूर्ण था, जो मैंने इतने से पूछने से कि बच्चे कैसे है, समाप्त हो गया। फिर उन्होंने पूछा ही नहीं। कुतूहल था, आ गये थे पूछने, ईश्वर है या नहीं? मगर इससे कोई मतलब न था, इससे कोई संबंध न था। शायद यह पूछना भी एक रस दिखलाना था कि मैं ईश्वर में उत्सुक हूं। यह भी अहंकार को तृप्ति देता है कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं ईश्वर की खोज कर रहा हूं।
मार्पा अपने गुरु के पास गया, नारोपा के पास। तो तिब्बत में रिवाज था कि पहले गुरु की सात पस्किमाएं की जायें, फिर सात बार उसके चरण छूये जायें, सिर रखा जाये, फिर साष्टांग लेट कर प्रणाम किया जाये, फिर प्रश्‍न निवेदन किया जाये। लेकिन मार्पा सीधा पहुंचा, जा कर गुरु की गर्दन पकड़ ली और कहां कि यह सवाल है। नारोपा ने कहां की मार्पा, कुछ तो शिष्टता बरत, यह भी कोई ढंग है? परिक्रमा कर, दष्डवत कर, विधि से बैठ, प्रतीक्षा कर। जब मैं तुझसे पूछूं कि पूछ, तब पूछ।
लेकिन मार्पा ने कहां, जीवन है अल्प। और कोई भरोसा नहीं कि सात पस्किमाएं पूरी हो पायें! और अगर मैं बीच में मर जाऊं तो नारोपा, जिम्मेवारी तुम्हारी कि मेरी?
तो नारोपा ने कहां कि छोड़ परिक्रमा, पूछ। परिक्रमा पीछे कर लेना।
नारोपा ने कहां है कि मापी जैसा शिष्य फिर नहीं आया। यह कोई कुतूहल न था, यह तो जीवन का सवाल था। यह कोई कुतूहल नहीं था। यह ऐसे ही पूछने नहीं चला आया था। जिंदगी दांव पर थी। जब जिंदगी दांव पर होती है, तब जिज्ञासा होती है। और जब ऐसी खुजलाहट होती है दिमाग की, तब कुतूहल होता है।
‘किसी का तिरस्कार न करे।’
इसलिए नहीं कि तिरस्कार योग्य लोग नहीं है जगत में, काफी है। जरूरत से ज्यादा है। बल्कि इसलिए कि तिरस्कार करने वाला अपनी ही आत्महत्या में लग जाता है। जब आप किसी का तिरस्कार करते हैं तो वह तिरस्कार योग्य था या नहीं, लेकिन आप नीचे गिरते है। जब आप तिरस्कार करते है किसी का, तो आपकी ऊर्जा ऊंचाइयां छोड़ देती है और नींचाइयों पर उतर आती है। यह बहुत मजे की बात है कि तिरस्कार जब आप किसी का करते है तो आपको उसी के तल पर भीतर उतर आना पड़ता है।
इसलिए बुद्धिमानों ने कहां है, मित्र कोई भी चुन लेना, लेकिन शत्रु सोच—समझ कर चुनना। क्योंकि आदमी को शत्रु के तल पर उतर आना पड़ता है। इसलिए अगर दो लोग जिंदगी भर लड़ते रहें, तो आप आखिर में पायेंगे कि उनके गुण एक जैसे हो जाते हैं। क्योंकि जिससे लड्ना पड़ता है, उसके तल पर होना पड़ता है, नीचे उतरना पड़ता है।
इसलिए महावीर कहेंगे, अगर प्रशंसा बन सके तो करना, क्योंकि प्रशंसा में ऊपर जाना पड़ता है, निंदा में नीचे आना पड़ता है। यह सवाल नहीं है कि दूसरा आदमी निंदा योग्य था या प्रशंसा योग्य था, यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि जब आप प्रशंसा करते हैं तो आप ऊपर उठते हैं और जब आप निंदा करते है, तो आप नीचे गिरते है। वह आदमी कैसा था, यह तो निर्णय करना भी आसान नहीं है।
