Tuesday 31 March 2015

चूकने न चूकने की भाषा ही लोभ की भाषा है। लोभ छोड़ो। मेरे साथ उत्सव में सम्मिलित रहो। ‘चूक जाऊंगा’—इसका मतलब हुआ कि तुम लोभ की भाषा से देख रहे हो। सब सम्हाल लूं सब मिल जाए, सब पर मुट्ठी बांध लूं सब मेरी तिजोरी में हो जाए; धन भी हो वहां, ध्यान भी हो वहां; संसार भी हो, परमात्मा भी हो—ऐसा लोभ तुमने अगर रखा तो निश्चित चूक जाओगे। चूकोगे—लोभ के कारण। यह चूकने न चूकने की भाषा छोड़ो।
यहां मैं तुम्हें कुछ दे नहीं रहा हूं। यहां मैं तुमसे कुछ छीन रहा हूं। और यहां मैं तुम्हें कुछ ज्ञान देने नहीं बैठा हूं। तुम मेरे साथ उत्सव में थोड़ी देर सम्मिलित हो जाओ, मेरे साथ गुनगुना लो। तुम थोड़ी दूर मेरे साथ चलो। दो कदम मेरे साथ चल लो, बस इतना काफी है।
तुम्हें एक दफा स्वाद लग जाए परम का, फिर कोई भय नहीं है। फिर मैं यहां रहूं न रहूं—कोई चिंता नहीं है। मेरे रहते तुम्हें थोड़ा—सा स्वाद लग जाए।
तो तुम यह चूकने, खोने इत्यादि की बातें छोड़ो। इनमें तुम उलझे रहे तो तुम मेरे उत्सव में सम्मिलित न हो पाओगे। चाह तो ठीक है, लेकिन लोभ से जुड़ी है, इसलिए गलत हुई जा रही है। चाहतीं किरणें धरा पर फैल जाना चाहतीं कलिया चटख कर महमहाना फूल से हर डाल सजना चाहती है प्राण की यह बीन बजना चाहती है।
चाहतीं चिड़िया वसती गीत गाना पत्तियां संदेश मधु ऋतु का सुनाना वायु ऋतुपति नाम भजना चाहती है प्राण की यह बीन बजना चाहती है।
ठीक है, भाव तो बिलकुल ठीक है। सिर्फ लोभ की दृष्टि से उसे मुक्त कर लो।
इसी क्षण मैं यहां हूं तुम भी मेरे साथ रहो। यह हिसाब—किताब मन में मत बांधो कि सम्हाल लूं यह पकड़ लूं यह पकडूं न पकडुं यह समझ में आया कि नहीं आया। छोड़ो, समझ इत्यादि का कोई सवाल नहीं है। उत्सव, महोत्सव में सम्मिलित हो जाओ! तुम मेरे साथ सिर्फ बैठो। तुम सिर्फ मेरे साथ हो रहो, सत्संग होने दो! थोड़ी देर को तुम मिट जाओ। यहां तो मैं नहीं हूं र अगर वहां तुम थोड़ी देर को मिट जाओ..। वह लोभ न मिटने देगा। वह लोभ खड़ा रहेगा कि कैसे पकडुं कैसे इकट्ठा करूं। थोड़ी देर को तुम मिट जाओ! तुम कोरे और शून्य हो जाओ। उसी क्षण जो भी मैं हूं उसका स्वाद तुम्हें लग जाएगा। और वह स्वाद तुम्हारे ही भविष्य का स्वाद है।
मैं यहां मौजूद हूं। तुम्हें किसी से पूछने की कोई जरूरत नहीं है। मुझसे भी पूछने की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ मेरे साथ क्षण भर को गुनगुना लो। मेरे अस्तित्व के साथ थोड़ी देर को रास रचा लो। नहीं चूकोगे। लेकिन अगर चूकने न चूकने की भाषा में उलझे रहे, तो चूक रहे हो, चूकते रहे हो और निश्चित ही चूक जाने वाले हो।

Monday 30 March 2015

जैसे सजगता बढ़ेगी, संवेदनशीलता भी बढ़ेगी। साधारणत: तो हम एक तरह की धुंध में रहते हैं—बेहोश, मूर्च्छित। जैसे एक आदमी शराब पीए पड़ा है नाली में, तो उसे नाली की बदबू थोड़े ही आती है। तुम्हें लगता है कि नाली में पड़ा है बेचारा। मगर वे तो बड़े मजे से पड़े हैं। हो सकता है कि सपना देख रहे हों, महल में विश्राम कर रहे हैं। कि राष्ट्रपति हो गए हैं, दरबार लगाए बैठे हों!
तुम्हें लगता है कि कीचड़ में, बदबू में पड़ा है। मुंह में कीचड़ चली जा रही है। नाक के पास नाली बह रही है। बड़ी दुर्गंध इसे आती होगी। लेकिन वह बेहोश पड़ा है। दुर्गंध वगैरह आने के लिए थोड़ा होश चाहिए। हां, सुबह जब आंख खुलेगी उसकी और होश आएगा, तो झाड—झकाडू कर भागेगा घर; स्नान— ध्यान करके, चंदन—मंदन लगा कर, पूजा—पाठ करके तैयार हो कर बैठकखाने में बैठ जाएगा। तब तुम उससे कहो कि जरा नाली में चल कर लेट जाओ, असंभव हो जाएगा। क्योंकि अब सब इंद्रियां सजग होंगी।
ऐसी ही घटना घटती है। जैसे—जैसे सजगता बढ़ती है, तुम्हारे जीवन की बहुत—सी नालियां जिनको तुम अब तक स्वर्ग समझ कर जी रहे थे, दुर्गंधयुक्त हो जाती हैं। बहुत—से सुख जिन्हें तुम अब तक सुख समझते थे, दुख जैसे मालूम होने लगते हैं, चुभने लगते हैं। इसलिए सजगता बढ़ने के साथ एक उपद्रव बढ़ता है। वह उपद्रव है कि आदमी बहुत संवेदनशील, कोमल हो जाता है। एक गहन कोमलता उसे घेर लेती है।
लेकिन यह मार्ग पर ही है बात। जैसे —जैसे सजगता परिपूर्णता पर पहुंचती है, पहले आदमी की जड़ता टूटती है, संवेदनशीलता बढ़ती है। फिर एक ऐसी घड़ी आती है—सजगता की आखिरी छलांग—जब जाग इतनी गहन हो जाती है कि शरीर और मन दूर हो जाते हैं। फिर कोई संवेदनशीलता कष्ट नहीं देती, दुख नहीं देती। बोध तो होता है। अगर बुद्ध को काटा लगेगा तो तुमसे ज्यादा बोध होता है। क्योंकि बुद्ध का बोध प्रगाढ़ है। तुम्हारा बोध तो कुछ भी नहीं है।
देखा कभी हाकी के मैदान पर खेलते—खेलते खिलाड़ी के पैर में चोट लग गई, खून बह रहा है, मगर वह खेलता चला जाता है! उसे पता नहीं। सब देखने वालों को दिखाई पड़ रहा है कि पैर से खून बह रहा है, खून की कतार बन गई है मैदान पर। उसे पता नहीं है। वह खेल में मस्त है, बेहोश है। होश कहां उसे अपने शरीर का! जैसे ही खेल बंद होगा, रेफरी की सीटी बजेगी, तन्धण दुख होगा, दर्द होगा, बैठ जाएगा पैर पकड़ कर। कहेगा कि हाय, पता नहीं कब से चोट लगी है! अब उसे दुख होगा। इतनी देर भी दुख तो था, लेकिन बोध नहीं था।
तो पहली दफा जब तुम्हारे जीवन में ध्यान आएगा तो बहुत—सा बोध आएगा। उस बोध के साथ—साथ जो—जो गलत तुम अब तक कर रहे थे, उस सबकी संवेदनशीलता आएगी। जरा—सा तुम
क्रोध करोगे और तुम्हारे प्राण कैप जाएंगे। जरा—सी तुम ईर्ष्या करोगे और जहर फैल जाएगा। जरा—सी तुम घृणा करोगे और तुम अनुभव करोगे जैसे अपनी ही छाती में छुरा भोंक लिया। तो कठिन होगा। लेकिन इस कठिनाई से भागना मत और घबराना मत।
हृदय छोटा हो तो शोक वहां नहीं समाएगा। और दर्द दस्तक दिये बिना दरवाजे से लौट जाएगा। टीस उसे उठती है जिसका भाग्य खुलता है। वेदना गोद में उठा कर सबको निहाल नहीं करती। जिसका पुण्य प्रबल होता है, वही अपने आंसुओ से धुलता है।
दर्द तो बढ़ेगा, पीड़ा बढ़ेगी, बोध बढ़ेगा। लेकिन यह संक्रमण में होगा। एक घड़ी आएगी, छलांग लगेगी। सौ डिग्री पर जैसे पानी भाप बन जाता है और और छलांग लग जाती है—ऐसे सौ डिग्री पर जब होश आता है, एक छलांग लग जाती है। तत्क्षण तुम पाते हो कि तुम्हारा शरीर और मन पीछे छूट गया। सब सुख—दुख वहीं थे, इंद्रियों में थे। अब तुम पार हो गए। तुम दूर हो गए। अब तुम्हारा सारा तादात्म्य समाप्त हो गया।
लेकिन इस घड़ी के आने के पहले बोध के साथ—साथ दुख भी बढ़ेगा।
संस्कृत में बड़ा प्यारा शब्द है. वेदना। उसके दोनों अर्थ होते हैं : दुख और बोध।’वेद’ उसी धातु से बना है जिससे’वेदना’। वेद का अर्थ होता है : ज्ञान, बोध।’वेदना’ का अर्थ होता है : ज्ञान, बोध। और दूसरा अर्थ होता है. दुख, पीड़ा।
संस्कृत बहुत अनूठी भाषा है। उसके शब्दों का विश्लेषण बड़ा बहुमूल्य है। क्योंकि जिन्होंने उस भाषा को रचा है, बहुत जीवन की गहन अनुभूतियों के आधार पर रचा है। जैसे—जैसे बोध बढ़ता है, दुख बढ़ता है। अगर दुख के बढ़ने से घबरा गए तो एक ही उपाय है. बोध को छोटा कर लो। वही तो हम करते हैं। सिर में दर्द हुआ, एस्प्रो ले लो! एस्प्रो करेगी क्या? दर्द को थोड़े ही मिटाती है, सिर्फ बोध को क्षीण कर देती है, तंतुओं को शिथिल कर देती है, तो दर्द का पता नहीं चलता। ज्यादा तकलीफ है, पत्नी मर गई, शराब पी लो! दिवाला निकल गया, शराब पी लो। बोध को कम कर लो, तो वेदना कम हो जाएगी।
बहुत—से लोगों ने यही खतरनाक तरकीब सीख ली है। जीवन में दुख बहुत है, उन्होंने बोध को बिलकुल नीचा कर लिया है : न होगा बोध, न होगी पीड़ा। लेकिन यह बड़ा महंगा सौदा है। क्योंकि बोध के बिना तुम्हारा बुद्धत्व कैसे फलेगा, तुम्हारा फूल कैसे खिलेगा? कैसे बनोगे कमल के फूल फिर? यह सहस्रार अनखुला ही रह जाएगा।
घबड़ाओ मत, इस पीड़ा को स्वीकार करो। इस पीड़ा की स्वीकृति को ही मैं तपश्चर्या कहता हूं। तपश्चर्या मेरे लिए यह अर्थ नहीं रखती है कि तुम उपवास करो, धूप में खड़े रहो, पानी में खड़े रहो—उन मूढताओं का नाम तपश्चर्या नहीं है। तपश्चर्या का इतना ही अर्थ है : बोध के बढ़ने के साथ वेदना बढ़ेगी, उस वेदना से डरना मत; उसे स्वीकार कर लेना कि ठीक है, यह बोध के साथ बढ़ती है। थोड़े दूर तक बोध के साथ वेदना बढ़ती रहेगी। फिर एक घड़ी आती है, बोध छलांग लगा कर पार हो जाता है, वेदना पीछे पड़ी रह जाती है। जैसे एक दिन सांप अपनी पुरानी केंचुली के बाहर निकल जाता है, ऐसे एक दिन वेद वेदना की केंचुली के बाहर निकल जाता है। बोध वेदना के पार चला जाता है।
लेकिन मार्ग पर पीड़ा है। उसे स्वीकार करो। उसे इस तरह स्वीकार करो कि वह भी उपाय है तुम्हारे बोध को जगाने का।
तुमने कभी खयाल किया, जब तुम सुख में होते हो, भगवान भूल जाता है; जब तुम दुख में होते हो, तब याद आता है! तो दुख का भी कुछ उपयोग है।

