Sunday 29 November 2015

मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि ज्ञान के मार्ग से पहुंचना नहीं होता है। ज्ञान के मार्ग से भी पहुंचना होता है। लेकिन तब भक्ति की बात ही भूल जाओ। दो नावों पर सवार मत होओ, अन्यथा डूबोगे, कहीं भी न पहुंचोगे। एक नाव काफी है।
और जब मैं कहता हूं कि ज्ञानी के मार्ग से भी पहुंचना होता है तो खयाल रखना कि मेरे ज्ञानी में और तुम्हारे ज्ञानी में बड़ा फर्क है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो, जो शास्त्र का ज्ञाता है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो, जो पंडित है, सिद्धांत में कुशल है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो जिसके पास बहुत जानकारी है। मैं ज्ञानी उसे कहता हूं जिसने सब जानकारी फेंकी, सब शास्त्र हटाये। जिसने धीरे— धीरे जानकारी से अपनी दृष्टि हटाई और जानने के सूत्र पर लगाई। जो जागने लगा वही ज्ञानी है।
ज्ञान में ज्ञान नहीं है, ध्यान में ज्ञान है।
तो दो मार्ग हैं. ध्यान और प्रेम। प्रेम है भक्ति का मार्ग, ध्यान है शान का मार्ग। यह मैं तुम्हें स्पष्ट कर दूं। क्योंकि ज्ञानी से तुम कहीं यह मत समझ लेना कि कोई पंडित वेद को जाननेवाला है और ज्ञानी हो जाता है। जानकारी से कोई ज्ञान नहीं होता। जानकारी में अज्ञान दब जाता है, मिटता नहीं। और दबा हुआ अज्ञान बना रहता है। सदा बना रहेगा। छिपा रहेगा भीतर। उससे छुटकारा न होगा।
तो बजाय ज्ञानी के ध्यानी कहना ज्यादा अच्छा है। तो ध्यानी और प्रेमी—दों मार्ग हैं। फर्क थोड़ा—सा है। ध्यानी आत्मा की खोज करता. मैं कौन हूं? इस एक सतत प्रश्न में उतरता है। प्रेमी इसकी फिक्र नहीं करता। वह कहता है, जो भी मैं हूं—अ, ब, स, जो भी मैं हूं प्रभु, तेरे चरणों में ले ले। जो भी मैं हूं,अपने में डुबा ले। बुरा— भला जैसा हूं। गंदा नाला सही! अपने सागर में ले ले। तू तो सागर है, गंदा नाला भी उतरेगा तो स्वच्छ हो जायेगा। तू तो सागर है, गंदा नाला भी उतरेगा तो तेरे रूप में डूब जायेगा। मैं क्षुद्र तेरे विराट को तो अपवित्र न कर पाऊंगा, तेरा विराट मेरी क्षुद्रता को पवित्र कर देगा। इसलिए अब मैं कहा पवित्र होने को बैठा रहूं? और मेरे किये क्या होगा?
भक्त कहता, मैं तुझमें डुबकी लगाना चाहता। ज्ञानी कहता है, मैं अपने में डुबकी लगाना चाहता। दोनों ही एक ही जगह पहुंच जाते हैं। क्योंकि अंतिम अर्थों में जो तुम्हारा आतरिक केंद्र है वही परमात्मा है। भाषा का भेद है और विधि का भेद है। यात्रा की दिशा अलग— अलग होती है, मंजिल एक है। तो दो में से तुम कुछ एक काम कर लो। या तो भक्त बनना है तो भक्त बन जाओ, फिर ज्ञानियों की बकवास छोड़ दो। फिर ज्ञानी जो कहते हैं, सब बकवास है। और अगर शनि। के ही मार्ग से चलना हो तो फिर भक्ति की बातों में मत पड़ना, नहीं तो तुम बडी उलझन में पड जाओगे। ज्ञानी कहता है मोक्ष और भक्त कहता है, प्रभु, तेरे बंधन बड़े प्यारे हैं। ज्ञानी कहता है मुक्त होना है और भक्त कहता है तुझसे बंधना है!
इन फर्कों को समझ लेना। ज्ञानी तो एक तरह का तलाक दे रहा है अस्तित्व को, और भक्त एक तरह का विवाह रचा रहा है। हम ब्याह चले अविनाशी! वह तो भक्त जो कहता है कि यह तो विवाह की तैयारी हो गई। अब हम विवाह बना रहे हैं। भक्त कहता है.
मैं तुम्हारे मन—सुमन में प्रीति बन महकूं
चू पडूं अंजलि—सरों में लाजकलित मधुकरों में
आज अपनापन डुबो दूं सुरभिचर्चित निर्झरों में
मैं तुम्हारे दृग्गगन में स्वप्न बन महकूं
प्रीति बन महकूं
गुनगुनाऊं सप्त स्वर में रागरजित मीड़ कर में
कभी आरोह में गमकूं कभी अवरोह के स्वर में
मैं तुम्हारे छंद—वन में गीत बन चहकूं
प्रीति बन महकूं
वचन तोडू संवरण के, मौन के अंतःकरण के
स्पर्श के संकेत से ही बज उठे नूपुर चरण के
मैं तुम्हारे प्रणयप्रण में प्राण बन दहकूं
प्रीति बन महकूं
मैं तुम्हारे मन—सुमन में प्रीति बन महकूं
भक्त तो कहता है, प्रभु में डूब जाऊं! तुम्हारी आंखों में सपना बनकर तैरूं। मुक्ति की यहां कोई बात नहीं है। मुक्ति भक्त की भाषा नहीं है। हजार—हजार नित नूतन बंधन तुम बांधो। तुम मुझे बांधते रहो। मुझे उपेक्षित छोड़ मत देना एक किनारे। भूल मत जाना। विस्मरण मत कर देना। तुम राग के नये—नये जाल मुझ पर फैलाते रहो। तुम प्रीति के नये—नये उन्मेष मुझमें उठाते रहो। ऐसा नहो कि राह के किनारे मुझे भूल जाओ। तुम्हारे लिए बहुत हैं, मेरे लिए तुम एक अकेले हो। मैं तुम्हारे इस आनंद—उत्सव में सम्मिलित रहूं भागीदार रहूं।
यह संसार भक्त के लिए शत्रु नहीं है और जीवन विरोध नहीं है। जीवन के साथ भक्त का अविरोध है, तादात्म्य है। जीवन प्रभु का है। जो उसका है, सब शुभ है, सब सुंदर है। उसने बनाया, उसके हस्ताक्षर हैं, ठीक ही होगा। उसे फिर कोई शिकायत नहीं है।
भक्त की तो नये—नये गीतों के, नये—नये नृत्यों के जन्म में आकांक्षा है। नये विवाह रचाना है।
आओ, फिर से ध्यायें चंद्रमुखी संध्यायें
ओ सूर्यमुख सबेरे!
गोपन व्यापारों को कहा नहीं जाता है
किंतु कहे बिन भी तो रहा नहीं जाता है
आओ, पुन: रचायें संकेत की ऋचायें
ओ सप्तपदी फेरे, ओ सूर्यमुख सबेरे!
रंगरंगी चितवन में ओर—छोर बंध जायें
पर्वत—से मनसूबे बिन साधे सध जायें
आओ फिर पिघलायें अलगाव की शिलायें
ओ अजनबी अंधेरे, ओं सप्तपदी फेरे!
आलिंगित श्वासों में फिर आदिम गंध भरें
दुष्यन्ती रागों में शाकुंतल छंद भरें
आओ पुन: जगायें सोयी स्वर बलगायें
ओं गीत बन घनेरे, ओ सप्तपदी फेरे!
फिर से डालें सात फेरे। फिर से जगायें सोयी ऊर्जा को। फिर से मृत प्राणों में संजीवनी फूंके। फिर नाचे। फिर—फिर नाचे। फिर—फिर हो आना। फिर—फिर हो खोज। भक्त थकता नहीं। प्रेमी कभी नहीं थकता। ज्ञानी पहले से ही थका हुआ है। वह कहता है, कब छुटकारा मिले। अब बैठ जाने दो। अब बहुत चल चुके।
तुम साफ कर लेना अपने मन में। अपने भाव को ठीक से पहचानो। अगर तुममें हृदय प्रबल है तो भक्ति तुम्हारा मार्ग है। अगर हृदय सो गया है या जागा ही नहीं कभी और हृदय में कोई स्वर नहीं उठते तो ध्यान तुम्हारा मार्ग है। या तो निर्विचार बनी या प्रार्थनापूर्ण। मगर दोनों को एक साथ सम्हालने की चेष्टा में संलग्न मत हो जाना। अन्यथा बहुत भटकाव है फिर। और तुम बहुत उपाय करोगे और कुछ परिणाम न होगा। एक हाथ से बनाओगे, एक हाथ से मिटेगा।
इसलिए पहली बात यात्री के लिए, इस अंतर की खोज के लिए पहली बात स्मरण रखने की यही है कि मैं ठीक—ठीक से अपने को पहचान लूं। भावपूर्ण हूं मैं? या भाव से मेरा कोई संबंध नहीं जुड़ता?
तीसरा प्रश्न :
कामना के मूल में नैसर्गिक काम है, ऐसा कहा जाता है। क्या निसर्ग के
अनुकूल बहना जागरण में सहयोगी नहीं है? कृपा करके समझायें।
निसर्ग और निसर्ग का भेद समझो। वृक्ष हैं, पशु—पक्षी हैं, निसर्ग में हैं लेकिन मूर्च्छित हैं। बुद्ध हैं, कृष्ण हैं, अष्टावक्र हैं, मीरा—कबीर हैं, वे भी निसर्ग में हैं लेकिन अमूर्च्छित हैं जागे हुए हैं। पक्षी जो गीत गुनगुना रहे हैं, वह बिलकुल सोया—सोया है। उसका उन्हें कुछ भी पता नहीं। मीरा जो नाची है, जागकर नाची है। फूल खिल रहे वृक्षों में, वे मूर्च्छित हैं। बुद्ध में जो कमल खिला है वह होश में खिला है।
तो एक तो निसर्ग है आदमी से नीचे। और एक निसर्ग है आदमी से ऊपर। दोनों एक ही निसर्ग हैं लेकिन एक बात का फर्क है—मूर्च्छा— अमूर्च्छा, बेहोशी—होश। और आदमी दोनों के बीच में है। एक तरफ पशु—पक्षियों का संसार है, पौधों —पत्थरों का, पहाडों का, चांद—तारों का, वहां भी बड़ी शांति है। निसर्ग है, प्रकृति है। जैसा होना चाहिए वैसा ही हो रहा है। अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता। अन्यथा करने की स्वतंत्रता भी नहीं है। अगर कोई पक्षी प्रकृति के प्रतिकूल भी जाना चाहें तो जा नहीं सकते, क्योंकि प्रतिकूल जाने के लिए बोध चाहिए। इसलिए यह कहना कि प्रकृति के अनुकूल हैं भी बिलकुल ठीक नहीं है। अनुकूल हैं मजबूरी में क्योंकि प्रतिकूल हो नहीं सकते। कोई उपाय ही नहीं है। उन्हें याद भी नहीं है, पता भी नहीं है, होश भी नहीं है। जो हो रहा है, हो रहा है।
जैसे एक आदमी को हम स्ट्रेचर पर रखकर ले आयें—क्लोरोफाम दिया हुआ आदमी, बेहोश पड़ा है—उसको एक बगीचे में से घुमा दें। जब वह इस बगीचे में से घूमेगा तो फूलों की गंध भी उसके नासापुटों को छुएगी। सूरज की किरणें भी उसके चेहरे पर खेलेंगी। हवाओं के शीतल झोंके भी उसको स्पर्श करेंगे। शायद कुछ लाभ भी होगा—अचेतन जो भी लाभ हो सकता है प्रकृति के पास होने का। शायद जब होश में आयेगा तो कहेगा कि बडा सुंदर सपना देखा। बड़ा अच्छा लग रहा था। पता नहीं क्या था। कुछ साफ—साफ नहीं है, धुंधला— धुंधला है।
लेकिन फिर इसी आदमी को हम होश से भरकर इस बगीचे में लायें, तब बगीचा वही है, आदमी वही है। जरा—सा फर्क पड़ा है। अब होश में है, तब बेहोश था। अब यही फूल, यही वृक्ष, यही सूरज की किरणें एक अपूर्व आनंद को जन्म देंगी।
पशु—पक्षी इस संसार में क्लोरोफाम की अवस्था में हैं, बुद्धपुरुष जाग्रत अवस्था में और हम आदमी बीच में—न तो ठीक से जागे हैं, न ठीक से सोये हैं। इसलिए मनुष्य बड़ी चिंता में है। चिंता का एक ही अर्थ होता है, तनाव। एक खिंचाव पीछे की तरफ, एक खिंचाव आगे की तरफ। पीछे पशु —पक्षी पुकार रहे हैं कि लौट आओ। छोड़ दिया घर अपना, बड़ा सुख था यहां। फिर सो जाओ। इसलिए तो आदमी शराब पीता है कि फिर सो जाये।
शराब का आकर्षण इसीलिए है कि शराब एकमात्र उपाय है आदमी के पास कि फिर पशु—पक्षी हो जाये। और तो कोई उपाय नहीं है। कैसे बेहोश हो जायें! इसलिए हम बेहोश होने की कई तरकीबें खोजते हैं। शराब हो, सेक्स हो, सिनेमा हो, जहां भी हम अपने को भूल पाते हैं थोड़ी देर को, हम वहां जाकर बड़ा मनोरंजन अनुभव करते हैं—विस्मरण में। लेकिन सब एक तरह की शराब है।
तो पीछे प्रकृति खींच रही है कि तुम क्यों परेशान हो गये? आदमी, तू व्यर्थ परेशान है, लौट आ। यहां सब सुंदर है। इसीलिए तो तुम कभी जब समुद्र किनारे जाते हो, सुंदर लगता। हिमालय की शुभ्र चोटियों को देखते बर्फ से ढंका हुआ, सुंदर लगता है। वृक्षों की हरियाली भी बड़ी निकट खींचती मालूम पडती है। पशु—पक्षियों का जीवन गहन आकर्षण रखता। लेकिन जा भी नहीं सकते पीछे। शराब पीकर भी कितनी देर भूलोगे? फिर—फिर होश आ जाता है। होश आ चुका है।
फिर एक और आकर्षण है, बुद्धपुरुष आ जाते हैं। महावीर, कृष्ण, कबीर, क्राइस्ट तुम्हारे बीच से गुजर जाते हैं। उनकी मौजूदगी एक और अपूर्व प्यास को जगाती कि ऐसे ही हम कब हो जायें? यह बड़ी दूसरी पुकार है। है प्रकृति की ही पुकार, लेकिन अब मूर्च्छा की तरफ से नहीं, अमूर्च्छा की तरफ से।
और जब तक आदमी बीच में है तब तक संकट में है। तब तक त्रिशंकु की तरह है—न जमीन पर न आकाश में, अटका बीच में। दोनों तरफ खींचा जा रहा, तोड़ा—मरोड़ा जा रहा, खंड—खंड हो रहा, विक्षिप्त हुआ जा रहा, विभक्त। या तो पीछे गिर जाये, जो हो नहीं सकता, या आगे उठ जाये, जो हो सकता है। लेकिन आगे उठना कठिन है। असंभव नहीं, कठिन है। पीछे गिरना सरल है, लेकिन असंभव है। फर्क समझ लेना। फिर से पशु बन जाना सरल है लेकिन असंभव है। सरल इसलिए कि हम पशु रहे हैं पहले र वह हमारी आदतों का हिस्सा है। हमारे अचेतन में वे आदतें अब भी पड़ी हैं। जब तुम क्रोध में आगबबूला हो जाते हो तो पशु बन जाते हो। सरल है क्रोध करना, लेकिन कितनी देर रहोगे? फिर क्रोध के बाहर तो आना ही पड़ेगा। कोई सतत तो क्रोध में नहीं रह सकता। कामवासना में उतर जाना सरल तो है लेकिन कामवासना में जो विस्मरण आता है क्षण भर को, वह कितनी देर का रहेगा? वह क्षणभंगुर है। बबूले की तरह आया, गया, फूटा। फिर तुम वापिस अपने जगह खडे हो पहले से भी जीर्ण —जर्जर, पहले से भी टूटे —फूटे, पहले से भी ज्यादा विषादग्रस्त। ऐसा कौन आदमी होगा जिसको कामसंभोग के बाद पश्चात्ताप नहीं होता है? ऐसा कौन आदमी होगा जिसको क्रोध करने के बाद पश्चात्ताप नहीं होता है कि यह मैंने क्या किया! ऐसा कौन आदमी होगा जो क्रोध करके भी यह समझाने की लोगों को कोशिश नहीं करता है कि मैंने क्रोध नहीं किया।
क्यों? यह कोशिश क्यों है समझाने की? क्योंकि क्रोध का मतलब है कि तुम पशु हुए। यह बात अहंकार को चोट देती है कि मैं और पशु जैसा व्यवहार किया? तो हम लीपापोती करते हैं, समझाने की कोशिश करते हैं कि क्रोध नहीं किया। यह तो ऐसे ही दिखावा था; कि ऐसे ही खेल—खेल में कर लिया, कि यह तो उसके ही हित के लिए किया था। वह मेरा बेटा है, अगर उसको न मारता चांटा तो वह बिगड़ जाता। तुम्हारे बाप भी तुमको मारे, न तुम बचे बिगड़ने से, न तुम्हारा बेटा बचनेवाला है, न तुम्हारे बाप बचे थे। कोई भी नहीं बचता।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने बेटे को बड़े जोर से चांटा मारा। बेटा खड़ा रहा, उसने कहा, ‘एक बात पूछनी है पिताजी’ —उसकी आंख से आंसू बह रहे हैं—’कि आपके पिता भी आपको इसी तरह मारते थे?’ उसने कहा, ‘ही, मारते थे।’ ‘ और उनके पिता भी उनको इसी तरह मारते थे?’ उसने कहा, ‘हौ उनको भी मारते थे।’ ‘ और उनके पिता?’ तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘मुझे पता तो नहीं लेकिन मारते रहे होंगे।’