इसलिए महावीर कहते हैं, कि किसी का तिरस्कार न रखता हो, क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देती हो।
यह नहीं कहते कि अक्रोधी हो, क्योंकि शिष्य से यह जरा ज्यादा अपेक्षा हो जायेगी। इतना ही कहते हैं, क्रोध को ज्यादा न टिकने देता हो। क्रोध क्षण भर को आता हो, तब तक जाग जाता हो और क्रोध को विसर्जित कर देता हो। धीरे—धीरे क्रोध नहीं आयेगा, लेकिन वह दूर की बात है। यात्रा के पहले चरण में क्रोध को अधिक न टिकने दे, इतना ही काफी है।
आपको पता है, आप क्रोध को कितना टिकने देते है? कुछ लोग है, उनके बाप—दादे लड़े थे, अभी तक क्रोध टिका है। अभी तक वे लड़ रहे है, क्योंकि वह दुश्मनी बाप—दादों से चली आ रही है। आज आपको क्रोध हो जाये, आप जिंदगी भर उसको टिकने देते हैं। वह बैठा रहता है भीतर। कब मौका मिल जाये, आप बदला ले लें।
क्रोध अगर एक क्षण में उठने वाली घटना है और खो जाने वाली तो पानी का एक बुलबुला है। बहुत चिंता की जरूरत नहीं है। एक लिहाज से अच्छा है। इसलिए वे लोग अच्छे होते हैं जो क्रोध कर लेते हैं और भूल जाते है, बजाय उन लोगों के जो क्रोध को दबाये चले जाते हैं। ये लोग खतरनाक हैं। ये आज नहीं कल कोई उपद्रव करेंगे। इनकी केटली का ढक्‍कन भी बंद है और नीचे आग भी जल रही है। विस्फोट होगा। ये किसी की जान लेंगे। उससे कम में ये माननेवाले नहीं हैं। केटली अच्छी है जिसका ढक्‍कन खुला है। भाप ज्यादा हो जाती है, ढक्‍कन थोड़ा उछल जाता है, भाप बाहर निकल जाती है, केटली अपनी जगह हो जाती है।
हर आदमी एक उबलती हुई केटली है, जिंदगी की आग नीचे जल रही है। ढक्कन थोड़ा ढीला रखना अच्छा है। बिलकुल चुस्त मत कर लेना, जैसा संयमी लोग कर लेते हैं। फिर वे जान लेऊ हो जाते है। खुद तो मरेंगे, दो चार को आसपास मार डालेंगे।
महावीर कहते है, जिसका ढक्कन थोड़ा ढीला हो। भाप ज्यादा होती हो, छलांग लगाकर बाहर निकल जाती हो, ढक्‍कन वापस अपनी जगह हो जाता हो।
क्रोध बिलकुल न हो, यह शिष्य से अपेक्षा नहीं की जा सकती, यह तो आखिरी बात है। लेकिन क्षण भर टिकता हो, बस इतना भी काफी है। असल में क्रोध इतनी बीमारी नहीं है जितना टिका हुआ क्रोध बीमारी है क्योंकि टिका हुआ क्रोध भीतर एक स्थायी धुआं हो जाता है। कुछ लोग ऐसे हैं जो क्रोधित नहीं होते, उनको होने की जरूरत नहीं है। वे क्रोधित रहते ही है। उनको होने वगैरह की आवश्यकता नहीं है, वे हमेशा तैयार ही हैं। वे तलाश कर रहे है कि कहां खूंटी मिल जाये, और हम अपने को टांग दें। तो खूंटी न मिले तो भी वे कहीं खिड़की, दरवाजे पर कहीं न कहीं टलेंगे, निर्मित कर लेंगे खूंटी।