Sunday 29 March 2015

 जिसके सुख—दुख के अनुभव समाप्त हो गए, वह दूसरे के सुख—दुख से भी प्रभावित नहीं होता। तुम्हें कठिनाई होगी यह बात सोच कर, क्योंकि तुम सोचते हो कि उसे तो बहुत प्रभावित होना चाहिए तुम्हारे सुख—दुख से। नहीं, उसे तो दिखाई पड़ गया कि सुख—सुख होते ही नहीं हैं। तो तुम्हारा सुख—दुख देख कर तुम पर दया आती है, लेकिन सुखी—दुःखी नहीं होता। सिर्फ दया आती है कि तुम अभी भी सपने में पड़े हो!
ऐसा समझो कि दो आदमी सोते हैं, एक ही कमरे में, दोनों दुख—स्वप्न में दबे हैं, दोनों बड़ा नारकीय सपना देख रहे हैं। एक जग गया। निश्चित ही जो जग गया अब उसे सपने के सुख—दुख व्यर्थ हो गए। क्या तुम सोचते हो दूसरे को पास में बड़बड़ाता देख कर, चिल्लाता देख कर, उसकी बात सुन कर कि वह कह रहा है,’हटो, यह राक्षस मेरी छाती पर बैठा है,’ यह दुखी—सुखी होगा? यह हंसेगा और दया करेगा। यह कहेगा कि पागल! यह अभी भी सपना देख रहा है। यह इसके राक्षस को हटाने की कोशिश करेगा कि इसकी छाती पर राक्षस न हो? राक्षस तो है ही नहीं, हटाओगे कैसे? हटाने के लिए तो होना चाहिए। यह तो देख रहा है कि सज्जन अपनी ही मुट्ठी बांधे छाती पर, पड़े हैं। और गुनगुना रहे हैं कि राक्षस बैठा है, यह रावण बैठा दस सिर वाला मेरे ऊपर! इसको हटाओ!
यह जो जाग गया है, क्या करेगा? यह इस आदमी को भी जगाने की कोशिश करेगा। इसके दुख को हटाने की नहीं—इसको जगाने की। फर्क साफ समझ लेना। जब बुद्ध तुम्हें दुखी देखते हैं, तो तुम्हारे दुख को मान नहीं सकते कि है; क्योंकि वे तो जानते हैं दुख हो ही नहीं सकता, भ्रांति है। तुम्हें जगाने की कोशिश करते हैं। तुम्हें भागते देख कर कि तुम रस्सी को सांप समझ कर भाग रहे हो, वे एक दीया ले आते हैं। वे कहते हैं, जरा रुको तो, जरा इस सांप को गौर से तो देखें, है भी? उस प्रकाश में रस्सी तुम्हें भी दिखाई पड़ जाती है, तुम भी हंसने लगते हो।
ज्ञानी पुरुष तुम्हारे सुख—दुख से जरा भी प्रभावित नहीं होता। और जो प्रभावित होता हो, वह ज्ञानी नहीं है। यद्यपि तुम्हारे सुख—दुख से दया उसे जरूर आती है। कभी—कभी हंसता भी है—देख कर सपने का बल, व्यर्थ का बल; देख कर झूठ का बल!
ज्ञानी पुरुष तुम्हें सुख—दुख में डूबा देख कर जानता है कि तुम अभी भी सोये सपना देख रहे हो। छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन यश है न वैभव है मान है न सरमाया जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन छाया मत छूना मन होगा दुख दूना मन।
तुम्हारे सब दुख छाया, झूठे हैं, माया! बुद्धपुरुष को, समाधिस्थ पुरुष को जो यथार्थ है, दिखाई पड़ता है। जिसे अपना यथार्थ दिखाई पड़ गया, उसे सबका यथार्थ दिखाई पड़ जाता है। फिर भी तुम पर दया करता है—दया करता है कि तुम अभी भी सोये हो। दया करता है, क्योंकि कभी वह भी सोया था। और जानता है कि तुम्हारी पीडा गहन है, झूठी है, फिर भी गहन है। जानता है, तुम तड़प रहे हो; माना कि जिससे तुम तड़प रहे हो वह है नहीं। क्योंकि वह भी तड़पा है। वह भी कभी ऐसा ही रोया है, गिड़गिड़ाया है। वह पहचानता है।
वह भी कभी खेल—खिलौनों से खेला है। कभी गुडियाएं टूट गयी हैं, कभी विवाह रचाते—रचाते नहीं रच पाया है तो बड़े दुख हुए हैं। कभी बना—बना कर तैयार किया था ताश का महल, हवा का झोंका आया है और गिरा गया है, तो बच्चे की आंखों से झर—झर आंसू झरे हैं, ऐसे आंसू उसको भी झरे थे। वह जानता है। वह पहचानता है। वह भलीभांति तुम्हारे दुख में सहानुभूति रखता है। लेकिन फिर भी हंसी तो उसे आती है, क्योंकि बात तो झूठी है। है तो सपना ही। भला तुम्हारे सामने हंसे न; सौजन्यतावश, सज्जनतावश तुम्हें थपथपाये भी; तुमसे कहे भी कि बड़ा बुरा हुआ, होना नहीं था—लेकिन भीतर हंसता है।

Saturday 28 March 2015

जो जानते हैं, वे वही नहीं कहते—जो जानते हैं। क्योंकि जो जाना जाता है जीवन की आत्यंतिक गहराई में उसे तो सतह पर ला कर शब्द नहीं दिये जा सकते। जो जाना जाता है वह तो कभी कहा नहीं जाता। उसे कहा ही नहीं जा सकता। शब्द बड़े संकीर्ण और बड़े छोटे हैं। फिर भी जानने वाले कुछ कहते हैं। वे क्या कहते हैं? और जब वे कुछ कहते हैं तो तुम यह मत खयाल करना कि वे सत्य के संबंध में कुछ कहते हैं। वे असल में तुम्हारे और सत्य के संदर्भ में कुछ कहते हैं। इस भेद को समझ लेना।
महावीर ने सत्य को जाना, बुद्ध ने सत्य को जाना। अष्टावक्र ने सत्य को जाना। लेकिन जब वे बोलते हैं तो सत्य उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना सुनने वाला महत्वपूर्ण होता है। वे सुनने वाले से बोलते हैं, अन्यथा बातचीत व्यर्थ हो जाएगी। वे तुम्हारे संदर्भ में बोलते हैं। निश्चित ही जनक अलग तरह का श्रोता है; अर्जुन से बहुत भिन्न है। अगर जनक होता कृष्ण के सामने तो कृष्ण ने भी अष्टावक्र—गीता ही कही होती। और अगर अष्टावक्र के सामने अर्जुन होता तो अर्जुन से भी अष्टावक्र ने जो कहा होता वह कृष्ण की गीता से भिन्न नहीं होता।
ऐसा समझो, जब किसी शानी पुरुष के सामने कोई खड़ा होता है पूछने, अगर यह व्यक्ति बहुत अहंकारी है तो ज्ञानी पुरुष कहेगा. ऐसे जीओ जैसे भाग्य से सब तय है। क्योंकि इसके अहंकार की बीमारी से यह ग्रसित है। इसे इसके अहंकार से नीचे उतारना है। तो उस ज्ञान की शून्यता से एक आवाज उठेगी ’दैव, भाग्य! तुम्हारे किए कुछ भी नहीं होता।’ क्योंकि अहंकारी को तो यह लगता है, मेरे किए ही सब हो रहा है; मैं करने वाला हूं। उसके अहंकार के पीछे कर्ता ही तो छिपा है। तो सदगुरु कर्ता को खिसकाने लगेगा। एक दफा कर्ता हट गया तो अहंकार ऐसे गिर जाता है, जैसे ताश के पत्तों का घर।
लेकिन अगर पूछने वाला आलसी है, तामसी है—अहकारी नहीं, राजसी नहीं, तामसी है, सुस्त है, अकर्मण्य है और कहता है, जो होना है सो होगा, अपने किये क्या होता; और बैठा रहता है गोबर—गणेश बना—तो ज्ञानी पुरुष उसके संदर्भ में बोलेगा। वह कहेगा’ उठो, पुरुषार्थ के बिना कभी कुछ नहीं होता। कुछ करो! ऐसे बैठे—बैठे—बैठे गंवाओ मत! थोड़ा हलन—चलन लाओ जीवन में! थोड़ी ऊर्जा को जगाओ। ऐसे बैठे—बैठे परमात्मा न मिलेगा : यात्रा पर निकलो।’
क्यों?
अगर भाग्य की बात यह अज्ञानी सुन ले तो उस भाग्य की बात को सुन कर यह तो बड़ा निश्चित हो जाएगा। यह तो कहेगा यही तो हम कहते थे। तो हम तो शान को उपलब्ध ही हैं। हम तो कुछ करते नहीं, बैठे रहते हैं। घर के लोग पीछे पड़े हैं, नासमझ हैं! कोई कहता है, नौकरी करो; कोई कहता है, धंधा करो; कोई कहता है कुछ करो—मगर हम तो अपने शांत बैठे रहते हैं।