Friday 20 November 2015

भवसागर से पार उतरकर परम आत्मा में लीन होने के लिए जड़भक्ति
मूढूभक्ति एवं अंधभक्ति में से किसका सहारा लिया जाये?

प्रश्न ही भक्त का नहीं मालूम होता। भक्ति को गालियां दे रहे हो। कहते हो—जड़भक्ति, मूढ्भक्ति, अंधभक्ति। प्रश्न ही भक्त का नहीं है।
प्रश्न तो ज्ञानी का मालूम पड़ता है।
भक्त तो एक ही भक्ति जानता है। भक्ति के विश्लेषण भी ज्ञानियों ने किये हैं, भक्तों ने नहीं किये हैं। कितने प्रकार की भक्ति है यह भी विश्लेषण ज्ञानियों का है, भक्तों का नहीं। भक्त को क्या पता! भक्त तो विभक्ति जानता ही नहीं, विभाजन जानता ही नहीं। भक्त तो कोटियां जानता ही नहीं। भक्त तो एक को ही जानता है, दो को नहीं जानता। भक्त का हिसाब एक से आगे जाता ही नहीं।
कहते हैं, जीसस को स्कूल में पढ़ने बिठाया गया। ईसाइयों में तो यह कहानी खो गई है लेकिन सूफियों ने बचा रखी है। कुछ कहानियां सूफियों के पास हैं जीसस की, जो ईसाइयों के पास खो गई हैं। और बड़ी अदभुत कहानियां हैं। उनमें एक कहानी यह है कि जीसस को स्कूल पढ़ने भेजा गया। संख्या सिखाने की कोशिश की शिक्षक ने और वे एक पर अटक रहे। और उन्होंने कहा, जब तक तुम एक को न समझा दो तब तक दो पर क्या जाना!
और शिक्षक एक को न समझा सका। अब एक को समझाने के लिए तो कोई बुद्ध, कोई कृष्ण हो तो समझा सके। एक को समझाना तो बड़ी कठिन बात है। दो बिलकुल सरल, तीन और सरल चार और सरल। जैसी संख्या बड़ी होती जाती है वैसे समझाना आसान होता जाता है। मगर एक को कैसे समझाओ?
तुमने देखा, इस जगत में सरल चीजों को समझाना सबसे ज्यादा कठिन है। अगर कोई पूछे, दो क्या? तो तुम कह दो, एक और एक दो। एक और एक मिलकर दो। एकफएक म दो। कुछ तो उत्तर हो सकता है। लेकिन एक क्या? विभाजन नहीं होता तो उत्तर नहीं होता।
कोई तुमसे पूछे, पीला रंग क्या? तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे, पीला रंग यानी पीला रंग। अब इसमें और क्या है बताने को? तुमसे कोई पूछे, इंद्रधनुष क्या? तो तुम कहोगे सात रंग। तुम सातों रंगों का नाम ले दो, सिलसिला बता दो, क्रमवार गिनती करवा दो। मगर कोई पूछे पीला रंग? अब पीला रंग बड़ा सरल मामला है। सरल इस जगत में सर्वाधिक कठिन सिद्ध होता है। कठिन का तो विश्लेषण हो सकता है क्योंकि कठिन काफ्लेक्स होता है। कठिन में तो कई चीजें मिली होती हैं तो कुछ उपाय होता है। कुछ कह सकते हो।
जीसस अटक रहे। जीसस ने कहा, एक को तो समझाओ फिर दो पर चलें। क्योंकि तुम कहते हो, दो का मतलब होता है एक+एक, और अभी एक समझे ही नहीं। कहते हैं, शिक्षक बहुत नाराज हो गया। मां —बाप से उसने शिकायत की कि इस बच्चे को अलग करो। यह खुद तो पढ़ेगा नहीं, दूसरों को भी पढ़ने नहीं देगा। यह कहां की फिजूल बकवास लगाता है कि एक का मतलब क्या? अब किसको पता है कि एक का मतलब क्या? जितना पता है वह कामचलाऊ है।
शिक्षक बेचारा शिक्षक! जीसस ने एक ऐसी बात पूछ ली, जो कि आखिरी है। पहले दिन पूछ ली स्कूल में। यह तो विश्वविद्यालय चुक जाते हैं तब भी नहीं चुकती। यह तो जीवन के अंतिम चरण में ही रहस्य खुलता है कि एक यानी क्या!
भक्त का अर्थ होता है, जो एक में जीने लगा। उसके पास तो दो नहीं हैं। उसने तो एक को पहचान लिया।
तो इस प्रश्न में थोड़ी—सी ज्ञान की झलक है। और ज्ञान भक्ति में बाधा है। क्योंकि भक्ति का अर्थ है, प्रेम। इसलिए ज्ञानी भक्त को कहते हैं अंधा। क्योंकि उनको लगता है कि प्रेम तो अंधा होता है। प्रेम अंधा है भी—ज्ञानी के हिसाब से। मगर जानी है कौन प्रेम के संबंध में हिसाब लगानेवाला? जो प्रेम को जानते हों वही कुछ कहें। उन्हीं की बात सुनूं।
ज्ञानी को कोई हक भी नहीं है प्रेम के संबंध में कुछ कहने का। जानते ही नहीं प्रेम को, प्रेम के संबंध में कहोगे क्या? ज्ञान के संबंध में कुछ कहो, ठीक। लेकिन ज्ञानी हर चीज के संबंध में कुछ न कुछ कहता है। वह हर चीज को ज्ञान का विषय बना लेता है, विश्लेषण कर देता है। तो ज्ञानियों ने विश्लेषण कर दिया है कि भक्ति कितने प्रकार की, प्रेम कितने प्रकार का, ऐसी भक्ति, वैसी भक्ति और भक्ति का उन्हें कुछ पता नहीं। भक्ति तो बस एक प्रकार की—एकरस। उसमें दूसरा रस ही नहीं है। उसमें दूजा नहीं है, दूसरा रस कैसे होगा? प्रेमगली अति सीकरी ता में दो न समाय।
तो तुम यह फिक्र छोड़ो कि जड़भक्ति कि मूढ़भक्ति कि अंधभक्ति कि विक्षिप्त भक्ति, यह छोड़ो तुम फिक्र; भक्ति काफी है। और उस भक्ति में ये सब चीजें अपने आप आ जायेंगी। तुम एक दफा भक्त तो हो जाओ, अंधे अपने आप हो जाओगे। सारी दुनिया तुमको अंधा कहेगी, तुम नहीं अंधे हो जाओगे। तुम्हें तो आंखें मिल जायेंगी। तुम्हें तो वह दिखाई पड़ने लगेगा जो साधारण आंखों से दिखाई ही नहीं पड़ता। अदृश्य तुम्हारे लिए दृश्य बनने लगेगा। अगोचर गोचर हो जायेगा। जिसे कभी किसी ने नहीं छुआ उसका स्पर्श अनुभव होने लगेगा। लेकिन दुनिया तुम्हें अंधा कहेगी। दुनिया न मान सकेगी। क्योंकि दुनिया अंधी है। और दुनिया तुम्हें अंधा कहेगी।
एच. जी. वेल्स की एक कहानी है, कहीं मेक्सिको में एक घाटी है जहां बच्चे पैदा होकर तीन महीने के भीतर अंधे हो जाते हैं। कहानी तथ्य पर आधारित है। उस घाटी की जलवायु, भोजन कुछ ऐसाँ है कि आंख खराब हो जाती है। तो वहां एक कबीले में एक आंखवाला आदमी पहुंच गया बाहर की दुनिया से। दूर पहाड़ों में बसी हुई छोटी—सी बस्तियां हैं अंधों की। और कभी कोई आंखवाला वहां हुआ नहीं। सभी अंधे हैं। अब तीन महीने का बच्चा तो कुछ कह नहीं सकता। तीन महीने तक आंख ठीक रहती है फिर धीरे — धीरे खराब हो जाती है। जब तक बच्चा बोलने की उम्र में आता है तब तक तो आंख जा चुकी होती है। इसलिए कभी किसी ने यह कहा ही नहीं, आंख है।
यह आंखवाला आदमी बाहर की दुनिया से यात्रा करता हुआ किसी तरह उन पहाड़ों, दुर्गम पहाड़ों को पार करके पहुंच गया। वे उस कबीले के लोग इसकी बात ही न मानें। इस पर हंसे। तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया? कभी सुना? कैसी बातें कर रहे हो? किसको धोखा दे रहे हो? आंख होती ही नहीं।
और इस आदमी को प्रमाण जुटाना मुश्किल हो गया क्योंकि वहां सब अंधे थे। भीड़ तो उनकी थी। और गांव भर हंसता और कहता, कहां है वह अंधा? इस आदमी के बाबत—वें अंधा मानते इसको। इसका नाम अंधा रख लिया।
उस गाव की एक लड़की इसके प्रेम में पड़ गई। लेकिन गांव ने एक शर्त लगा दी। उन्होंने कहा कि अगर इस लड़की से प्रेम करना है तो एक शर्त है। क्योंकि हमारे यहां कभी भी. तुम कहते हो, तुम्हारे पास आंखें हैं। हमें पक्का पता नहीं, हैं या नहीं। लेकिन एक बात पक्की है कि हमारे इस देश में, हमारे इस समाज में कभी आंखवाले से हमारी किसी लड़की ने शादी नहीं की है। तो इसका शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं है, न परंपरा में कोई उल्लेख है। यह हमारी धारणा के विपरीत है। अगर तुम कहते हो, तुम्हारी आंखें हैं, तो तुम्हें आपरेशन के लिए राजी होना पड़े। हम तुम्हारी आंखें निकाल लेते हैं। तुम अंधे हो जाओ तो ही शादी कर सकते हो।
