Saturday 24 January 2015

जीवन दो भांति जीया जा सकता है-एक मालिक की तरह, एक गुलाम की तरह। और गुलाम की तरह जो जीवन है, वह नाममात्र को ही जीवन है। उसे जीवन कहना भी गलत है। बस दिखाई पड़ता हे जीवन जैसा, आभास होता है जीवन जैसा। जैसे एक सपना देखा हो। आशा में ही होता है गुलाम का जीवन। मिलेगा, मिलता कभी नहीं। आ रहा है, आता कभी नहीं। गुलाम का जीवन बस जाता है, आता कभी नहीं।
गुलाम के जीवन का शास्त्र समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जो उसे न समझ पाया, वह मालिक के जीवन को निर्मित न कर पाएगा। दोनों के शास्त्र अलग हैं। दोनों की व्यवस्थाएं अलग हैं। गुलाम के जीवन के शास्त्र का नाम ही संसार है। मालिक और मालकियत के जीवन का नाम ही धर्म है। एस धम्मो सनंतनो। वही सनातन धर्म का सूत्र है।
मालिक से अर्थ है, ऐसे जीना जैसे जीवन अभी और यहीं है। कल पर छोड़कर नहीं, आशा में नहीं, यथार्थ में। मालिक के जीवन का अर्थ है, मन गुलाम हो, चेतना मालिक हो। होश मालिक हो, वृत्तियां मालिक न हों। विचारों का उपयोग किया जाए, विचार तुम्हारा उपयोग न कर लें। विचारों को तुम काम में लगा सको, विचार तुम्हें काम में न लगा दें। लगाम हाथ में हो जीवन की। और जहां तुम जीवन को ले जाना चाहो, वहीं जीवन जाए। तुम्हें मन के पीछे घसिटना न पड़े।

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