Friday 27 March 2015

मंत्र तो मन का ही खेल है। मंत्र शब्द का भी यहीं अर्थ है, मन का जाल, मन का फैलाव। मंत्र से मुक्त होना है, क्योंकि मन से मुक्त होना है। मन न रहेगा तो मंत्र को सम्हालोगे कहां? और अगर मंत्र को सम्हालना है तो मन को बचाये रखना होगा।
निश्चय ही मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया। नहीं चाहता कि तुम्हारा मन बचे। तुमसे मंत्र छीन रहा हूं। तुम्हारे पास वैसे ही मंत्र बहुत हैं। तुम्हारे पास मंत्रों का तो बड़ा संग्रह है। वही तो तुम्हारा सारा अतीत है। बहुत तुमने सीखा। बहुत तुमने ज्ञान अर्जित किया। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई ईसाई है। किसी का मंत्र कुरान में है, किसी का मंत्र वेद में है। कोई ऐसा मानता, कोई वैसा मानता। मेरी सारी चेष्टा इतनी ही है कि तुम्हारी सारी मान्यताओं से तुम्हारी मुक्ति हो जाए। तुम न हिंदू रहो, न मुसलमान, न ईसाई। न वेद पर तुम्हारी पकड़ रहे, न कुरान पर। तुम्हारे हाथ खाली हो जायें। तुम्हारे खाली हाथ में ही परमात्मा बरसेगा। रिक्त, शून्य चित्त में ही आगमन होता परम का; द्वार खुलते हैं।
तुम मंदिर हो। तुम खाली भर हो जाओ तो प्रभु आ जाए। उसे जगह दो। थोड़ा स्थान बनाओ। अभी तुम्हारा घर बहुत भरा है—कूडे —कर्कट से, अंगड—खंगड से। तुम भरते ही चले जाते हो। परमात्मा आना भी चाहे तो तुम्हारे भीतर अवकाश कहां? किरण उतरनी भी चाहे तो जगह कहां? तुम भरे हो। भरा होना ही तुम्हारा दुख है। खाली हो जाओ! यही महामंत्र है। इसलिए मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया, क्योंकि मैं तुम्हें किसी मंत्र से भरना नहीं चाहता। मन से ही मुक्त होना है। लेकिन अगर मंत्र शब्द से तुम्हें बहुत प्रेम हो और बिना मंत्र के तुम्हें अड़चन होती हो, तो इसे ही तुम बता दिया करो कि मन से खाली हो जाने का सूत्र दिया है; साक्षी होने का सूत्र दिया है।
कुछ रटने से थोड़े ही होगा कि तुम राम—राम, राम—राम दोहराते रहो तो कुछ हो जाएगा। कितने तो हैं दोहराने वाले! सदियों से दोहरा रहे हैं। उनके दोहराने से कुछ भी नहीं हुआ। दोहराओगे कहां से? दोहराना तो मन के ही यंत्र में घटता है। चाहे जोर से दोहराओ, चाहे धीरे दोहराओ—दोहराता तो मन है। हर दोहराने में मन ही मजबूत होता है। क्योंकि जिसका तुम प्रयोग करते हो वही शक्तिवान
हो जाता है।
मैं तुम्हें कह रहा हूं कि साक्षी बनो। ये मन की जो प्रक्रियाएं हैं, ये जो मन की तरंगें हैं, तुम इनके द्रष्टा बनो। तुम इन्हें बस देखो। तुम इसमें से कुछ भी चुनो मत।
कोई फिल्मी गीत गुनगुना रहा है, तो तुम कहते : अधार्मिक; और कोई भजन गा रहा है तो तुम कहते हो : धार्मिक! दोनों मन में हैं—दोनों अधार्मिक। मन में होना अधर्म में होना है। उस तीसरी बात को सोचो जरा। खड़े हो, मन चाहे फिल्मी गीत गुनगुनाए और चाहे राम—कथा—तुम द्रष्टा हो। तुम सुनते हो, देखते हो, तुम तादात्म्य नहीं बनाते। तुम मन के साथ जुड़ नहीं जाते। तुम्हारी दूरी, तुम्हारी असंगता कायम रहती है। तुम देखते हो मन को ऐसे ही जैसे कोई राह के किनारे खड़े हुए चलते हुए लोगों को देखे. साइकिलें, गाड़ियां, हाथी—घोड़े, कारें, ट्रक, बसें.। तुम राह के किनारे खड़े देख रहे हो। तुम द्रष्टा हो।
अष्टावक्र का भी सारा सार एक शब्द में है—साक्षी।
मंत्र तो बोलते ही तुम कर्ता हो जाओगे। बड़ा सूक्ष्म कर्तृत्व है, लेकिन है तो! मंत्र पढ़ोगे, प्रार्थना करोगे, पूजा करोगे—कर्ता हो जाओगे। बात थोड़ी बारीक है। थोड़ा प्रयोग करोगे तो ही स्वाद आना शुरू होगा।
जो चल रहा है, जो हो रहा है, वही काफी है; अब और मंत्र जोड्ने से कुछ अर्थ नहीं है। इसी में जागो। इसको ही देखने वाले हो जाओ। इससे संबंध तोड़ लो। थोड़ी दूरी, थोड़ा अलगाव, थोड़ा फासला पैदा कर लो। इस फासले में ही तुम देखोगे मन मरने लगा। जितना बड़ा फासला उतना ही मन का जीना मुश्किल हो जाता है। जब तुम मन का प्रयोग नहीं करते तो मन को ऊर्जा नहीं मिलती। जब तुम मन का सहयोग नहीं करते तब तुम्हारी शक्ति मन में नहीं डाली जाती। मन धीरे— धीरे सिकुड़ने लगता है। यह तुम्हारी शक्ति से मन फूला है, फला है। तुम्हीं इसे पीछे से सहारा दिये हो। एक हाथ से सहारा देते हो, दूसरे हाथ से कहते हो. कैसे छुटकारा हो इस दुख से? इस नर्क से? तुम सहारा देना बंद कर दो, इतना ही साक्षी का अर्थ है।
मन को चलने दो अपने से, कितनी देर चलता है? जैसे कोई साइकिल चलाता है, तो पैडल मारता तो साइकिल चलती है। साइकिल थोड़े ही चलती है, वह जो साइकिल पर बैठा है, वही चलता है। साइकिल को सहारा देता जाता है, साइकिल भागी चली जाती है। तुम पैडल मारना बंद कर दो, फिर देखें साइकिल कितनी देर चलती है! थोड़ी—बहुत चल जाए, दस—पचास कदम, पुरानी दी गयी ऊर्जा के आधार पर; लेकिन ज्यादा देर न चल पाएगी, रुक जाएगी। ऐसा ही मन है।
मंत्र का तो अर्थ हुआ पैडल मारे ही जाओगे। पहले भजन या फिल्म का गीत गुनगुना रहे थे, अब तुमको किसी ने मंत्र पकड़ा दिया—दोहराओ ओम, राम—उसे दोहराने लगे, दोहराना जारी रहा। पैडल तुम मारते ही चले जाते हो। प्रक्रिया में जुड़ जाना मन की, मन को बल देना है।
तो अगर तुम्हें मंत्र शब्द बहुत प्रिय हो तो यही तुम्हारा मंत्र है, महामंत्र, कि मन से पार हो कर साक्षी बन जाना है। और जिन संन्यासियों की तुम बात कर रहे हो, पुराने ढब के संन्यासी, उनसे थोड़े सावधान रहना। वैसा संन्यास सड़ा—गला है। वैसा संन्यास बड़े धोखे और प्रवंचना से भरा है। वैसा संन्यास एक शोषण है।

Thursday 26 March 2015

तुम्हें पता भी न चलेगा कि कब किस अज्ञात क्षण में, बिना कोई खबर दिये अतिथि की भांति परमात्मा द्वार पर दस्तक दे देता है।
धर्म के इतने जाल की जरूरत नहीं है, अगर तुम सहज हो। क्योंकि सहज होना यानी स्वाभाविक होना, स्वाभाविक होना यानी धार्मिक होना। महावीर ने तो धर्म की परिभाषा ही स्वभाव की है बत्यु सहावो धम्मो! जो वस्तु का स्वभाव है, वही धर्म है। जैसे आग का धर्म है जलाना, पानी का धर्म है नीचे की तरफ कहना—ऐसा अगर मनुष्य भी अपने स्वभाव में जीने लगे तो बस हो गयी बात। कुछ करना नहीं है। सहज हो गये कि सब हो गया।
राम जी, भले आए ऐसे ही आधी की ओट में चले आए!
बिन बुलाए! आए, पधारी! सिर आंखों पर बंदना सकासे!
ऐसे ही एक दिन डोलता हुआ आ धमकूगा मैं तुम्हारे दरबार में औचक क्या ले सकोगे अपनी करुणा के पसार में?
राम जी, भले आए! ऐसे ही आधी की ओट में चले आए! बिन बुलाए!
आए, पधारो! सिर आंखों पर बंदना सकासे!
परमात्मा ऐसे ही आता है, चुपचाप, पगध्वनि भी सुनायी नहीं पड़ती। कोई शोरगुल नहीं होता। योग, तप—जप, कोई जरूरत नहीं पड़ती—अगर तुम सहज हो जाओ; अगर तुम शांत, आनंदमग्न जीने लगो। और आनंदमग्न जीने का एक ही उपाय है: अपेक्षाएं पूरी करने मत लग जाना। जिनकी तुम अपेक्षाएं पूरी करोगे, उन्हें तुम कभी प्रसन्न न कर पाओगे, यह और एक मजा है। तुम अपने को विकृत कर लोगे और वे कभी प्रसन्न न होंगे। क्योंकि तुम्हारे प्रसन्न हुए बिना वे कैसे प्रसन्न हो सकते हैं?
तुम अपेक्षाएं पूरी कर रहे हो तो तुम प्रसन्न तो हो ही नहीं सकते। जब तुम प्रसन्न नहीं हो तो तुम्हारे बच्चे प्रसन्न नहीं हो सकते। वे जानते हैं, जबर्दस्ती तुम कर रहे हो। तुम्हारे ढंग से पता चलता है। बाप कहते हैं बच्चों के सामने कि तुम्हारे लिए घसिट रहे हैं, मर रहे हैं, खप रहे हैं! यह कोई बात हुई? यह कोई प्रेम हुआ? यह तुम्हारा आनंद हुआ? यह तो आलोचना हुई। यह तो शिकायत हुई। यह तो तुम यह कह रहे हो कि न हुए होते पैदा तो अच्छा था, तुम्हारी वजह से यह सब झंझट हो रही है कि अब कर ली है शादी तो अब ठीक है। लेकिन इससे तुम्हारी पत्नी प्रसन्न होगी? और ये बच्चे तुमसे यह सीख रहे हैं। ये अपने बच्चों के साथ यही करेंगे। ऐसे भूलें दोहराई जाती हैं पीढ़ी—दर—पीढ़ी। तुम प्रसन्न हो जाओ!
तुम अगर काम कर रहे हो तो एक बात ईमानदारी से समझ लो कि तुम अपने आनंद के लिए कर रहे हो। बच्चों का उससे हित हो जाएगा, यह गौण है, यह लक्ष्य नहीं है। तुम्हारी पत्नी को वस्त्र और भोजन मिल जाएगा, यह गौण है, यह लक्ष्य नहीं है। काम तुम अपने आनंद से कर रहे हो, यह तुम्हारा जीवन है। तुम आनंदित हो इसे करने में। और यह तुम्हारी पत्नी है, तुमने इसे चाहा है और प्रेम किया है, इसलिए तुम……:। यह कोई सवाल ही नहीं है कहने का कि मैं खपा जा रहा हूं मैं मरा जा रहा हूं। यह कोई भाषा है? यह तुम बच्चों से कह रहे हो, उनके मन में जहर डाल रहे हो। इन्होंने तुम्हारी कभी प्रसन्न मुद्रा नहीं देखी।