ठीक है। जब कोई ब्राह्मण से शादी करे तो वह कहता है, ब्राह्मण हो कि नहीं? कोई हिंदू से शादी करे तो वह कहता है, तुम हिंदू हो कि नहीं? कोई ईसाई से शादी करे तो वह कहता है, पहले ईसाई हो जाओ फिर हम शादी कर लेंगे।
उन्होंने भी ठीक कहा। अंधे हो जाओ। हमारे जैसे हो जाओ। हम नहीं मानते कि तुम अंधे हो कि आंखवाले हो, मगर हम जैसे हो जाओ तो ही हमारी लड़की से शादी कर सकते हो।
वह आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ गया। और उसने कहा, रात भर का मुझे मौका दो! इधर प्रेम खींचे, उधर आंखों का आग्रह। लेकिन सुबह होते —होते वह भाग खड़ा हुआ। उसने कहा कि प्रेम तो फिर कहीं हो जायेगा। ये आंखें एक बार गईं तो गईं। और फिर उसे सूरज समझ में आने लगा और रंग और रूप और सारे जगत का यह सौंदर्य, यह सब खो दूं? वह भाग खड़ा हुआ। उसने कहा कि ये लोग कहीं पकड़कर जबर्दस्ती आपरेशन कर ही न दें।
तुम जब भक्त बनोगे तो लोग तुम्हें अंधा कहेंगे यह बात सच है। क्योंकि लोग अंधे हैं। उनके पास भक्ति की आंखें नहीं हैं।
प्रेम की एक आंख है। कुछ चीजें हैं जो प्रेम ही देखता है, और कोई नहीं देखता। इसलिए कहता हूं कि प्रेम की एक अपनी आंख है। अपना देखने का ढंग, अपनी तर्ज, अपनी शैली है। अपना एक अलग ही मार्ग है प्रेम का। कुछ चीजें केवल प्रेम ही देख पाता है और कोई नहीं देख पाता। कुछ चीजों के लिए तर्क बिलकुल अंधा है।
परमात्मा को देखना है? तर्क अंधा है। प्रेम से ही देखा जा सकता है। सौंदर्य को देखना है? तर्क अंधा है। प्रेम से ही देखा जा सकता है। जीवन में जो भी सत्यं—शिवं —सुंदरम् है वह सभी प्रेम से देखा जाता है, तर्क से नहीं देखा जाता। तर्क तो तीनों की गरदन दबाकर मार डालता है।
तुम्हें अगर भक्ति में थोड़ा भी रस है —होगा जरूर, पूछा है—लेकिन तुम्हारे मन में तथाकथित ज्ञानियों ने बहुत जहर भर दिया है, उस जहर को अलग करो। उससे छुटकारा करो अपना। भक्ति तो एक ही तरह की है। भक्ति में कहां दो तरह के प्रकार का प्रश्न? भक्ति में दो की जगह ही नहीं है।
और फिर तुम पूछते हो, ‘भवसागर से पार उतरकर……।’
यह भी भक्त का सवाल नहीं है। भवसागर से पार उतरना भी ज्ञानियों का ही सवाल है। भवसागर! वह शब्द भी ज्ञानियों का है। भक्त तो कहता है, हे प्रभु! हजार—हजार बंधनों में मुझे बांधे रखना। वह भवसागर वगैरह से पार उतरने की बात ही नहीं करता। वह कहता है, तेरा. तेरा ही संसार है, पार क्या उतरना! तेरा ही रूप, तेरा सौंदर्य, तेरा ही रंग) तेरा ही रास। जाना कहां है? भक्त तो कहता है, खूब—खूब मुझे उलझाये रखना; जाने मत देना।
भक्त की भाषा तुम्हारे पास नहीं है—जिसने भी प्रश्न पूछा है। भवसागर का तो अर्थ है, कैसे छुटकारा हो? और अगर तुम इस संसार से छुटकारा चाहते हो तो संसार बनानेवाले से तुम्हारा लगाव बहुत गहरा नहीं हो सकता है।
तुमने कभी देखा? तुम कवि को तो प्रेम करते हो, उसकी कविता को घृणा करते हो, यह संभव है? तुम एक चित्रकार को तो प्रेम करते हो लेकिन कहते हो तुम्हारे चित्रकार होने में तो ठीक हो, सब अच्छा है, लेकिन तुम्हारे चित्रों में आग लगा देने का मन होता है। तुम अगर पिकासो से कहोगे कि तुम तो भले हो, तुमसे तो हमारा बड़ा लगाव है, लेकिन तुम्हारी ये सब जितनी पेंटिंग हैं, इनमें आग लगा देने का मन होता है। तो क्या अर्थ हुआ इसका? अगर सब चित्रों में आग लगा देने का मन होता है तो तुमने चित्रकार को मार ही डाला। क्योंकि चित्रकार अपने चित्रों में है। चित्र जल गये तो चित्रकार एक साधारण आदमी है, चित्रकार नहीं है। अगर गीतकार के गीत तुमने नष्ट कर दिये तो गीतकार न रहा। अगर नर्तक का नर्तन छीन लिया तो साधारण हो गया, नृत्यकार न रहा।
तुम परमात्मा से उसकी सृष्टि छीन लो, परमात्मा परमात्मा थोड़े ही रह जाता है। तुमने बड़ा गहरा अपमान कर दिया। भक्त ऐसी भाषा नहीं बोलता। भक्त तो कहता है कि इस योग्य बनूं कि तू मुझे बार—बार बंधनों में बाधे, बार —बार छिपे और छिया —छी का खेल हो। बार—बार मुझे पुकारे और मैं तुझे खोजूं और तू न मिले। दूर —दूर तेरी छाया दिखाई पड़े, दौडूं और फिर तुझे न पाऊं, और फिर दौडूं और फिर तुझे न पाऊं। और यह खेल अनंत काल तक चलता रहे।
भक्त की भाषा अलग है। भक्त की भाषा में मोक्ष के लिए जगह नहीं है। भक्त के लिए तो यही मोक्ष है। यही तो भक्त की क्रांतिकारी दृष्टि है। इसको मैं उसकी आंख कहता हूं। ज्ञानी का मोक्ष कहीं और है। वह कहता है इस भवसागर से छुटकारा हो, तब मोक्ष। उसका मोक्ष जीवन विरोधी है। वह कहता है, जीवन कैसे विनष्ट हो? आवागमन कैसे समाप्त हो? तब मोक्ष।
ज्ञानी का मोक्ष थोड़ा कमजोर है, वह इस संसार को नहीं झेल पाता। भक्त का मोक्ष बड़ा शक्तिशाली है। वह कहता है, रहे, यह संसार रहे, और हजार संसार रहें, मेरी मुक्ति में कोई बाधा नहीं पड़ती। मेरी मुक्ति ऐसी है कुछ कि बंधनों में भी जीवित रहती है।
और स्वतंत्रता तभी समग्र है, जब कारागृह में भी कोई तुम्हें डाल दे और तुम्हारी स्वतंत्रता नष्ट न हौ। हाथों में जंजीरें हों और फिर भी तुम्हारी स्वतंत्रता नष्ट न हो। तुम्हारे प्राण स्वतंत्रता के सौरभ से भरे रहें। विपरीत परिस्थितियों में भी जब स्वतंत्रता बनी रहे तभी तुम स्वतंत्र हो। अगर अनुकूल परिस्थितियों में स्वतंत्र रहे, यह कोई स्वतंत्रता नहीं। समझो इसे।
जब जीवन में सब सुख है तब तुम प्रसन्न दिखाई पड़ते हो, इस प्रसन्नता का कोई बड़ा मूल्य नहीं। जब जीवन में सब दुख हों और तुम्हारे ओठों पर मुस्कुराहट हो तो मुस्कुराहट का कुछ मूल्य है। जब पैरों में कांटे चुभे हों और ओठों पर मुस्कुराहट रहे, गले में फांसी लगी हो और ओठों पर मुस्कुराहट रहे तब तब तुम्हारी मुस्कुराहट तुम्हारी है। अन्यथा सुख — सुविधा में कौन नहीं मुस्कुराने लगता है? उस मुस्कुराहट का कोई मूल्य नहीं है। जीवन में अगर तुम नाचो, यह क्या नाच! मौत आये और तब भी तुम नाचते हुए विदा होओ तो तुमने नाच सीखा, तो तुमने नाच जाना। अनुकूल में राजी हो जाना तो बिलकुल ही स्वाभाविक है, प्रतिकूल में राजी हो जाना क्रांति है।
और सबसे बड़ी प्रतिकूलता जो हो सकती है वह संसार है। हिमालय पर बैठकर मन शांत हो जाये, कोई बडी गुणवत्ता नहीं है। बाजार में बैठे —बैठे, दूकान पर बैठे —बैठे, हाथ में तराजू लिये —लिये मन शांत हो जाये।

Thursday 19 November 2015

एक ही प्रश्न उठ रहा है हृदय में और वह भी पहली बार कि कौन है तू? क्या है, कहां पर है? अपने से पूरी—पूरी पहचान हो जाये ताकि एक जान हो जायें। तू तू न रहे, मैं मैं न रहूं। एक दूजे में खो जायें। और जब तक पहचान नहीं होती तब तक एक कैसे हो जायें? और उचित भी यही है कि तभी मैं आपके दरबार में आऊं। आने का मजा भी तभी रहेगा।