क्रोध निकल जाता हो, क्षण भर आता हो तो बेहतर है। वैसा आदमी भीतर क्रोध की पर्त निर्मित नहीं करता। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है, महावीर के मुंह से यह बात कि क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो। बड़ी महत्वपूर्ण बात है।

Wednesday 22 July 2015

नुष्य की गहरी से गहरी उलझनों में घृणा आधारभूत है। कहें कि घृणा का जहर ही मनुष्य की और समस्त विषाक्त अभिव्यक्तियों में प्रगट होता है।
घृणा का अर्थ है. दूसरे के विनाश की आतुरता। प्रेम का अर्थ है : दूसरे के जीवन की आकांक्षा। घृणा का अर्थ है दूसरे की मृत्यु की आकांक्षा। प्रेम का अर्थ है, जरूरत पड़े तो दूसरे के लिए स्वयं को समाप्त कर देने की तैयारी।घृणा का अर्थ है : जरूरत न भी पड़े तो भी स्वयं के लिए दूसरे को समाप्त कर लेने की तैयारी।
और हम सब जैसे जीते हैं उसमें प्रेम का कोई स्वर नहीं होता, घृणा का ही विस्तार होता है। वस्तुत: तो जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह भी हमारी घृणा का ही एक रूप होता है। हम प्रेम में भी दूसरे को साधन बना लेते हैं। और जब भी कोई दूसरे को साधन बनाता है, तभी घृणा शुरू हो जाती है। हम प्रेम में भी अपने लिए जीते हैं। और अगर दूसरे के लिए कुछ करते हुए मालूम पड़ते हैं, तो सिर्फ इसलिए कि उससे हमें कुछ मिलने को है। दूसरे के लिए हम कुछ करते हैं तभी, जब उससे कुछ मिलने की आशा, फल की आकांक्षा होती है। अन्यथा हम नहीं करते हैं।
इसीलिए हमारा प्रेम किसी भी क्षण घृणा बन सकता है। बन जाता है। घड़ीभर पहले जिसे हमने प्रेम किया था, घड़ीभर बाद वही प्रेम घृणा बन सकता है। जरा सी हमारी आकांक्षा में बाधा पड़ी कि प्रेम घृणा में रूपांतरित हुआ। जो प्रेम घृणा में बदल सकता है, वह घृणा का ही छिपा हुआ रूप है। भीतर घृणा ही है, ऊपर आवरण है प्रेम का।
ईशावास्य एक बहुत बहुमूल्य सूत्र की बात कर रहा है। वह सूत्र यह है — और तभी प्रेम संभव है, अन्यथा प्रेम संभव नहीं है; तभी प्रेम का फूल खिल सकता है; इस सूत्र के अतिरिक्त प्रेम के फूल की कोई संभावना नहीं है — वह सूत्र यह है कि जब कोई व्यक्ति समस्त भूतों में स्वयं को देखने लगता है और स्वयं में समस्त भूतों को देखने लगता है, तभी घृणा का अंत होता है।
ध्यान रहे, ईशावास्य यह नहीं कहता कि तभी प्रेम का जन्म होता है। कहता है, तभी घृणा का अंत होता है। ऐसा कहने का बहुत सुविचारित कारण है।
यह बहुत मजे की बात है कि प्रेम के जन्म में सिवाय घृणा की मौजूदगी के और कोई बाधा नहीं है। घृणा न हो तो प्रेम खिलता है अपने आप। वह स्पाटेनियस है, वह सहज खिलता है। उसे खिलाने के लिए फिर और कुछ करना नहीं पड़ता। ठीक ऐसे ही जैसे किसी झरने के ऊपर एक पत्थर रखा हो और हम पत्थर को हटा लें और झरना फूट पड़े। ऐसे ही घृणा का पत्थर हमारे ऊपर है।