Wednesday 25 March 2015

जो हो सहज, वही कर्तव्य है। जो करना पड़े जबर्दस्ती, वही अकर्तव्य है। तुम चौंकोगे, क्योंकि तुम्हारी परिभाषा ठीक उल्टी है। तुम तो कर्तव्य उसी को कहते हो जो मजबूरी में करना पड़ता है। बाप बीमार है, पैर दबा रहे हैं—तुम कहते हो, कर्तव्य कर रहे हैं। कर्तव्य कर रहे हैं—मतलब कि ’मरो भी! या ठीक हो जाओ, कर्तव्य तो न करवाओ। अब यह किन पापों का फल भोग रहे हैं, कि अभी फिल्म देखने गए होते, कि क्लब में नाच हो रहा है, कि रोटरी क्लब की बैठक हो रही है, और अब यह बाप के पांव दबाने पड़ रहे हैं! किसने तुमसे कहा था कि हमको जन्म दो?’ ये सब विचार उठ रहे हैं।
कर्तव्य का मतलब तुम समझते हो? कर्तव्य का मतलब है: जिसे तुम करना नहीं चाहते और करना पड़ता है। तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो, तब तुम यह तो नहीं कहते कि यह कर्तव्य है। तब तुम कहते हो : प्रेम! लेकिन जब तुम मां को देखने जाते हो तो कहते हो, कर्तव्य है। तुम अपनी प्रेयसी से मिलने जाते हो, तब तुम नहीं कहते कि कर्तव्य, यद्यपि जब तुम घर लौटते हो पत्नी से मिलने, तब कहते हो, कर्तव्य है। जो करना पड़े।
कर्तव्य का अर्थ ही है: नहीं करना था, फिर भी करना पड़ा। मन से नहीं किया, हृदय से नहीं किया—यह कोई कर्तव्य हुआ? तुम्हारा ’कर्तव्य’ तो गंदा शब्द है। तो मैं तो तुमसे कहता हूं: वही करना, जो सहज हो। धोखा मत देना। अगर पैर न दबाने हों पिता के तो क्षमा माग लेना, कहना कि भाव नहीं उठता, झूठ न करूंगा। ही, सहज उठता हो भाव, तो ही दाबना। मैं मानता हूं कि तुम्हारे पिता भी प्रसन्न होंगे, क्योंकि मेरा यह अनुभव है कि अगर तुम जबर्दस्ती पिता के पैर दाब रहे हो तो पिता प्रसन्न नहीं होते। जबर्दस्ती से कोई प्रसन्नता कहीं नहीं फलती। जब तुम्हीं प्रसन्न नहीं हो तो तुम्हारे हाथ की ऊर्जा और गर्मी और तुम्हारे हाथ की तरंग—तरंग कहेगी कि तुम जबर्दस्ती कर रहे हो, कर रहे हो, ठीक है! करना पड़ रहा है। उधर पिता भी पड़े देख रहे हैं कि ठीक है! मजबूरी है तो कर रहे हो। न तुम प्रसन्न हो, न पिता प्रसन्न हैं। न तुम आनंदित हो, न तुम उन्हें आनंदित कर पाते हो।
जो आनंद से पैदा नहीं होता, वह आनंद पैदा कर भी नहीं पाता। आनंद से बहेगी जो धार, उसी से आनंद फलता है। तो तुम कह देना साफ, भीतर कुछ, बाहर कुछ मत करना। बाहर पैर दाब रहे हैं और बड़े आज्ञाकारी पुत्र बने बैठे हैं और भीतर कुछ और सोच रहे हैं, विपरीत सोच रहे हैं, क्रोधित हो रहे हैं। सोच रहे हैं, समय खराब हुआ, विश्राम कर लेते, वह गया। लेकिन तुम अपने साथ झूठ हो रहे हो और तुम पिता के सामने भी सच नहीं हो। मैं नहीं कहता, ऐसा कर्तव्य करो। मैं कहता हूं तुम क्षमा मांग लेना। कहना कि क्षमा करें।
जीवन को जितने दूर तक बन सके, छोटे से छोटे काम से ले कर, सहज करना उचित है, क्योंकि सहज ही धीरे — धीरे समाधि बन जाता है। वही करना जो तुम्हारे आनंद से हो रहा हो। और तुम लंबे अर्से में पछताओगे नहीं। हो सकता है, तत्क्षण अड़चन मालूम पड़े। लेकिन झूठ झूठ है और तत्‍क्षण कितना ही सुविधापूर्ण मालूम पड़े, अंततः तुम्हें जाल में उलझा जाएगा। तुम साफ—साफ होना। इसको मैं प्रामाणिक होना कहता हूं।
तय करने की बात ही नहीं है। जो सुखद, जो प्रीतिकर—वही कर्तव्य। जो प्रीतिकर नहीं, जो सुखद नहीं—वही अकर्तव्य। तुम्हें उल्टा सिखाया गया है, इसलिए उलझन पैदा हो रही है। तुम्हें सिखाया गया है प्रीतिकर—अप्रीतिकर का कोई सवाल नहीं है, सहज—असहज का कोई सवाल नहीं है—अरे जैसा चाहते हैं, वैसा करो तो कर्तव्य; तुम जैसा चाहते हो, वैसा करो तो अकर्तव्य हो गया। तो हर व्यक्ति दूसरे के हिसाब से जी रहा है। इसलिए तो कम लोग जी रहे हैं, अधिक लोग तो मरे—मराए हैं, जी ही नहीं रहे हैं। यह कोई जीने का ढंग है? दूसरों की अपेक्षाएं पूरी करने में जीवन बिता रहे हो, फिर कैसे सुगंध होगी, फिर कैसे संगीत जन्मेगा, फिर तुम कैसे नाचोगे? सदा दूसरे की आकांक्षा पूरी कर रहे हो।
तुम अपेक्षा दूसरे की पूरी करो, दूसरे तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी कर रहे हैं। न वे प्रसन्न हैं, न तुम प्रसन्न हो। जगत बिलकुल उदास हो गया है।
नहीं, यही मेरी मौलिक क्रांति है जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं। तुम वही करो जो तुम्हारा आनंद है, चाहे कुछ भी कीमत हो। तुम कभी वह मत करो जो तुम्हारा आनंद नहीं है। चाहे उसके लिए तुम्हें कितना ही चुकाना पड़े, तुम आखिर में पाओगे कि तुम जीते, हारे नहीं। और मैं तुमसे यह भी कहता हूं कि चाहे शुरू—शुरू में लोग तुमसे परेशान हों; क्योंकि उनकी आदतें खराब कर ली हैं तुमने इसलिए, समाज विकृत हो गया है इसलिए, लेकिन धीरे— धीरे तुम्हारी प्रामाणिकता समझेंगे। तुम पर भरोसा किया जा सकता है, ऐसा मानेंगे, क्योंकि तुम प्रामाणिक हो।
सत्य अंततः किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाता। शुरू—शुरू में कई दफे लगता है कि नुकसान पहुंचाता है। असत्य मत होओ और भावों को तो कभी झुठलाओ मत। अगर इस प्रक्रिया में तुम पड़ गए झुठलाने की तो तुम धीरे — धीरे झूठ का एक संग्रह हो जाओगे, जिसमें से जीवन की आग बिलकुल खो जाएगी, राख ही राख रह जाएगी। और अगर तुम सहज बनने लगो तो तुम अचानक पाओगे परमात्मा को खोजने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता; तुम्हारी सहजता के ही झरोखे से किसी दिन परमात्मा भीतर उतर आता है। क्योंकि परमात्मा यानी सहजता।

Tuesday 24 March 2015

मैंने पूर्व में क्या कहा है, उसका मैं हिसाब नहीं रखता, तुम भी मत रखना। मैं तो उतनी ही बात का जुम्मा लेता हूं जो मैं अभी कह रहा हूं। घड़ी भर पहले जो कहा था, उसका भी मेरा कोई जुम्मा नहीं। इस बात को ठीक से याद रख लेना, अन्यथा तुम बड़े जाल में पड़ जाओगे। मैं तो इस क्षण हूं और जो मेरा वक्तव्य इस क्षण है, वही मेरा है; बाकी जो बीता सो बीता, जो गया सो गया। उसका हिसाब नहीं रखता हूं। अन्यथा तुम मेरे वक्तव्यों में बड़े विरोधाभास पाओगे; एक वक्तव्य दूसरे का खंडन करता हुआ मालूम पड़ेगा। अगर तुमने हिसाब लगाने की कोशिश की तो विमुक्त होना तो दूर, तुम विक्षिप्त हो जाओगे।
इसलिए इस सूत्र को खूब सम्हाल कर रख लो कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं इस क्षण, वही:। घड़ी भर बाद इसे भी भूल जाना। गुलाब का पौधा है, फूल लगा है आज। तुम उससे जा कर नहीं कहते कि कल तो बड़ा फूल लगा था या छोटा फूल लगा था, आज ऐसा क्यों? गुलाब का पौधा अगर बोल सकता तो कहता,’आज ऐसा है, कल वैसा था।’ तुम आकाश से नहीं कहते कि’कल तो सूरज निकला था, आज बादल घिरे हैं, बात क्या है? ऐसा विरोधाभास क्यों?’ आकाश अगर कह सकता तो कहता :’कल वैसा था, आज ऐसा है।’
विन्सेंट वानगाग, एक बड़ा डच चित्रकार हुआ। चित्र बना रहा था, किसी ने पूछा कि तुम्हारा सबसे श्रेष्ठतम चित्र कौन—सा है? उसने कहा,’यही जो मैं अभी बना रहा हूं।’ दूसरे दिन वह दूसरा चित्र बना रहा था। वही आदमी फिर आया। उसने कहा कि कल जो चित्र तुमने बताया था और कहा था श्रेष्ठतम है, उसे मैं खरीदने आया हूं। उसने कहा, अब वह श्रेष्ठतम नहीं रहा। अब तो मैं जो बना रहा हूं:। वही श्रेष्ठतम है जिसमें मैं मौजूद हूं। बाकी तो पिटी लकीर हैं। सांप निकल गया, रेत पर निशान छूट गया है।
पूर्व में मैंने क्या कहा है, मैं ही हिसाब नहीं रखता, तुम क्यों रखोगे? छोड़ो! कहीं ऐसा न हो कि आज जो मैं कह रहा हूं उसे आज न सुन पाओ और परसों फिर मुझसे पूछने आओ। जिस मित्र ने यह पूछा है, जब मैं ऐसा कह रहा था तब उसने सुना नहीं होगा। अगर सुन लेता तो जीवन में क्रांति हो गई होती। अगर समझ लेता तो यह प्रश्न न उठता। उस दिन चूके अब भी मत चूक जाना। चूकने की आदत मत बना लेना। कुछ लोग चूकने की आदत बना लेते हैं, वे पीछे का हिसाब रखते हैं—मृत का; मुर्दों की गणना करते रहते हैं।
जो वक्तव्य मैं अभी दे रहा हूं वही जीवित है। ताजा—ताजा और गर्म—गर्म उसे अपने हृदय में ले लो। जब ठंडा और बासा हो जाए, तब तुम उसे पचा न पाओगे; जब ताजे और गर्म को न पचा पाए तो ठंडे और बासे को कैसे पचाओगे? भूल कर भी उसे खाना मत, अन्यथा बोझ बनेगा, पाचन को खराब करेगा, जीवन को विषाक्त कर सकता है।
तो पहली तो बात, पूर्व में मैंने क्या कहा, पागल उसका हिसाब रखें; या जिनको पागल होना हो, वे उसका हिसाब रखें। मैं तो अपने वक्तव्य के साथ अभी हूं क्षण भर बाद न रहूंगा। यह भी जो मैं कह रहा हूं हो सकता है कल इसका खंडन कर दूं। क्योंकि मैं कोई विचारक नहीं हूं। मैंने कोई विचार—सरणी तय नहीं कर रखी है कि बस इस सरणी के अनुसार जीऊंगा। मैंने जीवन को पूरा का पूरा सरणी—विहीन छोड़ा है। मेरे जीवन में कोई अनुशासन नहीं है—मात्र स्वतंत्रता है। इसलिए तुम मुझे बांध न सकोगे। तुम मुझसे यह न कह सकोगे :’कल कहा था, आज उससे विपरीत क्यों कह रहे
हैं?’ मैं कहूंगा:’कल भी मैंने अपनी स्वतंत्रता से कहा था, आज भी अपनी स्वतंत्रता से कह रहा हूं। कल वैसा गीत गाने का मन था, आज ऐसा गीत गाने का मन है। और वही—वही रोज—रोज दोहराना उचित र्भा? तो नहीं है—उबाएगा।
तो, मैं तो पानी की धार जैसा हूं।