ऐसे अपने मन को धोखे मत देना। निरंतर आदमी बचने की नई—नई तरकीबें खोज लेता है। परमात्मा के द्वार में भी तुम तब जाओगे जब अपने को जान लोगे तो परमात्मा के द्वार में जाने की जरूरत क्या रह जायेगी? और यह अकड़ छोड़ो कि अपने को जानकर पहुंचेंगे, कुछ पात्रता लेकर पहुंचेंगे, कुछ योग्य बनकर पहुंचेंगे।
यह तुम्हारी योग्यता और तुम्हारी पात्रता का रोग ही तो तुम्हें भटका रहा है। कुछ होकर पहुंचेंगे। ऐसे कैसे चले जायें नंग—धड़ंग? कुछ साज—सामान से पहुंचेंगे। परमात्मा के दरबार में भी तुम जैसे हो वैसे ही नहीं जाओगे? आयोजन करोगे? पहले और तरह के आयोजन थे सिंहासनों के, अब यह नया सिंहासन खोजा—आत्‍मज्ञानी होकर पहुंचेंगे।
‘तभी तो मजा रहेगा।’
तुम परमात्मा के सामने भी निरीह, अकिंचन बनकर खड़े न हो सकोगे? तुम परमात्मा के सामने भी अज्ञानी बनकर खड़े न हो सकोगे? वहां भी अहंकार को ले जाओगे? अपने को जानकर जाओगे? बात बड़ी ऊंची तुमने कही ऐसा लगता, लेकिन ऊंची बातों में हम बड़ी नीची बातें छिपा लेते हैं। आदमी की कुशलता अपार है। वह रोगों के ऊपर बड़ी सुगंधिया छिड़क लेता है। भ्रांतियों को भी अच्छे—अच्छे नाम दे देता है। यह आत्मज्ञान भी अहंकार की ही सूक्ष्म घोषणा है।
वहां तो तुम ऐसे ही चले जाओ, जैसे हो। तैयार मत होओ। सजी मत। मजा इसमें ही है कि तुम जैसे हो ऐसे ही चले जाओ। तुम जैसे हो ऐसे ही वहां स्वीकार हो। जरा भी अन्यथा होने की जरूरत नहीं है। परमात्मा की कोई भी शर्त नहीं है तुम पर कि तुम ऐसे होओ, तब आ सकोगे। अगर किन्हीं ने शर्तें लगाई हैं तो परमात्मा ने नहीं, तुम्हारे महात्माओं ने लगाई हैं। कि पहले साधु बनो, पहले तपस्वी बनो, त्यागी बनो, आचरण, पुण्य—और इतनी शर्तें लगा दी हैं कि तुम जन्मों—जन्मों तक भी बनोगे तो बन न पाओगे।
मैं तुमसे कहता हूं तुम जैसे हो ऐसे ही—सब घावों से भरे, धूलि— धूसरित, गंदे, कुरूप, अज्ञानी, ऐसे ही पुकार उठो। ऐसे ही चल पड़ो। तुम अंगीकार हो। उसने तुम्हें अंगीकार किया ही है। तुम चोर हो तो भी अंगीकार हो। तुम बेईमान हो तो भी अंगीकार हो। क्योंकि तुम कैसे हो यह कोई शर्त ही नहीं है, तुम हो इतना काफी है। सच तो यह है, अगर उसने तुम्हें अंगीकार न किया होता तो तुम हो ही न सकते थे। उसके बिना सहारे के तुम कुछ भी न हो सकते। चोर भी न हो सकते।
मैं तुमसे कहता हूं,जब तुम चोरी करने जा रहे हो तब भी वही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है। जब तुम पाप करने गये हो तब भी उसके ही सहारे गये हो। अपने सहारे तो तुम कहीं भी नहीं जा सकते। तुम अपंग हो। तुम सदा उसके ही धनुष पर तीर बनकर चढ़े हो। तुमने कोई भी लक्ष्य भेदे हों, सभी लक्ष्यों में उसकी ही ऊर्जा है।
ऐसा जिस दिन जानोगे, उस दिन फिर ये बातें न करोगे। फिर आदमी का तर्क! आदमी सोचता है, पहले कुछ इंतजाम तो कर लूं। व्यवस्था जुटा लूं। सब भांति योग्य हो जाऊं। इसलिए तो तुम दरबार कह रहे हो। यह दरबार नहीं है परमात्मा का। दरबार! तो तुम फिर राजाओं की, सम्राटों की बातें भीतर ले आये। वहां तैयारी चाहिए। वहां तुम्हें स्थान नहीं मिलता, तैयारी को स्थान मिलता है।
मिर्जा गालिब के जीवन में उल्लेख है। बहादुरशाह ने निमंत्रण दिया है। और भी नगर के प्रतिष्ठित लोग आमंत्रित हुए हैं। गालिब को भी निमंत्रित किया है। लेकिन गरीब है गालिब। उधारी में दबा है। कपड़े —लत्ते पास नहीं। बड़ा संकोच से भरा है। फिर सोचने लगा मन ही मन कि मुझे निमंत्रण दिया है तो अब जैसा हूं वैसा जाऊंगा। मित्रों ने कहा कि नहीं, ऐसे मत जाओ। मित्र कोट—कमीज मांग लाये, जूते माग लाये, सब सामान इकट्ठा कर दिया कि यह पहनकर चले जाओ। गालिब का मन सोच में पड़ गया, ये कपड़े पहनूं न पहनूं? अपने कपड़े अपने हैं, दूसरे के दूसरे के हैं। कितने ही सुंदर हों, उधार हैं। यह झूठ क्यों आरोपण करूं?
हिम्मत करके अपने ही मैले —कुचैले पुराने कपड़े पहने चला गया। पर वही हुआ जो मित्रों ने कहा था। द्वारपाल ने भीतर प्रविष्ट ही न होने दिया। उसने कहा, भाग यहां से। द्वारपाल तो उसके हाथ में जो निमंत्रण—पत्र था वह भी छुड़ाने लगा। उसने कहा, तू किसी का चुरा लाया होगा। ऐसे आदमियों को सम्राट का कहीं निमंत्रण मिलता है? तू किसका निमंत्रण चुरा लाया? भाग यहां से। दुबारा लौटकर यहां मत आना।
गालिब तो बहुत परेशान और अपमानित हुआ, लेकिन समझ भी खूब आई। खूब हंसा भी मन ही मन। घर गया, वह जो उधार कपड़े थे, पहनकर टीम—टाम करके वापिस आ गया। वही द्वारपाल झुक—झुककर नमस्कार किया। कहा, मीर साहब, आइये। वह बड़ा हैरान हुआ कि क्या यह आदमी इतना भी नहीं देख सकता. कि मैं वही हूं। लेकिन आदमी तो मुखौटे देखते हैं। आदमी आत्मायें थोड़े ही देखते हैं। आदमी तो पशुओं से भी गये—बीते हैं।
ईसप की कहानी है एक, कि एक लोमड़ी को एक मुखौटा मिल गया। किसी नाटक कंपनी के पास घूम रही होगी, एक मुखौटा मिल गया। तो उसने उल्टा—पलटा, खूब उल्टा—पलटा। उसको कुछ समझ में न आये कि पीछे तो कोई है ही नहीं। उल्टती—पलटती गई, आखिर उसने कहा, हद हो गई। इतना बड़ा चेहरा और भेजा बिलकुल नहीं! भीतर कुछ है ही नहीं? यह जो ईसप की लोमड़ी है, यह भी ज्यादा समझदार रही होगी उस बहादुरशाह के द्वारपाल से।
और जब गालिब गया तो बहादुरशाह ने उसे बड़े सम्मान से अपने पास ही बिठाया। और भी मेहमान थे। बहादुरशाह के मन में बड़ी कद्र थी कविता की। खुद भी कवि था। कोई बहुत बड़ा कवि तो नहीं लेकिन फिर भी कवि था। और कविता का बड़ा आदर था मन में। लेकिन बड़ा हैरान हुआ जब भोजन परोसा गया और गालिब उठा—उठाकर मालपुण्न्दू, बर्फियां अपने कोट को छुलाने लगा पगड़ी को छुलाने लगा तो वह जरा चौंका। ऐसे तो कवि झक्की होते हैं मगर यह क्या कर रहा है? और न केवल इतना, गालिब कहने लगा, ले कोट, खा। ले पगड़ी, खा। खूब मन भरकर खा।
बहादुरशाह ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? ज्यादा तो नहीं पी गये हैं? पियक्कड़ तो था। सोचा ज्यादा पी गया हो। वह यह क्या कर रहा है? गालिब ने कहा, नहीं, पीया बिलकुल नहीं हूं,लेकिन मैं आया ही नहीं हूं। ये कपड़े ही आये हैं। ये ही भोजन करें। निमंत्रण आप) भला मुझे भेजा हो द्वारपाल ने मुझे प्रविष्ट नहीं होने दिया है। ये कपड़े ही भीतर आये हैं। मैं तो आया ही नहीं। मैं तो अपमानित बाहर से घर लौटा दिया गया हूं।
ये आदमियों के दरबार हैं। तुम ईश्वर के दरबार को भी आदमियों का दरबार समझते हो? वहां तुम जैसे भी जाओगे वैसे ही स्वीकार हो जाओगे। यह अकड़ छोड़ो। यह बात ही व्यर्थ है कि पहले मैं अपने को जान लूं र फिर मजा रहेगा।
और दूसरी बात खयाल रखो कि तुम बिना उससे मिले अपने को जान न पाओगे। अब और थोड़ी अड़चन है। क्योंकि उससे मिलने का अर्थ क्या है? उससे मिलने का अर्थ ही यही है, स्वयं की आत्यंतिक सत्ता से मिलना। परमात्मा कुछ अलग थोड़े ही बैठा है। कि कहीं बैठा है, तुम चले गये द्वार पर दस्तक दे दी, भीतर बुला लिये गये। परमात्मा भीतर बैठा है। जब तुम स्वयं में जाओगे तभी उसमें जाओगे। वहीं उसका दरबार है —तुम्हारे स्वभाव में।
तो तुम स्वयं को जान लो और फिर परमात्मा के पास जाओ, यह तो बात हो ही नहीं सकती। स्वयं को जाना कि परमात्मा को जान लिया। परमात्मा को जान लिया कि स्वयं को जान लिया। स्वयं को जान लेना और परमात्मा को जान लेना दो बातें नहीं हैं, एक ही घटना है। एक ही घटना को कहने के दो ढंग हैं।
तो यह तो तुम बांधना ही मत खयाल अपने मन में कि पहले स्वयं को जान लेंगे, फिर जायेंगे। तो तुम स्वयं को भी न जान सकोगे और अभी तुमने स्वयं को जो समझा है कि यह मैं हूं, वह तो तुम हो ही नहीं। किसी ने समझा है मैं देह हूं,किसी ने समझा है मैं मन हूं,किसी ने समझा है कि हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध। किसी ने समझा कि ब्राह्मण, शूद्र; किसी ने समझा गोरा, काला, किसी ने समझा जवान, का। यह तुम कुछ भी नहीं हो। यह तो मन और शरीर का ही सब जोड़ है। इनके पार तुम हो, साक्षी तुम हो। उस साक्षी में प्रवेश ही परमात्मा में प्रवेश है।
फिर एक बात और—इस जगत में जैसे नियम हैं, ठीक उससे विपरीत नियम हैं अंतर्जगत के। यहां अगर तुम्हें कुछ पाना हो — धन ., पद, प्रतिष्ठा, तो लड़ना पड़े, जूझना पड़े, छीन—झपट मचानी पड़े। गलाघोंट प्रतियोगिता है। और भी छीन रहे हैं; तुम्हें भी छीनना पड़े। क्योंकि बाहर की दुनिया में जो धन है उसे तुमने पा लिया तो दूसरा वंचित रह जायेगा। दूसरे ने पा लिया तो तुम वंचित रह जाओगे। यहां तो दो ही उपाय हैं, या तुम छीन लो या दूसरे को छीन लेने दो।