घृणा के पत्थर का क्या अर्थ होगा? हम दूसरों में स्वयं को नहीं देख पाते और स्वयं में दूसरों को भी नहीं देख पाते। न तो हमें दिखाई पड़ता है कि समस्त भूतों में हमारी ही छवि है और न हमें यह दिखाई पड़ता है कि समस्त भूत हम में भी छविमान हैं। न तो समस्त भूत हमारे लिए दर्पण बन पाते हैं कि हम अपने चेहरे को उनमें देखें। और न ही हम दर्पण बन पाते हैं कि समस्त भूतों का चेहरा हममें प्रतिफलित हो जाए। ये दोनों घटनाएं एक साथ घटती हैं। जो व्यक्ति समस्त भूतों में, समस्त प्राणियों में, समस्त अस्तित्व में अपने को देख लेगा, वह प्राणी अनिवार्यत: सबको अपने में भी देख पाएगा। जिसके लिए जगत दर्पण बन जाएगा, वह स्वयं भी जगत के लिए दर्पण बन जाता है। यह घटना एक ही साथ घटती है। एक ही घटना के दो पहलू हैं।
और उपनिषद कहता है कि ऐसा होते ही घृणा गिर जाती है।
तो फिर क्या पैदा होता है? अब प्रेम पैदा होता है, ऐसा उपनिषद ने नहीं कहा है। क्योंकि प्रेम शाश्वत है, वह हमारा स्वभाव है। वह न तो पैदा होता है, न मरता है। जैसे, वर्षा के दिन हैं और आकाश में बादल घिर गए हैं, सूरज ढंक गया। तो क्या हम यह कहेंगे कि जब बादल हट जाएंगे तो सूरज पैदा होगा? नहीं, तब हम इतना ही कहेंगे कि बादल हट जाएंगे तो सूरज तो सदा था, प्रगट होगा। बादल जब आ गए हैं तब भी सूरज नष्ट नहीं हो गया है, सिर्फ दब गया, आच्छादित हो गया। दिखाई नहीं पड़ता, छिप गया, आडू में हो गया। बादल हट जाएंगे, सूरज प्रगट हो जाएगा। बादलों का जन्म होता है और बादलों की मृत्यु होती है — सूरज सदा है। उसका न कोई जन्म होता है, न मृत्यु होती है।
प्रेम है जीवन का स्वभाव, इसलिए प्रेम का कोई जन्म नहीं है, कोई मृत्यु नहीं है। घृणा के बादल जन्मते हैं और मरते हैं। जन्म जाते हैं तो प्रेम आच्छादित हो जाता है। विसर्जित हो जाते हैं, मर जाते हैं, तो प्रेम प्रगट हो जाता है। लेकिन प्रेम शाश्वत है। इसलिए प्रेम के जन्मने की बात उपनिषद नहीं कर रहा है। उपनिषद कह रहा है, बस घृणा मर जाती है, घृणा गिर जाती है।
पर कैसे?
सूत्र तो सरल दिखाई पड़ता है, इतना सरल नहीं है। बहुत बार जो चीजें बहुत कठिन दिखाई पड़ती हैं, कठिन नहीं होती हैं। बहुत बार जो चीजें बहुत सरल दिखाई पड़ती हैं, सरल नहीं होती हैं। अधिकांशत: तो सरलता के भीतर बहुत गहराई होती है और बहुत जटिलता होती है।
अब यह सूत्र सीधा सा है। दो पंक्तियों में पूरा हो गया है कि जिसे समस्त भूतों में स्वयं का दर्शन हो जाए, या समस्त भूतों का दर्शन स्वयं में होने लगे, उसकी घृणा नष्ट हो जाती है। लेकिन सबको दर्पण बना लेना या सबके लिए स्वयं दर्पण बन जाना, सबसे बड़ी कीमिया और कला है। उससे बड़ी कोई आर्ट नहीं।