Monday 23 March 2015

दुनिया में दो ही तरह के आध्यात्मिक मार्ग हैं—एक विधि का और एक बिना विधि का। अष्टावक्र विधि—शून्य मार्ग के प्रस्तोता हैं। तो उन्हें समझते वक्त खयाल रखना कि उनकी बात तो केवल उन्हीं के लिए है जो दुविधा—शून्य हो कर समझ सकेंगे, जिनकी समझ ही इतनी गहरी हो जाए कि फिर किसी ध्यान की कोई जरूरत न रहे; जिनकी समझ ही समाधि बन जाए।
अष्टावक्र का आग्रह मात्र जागरण, साक्षी— भाव पर है, लेकिन अगर यह न हो सके तो अष्टावक्र को पकड़ कर मत बैठ जाना। न हो सके तो पतंजलि उपाय हैं। न हो सके तो बुद्ध, महावीर उपाय हैं।
कृष्णमूर्ति यही कह रहे हैं वर्षों से, जो अष्टावक्र ने कहा है। चालीस वर्षों से निरंतर जो लोग उन्हें सुन रहे हैं वे इसी दुविधा में पड़ गए हैं। समझ में आया भी नहीं, समझ तो जगी नही—और ध्यान भी छोड़ दिया। तो धोबी के गधे हो गए, न घर के न घाट के। अटक गए बीच में। त्रिशंकु हो गए। मझधार में पड़ गए, न इस किनारे के न उस किनारे के। मेरे पास आते हैं, कहते हैं: ’मन में शांति नहीं है।’ अगर मैं उनको कहता हूं ध्यान करो, वे कहते हैं:’ ध्यान से क्या होगा? कृष्णमूर्ति तो कहते हैं, ध्यान से कुछ न होगा।’ अगर कृष्णमूर्ति समझ में आ गए तो मन में अशांति कैसे बची? आए हो पूछने कि मन में अशांति है, क्या करें? अगर कृष्णमूर्ति समझ में आ गए तो अशांति बचनी नहीं चाहिए। क्योंकि कृष्णमूर्ति के पास तो समझ के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है; या तो समझ गये या नहीं समझे। समझ गए तो शांत हो गए; नहीं समझे तो बकवास में मत पड़ो। फिर कुछ और करो जो नासमझों के लिए है; फिर ध्यान करो।
अहंकार बड़ा अदभुत है! अहंकार यह भी मानने को तैयार नहीं कि मैं नासमझ! ध्यान तो नासमझों के लिए है। मैं कोई नासमझ तो हूं नहीं जो ध्यान करूं। और इतने समझदार भी तुम नहीं हो कि बिना ध्यान किए पहुंच जाओ। तब तुम अड़चन में पड़ोगे। तब तुम्हारी बेचैनी बड़ी गहरी हो जाएगी। तुम टूटोगे। तुम खंड—खंड हो जाओगे।
अष्टावक्र कहते हैं : सब ध्यान, सब विधियां व्यर्थ हैं, क्योंकि कर्म —मात्र वहा नहीं पहुंचा सकता; वहा तो केवल होश पहुंचाता है। ध्यान भी करोगे तो कृत्य होगा। ध्यान भी करोगे तो कर्ता बन जाओगे। तो भोजन पकाओ कि बुहारी लगाओ कि दूकान चलाओ कि ध्यान करो, फर्क नहीं पड़ता—कुछ करते हो। अष्टावक्र यह कह रहे हैं कि तुम्हारा जो स्वभाव है, वहां कर्म नहीं पहुंचता; वहा तो सत्ता मात्र है। वह जो बुहारी लगाना हो रहा है, उसमें तुम नहीं हो; वह जो बुहारी लगाने को देख रहा है, वही तुम हो। भोजन पकाते हो, भोजन पकाने में तुम नहीं हो; वह जो भोजन को पकते देख रहा है और देख रहा है कि तुम भोजन पका रहे हो, वही तुम हो। यही बात ध्यान में है। ध्यान में तुम नहीं हो; वह जो देख रहा है कि ध्यान कर रहे हो, वह जो देख रहा है कि ध्यान से शांति आ रही, वह जो साक्षी है—वही तुम हो।
‘गोरखधंधा’ शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है—गोरखनाथ से जुड़ा है। जब भी कोई आदमी ज्यादा विधि—विधान में पड़ जाता है तो हम कहते हैं, गोरखधंधे में मत पड़ो। गोरख ने सबसे ज्यादा विधियां खोजी ध्यान की। पतंजलि के बाद गोरख का नाम अविस्मरणीय है। उन्होंने ध्यान के बड़े प्रयोग खोजे। निश्चित ही ध्यान के प्रयोग से लोग पहुंचे हैं; लेकिन ध्यान का प्रयोग उनके लिए है, जिनके पास समझ अकेली पर्याप्त नहीं है, परिपूरक है, जो कमी समझ में रह गयी है, वह ध्यान पूरी कर देता है। ध्यान से कोई आत्मा को नहीं जानता; लेकिन ध्यान से तुम इतने शांत हो जाते हो कि उस शांति में साक्षी बनना सुगम हो जाएगा। जानोगे तो अष्टावक्र के मार्ग से ही।
जैसे समझो कि कोई आदमी बुखार से ग्रस्त है, बीमार पड़ा है, सन्निपात चढ़ा है और वह कहता है,’मैं समाधि को कैसे उपलब्ध होऊं? तो हम क्या करेंगे पू उसे समाधि की कोई विधि—विधान बताएंगे? हम कहेंगे, पहले बुखार ठीक हो जाने दो। वह पूछे कि क्या बुखार ठीक हो जाने से मुझे समाधि लग जाएगी? तो हम उसे समझाने को कहेंगे कि ही, बुखार ठीक हो जाने से समाधि लगने में सहायता मिलेगी। क्योंकि सन्निपात में कभी किसी की समाधि लगी हो, ऐसा सुना नहीं; यद्यपि सन्निपात में जो नहीं हैं, उनको समाधि लग गयी हो, ऐसा भी नहीं है। क्योंकि इतने लोग हैं जो सन्निपात में नहीं हैं; इनकी कोई समाधि नहीं लग गयी है। लेकिन एक बात पक्की है कि सन्निपात वाले को तो कभी नहीं लगी है। जिसको भी लगी है, एक बात निश्चित है कि वह सन्निपात में नहीं था।

Sunday 22 March 2015

जिस व्यक्ति ने समझ लिया कि बाहर कुछ भी नहीं है जो मुझे भर सके, मैं खाली हूं _ और खाली हूं, और खाली हूं तो अब इस खालीपन से राजी हो जाऊं……:। जैसे ही तुम राजी हुए कि एक महत रूपांतरण होता है। जैसे ही तुम राजी हुए, तुम शांत हुए, चित्त की दौड़ मिटी, स्पर्धा गई, अकिंचन— भाव को तुम स्वीकार किए कि ठीक है, यही मेरा होना है, यही मेरा स्वभाव है, शून्यता मेरा स्वभाव है—अकिंचनभव स्वास्थ्यं—तत्‍क्षण तुम्हारे जीवन में एक स्वास्थ्य की घटना घटती है।
‘स्वास्थ्य’ शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ होता है: तुम स्वयं में स्थित हो जाते हो। स्व—स्थित हो जाना स्वास्थ्य है। अभी तो तुम दौड़ रहे हो। तुम विचलित हो, स्मृत हो। अस्वास्थ्य का अर्थ है जो अपने केंद्र पर नहीं है, जो स्वयं में नहीं है; जो इधर—उधर भटका है। कोई धन के पीछे दौड़ा है—अस्वस्थ है, रुग्ण है। कोई पद के पीछे दौड़ा है —अस्वस्थ है; रुग्ण है। कोई किसी और चीज के पीछे दौड़ा है। लेकिन जो दौड़ रहा है किसी और के पीछे, वह अस्वस्थ रहेगा। क्योंकि दौड़ में तुम स्मृत हो जाते हो अपने केंद्र से। जैसे ही दौड़ गई, तुम अपने में ठहरे।
लोग पूछते हैं :’स्वयं में कैसे जाएं?’
स्वयं में जाने में जरा भी कठिनाई नहीं है; इससे सरल कोई बात ही नहीं है। स्वयं में जाना कठिन होगा भी कैसे? क्योंकि तुम स्वयं तो हो ही। स्वयं में तो तुम हो ही। इसलिए असली सवाल यह नहीं है कि हम स्वयं में कैसे जाएं। असली सवाल यही है कि हम ’पर’ से कैसे छूटें। छूटे नहीं कि पहुंचे नहीं। इधर ’पर’ पर पकड़ छोड़ी कि स्वयं में बैठ गए। यह सवाल नहीं है कि हम अपने में कैसे आएं। इतना ही सवाल है कि हम जिन चीजों के पीछे दौड़ रहे हैं, उनकी व्यर्थता कैसे देखें!
हाय, क्या जीवन यही था!
एक बिजली की झलक में स्वप्न औ’ रसरूप दीखा हाथ फैले तो मुझे निज हाथ भी दिखता नहीं था हाय, क्या जीवन यही था!
एक झोंके में गगन के तारकों ने जा बिठाया मुट्ठियां खोलीं, सिवा कुछ कंकड़ों के कुछ नहीं था हाय, क्या जीवन यही था!
गीत से जगती न थी चीख से दुनिया न घूमी हाय लगते एक से अब गान औ’ क्रंदन मुझे भी छल गया जीवन मुझे भी हाय, क्या जीवन यही था!
जिसे तुमने अब तक जीवन जाना है, उसे खुली आंख से देख लो। बस इतना काफी है। और तुम अकिंचन होने लगोगे।’अकिंचन’ शब्द का ठीक—ठीक अर्थ वही है जो जीसस के वचन का है। जीसस ने कहा है :’ब्लैसेड आर दि पुअर। देअर्स इज दि किंगडम आफ गॉड।’ धन्यभागी हैं दरिद्र उनका ही है राज्य परमात्मा का! और खयाल करना, जीसस नै यह नहीं कहा कि धन्यभागी हैं दरिद्र उनका होगा राज्य परमात्मा का। नहीं, जीसस कहते हैं’देअर्स इज दि किंगडम आफ गॉड।’ उनका ही है राज्य परमात्मा का। है ही इसी क्षण! हो गया! धन्य हैं दरिद्र!
अकिंचन उसी दरिद्रता का नाम है। ऐसी दरिद्रता तो समृद्धि का द्वार बन जाती है। ऐसी दरिद्रता, कि एक बार उसे अंगीकार कर लिया तो फिर तुम कभी दरिद्र होते ही नहीं, क्योंकि फिर प्रभु का सारा राज्य तुम्हारा है।
अकिंचनभव:……।
ऐसा जान कर कि मैं कुछ भी नहीं हूं, ऐसे भाव से कि कुछ भी नहीं है इस जगत में, एक स्वप्न है—एक स्वास्थ्य पैदा होता है; स्वयं में स्थिति बनती है; भागदौड़ जाती है, आपाधापी मिटती है ज्वर छूटता है, बीमारी मिटती है; आदमी अपने घर लौट आता है, अपने में ठहरता है।