भीतर की दुनिया के नियम बिलकुल ही भिन्न हैं। वहां तुम ज्ञानी बन जाओ तो दूसरे को अज्ञानी नहीं बनना पड़ता। दूसरा ज्ञानी बन जाये तो तुम्हारा कुछ छिनता नहीं। वहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वहां तो जो छीन—झपट करेगा, चूक जायेगा। वहां तो बिना छीन—झपट मिलता है। वहां तो बिना प्रयास मिलता है। बाहर जो बैठा रहा, चूकेगा। भीतर जो चलता रहा, चूकेगा। बाहर जो चलता रहा, पायेगा। भीतर जो बैठ गया, पायेगा।
ध्यान क्या है? बैठ जाना। ऐसी बैठक मार लेनी भीतर—यही तो आसन शब्द का अर्थ है। आसन का अर्थ है, ऐसी बैठक मार ली कि हिलते ही नहीं। चलना—जाना तो दूर रहा, कंपन भी नहीं होता। अकंप होकर भीतर बैठ गये, बस वहीं मिलना है।
बाहर की तो कोई भी मंजिल तुम्हें दिल्ली जाना तो यात्रा करनी पड़े। और तुम्हें स्वयं में आना तो सब यात्रा छोड़नी पड़े। बाहर खोजना, आंख खोलनी पड़े। भीतर खोजना, आंख बिलकुल बंद कर लेनी पड़े। बाहर कुछ करना है, शरीर का माध्यम लेना पड़ेगा। भीतर कुछ करना है, शरीर का माध्यम छोड़ देना पड़ेगा। उतरो घोड़े से। बाहर जाना है तो घोड़े की सवारी है। शरीर पर चढ़कर ही जाओगे और कोई उपाय नहीं है। भीतर जाना है तो शरीर की कोई आवश्यकता ही नहीं है। इस घोड़े को भीतर मत लिये चले जाना, नहीं तो भीतर जा न पाओगे। बाहर जाना है तो सोच—विचार। भीतर जाना है तो निर्विचार। ये बड़ी विपरीत बातें हैं।
इसका एक सूत्र मैं तुमसे निवेदन कर दूं। बाहर विज्ञान कहता है, कारण—कार्य का नियम; काज—इफेक्ट। पहले कारण फिर कार्य। पहले मां फिर बेटा। पहले बीज फिर वृक्ष। कारण पहले, कार्य पीछे। इससे अन्यथा बाहर नहीं होता।
भीतर की दुनिया में मामला उल्टा है। यहां कार्य पहले, कारण पीछे। पहले बेटा फिर मां। इसीलिए तो कबीर ने उलटबासियां लिखी हैं।
पानी लग गई आगी मछली चढ़ गई रूख
अब मछलियों को तुमने कभी झाडू पर चढ़ते देखा? मछली चढ़ गई रूख? पानी में कभी आग लगती देखी? पानी तो आग बुझाता है। पानी लग गई आगी?
कबीर यह कह रहे हैं, यह उलटबासी है। ये भीतर के सूत्र हैं। बाहर जैसा होता है इससे उल्टा भीतर होता है। इसलिए बाहर के गणित को भीतर मत फैलाना। बाहर तो ऐसा ही लगेगा कि जब अपने को ही नहीं जानते तो परमात्मा को कैसे जानेंगे? बिलकुल तर्कयुक्त है बात। अभी अपना ही पता नहीं कि हम कौन हैं तो परमात्मा को क्या खाक खोजें! कहां खोजें? अभी अपने को ही नहीं पा सके तो और को क्या पा सकेंगे? अपनी ही तो सुध नहीं है और परमात्मा की यात्रा पर चले! पहले होश में तो आ जाओ।
जैसे कोई शराबी आदमी डावांडोल होता चल रहा है और किसी से पूछता है कि परमात्मा को खोजना है, कहां है? तो तुम क्या कहोगे? कि बड़े मियां! पहले जरा होश तो लाओ। हाथ—पैर तो कहां के कहां पड़ रहे हैं। कहीं रखते हो, कहीं जा रहे हैं। और परमात्मा को खोजने निकले इस हालत में? अच्छी— भली हालत में नहीं मिलता, इस हालत में मिलेगा? पहले होश तो सम्हालो थोड़ा। जरा अपने होश में तो आओ, फिर खोजना परमात्मा को।
बाहर की दुनिया में यह जवाब बिलकुल ठीक है, लेकिन भीतर की दुनिया में वे ही पहुंचते हैं जो लड़खड़ाते हैं, शराबी की तरह चलते हैं। पानी लग गई आगी!
एक पांव इधर रखते हैं, दूसरा उधर पड़ता है। जाते उत्तर हैं, पहुंच पूरब जाते हैं। ऐसे लोग पहुंचते हैं। मतवाले पहुंचते हैं, दीवाने पहुंचते हैं, पागल पहुंचते हैं, मस्त पहुंचते हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी रोज—रोज नदी के किनारे जाकर घूमने के लिए जाता था सुबह—सुबह ब्रह्ममुहूर्त में। रोज—रोज आता देखकर जो मछलियों की रानी थी वह उसे पहचानने लगी थी। लेकिन मछली तो पानी में थी, आदमी नदी के किनारे टहलता था। पानी में तो उल्टी छाया बनती है, प्रतिबिंब तो उल्टा बनता है।
तुम जब दर्पण में खडे होते हो तब तुम्हें याद नहीं रहती लेकिन प्रतिबिंब उल्टा बन रहा है। तुम वैसे ही थोड़े दिखाई पड़ रहे हो, जैसे हो; उससे उल्टे बन रहे हो। नहीं हो तो किताब का पन्ना सामने रखकर दर्पण के देखना तब तुमको समझ में आ जायेगा। सब अक्षर उल्टे हो गये। वह तो तुम रोज खडे होते हो तो आदत हो गई है, तो तुमको खयाल में नहीं आता कि बायां दायां दिख रहा है, दायां बांया दिख रहा है। रोज की आदत है। किताब का पन्ना सामने करना दर्पण के, तत्काल समझ में आ जायेगा कि सब उल्टा हो जाता है।
तो मछली तो पानी में से देखती थी प्रतिफलन। तो उसको दिखाई पड़ता था आदमी का सिर नीचे, पैर ऊपर। स्वभावत: मछली की अकल, और मछली का अनुभव भी यही था। पानी के ऊपर तो उसने कभी आकर देखा नहीं था। इस आदमी के डर के मारे आती भी नहीं थी, और नीचे सरक जाती थी। मानती थी कि यही आदमी के होने का ढंग है कि सिर नीचे, पैर ऊपर। और ऐसा ही उसने शास्त्रों में भी पढ़ा था। मछलियों के लिखे शास्त्र! उन्होंने भी ऐसा ही आदमी देखा था।
लेकिन एक दिन इस आदमी को योग का शौक चढ़ा और यह शीर्षासन करने लगा वहीं नदी के किनारे। जब इसने शीर्षासन किया तो मछली बड़ी चिंतित हुई कि इस आदमी को क्या हो गया? क्योंकि नीचे उसने पानी में देखा कि सिर ऊपर और पैर नीचे। यह तो बात गड़बड़ हो गई। क्या यह आदमी शीर्षासन कर रहा है? आज पहली दफा उसे आदमी वैसा दिखाई पड़ा था जैसा वस्तुत: आदमी होता है। मगर उनके हिसाब से तो गड़बड़ हो रही थी सब बात। कि आदमी को हो क्या गया है? दिमाग खराब हो गया है? सदा सिर नीचे होता था, पैर ऊपर होते थे, आज पैर नीचे और सिर ऊपर? उत्सुकतावश मछली पानी के ऊपर आई। और जब उसने देखा तो वह बड़ी मुश्किल में पड़ गई। तबसे मछलियों में खबर है कि आदमियों का कुछ भरोसा नहीं। इनके स्वभाव के संबंध में कुछ निश्चित नहीं किया जा सकता। होते कुछ, दिखाते कुछ। असलियत कुछ, खबर कुछ फैलाते।
हमने अभी जो भी जगत देखा है वह हमने आदमी के दृष्टिकोण से देखा है। आदमी का दृष्टिकोण मछलियों जैसा बंधा दृष्टिकोण है। अभी हमने परमात्मा को सीधा—सीधा नहीं देखा, प्रतिफलन देखा है। प्रतिफलन की खोज ही विज्ञान है। इसलिए विज्ञान में कारण पहले, कार्य पीछे। और धर्म प्रतिफलन की खोज नहीं, सत्य की खोज है। वहां कार्य पहले, कारण पीछे। पानी लग गई आगी! यह उलटबांसी का अर्थ है। उलटबांसी का अर्थ ही यह होता है, कुछ बात जैसी तुम्हें दिखाई पड़ती है इससे उल्टी है।
तुम कहते हो, तर्कयुक्त कहते हो कि पहले अपने को जान लूं फिर परमात्मा को जानने जाऊं। मैं तुमसे कहता हूं तुम परमात्मा को ही जानकर स्वयं को जान पाओगे। तुम कहते हो, लक्ष्य मिल जाये तो स्रोत मिल जायेगा। मैं तुमसे कहता हूं स्रोत मिल जाये तो लक्ष्य मिल जाये। तुम तो परमात्मा को भी खोजने जाते हो तो बाहर जाते हो। आदमी की सारी पकड़ बाहर है।
और अब तुम एक ऐसी झंझट खड़ी कर ले रहे हो अपने मन के लिए कि जब तक अपने को न जान लेंगे. यह एक ऐसी शर्त है जो तुम पूरी न कर सकोगे। न होगी शर्त पूरी, न तुम कभी परमात्मा की खोज को जाओगे। यह तो तुमने ऐसा किया, न रहा बांस न बजी बांसुरी। तुमने तो प्रश्न की जड़ ही तोड़ दी। तुम्हारी खोज अवरुद्ध हो जायेगी।
मैं तुमसे कहता हूं तुम इन बातों में मत पड़ो। तुम परमात्मा को खोज लो। परमात्मा को खोजने से ही तुम स्वयं को जान पाओगे। यहां स्वयं को जानना पहले नहीं होगा, पीछे होगा; छाया की तरह आयेगा। क्यों? क्योंकि परमात्मा तुम्हारा वास्तविक होना है। तुम्हारा होना तो छाया मात्र है। तुम्हारा होना तो भ्रम मात्र है, परमात्मा का होना वास्तविक है, शाश्वत है। तुम्हारा होना तो क्षणभंगुर है। सदा स्मरण रखो, किन्हीं होशियार तरकीबों से अपनी यात्रा को खराब मत कर लेना, अपने पैरों को लंगड़े मत कर लेना। चलो, जैसे हो। इसलिए तो जीसस कहते हैं, वे ही पहुंच पायेंगे मेरे प्रभु के राज्य में जो छोटे बच्चों की भांति हैं। नंग— धडंग, जैसे थे वैसे ही पहुंच गये। साज—संवार की फिक्र ही न की। श्रृंगार ही न किया।
उससे भी क्या छिपाना! श्रृंगार करके भी क्या छिपेगा! जिसने तुम्हें बनाया उससे क्या छिपाना! जिससे तुम आये उससे क्या छिपाना! पाप है तो पाप। बुरा है तो बुरा, भला है तो भला। जैसे हो ऐसे ही चल पड़ो तो ही पहुंच पाओगे। और पहुंच गये तो क्रांति है। पहुंचने के पहले क्रांति की आशा मत रखना। पहुंच गये तो क्रांति है। जो पहुंचे वे बदले। जो बदलने की राह देखते रहे वे बदले तो कभी नहीं, पहुंचे भी नहीं। पहुंचने से भी चूके।