सुनी है मैंने एक छोटी सी कहानी, वह मैं आपसे कहूं। सुना है मैंने कि एक ईरानी बादशाह के दरबार में एक चीनी चित्रकार ने निवेदन किया कि मैं चीन से आया हूं। बहुत बड़ी कला का धनी हूं। चित्र बना सकता हूं ऐसे, जैसे कि आपने कभी न देखे हों। सम्राट ने कहा, जरूर बनाओ। लेकिन हमारे दरबार में चित्रकारों की कमी नहीं है और बहुत अनूठे चित्र मैंने देखे हैं। उस चीनी चित्रकार ने कहा तो मैं प्रतियोगिता के लिए भी तैयार हूं।
जो श्रेष्ठतम कलाकार था सम्राट के दरबार का, वह प्रतियोगिता के लिए चुना गया। और सम्राट ने कहाकि पूरी शक्ति लगाना है, यह साम्राज्य की प्रतिष्ठा का सवाल है। एक परदेशी तुम्हें हरा न जाए। छह महीने का उन्हें समय मिला था।
ईरानी चित्रकार बड़ी मेहनत में लग गया। दस—बीस सहयोगियों को लेकर उसने एक भवन की पूरी दीवार को चित्रों से भर डाला। उसकी मेहनत की खबर दूर—दूर तक पहुंच गई। लोग दूर—दूर से उसकी मेहनत को देखने आने लगे। लेकिन उससे भी ज्यादा चमत्कार: की बात तो यह थी कि वह चीनी चित्रकार ने कहा कि मुझे किसी उपकरण की जरूरत नहीं और न रंगों की कोई जरूरत है। सिर्फ मेरा इतना ही आग्रह है कि जब तक चित्र पूरा न बन जाए तब तक मेरी दीवार के सामने से पर्दा नहीं उठाया जा सके।
वह रोज अपने पर्दे के पीछे चला जाता। सांझ को थका—मादा लौटता, माथे पर पसीने की बूंदें होतीं। लेकिन बड़ी कठिनाई और बड़ी हैरानी और बड़ी अचंभे की बात यह थी कि वह न तो तूलिका ले जाता, न रंग ले जाता पर्दे के पीछे। उसके हाथों में रंग के कोई निशान न होते। उसके कपड़ों पर रंग के कोई दाग न होते। उसके हाथ में कोई तूलिका न होती। सम्राट को शक होने लगा कि वह पागल तो नहीं है! क्योंकि प्रतियोगिता होगी कैसे? लेकिन छह महीने प्रतीक्षा करनी जरूरी थी। शर्त पूरी करनी जरूरी थी।
छह महीने बडी मुश्किल से कटे। दूर—दूर तक ईरानी चित्रकार के चित्रों की खबर पहुंवी। साथ ही यह खबर भी पहुंची कि एक पागल प्रतियोगी भी है, जो बिना किसी रंग के प्रतियोगिता कर रहा है। छह महीने लोग ऐसी आतुरता से प्रतीक्षा किए कि जिसका कोई हिसाब नहीं। वह छह महीने बाद पर्दा उठने को था।
सम्राट गया। ईरानी चित्रकार के चित्र देखकर वह दंग हो गया। बहुत चित्र उसने जीवन में देखे थे। लेकिन नहीं, ऐसा श्रम शायद ही कभी किया गया हो! फिर उसने चीनी चित्रकार से कहा। चीनी चित्रकार ने अपनी दीवार के सामने का पर्दा हटा दिया। सम्राट तो बहुत हैरान हो गया। ठीक वही चित्र! जो ईरानी चित्रकार ने बनाया था, वही चित्र चीनी चित्रकार ने भी बनाया था। पर एक और खूबी थी कि वह चित्र दीवार के ऊपर नहीं, दीवार के भीतर बीस फीट अंदर दिखाई पड़ता था। सम्राट ने पूछा, तुमने किया क्या है! क्या जादू है?
उसने कहा, मैंने कुछ किया नहीं। मैं सिर्फ दर्पण बनाने में कुशल हूं। तो मैंने दीवार को दर्पण बनाया। वह छह महीने दीवार को घिस—घिसकर मैंने दर्पण बनाया। और जो चित्र आप देख रहे हैं दीवार में, वह तो ईरानी चित्रकार का ही है सामने की दीवार पर। मैंने सिर्फ दीवार दर्पण बनाई है।