Saturday 21 March 2015

पहली बात, पूछा है. ‘आपसे संबंधित होने के लिए क्या संन्यास अनिवार्य है?’ यह ऐसे ही पूछना है, जैसे कोई पूछे कि क्या आपसे संबंधित होने के लिए संबंधित होना अनिवार्य है?
संन्यास तो केवल ढंग है, बहाना है संबंधित होने का। यह तो एक उपाय है संबंधित होने का। किसी व्यक्ति का हाथ आप अपने हाथ में ले लेते हैं, तो क्या हम पूछते हैं कि प्रेम प्रगट करने के लिए क्या हाथ में हाथ लेना अनिवार्य है? किसी को हम छाती से लगा लेते हैं, तो क्या हम पूछते हैं कि क्या प्रेम के होने के लिए छाती से लगाना अनिवार्य है? अनिवार्य तो नहीं है। प्रेम तो बिना छाती से लगाए भी हो सकता है। लेकिन जब प्रेम हो, तो बिना छाती से लगाए रह सकोगे?
फिर से सुनो।
प्रेम तो हाथ हाथ में पकड़े बिना भी हो सकता है। लेकिन जब प्रेम होगा, तो हाथ हाथ में लिए बिना रह सकोगे? साथ साथ आते हैं। अभिव्यक्तियां हैं। जिससे तुम्हें प्रेम है, उसके पास कुछ भेंट ले जाते हो—फूल ही सही, फूल नहीं तो फूल की पांखुरी ही सही। क्या प्रेम के लिए भेंट ले जाना अनिवार्य है? जरा भी नहीं। लेकिन जब प्रेम होता है तो देने का भाव होता है।
संन्यास क्या है? संन्यास है इस बात की घोषणा कि मैं अपने को देने को तैयार हूं! संन्यास है इस बात की घोषणा कि आप मेरा हाथ अपने हाथ में ले लो! संन्यास है इस बात की घोषणा कि आप अगर हाथ मेरा अपने हाथ में लोगे, तो मैं छुड़ा कर भागंगा नहीं। संन्यास तो केवल एक भाव— भंगिमा है—और बड़ी बहुमूल्य है। मैं आपके संग—साथ हूं आप भी मेरे संग—साथ रहना—इस बात की
एक आंतरिक अभिव्यक्ति है।
पूछते हैं, ‘आपसे संबंधित होने के लिए क्या संन्यास अनिवार्य है?’
और जिसने पूछा है, वे ज्यादा देर संन्यास से बच न सकेंगे। पूछा ही इसीलिए है कि अब बात खड़ी हो गई है प्राण में। अब मुश्किल खड़ी हो गई है। अब संन्यास लिए बिना रहा न जाएगा; चुनौती आ गई है। भय भी है, इसलिए प्रश्न उठा है। लेकिन जब जीवन में कभी कोई विधायक का जन्म होता है, जब भी कोई विधायक दिशा खुलती है, तो फिर कितने ही भय हों, उनके बावजूद आदमी को जाना ही पड़ता है।
पुकार तुमने सुन ली है। इसीलिए तो रो रहे हो, इसीलिए तो निहार रहे हो। अब कब तक रोते रहोगे, कब तक निहारते रहोगे? द्वार खुले हैं, प्रवेश करो।
‘अभी संन्यास नहीं लिया है और न व्यक्तिगत रूप से आपसे मिला ही हूं। ‘
शायद व्यक्तिगत रूप से मिलने में भी डर होगा। और सम्हल कर ही मिलना, कि आए कि मैंने संन्यास दिया! तुम छिपा न सकोगे। प्रेम कहीं छिपा? तुम लाख उपाय करणैं, छिपा न सकोगे। मेरे सामने आए कि मैं पहचान ही लूंगा, कि यही हो तुम जो रो रहे थे, कि यही हो तुम जो निहार रहे थे। तो सोच कर ही आना!
वस्तुत: मेरे सामने तुम आते ही तब हो, जब तुम्हारे जीवन में समर्पण की तैयारी हो गई; तुम छोड़ने को राजी हो; तुम नत होने को तैयार हो; तुम मेरे शून्य के साथ गठबंधन करने को तैयार हो। यह भी एक भांति का विवाह है। ये भी सात फेरे हैं। यह जो माला तुम्हारे गले में डाल दी है, यह कोई फांसी से कम नहीं है। यह तुम्हें मिटाने का उपाय है। ये जो वस्त्र तुम्हारे गैरिक अग्नि के रंगों में रंग दिए, ये ऐसे ही नहीं हैं, यह तुम्हारी चिता तैयार है। तुम मिटोगे तो ही तुम्हारे भीतर परमात्मा का आविर्भाव होगा।
संन्यास साहस है—अदम्य साहस है। और मेरा संन्यास तो और भी। क्योंकि इसके कारण तुम्हें कोई समादर न मिलेगा। इसके कारण तुम्हें कोई पूजा, शोभा—यात्रा, कोई जुलूस, कुछ भी न होगा। इसके द्वारा तो तुम जहां जाओगे वहीं अड़चन, वहीं झंझट होगी, पत्नी, बच्चे, पिता, मां, परिवार, दूकान, ग्राहक—जहां तुम जाओगे वहीं अड़चन होगी। यह तो मैं तुम्हारे लिए सतत उपद्रव खड़ा कर रहा हूं। लेकिन इस उपद्रव को अगर तुम शातिपूर्वक झेल सके, तो इसी से साक्षी का जन्म हो जाएगा। इस उपद्रव को अगर तुम मेरे प्रेम के कारण झेलने को राजी रहे, तो इसी से भक्ति का जन्म हो जाएगा।

Friday 20 March 2015

तुम्हारी बुद्धि को समझाने को मैं कुछ भी नहीं कह रहा हूं। यहां मेरा प्रयास तुम्हारी बुद्धि को राजी करने के लिए नहीं है। या तो कभी बोलता हूं भक्ति पर, तब प्रयास होता है कि तुम्हारा हृदय तरंगित हो, या कभी बोलता हूं ज्ञान पर, तब प्रयास होता है कि तुम हृदय, बुद्धि दोनों का अतिक्रमण करके साक्षी बनी। लेकिन बुद्धि के लिए तो बोलता ही नहीं। बुद्धि तो खाज जैसी है, जितना खुजलाओ.। खुजलाते वक्त लगता है सुख, पीछे बड़ी पीड़ा आती है।
तुम्हारी बुद्धि के लिए नहीं बोल रहा हूं तुम्हारे सिर के लिए नहीं बोल रहा हूं। या तो बोलता हूं हृदय के लिए कभी, या बोलता हूं उसके लिए जो सब के पार है—हृदय, बुद्धि दोनों के। या तो साक्षी के लिए या तुम्हारे भाव के लिए। या तुम्हारे प्रेम के लिए या सत्य का तुम्हारे भीतर जागरण हो, उसके लिए।
और अधिकतम लाभ उन्हीं को होगा, जो बुद्धि को छोड़ कर सुनेंगे। बुद्धि से सुना कुछ खास सुना नहीं। शब्दों का सुन लेना कुछ सुनना नहीं है।
मैं जो बोल रहा हूं उसकी ध्वनि तुम्हें गुंजाने लगे, तुम सांप की तरह डोलने लगो। यह कोई तर्क नहीं है जो मैं यहां दे रहा हूं—स्थ उपस्थिति है। इस उपस्थिति से तुम आंदोलित हो जाओ!
शुभ हो रहा है, फिक्र मत करो। जब होता है ऐसा तो बड़ी चिंता होती है, क्योंकि आए थे सुनने और यह क्या होने लगा, ध्वनि ही ध्वनि गूंजती रह गई! हाथ तो कुछ आया नहीं, ऐसा लगता है। सोचा था, कुछ ज्ञान लेकर लौटेंगे, कुछ पोथी थोड़ी और बड़ी हो जाएगी बुद्धि की, थोड़ा और भार लेकर लौटेंगे, यह क्या हुआ जा रहा है? सिद्धात तो हाथ नहीं आ रहे, संगीत हाथ आ रहा है। संगीत लेने तो आए भी नहीं थे, यह तो सोचा भी नहीं था। तो मन में चिंता भी व्यापती है। और ऐसा भी लगता है, कहीं ऐसा तो नहीं हम गंवाए दे रहे हैं? क्योंकि सदा तो केवल हमने जीवन में शब्द ही जोड़े, सिद्धात ही जोड़े। इसलिए स्वभावत: हमारा अतीत कहता है, यह क्या कर रहे हो? कुछ संगृहीत कर लो, कुछ ज्ञान पकड़ लो, कुछ जुटा लो, काम पड़ेगा पीछे।
इस मन की बातों में मत पड़ना। अगर तुम्हें संगीत सुनाई पड़ने लगा, अगर ध्वनि सुनाई पड़ने लगी, अगर भीतर लहर आने लगी, तो शब्द से तुम पार निकले। शब्द से पार जाता है संगीत। इसलिए तो संगीत सभी को आंदोलित कर देता है। संगीत की कोई भाषा सीमित नहीं है। हिंदी बोलो; जो हिंदी समझता है, समझेगा। चीनी बोलो; जो चीनी समझता है, समझेगा। जो चीनी नहीं समझता, उसके लिए तो सब व्यर्थ है। लेकिन वीणा बजाओ, सारे जगत में कहीं भी वीणा बजाओ..।
यहां जो मैं तुमसे बोल रहा हूं, उसमें अगर तुम्हें शब्द ही समझ में आएं तो परिधि समझ में आई। अगर संगीत पकड़ में आ जाए तो केंद्र पकड़ में आ गया। अगर शब्द ही ले कर गए तो तुम थोड़े और बुद्धिमान हो जाओगे; वैसे ही तुम बुद्धिमान थे, और बीमारी बढ़ी। अगर संगीत पकड़ में आया, तो तुम सरल हो कर जाओगे। वह जो तुम बुद्धिमानी लाए थे, वह भी यहीं छोड़ जाओगे।
मैं भरा, उमड़ा— भरा, उमड़ा गगन भी।
आज रिमझिम मेघ, रिमझिम हैं नयन भी।
कौन कोना है गगन का आज सूना कौन कोना प्राण मन का आज सूना
पर बरसता मैं, बरसता है गगन भी आज रिमझिम मेघ, रिमझिम हैं नयन भी।
मौन मुखरित हो गया, जय हो प्रणय की पर नहीं परितृप्त है तृष्णा हृदय की।
पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूं पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूं मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं पा गया तन, आज मैं मन खोजता हूं मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
जो शब्द हैं, वे तो तन की भांति हैं, देह की भांति, उनके भीतर छिपा हुआ जो रस है, वह शब्दों की आत्मा है। जब तुम डोलने लगो, जब तुम्हें मेरी ध्वनि घेरने लगे, तुम मेरी ध्वनि में खोने लगो, मेरी ध्वनि जब तुम्हें नशे की तरह मदमस्त कर दे—तब तुमने प्राण को छुआ, तब तुमने मूल स्वर को छुआ!