Wednesday 18 November 2015

अपने में विराजमान होकर अब न तो किसी में लय होना है, न कहीं समाधि लगानी है। क्योंकि कोई है ही नहीं जिसमें लय होना हो। कोई है ही नहीं जिसमें समाधिस्थ होना हो। न तो कुछ लोक है, न कुछ परलोक है। ये सारे द्वंद्व गये। ये सारे विभाजन गये। सब विभाजन भय के हैं। मृत्यु के कारण सब विभाजन हैं। अब तो जीवन भी नहीं है, मृत्यु भी नहीं है।

और अंतिम सूत्र आज का

‘आत्मा में विश्रांत हुए मुझको धर्म, अर्थ और काम की कथा अलम् है, योग की कथा अलम् है और विज्ञान की कथा भी अलम् है।’

अल त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाप्यलम्।

अर्ल विज्ञानकथया विश्रांतस्य ममात्मनि।।

अलम् शब्द का अर्थ होता है, हो गयी बात, पूर्ण हो गयी। आ गया पूर्ण विराम।’दि एंड़’। अलम् का अर्थ होता है, आखिरी बात आ गयी, आत्यंतिक। यहां कहानी पूरी होती है, अलम् का अर्थ होता है। इत्यलम्—दि एंड़।

आत्मा में विश्रांत हुए मुझको अब न तो धर्म की कथा में कोई रुचि है, न अर्थ की कथा में कुछ रुचि है, न काम की कथा में कुछ रुचि है। जो आदमी काम की कथा में रुचि लेता है, वह बताता है कि उसका शरीर अभी कामातुर है। जो आदमी धन की कथा में रुचि लेता है, वह बताता है कि उसका मन अभी धनातुर है। और जो आदमी धर्म की कथा में रुचि लेता है, उसका मन बताता कि उसके प्राण मोक्ष पाने के लिए, परमात्मा पाने के लिए उत्सुक हैं, जिज्ञासु हैं।

जनक कहते हैं, मैंने पा लिया। तुमने कहा और मैंने पा लिया। तुमने पुकारा और मैंने सुन लिया। तुमने चुनौती दी और मैं जाग गया।

अल त्रिवर्गकथया…..।

अर्थ, काम, मोक्ष, धर्म इत्यादि की सब कथाएं समाप्त हो गयीं। मैं पूर्ण हुआ।

अल विज्ञानकथया विश्रांतस्य ममात्मनि।

योग की कथा भी अब व्यर्थ है और विज्ञान की भी। विज्ञान का अर्थ होता है, बाहर का योग। योग का अर्थ होता है, भीतर का विज्ञान। अब तो बाहर— भीतर का भेद नहीं रहा, इसलिए सब बातें व्यर्थ हो गयीं। अब शब्द का कोई प्रयोजन नहीं है। शब्द का काम पूरा हो गया। एक काटा लग जाता है पैर में, तुम दूसरे काटे से उस काटे को निकाल लेते। अब तो दोनों काटे बेकार हो गये। अब तुम दोनों को फेंक देते हो।

जनक यह कह रहे हैं कि मैंने शब्दों के बहुत—बहुत काटे जन्मों —जन्मों में लगा रखे थे, सदगुरु की कृपा से, तुम्हारे शब्दों से तुमने मेरे काटे निकाल लिये, अब तो तुम्हारे शब्दों की भी कोई जरूरत नहीं है। अब तो बात ही खतम हो गयी। अलम्। आ गया अंत।

वह मौजे —हवादिस का थपेड़ा न रहा

कश्ती वह हुई गर्क तो बेड़ा न रहा

सारे झगड़े थे जिंदगानी के ‘ अनीस’

जब हम न रहे तो कुछ बखेड़ा न रहा

अलम्। हरि ओम तत्सत्।


Monday 16 November 2015

क्‍व च आत्मा क्‍व च वानात्मा क्‍व शुभं क्याशुभं तथा।

क्‍व चिंता क्‍व च वाचिता स्वमहिम्नि स्थितस्य मे।

अपनी महिमा में बैठा, न कोई चिंता पकड़ती है, और ऐसा भी नहीं कह सकता कि अचिता की अवस्था है। ऐसा भी नहीं कह सकता कि चिंता मौजूद नहीं है। न तो चिंता मौजूद है, न गैर—मौजूद है। चिंता और अचिता दोनों एक—साथ तिरोहित हो गयी हैं। न यह कह सकता हूं कि मैं आत्मा हूं, न यह कह सकता हूं कि मैं अनात्मा हूं। दोनों शब्द अधूरे हैं, पूरे—पूरे नहीं। और घटना इतनी बड़ी है कि और कोई शब्द इसे कह नहीं पाता। अब न कुछ शुभ है और न कुछ अशुभ। न कोई पुण्य, न कोई पाप। न कोई स्वर्ग, न कोई नर्क। न कोई सुख, न दुख। गये सब द्वंद्व, गये सब द्वैत।

‘ अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां स्वप्न, कहां सुषुप्ति, कहां जाग्रत’ —और सुनना— ‘कहां तुरीय?’

यह सूत्र छोड़ दिया था अष्टावक्र ने। कहा था, न स्वप्न, न जागृति, न सुषुप्ति। इन तीनों के पार जो है, तुरीय। लेकिन जनक कहते हैं, अब तुरीय भी कहां! चौथे को तो हम तभी गिन सकते हैं जब तीन हों। तीन के बाद ही चौथा अर्थवान हो सकता है। जब तीन ही गये तो अपने साथ चौथे को भी ले गये, तुरीय को भी ले गये। संख्या ही गयी। संख्यातीत में प्रवेश हुआ।

यह मैंने कहा कि थोड़ी—सी बात जैसे छोड़ दी थी अष्टावक्र ने, उसको जनक पूरा कर देते हैं। वे योग्य उतरते हैं कसौटी पर। वे अपने गुरु को कह रहे हैं कि आप मुझे धोखा मत दो। जब तीन चले गये तो चौथा कैसे बचेगा? मैं तुमसे कहता हूं, चौथा भी गया। गणना मात्र गयी।

क्‍व स्वप्न)— क्‍व सुमुप्तिर्वा क्‍व च जागरण तथा।

क्‍व तुरीय भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य में।।

और बड़ी अनूठी बात कहते हैं। स्वप्न गया, जागरण गया, निद्रा गयी, तुरीय भी गयी। और सब भय गया। अचानक भय को क्यों जोड़ देते हैं? भय से इसका क्या लेना—देना है?

गहरा संबंध है। ये सब तरंगें भय की ही हैं। ये सोना और जागना और स्वप्न और तुरीय, ये सब भय की तरंगें हैं। गहरे विश्लेषण पर पाया जाता है कि भय ही मन है। जब तक तुम भयभीत हो, तब तक मन है। जब भय गया, मन गया। जहां भय न रहा, मन न .रहा। और जहां मन न रहा, वहां सब गणना गयी। यह गणना करनेवाला हिसाब —किताब लगानेवाला मन है। तुमने देखा कभी? जितने तुम भयभीत होते हो उतना ही हिसाब—किताब लगाते हो।

मेरे गांव में मेरे सामने एक सुनार रहता है। उसकी बड़ी मुसीबत है। वह ताला लगाएगा, फिर देखेगा हिलाकर, फिर दो कदम चला जाएगा, फिर लौटकर आएगा, फिर ताला हिलाका और गांव भर उसको सताता। रास्ते पर मिल गया, कोई कह देता है, अरे, ताला ठीक से देख लिया है कि नहीं? तो पहले तो वह कहता है, देख लिया है, मुझे परेशान करने की जरूरत नहीं है। लेकिन दो कदम जाकर उसको शंका पैदा हो जाती है कि पता नहीं यह आदमी ठीक कह रहा हो! तो वह फिर लौटकर, आधे बाजार से लौटकर चला आएगा, फिर ताला हिलाकर देखेगा।

मैं उसे बैठा देखता रहता था, मैंने उससे कहा कि मामला क्या है? उसने कहा, यह पता नहीं मुझे क्यों आदत पड़ गयी है? मैंने कहा, यह ताले का सवाल नहीं है, तेरे भीतर कहीं भय होगा। ताले में क्या रखा है, तेरे भीतर कहीं भय होगा। कुछ. भय है। तूने कुछ छिपा रखा है घर में कि कोई चोरी चला जाए, या क्या हो जाए! इस गांव में इतने पैसेवाले लोग हैं, कोई ताला नहीं हिलाता, एक तू है —तेरी कोई हालत भी अच्छी नहीं है, दिन भर बमुश्किल मेहनत करके रुपये —दो रुपये कमा पाता है —तू छिपाए क्या है? वह थोड़ा घबड़ाया। वह कहने लगा, आपको पता कैसे चला? मैंने कहा, पता का सवाल ही नहीं है, इसमें पता चलने की क्या बात है, तेरा भय बता रहा है कि कुछ छिपा बैठा है। और तेरा यह ताला नहीं छूटेगा, क्योंकि तुझे लोग इतना सताते हैं। वह नदी में नहीं रहा है, और बीच में कह दो जरा कि अरे, सोनी जी! ताला! अब वह, पहले तो वह गाली देगा, नाराज होगा कि नहींने भी नहीं देते फुरसत से, मगर वह एक मिनट से ज्यादा नही रुक सकता है पानी में, वह निकला, भागा, वह ताला! उसका लाख लोग समझा चुके हैं कि तू ताला हिलाना छोड़, इसमें कुछ सार नहीं है, एक दफे देख लिया, हिला लिया, बहुत हो गया।

और जब मैंने उसको कहा कि ताला असली सवाल नहीं है, तू सोचता है कि ताले से तेरी उलझन है, यह बात गलत है, कुछ और मामला है। भय है कुछ। उस दिन से उसने ताला हिलाना छोड़ दिया। मैंने उससे पूछा कि मामला क्या है? गांव बड़ा चकित हुआ। क्योंकि लोग उससे कहें, सोनी जी, ताला! वह कहे कि तुम्हीं हिला लेना। जा रहे हो उसी तरफ, जरा हिला लेना। लोग बडे चौंके कि हुआ क्या? मामला क्या है? मामला कुछ भी न था। बड़ी छोटी—सी बात थी। एक भय था उसके मन में, पैसे उसने गड़ा रखे थे। वह उन्हीं में उलझा हुआ था। मैंने उससे कहा, तू पैसे निकाल ले,

कुछ बैंक में जमा कर आ। कुछ ज्यादा पैसे भी नहीं थे —ज्यादा —कम का कहां हिसाब है, आदमी एक पैसे को लेकर भयभीत हो सकता है। भय हो, तो हजार कंपन उठते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा, कहीं वैसा तो नहीं हो जाएगा। कहीं कोई निकाल तो नहीं लेगा। भय हो तो मन कंपता है। कंपता है तो इंतजाम करना पड़ता है कैपने से रुकने का। लेकिन जहां भय गया, वहा सब कंपन चला जाता है।

भय क्या है? भय एक है कि मौत होगी। और तो कोई खास भय नहीं है। मरना पड़ेगा, यह भय है। जब तक तुम्हें लगता है कि मरना पड़ेगा, मरना होगा, मौत आएगी, तब तक तुम कंपते रहतो। कंपन से फिर सब पैदा होता है, लहरों पर लहरें उठती हैं—जागने की, सोने की, सपने की, नींद की, तुरीय की। लेकिन जिस दिन तुमने यह स्वीकार कर लिया कि जो है, वह कैसे मरेगा। और जो नहीं है, वह बचने से भी कैसे बचेगा। मैं तो मरूंगा, अहंकार की तरह—मरूंगा ही, क्योंकि अहंकार शाश्वत नहीं हो सकता, बनावटी है। लेकिन मैं रहूंगा शाश्वत में शाश्वत की तरह। वह मुझसे भी पहले था, वह मेरे बाद भी रहेगा। जो मेरे जन्म के पहले था, वह मेरे जन्म के बाद भी रहेगा। जो जन्म के कारण निर्मित हुआ है, मौत के साथ समाप्त हो जाएगा। जैसे ही तुम्हें बोध होना शुरू होता है कि तुम अहंकार नहीं हो, तुम्हारा मैं — भाव गिरता है, वैसे ही मृत्यु— भाव गिर जाता है। मृत्यु — भाव जहां गिरा, वहा सब गिरा। भय गिरा, मन गिरा। मन गिरा कि तुम जगे। और उस जागरण में जनक कहते हैं कि न तो स्वप्न है, न सुषुप्ति, न जागरण। इतना तो क्या, तुरीय भी कहां है? इसका भी मुझे पता नहीं चलता है।

इस आखिरी वक्तव्य से कि तुरीय भी नहीं है, जनक ने कह दिया, साक्षीभाव परिपूर्ण हो गया। पूर्ण हो गया।

‘अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां दूर और कहां समीप? कहां बाह्य और कहां अंतस है? कहां स्थूल, कहां सूक्ष्म है?’


Sunday 15 November 2015

नित्य को समझो। नित्यता, इटर्निटी, इसे समझो। साधारणत: हम जीते हैं समय में। और जो समाधिस्थ हुआ, वह जीता है नित्यता में। समय में नहीं। फर्क क्या है? समय बदलता है, नित्यता नित्य है, बदलती नहीं। इसीलिए तो नित्य नाम दिया है। समय अनित्य है। आया, गया। आ भी नहीं पाया कि गया। अभी सुबह हुई, अभी दोपहर होने लगी, अभी दोपहर हो ही रही थी कि सांझ आ

गयी, कि रात आ गयी, कि फिर सुबह हो गयी—आया और गया। आना और जाना, आवागमन है समय। प्रवाह। लहरों की तरह।

मन तो जीता .है समय में। और अगर तुम्हें स्वयं को जानना है तो समय के पार हटना पड़े—। समय का विभाजन है. भूत—जो जा चुका, कभी था, अब नहीं है। भविष्य—जो कभी होगा, अभी हुआ नहीं है। और दोनों के बीच में वर्तमान का छोटा—सा क्षण। वह भी बड़ा कंपता हुआ क्षण है। वर्तमान का अर्थ हुआ, भविष्य भूत हो रहा है। वर्तमान का क्या अर्थ होता है? इतना ही अर्थ होता है कि जो नहीं था, फिर नहीं हो रहा है। एक नहीं से दूसरी नहीं में जाते हुए जो थोड़ी—सी देर लगती है क्षण भर को, उसको हम वर्तमान कहते हैं। अभी नौ बजकर पांच मिनट हुए हैं, यह जो सेकेंड़ है, मैं बोल भी नहीं पाया और गया। सेकेंड़ कहने में जितनी देर लगती है? वह ज्यादा है, सेकेंड़ उससे जल्दी बीत गया है। आ भी नहीं पाता, एक क्षण पहले भविष्य में था—तब भी नहीं था, और एक क्षण बाद फिर अतीत में हो गया—फिर नहीं हो गया, एक नहीं से दूसरी नहीं में चला गया, और जरा—सी देर को इालक मारा, पलक मारा, इसीलिए तो पल कहते हैं। पत्न इसीलिए कहते हैं उसे कि पलक मारा, बस गया। एक झलक दी और गया।

यह समय की तीन स्थितियां हैं— भूत तो है ही नहीं, भविष्य तो है ही नहीं और वर्तमान भी क्या खाक है? जरा—सा है। न होने के बराबर है। इन तीनों के पार जो है, उसका नाम नित्य।

‘नित्य अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां भूत है, कहा भविष्य है और कहां वर्तमान भी है?’ अब तुम थोड़ा सोचना, साधारणत: कहा जाता है, वर्तमान में जीओ। मैं भी तुमसे कहता हूं कि वर्तमान में जीओ। —क्योंकि इससे पार की बात तो तुम्हारी अभी समझ में न आ सकेगी। कृष्णमूर्ति भी तुमसे कहते हैं, वर्तमान में जीओ। लेकिन वर्तमान में कैसे जीओगे? भविष्य है, काफी बड़ा है, अभी हुआ नहीं है, मगर विस्तार है भविष्य का। अगर हाथ—पैर मारना चाहो तो मार सकते हो, थोड़ा जी सकते हो।

इसीलिए तो लोग भविष्य में जीते हैं, वर्तमान में नहीं जीते। क्योंकि थोड़ी सुविधा तो चाहिए चलने —फिरने की। या अतीत में जीते हैं, क्योंकि अतीत भी लंबा है। जो हो गया, उसकी भी धारा है। वर्तमान में कैसे जीओ, यह तो एक क्षण आया और गया। लेकिन कहते हैं तुमसे हम वर्तमान में जीने को, क्योंकि यह पहला कदम है नित्य में उतरने का। वर्तमान के क्षण में नित्य और समय का मिलन होता है। जर—सी देर को नित्यता समय में झांकती है, उतनी देर को समय सत्य हो जाता है।

इसको ठीक से समझना।

समय तो झूठ है। एक झूठ भविष्य, दूसरा झूठ अतीत। और दोनों के बीच में जो थोड़ा—सा सच मालूम होता है, वह भी समय के कारण सच नहीं है, वह नित्य उसमें झलक मारता है। वर्तमान का अर्थ हुआ, जहां समय और शाश्वत का थोड़ी देर को मिलन होता है। शाश्वत के प्रकाश में वर्तमान का क्षण चमक उठता है, एक क्षण को, फिर भागा, गया। इस शाश्वतता में उतरने के लिए वर्तमान में जीने की बात कही जाती है, लेकिन वह सिर्फ कामचलाऊ है। जब तुम उतरने लगोगे वर्तमान में तो तुम बहुत जल्दी पा जाओगे कि वर्तमान में उतरने का असली मतलब यह है कि वर्तमान के भी पार उतर जाना, समय के पार उतर जाना। न रह जाए अतीत, न भविष्य, न वर्तमान। यह काल की धारा न रह जाए। इसके पीछे छिपा है अ—काल।

वह जो पीछे छिपा है इस धारा के और जिसकी रोशनी के कारण, जिसकी पुलक के कारण जिसके प्राण के कारण थोड़ी देर को वर्तमान जीवित हो जाता है, उस जीवंत में उतर जाना, उसका नाम है नित्य, इटर्निटी।

अब ऐसा समझो कि ये मेरी तीन अंगुलियां तुम्हारे सामने हैं। एक का नाम भविष्य, एक का नाम वर्तमान, एक का नाम अतीत। लेकिन तीन अंगुलियों के बीच में तुम्हें दो खाली जगह भी दिखायी पड़ रही हैं। वर्तमान, अतीत, भविष्य, इनके बीच में जो दो खाली जगह हैं, उन्हीं खाली जगहों में उतरकर नित्यता का अनुभव होता है। समय के दो क्षण के बीच में जो अ— क्षण होता है, जो नो मोमेंट होता है, वही नित्यता का है। एक क्षण गया, दूसरा आ रहा है, इन दोनों के बीच में जो थोड़ा—सा अंतराल है, इंटरवल है, रिक्त जगह है, शून्य है, उसी में शाश्वत का निवास है।

‘नित्य अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां भूत, कहां भविष्य, कहां वर्तमान और कहां देश?’ आइंस्टीन ने तो अभी इस सदी में जाकर यह पता लगाया कि समय और देश एक ही घटना के पहलू हैं। समय और देश, टाइम और स्पेस अलग— अलग चीजें नहीं हैं, दोनों जुड़े हैं। यह अष्टावक्र की गीता में, जनक के इस वचन में जोड़ है। यह आकस्मिक नहीं है कि एक साथ कहा—

क्‍व देश:…..।

क्‍व भूतं क्‍व भविष्यद्वा वर्तमानमपि क्‍व वा क्‍व देश:।

न भूत, न भविष्य, न वर्तमान, और कोई देश भी नहीं, कोई ‘स्पेस’ भी नहीं।

यह दोनों एक सूत्र में कहे, बात जाहिर है कि दोनों का संबंध स्मरण में होगा। दोनों का संबंध अनुभव में होगा। देश और काल एक ही घटना के दो पहलू हैं। आइंस्टीन ने तो एक अलग ही शब्द बना लिया, स्पेसियोटाइम; अलग— अलग जिसमें न कहना पड़े। क्योंकि दोनों इकट्ठे हैं। समय को आइंस्टीन ने कहा, स्पेस का ही चौथा आयाम। समय और देश एक—साथ हैं। जैसे ही समय गया वैसे ही देश चला जाता है। कठिन होगा समझना, क्योंकि बुद्धि तो समय और देश में जीती है। बुद्धि के पार एक ऐसी जगह है, जहां जगह भी मिट जाती है।

इसलिए तुम अगर मुझसे पूछो कि आत्मा किस जगह है, तो मैं उत्तर न दे सकंगूा। किसी ने कभी उत्तर नहीं दिया, क्योंकि आत्मा जगह के बाहर है। शरीर किस जगह है, बताया जा सकता है। पूना में है, कि कलकत्ता में है, कि न्यूयार्क में है। अक्षांश—देशांश पर कहां है, तो नक्‍शे पर बताया जा सकता है कि इतने अक्षांश, इतने देशांश पर है। अभी तुम यहां बैठे हो, कौन कहां बैठा है, बताया जा सकता है। लेकिन आत्मा कहां है, उत्तर नहीं दिया जा सकता। लोग पूछते हैं, आत्मा कहां है, हृदय में है नाभि में है, मस्तिष्क में है, कहां है? तुम जब प्रश्न पूछते हो, तुम्हें पता नहीं है कि तुम एक गलत प्रश्न पूछ रहे हो जिसका कोई उत्तर नहीं हो सकता है। आत्मा स्थान के बाहर है। तुम पूछो, आत्मा कब है? सुबह छ: बजे है, कि दोपहर बारह बजे है, कि शाम तीन बजे है, आत्मा कब है? भविष्य में, वर्तमान में, अतीत में? नहीं, आत्मा के लिए फिर भी उत्तर नहीं दिया जा सकता है, आत्मा समय और स्थान के बाहर है। समय और स्थान आत्मा में हैं, आत्मा समय और स्थान में नहीं है। आत्मा ने सबको घेरा है। उस आत्मा में सब शून्य हो जाता है।


Friday 13 November 2015

लाओत्सु यही कहता है। लाओत्सु कहता है, धन्य वे लोग थे जब धर्म का किसी को पता ही नहीं था कि धर्म क्या होता है! धर्म का पता तो तभी होता है जब अधर्म हो जाता है। अधर्म के इलाज के लिए धर्म की बोतल लानी पड़ती है, दवा लानी पड़ती है। अधर्म फैल जाता है तो धर्मगुरु होता है। दुनिया में अगर फिर कभी धर्म होगा तो धर्मगुरु पहली चीज होगी जो विदा हो जाएगी। धर्मगुरु की क्या जरूरत! स्वास्थ्य हो तो चिकित्सक की क्या जरूरत? लोग ईमानदार हों तो सिखाना थोडे ही पड़े कि ईमानदारी से जीओ। और तुम लाख सिखाओ, क्या होता है!

एक ईसाई फकीर रविवार को चर्च में बोलता था और उसने कहा, अगले रविवार को सत्य के ऊपर मैं व्याख्यान दूंगा, लेकिन सबसे मेरी प्रार्थना है कि ल्‍यूक का अड़सठवां अध्याय पढ़कर आना। और जब वह बोलने खड़ा हुआ दूसरे रविवार को तो उसने खडे होकर कहा कि भाइयो, जिन लोगों ने ल्‍यूक का अडुसठवां अध्याय पढ़ लिया हो, वे सब हाथ उठा दें। एक को छोड़कर सब लोगों ने हाथ उठा दिये। उस फकीर की आंखों से आंसू गिरने लगे। उसने कहा, अब सत्य पर बोलने से क्या सार है? क्योंकि ल्‍यूक का अड़सठवां अध्याय है ही नहीं, तुम पढ़ोगे कैसे! किसी ने बाइबिल थोड़े ही उठायी, किसी ने खोली थोड़े ही। कौन इन पंचायतों में पड़ता है! अब सत्य पर, उसने कहा, क्या खाक बोलूं? अब असल पर ही बोलना ठीक है। मगर फिर भी धन्यभाग कि कम से कम एक आदमी तो हाथ नहीं उठाया। वह आदमी खडा हुआ, उसने कहा कि मैं जरा कम सुनता हूं, आपने क्या पूछा? आप उस अड़सठवें अध्याय के संबंध में तो नहीं पूछ रहे हैं? वह तो मैं पढ़ा हूं।

सत्य की चर्चा चलती है, जो असत्य में निष्णात हैं उनको समझाया जाता है। अहिंसा की बात उठती है, क्योंकि लोग हिंसा में डूबे हैं। लोग बेईमान हैं, ईमानदारी समझानी पड़ती है। लोग पापी हैं, इसलिए पुण्य का गुणगान गाना पड़ता है। अन्यथा इनकी क्या जरूरत!