Thursday 19 March 2015

एक वैज्ञानिक ने जापान में एक प्रयोग किया—चमत्कार जैसा प्रयोग है। उसे प्रयोग करते—करते पौधों पर, यह खयाल आया कि पौधा बीज में से ही पूरा आता है या कि बहुत कुछ तो जमीन से लेता होगा? तो उसने एक प्रयोग किया। एक गमले में उसने सब तरह से जाच—परख कर ली कि कितनी मिट्टी डाली है। एक—एक रत्ती—रत्ती नाप कर सब काम किया। कितना पानी रोज डालता है, उसका भी हिसाब रखा। वृक्ष बड़ा होने लगा, खूब बड़ा हो गया। फिर उसने वृक्ष को निकाल लिया। जड़ें धो डालीं। एक मिट्टी का कण भी उस पर न रहने दिया। और जब मिट्टी तोली तो बड़ा चकित हुआ, मिट्टी उतनी की उतनी है। मिट्टी में कोई फर्क नहीं पड़ा। उस बीज से ही आया है यह पूरा वृक्ष, उस शून्य से ही प्रगट हुआ है। ऐसे ही एक दिन परमात्मा से सारा अस्तित्व प्रगट हुआ।
तुम भी अपना सारा अस्तित्व अपने भीतर बीज की तरह छिपाए बैठे हो। मगर पहचान तो करनी ही होगी कि तुम्हारे भीतर प्रेम का बीज पड़ा है कि सत्य का! और ये दो ही बीज हैं मौलिक रूप से—तुम या तो संकल्प करो या समर्पण करो। संकल्प दुर्धर्ष मार्ग है। इसलिए तो वर्धमान को जैनों ने महावीर कहा। बड़ा गहन संघर्ष है। महावीर उनका नाम ही हो गया धीरे— धीरे, वर्धमान तो लोग भूल ही गए। इतना संघर्ष किया; समर्पण नहीं है वहा, संकल्प है। महावीर कहते हैं : अशरण, किसी की शरण मत जाना!
बुद्ध ने मरते वक्त कहा : अप्प दीपो भव! अपना प्रकाश खुद बन, आनंद! कोई दूसरा तेरा मार्गद्रष्टा नहीँ है।
कृष्णमूर्ति कहते हैं : मैं किसी का गुरु नहीं और तुम किसी को भूल कर गुरु बनाना मत। ठीक कहते हैं। सहारे की जरूरत नहीं है सत्य के खोजी को। सत्य का खोजी बड़ा अकेला चलता है। अकेला चलता है, इसलिए मरुस्थल जैसा होगा ही। वहा से काव्य नहीं फूटता।
बहुत बार मुझसे जैनों ने कहा कि कुंदकुंद पर आप कुछ बोलें। मैं नहीं बोलता। कई बार कुंदकुंद का शास्त्र उठा कर देखता हूं सोचता हूं बोलना तो चाहिए। कुंदकुंद प्यारे हैं! मगर बात मरुस्थल की है। उसमें काव्य बिलकुल नहीं है। काव्य का उपाय ही नहीं है। काव्य के जन्म के लिए प्रेम की थोड़ी—सी धारा तो चाहिए। नहीं तो फूल नहीं खिलते, हरियाली नहीं उमगती, गीत नहीं गूंजते। सब सूखा—सूखा है।
सुखा लेना ही सत्य के खोजी का मार्ग है। इतना सुखा लेना कि सब रस सूख जाए। उसी को तो हम विराग कहते हैं, जब सब रस सूख जाए।
तो अपने भीतर खोज लेना है। अगर तुम्हें लगे कि मरुस्थल ही तुम्हें निमंत्रण देता है, मरुस्थल में आमंत्रण मालूम पड़े, पुकार मालूम पड़े, चुनौती मालूम पड़े, तो हर्ज नहीं है। फिर मरुस्थल ही तुम्हारे लिए उद्यान है। लेकिन अपने भीतर कस लेना, अपने भीतर देख लेना।
और एक बात कसौटी में काम पड़ेगी : जब भी तुम पाओगे कोई मार्ग तुम्हारे अनुकूल पड़ने लगा, तुम तत्‍क्षण खिलने लगोगे, तत्‍क्षण शांति मिलने लगेगी; जैसे अचानक स्वरों में मेल बैठ गया, तुम्हें अपनी भूमि मिल गई, तुम्हारा मौसम आ गया, तुम्हारी ऋतु आ गई—फलने की, फूलने की!
कभी—कभी ऐसा होता है, किसी की वाणी सुनते ही —तत्‍क्षण तुम्हारे भीतर एक खटके की तरह कुछ हो जाता है, द्वार खुल जाते हैं। किसी को देखते ही किसी क्षण अचानक प्रेम उभय आता है। किसी के पास पहुंचते ही अचानक बड़ी गहन शांति घेर लेती है, आनंद के स्रोत फूटने लगते हैं। यह अकारण नहीं होता। जहां भी तुम्हारा मेल बैठ जाता है, जहां भी तुम्हारी तरंग मेल खा जाती है, वहीं यह हो जाता है।
यहां मैं बोलता हूं; साफ दिखाई पड़ जाता है—कौन तरंगित हुआ, कौन नहीं तरंगित हुआ। कुछ पत्थर के रोड़े की तरह बैठे रह जाते हैं, कुछ डोलने लगते हैं। किसी के हृदय को छू जाती है बात, कोई बुद्धि में ही उलझा रह जाता है।
तुम मेरे पथ के बीच लिए काया भारी भरकम क्यों जम कर बैठ गए कुछ बोलो तो!
क्यों तुमको छूता है मेरा संगीत नहीं?
तुम बोल नहीं सकते तो झूमो, डोलो तो!
रागों की रोकी जा सकती है राह नहीं, रोड़ो, हठधर्मी छोड़ो मुझसे मन जोडो।
तुमसे भी मधुमय शब्द निकल कर गूंजेंगे तुम साथ जरा मेरी धारा के हो लो तो!
जब भी तुम्हारा कहीं मेल खा जाए, तब तुम और सब चिंताएं छोड़ देना। जहां तुम्हारा मन का रोड़ा पिघलने लगे, जहां तुम्हारे सदा के जमे हुए, चट्टान जैसे हो गए हृदय में तरंगें उठने लगें, तुम डोलने लगो, जैसे बीन को सुन कर सांप डोलने लगता है… तो तुम चकित होओगे? सांप के पास कान नहीं होते। वैज्ञानिक बड़ी मुश्किल में पड़े जब पहली दफे यह पता चला कि सांप के पास कान होते ही नहीं, वह बीन सुन कर डोलता है। सुन तो सकता नहीं तो डोलता कैसे है? तो या तो बीन—वादक कुछ धोखा दे रहा है, सांप को किसी तरह से प्रशिक्षित किया है। तो बीन—वादकों को दूर बिठाया गया, बीच में पर्दा डाला गया, कि हो सकता है बीन—वादक डोलता है, उसको देख कर सांप डोलता है। आख है सांप के पास, कान तो है नहीं। तो बीच में पर्दे डाल दिए गए, बीन—वादक को दूर कर दिया; लेकिन फिर भी सांप डोलता है। तब एक अनूठी बात पता चली और वह यह कि सांप के पास कान तो नहीं है, लेकिन बीन से जो तरंग पैदा होती है, उससे उसके पूरे शरीर पर तरंग पैदा होती है। कान नहीं है। उसकी पूरी काया डोल जाती है।
जब कोई बात छूती है, तो सब डोल जाता है। तो जिस बात से तुम डोलने लगो, वही तुम्हारा मार्ग है। जिस बात से रस घुलने लगे तुम्हारे भीतर, वही तुम्हारा मार्ग है। फिर तुम सुनना मत, और क्या कोई कहता है। तुम अपने हृदय की सुनना और अपने रस के पीछे चल पड़ना।

Wednesday 18 March 2015

प्रेम और सत्‍य दो घटनाएं नहीं हैं, एक ही घटना के दो पहलू है। सत्‍य को पा लो तो प्रेम प्रगट हो जाता है। प्रेम को पा लो तो सत्य का साक्षात हो जाता है। या तो सत्य की खोज पर निकलो; मंजिल पर पहुंच कर पाओगे, प्रेम के मंदिर में भी प्रवेश हो गया। खोजने निकले थे सत्य, मिल गया प्रेम भी साथ—साथ। या प्रेम की यात्रा करो। प्रेम के मंदिर पर पहुंचते ही सत्य भी मिल जाएगा। वे साथ—साथ हैं। प्रेम और सत्य परमात्मा के दो नाम हैं।
लेकिन दो तरह के व्यक्ति हैं जगत में। एक हैं, जिन्हें सत्य को पाना सुगम है; प्रेम परिणाम में मिलेगा। दूसरे हैं, जिन्हें प्रेम पाना सुगम, सत्य परिणाम में मिलेगा। इसलिए ज्ञान और भक्ति दो मौलिक मार्ग हैं। स्त्री और पुरुष दो मौलिक विभाजन हैं।
और जब मैं कहता हूं स्त्री और पुरुष, तो बहुत रूढ़ अर्थों में मत पकड़ना। बहुत पुरुष हैं, जिनके पास स्त्रियों जैसा प्रेम से भरा हृदय है। बहुत स्त्रियां हैं, जिनके पास पुरुष जैसा सत्य को खोजने वाला तर्क है। अपनी पहचान ठीक से कर लेना। परमात्मा की पहचान तो पीछे होगी। अपनी पहचान ठीक से कर लेना। ऐसा कुछ मार्ग मत चुन लेना, जो तुम्हारे साथ रास न आता हो। जो तुम्हें सहज मालूम पड़े, वही तुम्हारा मार्ग है।
सत्य की खोज में जो अंतिम फल है, वहां ‘तू मिट जाता हैं, ‘मैं’ का विस्फोट होता है—अहं ब्रह्मास्मि, मैं ही ब्रह्म हूं और कोई ब्रह्म नहीं! सत्य की खोज में ‘पर’ से मुक्त होना उपाय है।
ध्यान से सुनना, क्योंकि जो सत्य की खोज में उपाय है, वही प्रेम की खोज में बाधा है। और जो प्रेम की खोज में उपाय है, वही सत्य की खोज में बाधा है। दोनों भिन्न—भिन्न जगह से चल रहे हैं—जा रहे एक तरफ। जैसे कोई पश्चिम से चला भारत आने को, कोई पूरब से चला भारत आने को। तो जो इंग्लैंड से चला वह पूरब की तरफ आ रहा है, जो जापान से चला वह पश्चिम की तरफ जा रहा है। दोनों भारत आ रहे हैं। दोनों एक जगह पहुंचेंगे; लेकिन जहां से चले हैं वह स्थान बड़ा भिन्न—भिन्न है।
सत्य का खोजी ‘तू को गिरा देता है। इसलिए तो महावीर और बुद्ध परमात्मा को स्वीकार नहीं करते। परमात्मा यानी तू परमात्मा यानी पर। परमात्मा यानी जिसके चरणों में पूजा करनी है, अर्चनाकरनी है, जिसके सामने नैवेद्य चढ़ाना है। परमात्मा यानी पर। इसलिए बुद्ध और महावीर परमात्मा को इंकार कर देते हैं। पतंजलि भी बड़े संकोच से स्वीकार करते हैं। और स्वीकार ऐसे ढंग से करते हैं कि वह इंकार ही है। पतंजलि कहते हैं, ईश्वर प्रणिधान भी सत्य को पाने का एक उपाय, एक विधि है; आवश्यक नहीं है, अनिवार्य नहीं है। ईश्वर है या नहीं, यह बात विचारणीय नहीं है। यह भी एक विधि है। मान लो, काम करती है। मानी हुई बात है।
समस्त ज्ञानी ईश्वर को किसी न किसी तरह इंकार करेंगे। शंकर कहते हैं, ईश्वर भी माया का हिस्सा है। अहं ब्रह्मास्मि! मेरा जो आत्यंतिक रूप है, वह ब्रह्म—स्वरूप है। लेकिन वह जो ईश्वर है मंदिर में विराजमान, वह तो माया का ही रूप है, वह तो संसार ही है। संसार यानी पर, दूसरा। स्वयं से बाहर गए कि संसार। फिर चाहे मंदिर ही क्यों न जाओ या दूकान जाओ या बाजार जाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता—स्वयं से बाहर गए तो संसार में गए। मंदिर भी उसी संसार का हिस्सा है जहां दूकान है। मंदिर और दूकान बहुत अलग— अलग नहीं है,।
सत्य का खोजी कहता है, पर को भूलो। पर के कारण ही तरंग उठती है। कोई भाग। जा रहा है स्त्री को पाने, कोई भागा जा रहा है धन को पाने, कोई भागा जा रहा है प्रभु को पाने। सत्य का खोजी कहता है, भाग—दौड़ छोड़ो। जिसे पाना है, वह तुम्हारे भीतर बैठा है।

Tuesday 17 March 2015

जगत जैसे दर्पण है; हम अपने को ही बार—बार देख लेते हैं; अपनी ही प्रतिछवि बार—बार खोज लेते हैं। जो हम हैं, वही हमें दिखाई पड़ जाता है। साधारणत: हम सोचते हैं, जो हमें दिखाई पड़ रहा है, बाहर है। फूल में सौंदर्य दिखा तो सोचते हैं, सुंदर होगा फूल। नहीं, सौंदर्य तुम्हारी आंखों में हैं। वही फूल दूसरे को सुंदर न भी हो। किसी तीसरे को उस फूल में न सौंदर्य हो, न असौंदर्य हो, कोई तटस्थ भी हो। किसी चौथे को उपेक्षा हो। जो तुम्हारे भीतर है वही झलक जाता है। किसी बात में तुम्हें रस आ जाता है—रस तुम्हीं उडेलते हो। किसी दूसरे को जरूरी नहीं कि उसी में रस आ जाये। तुम डोल उठते हो किसी गीत को सुनकर और किसी दूसरे प्राण की वीणा जरा भी नहीं बजती।

किसी ने प्रश्न भी पूछा है कि आप कहते हैं, जो दृश्य है वह द्रष्टा कभी नहीं; और कृष्णमूर्ति कहते हैं, दृश्य द्रष्टा ही है। ये दोनों बातें तो विरोधाभासी हैं, कौन सच है?
ये बातें विरोधाभासी नहीं हैं—दो अलग तलों पर हैं। पहला तल है, पहले शान की किरण जब फूटती है तो वह इसी मार्ग से फूटती है, जान कर कि जो दृश्य है वह मुझसे अलग है। समझने की कोशिश करें। तुम जो देखते हो, निश्चित ही तुम देखने वाले उससे अलग हो गये। जो भी तुमने देख लिया, तुम उससे पार हो गये। तुम, जो दिखाई पड़ गया, वह तो न रहे। दृश्य तो तुम न रहे। दृश्य तो दूर पड़ा रह गया। तुम तो खड़े हो कर देखने वाले हो गये।
तुम यहां मुझे देख रहे हो तो निश्चित ही तुम मुझसे अलग हो गये। तुम मुझे सुन रहे हो, तुम मुझसे अलग हो गये। जो भी तुम देख लेते, छू लेते, सुन लेते, स्पर्श कर लेते, स्वाद ले लेते, जिसका तुम्हें अनुभव होता है, वह तुमसे अलग हो जाता है। यह ज्ञान की पहली सीढ़ी है।
जैसे ही यह सीढ़ी पूरी हो जाती है और तुम दृश्य से अपने द्रष्टा को मुक्त कर लेते हो, तब दूसरी घटना घटती है। पहला तुम्हें करना होता है, रूस अपने से होता है। दूसरी घटना बड़ी अपूर्व है। जैसे ही तुमने दृश्य से द्रष्टा को अलग कर लिया, फिर द्रष्टा द्रष्टा भी नहीं रह जाता। क्योंकि द्रष्टा बिना दृश्य के नहीं रह सकता; वह दृश्य के साथ ही जुड़ा है। जब दृश्य खो गया तो द्रष्टा भी खो गया। तुम द्रष्टा की परिभाषा कैसे करोगे? दृश्य के बिना तो कोई परिभाषा नहीं हो सकती। दृश्य को तो लाना पड़ेगा। और जिस द्रष्टा की परिभाषा में दृश्य को लाना पड़ता है वह दृश्य से अलग कहां रहा? वह एक ही हो गया। दृश्य के गिरते ही द्रष्टा भी गिर जाता है। पहले दृश्य को गिरने दो, फिर दूसरी घटना अपने से घटेगी। तुमने दृश्य खींचा, अचानक तुम पाओगे द्रष्टा भी गया। तब तुम्हें कृष्णमूर्ति का दूसरा वचन समझ में आयेगा. ‘दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्ब्द।’ वह जो दृश्य है, द्रष्टा ही है।

Monday 16 March 2015

व्‍यक्ति के कारण ही आनंद नहीं हो पा रहा है। आनंद की अपेक्षा के लिए व्यक्ति अनिवार्य है, आनंद के अनुभव के लिए बाधा है। आनंद की आकांक्षा के लिए व्यक्ति की जरूरत है, आनंद की वासना के लिए व्यक्ति की जरूरत है; लेकिन आनंद की अनुभूति के लिए व्यक्ति की कोई भी जरूरत नहीं है। जब आनंद होता है तो तुम थोड़े ही होते हो! तुम नहीं होते हो तभी आनंद होता है। और ‘इसे तुमने भी कभी—कभी किन्हीं अनायास क्षणों में पाया होगा : जब तुम नहीं होते तब थोड़ी—सी झलक मिलती है। प्रेमी घर आ गया है तुम्हारा, तुम हाथ में हाथ ले कर बैठ गये हो। एक क्षण को प्रेमी की उपस्थिति तुम्हें इतना लीन कर देती है कि तुम मिट जाते, कुछ खयाल नहीं रह जाता अपना। एक बूंद सरक जाती है। रस झरता है।
कभी सूरज को उगते देखा है त्र: बैठ गये नदी तट पर, उठने लगा सूरज। यह सुबह की हवा, यह नदी की शीतलता, यह शांति, यह खुला आकाश, यह सूरज का उठना, यह सूरज की किरणों का फैलता हुआ सौंदर्य का जाल— क्षण भर को तुम ठगे रह गये! भूल गये कि तुम हो। क्योंकि स्वयं को बनाये रखने के लिए स्वयं को सदा स्मरण रखना जरूरी है, यह खयाल रखना।
अहंकार कोई ऐसी चीज नहीं है कि पत्थर की तरह तुम्हारे भीतर रखी है। अहंकार तो ऐसा ही है जैसा मैं बार—बार कहता : जैसे कोई साइकिल चलाता, पैडल मारो तो साइकिल चलती है; पैडल मारना भूल गये थोड़ी देर को कि साइकिल गिरी। अहंकार कुछ ऐसा थोड़े ही है कि पत्थर की तरह रखा है, तुम जब तक याद रखो तभी तक है। याददाश्त रखने में ही पैडल चलता है। जैसे ही तुमने याददाश्त भूली कि गया।
तो कभी संगीत सुन कर सिर डोलने लगा, तो गया अहंकार। उस क्षण में तुम्हें रस झरता है, आनंद मालूम होता है। सौंदर्य हो, प्रेम हो, ध्यान हो, संगीत हो या कोई और कारण हों—कभी—कभी तो ऐसी चीजों से भी रस झर जाता है कि दूसरों को देख कर आश्चर्य होता है। तुम क्रिकेट का मैच देखइrएंने गये, तुम्हें क्रिकेट के मैच में रस है; दूसरे समझेंगे पागल हो गये हो, लेकिन तुम बैठे हो वहां मंत्रमुग्ध, आंखें ठगी रह गई हैं, पलकें नहीं झपकती हैं, भूल ही गये अपने को, मूर्तिवत। जैसे कभी बुद्ध बैठ गये होंगे बोधिवृक्ष के नीचे, ऐसे तुम कभी—कभी क्रिकेट देखते समय, फुटबाल—हाकी देखते समय बैठ जाते हो। वहां से तुम बड़े आनंदित लौटते हो; कहते हो कि बड़ा रस आया! क्या, हो क्या जाता है? तुम थोड़ी देर को अपने को भूल जाते हो। जहां भूले कि मिटे। आत्मविस्मरण अनिवार्यरूपेण अहंकार का विसर्जन हो जाता है।
इधर मुझे सुनते —सुनते कई बार तुम्हें जब भी सुख मिलता हो तो खयाल रखना, वह घड़ी वही होगी जब तुम सुनते—सुनते खो जाते हो, भूल जाते हो, याद नहीं रह जाती।
अहंकार श्वास जैसा नहीं है; साइकिल के पैडल मारने जैसा है। याद न रहे तो भी श्वास चलती है। श्वास प्राकृतिक है। तुम रात सो गये तो भी श्वास चलती है। लेकिन रात नींद में अहंकार रह जाता है? सम्राट को पता रहता है मैं सम्राट हूं? भिखारी को पता रहता है मैं भिखारी हूं? सुंदर को पता रहता है मैं सुंदर हूं? धनी को पता रहता है बैंक—बैलेंस का? जब तुम रात सो जाते हो, तुम्हें याद रहता है तुम्हारी पत्नी भी कमरे में सोई है? कुछ याद नहीं रह जाता। यह मकान तुम्हारा है, यह भी याद नहीं रह जाता। अगर रात नींद में तुम्हें उठा कर स्ट्रेचर पर रखकर अस्पताल में रख दिया जाता है तो तुम्हें पता नहीं रहता है। सुबह तुम आंख खोलते हो तब पता चलता है। लेकिन सांस चलती रहती है। राजमहल में, गरीब के झोपड़े में, नंगे आदमी की, सोने से लदे आदमी की श्वास चलती रहती है। आदमी बिलकुल बेहोश हो जाता है, कोमे में पड़ जाता है, महीनों तक बेहोश पड़ा रहे तो भी श्वास चलती रहती है। श्वास का तुमसे कुछ लेना—देना नहीं है। श्वास प्राकृतिक घटना है।
अहंकार श्वास जैसा नहीं है। जब तक पता चले तभी तक है। जैसे ही पता न चला वैसे ही गया। इस सत्य को समझो। जैसे ही गया, एक क्षण को भी गया, तो एक ही क्षण को द्वार खुल जाता है। सदियों —सदियों का अहंकार भी क्षण भर को भूल जाये तो झरोखा खुल जाता है। तुम वातायन से झांक ले सकते हो।
तो जब भी तुम्हें कभी कोई सुख की झलक मिली है तो मिली ही इसलिए है कि तुम मिट गये हो। काम—संभोग में कभी आदमी मिट जाता है तो सुख की झलक मिलती है। कभी शराब पीने में भी आदमी मिट जाता है तो सुख की झलक मिलती है।
इसलिए शराब का इतना आकर्षण है। सारी दुनिया की सरकारें चेष्टा करती हैं शराब बंद हो। धर्मगुरु लगे रहते हैं कि शराब बंद हो। कानून बनते हैं कि शराब बंद हो। शराब बंद नहीं होती। शराब में कुछ कारण है। आदमी अहंकार से इतना थका — थका है कि भूलना चाहता है। कोई और उपाय नहीं मिलता, ध्यान कठिन मालूम होता है, लंबी यात्रा है, समाधि तक पहुंचेंगे, इसका भरोसा नहीं आता। और समाधि तक पहुंचाने वाला वातावरण खो गया है। लेकिन शराब तो मिल सकती है। थोड़ी देर आदमी शराब पी लेता है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शराब पीने लगना। मैं इतना ही कह रहा हूं कि शराब से भी जो घटना घटती है वह यही है कि थोड़ी देर को तुम्हारी अस्मिता खो जाती है। यह तुमने बड़ा महंगा उपाय खोजा। जहर डाला शरीर में अहंकार को भूलने के लिए। अहंकार तो बिना जहर डाले भूला जा सकता है। अहंकार तो भूल जाओ तो अमृत ढलने लगता है, जहर डालने की तो जरूरत ही नहीं रह जाती। महंगा सौदा कर रहे हो। बड़ा बुरा सौदा कर रहे हो। खो बहुत रहे हो, पा कुछ भी नहीं रहे हो।
लेकिन फिर भी तुमसे मैं कहूंगा कि शराब का आकर्षण भी, अहंकार खोने में जो रस है, उसी का आकर्षण है। तुमने देखा उदास—उदास आदमी, थका— थका आदमी शराब पी कर प्रफुल्लित हो जाता है, अकड़ कर चलने लगता है!