यह परम अवस्था है स्वमहिमा की। कहने लगे जनक—

स्वमहिम्नि स्थितस्य में।

यह अपनी महिमा में मुझे विराजमान कर दिया। एक चुटकी बजा दी और मुझे मेरी महिमा में विराजमान कर दिया। अब मैं चौंककर देखता हूं कि अब धर्म की कहा जरूरत है! धर्म क्या है यही मेरी समझ में अब न आएगा। धर्म की तो तब जरूरत होती है जब अधर्म होता है। और काम की क्या जरूरत? क्योंकि कामवासना तो तभी पैदा होती है जब तक तुम्हें अपनी महिमा का स्वाद नहीं मिला है, तब तक तुम दूसरे के पीछे जा रहे हो। काम का अर्थ, किसी और से मिल जाएगा सुख। पकड़े किसी का आंचल चले जा रहे। किसी का पल्‍लू पकड़े हो कि शायद इससे सुख मिल जाए, शायद उससे सुख मिल जाए। काम का अर्थ है, भिखारीपन। कोई दे देगा सुख, कोई स्त्री, कोई पुरुष। कोई प्रियजन सुख दे देगा—बेटा, बेटी, पति, पत्नी, कोई सुख दे देगा। दूसरे से काश सुख मिलता होता तो सभी को मिल गया होता। सुख मिलता स्वयं से। स्वयं की महिमा में विराजमान होने से।

जनक ने कहा कि धन्य है, मुझे बिठा दिया मेरे सिंहासन पर। अब मेरी समझ में यह नहीं आता कि लोग कामवासना से भरते क्यों हैं? जिनको स्वयं का स्वाद आ गया, जिसने भीतर की रति जान ली—आत्मरति, जिसने अंतर्संभोग जान लिया, जो अपने से ही मिल गया, अब उसको और कोई

रति, और कोई रस, किसी और के आगे भिक्षापात्र फैलाने की जरूरत न रही। अब तो उसे भरोसा भी न आएगा कि लोग कैसे पागल हैं, जो तुम्हारे भीतर है तुम उसके लिए बाहर हाथ फैलाए खड़े हो! जिसके झरने तुम्हारे भीतर बह रहे हैं, तुम उसके लिए भिक्षापात्र लिये दर—दर घूम रहे हो, द्वार—द्वार धक्के खा रहे हो और जगह—जगह कहा जा रहा है, आगे बढ़ो। क्योंकि तुम जिनके पास सोचते हो है, उनके पास भी कहां है! वह किसी दूसरे के सामने हाथ फैलाए खडे हैं।

एक भिखमंगा एक मारवाडी की दूकान के सामने भीख मांग रहा था। उसने जोर से कहा कि मालिक कुछ मिल जाए। उस मारवाड़ी ने कहा, घर में कोई भी नहीं है। वह भिखमंगा भी जिद्दी था, उसने कहा कि हम किसी को थोड़े ही मांग रहे हैं। कि तुम्हारी पत्नी को मांग रहे हैं कि तुम्हारे बेटे को मांग रहे हैं, अरे भीख मांग रहे हैं! कोई न हो न हो! कुछ मिल जाए। मारवाड़ी भी कोई ऐसे भिखमंगों से हार जाएं तो कभी के खत्म ही हो जाते। मारवाड़ी ने कहा कि न कोई घर में है, न कुछ देने को घर में है, अपना रास्ता लो, आगे बढ़ी। तो भिखमंगा भी हद्द था, उसने कहा, तो फिर भीतर बैठे तुम क्या कर रहे हो? तुम भी मेरे साथ हो लो। जो मिलेगा, आधा— आधा बांट कर खा लेंगे। अरे, जब कुछ है ही नहीं, तो भीतर क्या कर रहे हो?

मगर हालत यही है, जिनके सामने तुम मांगने गये हो उनके पास भी कुछ नहीं है। किसके पास कुछ है? सब तरफ तुम्हें उदास, मुर्दा चेहरे दिखायी पड़ेंगे। बुझी आंखें, बुझे हृदय, बुझे प्राण। राख ही राख! कोई फूल खिलते दिखायी नहीं पड़ते। न कोई वीणा बजती है, न कोई पायल। कोई नृत्य नहीं, कोई गीत नहीं। बिना गीत और नृत्य के जन्मे तुम कैसे जान पाओगे कि परमात्मा है? परमात्मा कोई तर्क थोड़े ही है, कोई सिद्धात थोड़े ही है। परमात्मा तो उनकी समझ में आता है, जिनके भीतर गीत जन्मता है। स्वयं की महिमा में जो प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जो मस्त हो जाते हैं, जो अपनी ही शराब में डोल जाते हैं। वही कह पाते हैं कि परमात्मा है। जो जान पाते हैं कि मैं हूं, वही कह पाते हैं कि परमात्मा है। जिन्होंने स्वयं को भी नहीं जाना, वे क्या परमात्मा को जानेंगे। और जिन्होंने स्वयं की महिमा को नहीं जाना, वे परमात्मा की इस विराट महिमा से कैसे परिचित होंगे।

थोड़ा इस छोटे —से भीतर के दीये से परिचित हो लो, तो तुम महासूर्यों के राज से परिचित हो गये। क्योंकि प्रकाश छोटा हो कि बड़ा, उसका नियम एक है। छोटे —से दीये में भी जो प्रकाश जलता है, वह महासूर्यों के प्रकाश से भिन्न नहीं है। बिलकुल एक है, वही है। पर दीये से तो थोड़ी दोस्ती बना लो। फिर सुर्यों से दोस्ती बना लेना। अभी तो घर में दीया रखा है और तुम अंधेरे में टटोल रहे हो, दूसरों के घर के सामने धक्के खा रहे हो।

‘कहां काम है? कहां अर्थ है? कहां द्वैत, कहां अद्वैत?’

इसे थोड़ा समझना। आदमी में काम की वासना पैदा होती, क्योंकि उसे स्व—रस नहीं मिला। इसलिए पर—रस का भाव पैदा होता है। और आदमी में अर्थ की वासना पैदा होती है, कि धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, क्योंकि भीतर उसे हीनता को बोध होता है। मनस्विद उससे राजी हैं।

मनोवैशानिक कहते हैं कि जो लोग हीनता की ग्रंथि, इनफीरिआरिटी काप्लेक्स से पीड़ित हैं, वही लोग धन के पीछे, पद के पीछे दीवाने होते हैं। ऐसा तो राजनीतिज्ञ तुम पा ही नहीं सकते जो हीनता की ग्रंथि से पीड़ित न हो। नहीं तो कौन चिंता करेगा कुर्सियों पर चढ़ने की! और इतनी मार—कुटौवल के बाद! सौ —सौ जूते खाएं तमाशा घुसकर देखें। कुछ भी हो जाए, कितने ही जूते पडे, तमाशा उन्हें घुसकर ही देखना है। चाहे तमाशा वहां कुछ हो भी नहीं। चाहे तमाशा यही हो जो उनको जूते पड़ रहे हैं, इसकी ही भीड़ लगी हो। मगर कहीं न कहीं पद पर होना है। धन की ढेरी पर बैठना है। क्यों? भीतर तो कोई जरा—सा भी महिमा का बोध नहीं होता। शायद बाहर से थोडी अकड़ जुटा लें, धन के सहारे थोड़ी घोषणा कर सकें कि मैं भी कुछ हूं।

महावीर और बुद्ध अगर राजसिंहासनों से उतर गये तो तुम गलत मत समझ लेना। अक्सर गलत समझा गया है। अक्सर यही समझा गया है कि वे राजसिंहासन से उतर गये। मैं तुमसे एक और बात कहना चाहता हूं—वे असली सिंहासन पर चढ़ गये, इसलिए झूठे सिंहासन से उतरना पड़ा है। पहले लकडी—पत्थरों के सिंहासनों पर बैठे थे, अब उन्हें हीरे —जवाहरातों के सिंहासन मिल गये, वे क्यों बैठें? हालांकि तुम्हें नहीं दिखायी पड़े हीरे —जवाहरात के सिंहासन, क्योंकि तुम अंधे हो और तुम्हारी आंखों को हीरे—जवाहरात दिखायी पड़ने बंद हो गये हैं। तुम कंकड़—पत्थरों के सौदागर हो। तुम्हें व्यर्थ की चीजें दिखायी पड़ती हैं, सार्थक चूक जाता है। महावीर और बुद्ध असली सिंहासन पर बैठ गये, इसलिए फिर नकली सिंहासन से उतरना ही पड़ा, दो—दो पर तो बैठा नहीं जा सकता। दो सिंहासन पर तो कोई भी नहीं बैठ सकता।

एक राजनेता मुल्ला नसरुद्दीन को मिलने आया। तो मुल्ला नसरुद्दीन अपनी कुर्सी पर बैठा है, उसने कहा, कहिए, कैसे आए? राजनेता को बडा बुरा लगा, क्योंकि मुल्ला ने यह भी नहीं कहा कि बैठिये। उसने कहा, तुम जानते नहीं हो मैं कौन हूं? पार्लियामेंट का मेंबर हूं। संसद—सदस्य हूं। तो मुल्ला ने कहा, अच्छी बात है, तो कुर्सी पर बैठिये। उसने कहा, तुम्हें यह भी पता नहीं है कि जल्दी ही मैं मिनिस्टर हो जानेवाला हूं। तो मुल्ला ने कहा, तो फिर ऐसा करिये दो कुर्सी पर बैठ जाइये—अब और क्या करें! मगर दो कुर्सियों पर कोई बैठ कैसे सकता है!

नहीं, दो सिंहासन पर बैठने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए एक सिंहासन खाली कर दिया। तुमने यही देखा है, जैन—शास्त्रों में बस इसी का वर्णन है; जो सिंहासन छोड़ दिया उसका वर्णन है, इसलिए ये शास्त्र अंधों ने लिखे होंगे। त्याग का वर्णन है, जो परमभोग उपलब्ध हुआ उसकी कोई बात ही नहीं हो रही है। तो ऐसा लगता है, ऐसी भ्रांति पैदा होती —है कि महावीर त्यागी थे। मैं तुमसे कहता हूं, परमभोगी थे। त्याग? समझदार त्याग करेगा? त्याग का अर्थ ही क्या होता है? अगर कौड़िया छोड़ दीं और हीरे संभाल लिये तो इसको त्याग कहोगे! व्यर्थ छोड़ दिया, सार्थक को पकड़ लिया, इसको त्याग कहोगे? असली साम्राज्य स्थापित हो गया, नकली साम्राज्य छोड़ दिया, इसको त्याग कहोगे?

नहीं, यह त्याग नहीं, त्यागी तुम हो। असली छोड़े, नकली पकड़े बैठे हो, त्यागी तुम हो। तुम्हारे महात्याग की जितनी प्रशंसा हो उतनी कम है। तुम कुछ ऐसे त्यागी हो कि जिसका हिसाब नहीं। अगर सोना और मिट्टी रखी हो, तुम तत्काल मिट्टी पकड़ लेते हो, तुम छोड़ते ही नहीं मिट्टी। तुम्हें मिट्टी ही सोना दिखायी पड़ती है, और सोना मिट्टी दिखायी पड़ता है। और तुमने ही महावीर और बुद्ध की कथाएं लिखी हैं। तुमने सब गड़बड़ किया। तुमने इस तरह सिद्ध करने की कोशिश की तो जैन—शास्त्रों में लिखा है, इतने घोड़े छोड़े, इतने हाथी छोड़े, इतने रथ—संख्या बडी करते चले जाते हैं। न इतने घोड़े थे, न इतने रथ थे। हो भी नहीं सकते, क्योंकि महावीर का राज्य बड़ा छोटा था। एक तहसील से ज्यादा

बड़ा नहीं था। तहसीलदार की हैसियत से ज्यादा बड़ी हैसियत हो नहीं सकती। जब महावीर ने राज्य छोड़ा तब इस देश में कोई दो हजार राज्य थे। टुकड़ों —टुकड़ों में बंटा था। छोटे —छोटे राज्य थे। जैसे अभी भी थे। दस —बीस गांव किसी के पास हैं, वह राजा। इतने घोड़े —हाथी जिसने लिखे हैं जैन —शास्त्रों में, इनको तो खड़े करने की भी जगह नहीं थी उनके राज्य में।

मगर आदतें हमारी खराब हैं। कुरुक्षेत्र में युद्ध हुआ, अट्ठारह अक्षौहिणी सेना! वह जगह इतनी नहीं है। वहा अगर अट्ठारह अक्षौहिणी सेना खड़ी करो तो खड़ी ही नहीं हो सकती है, लड़ने की तो बात ही और है। लड़ने के लिए थोडी—बहुत जगह तो चाहिए। बिलकुल घसमकश खड़ा कर दो उनको —तो भी खड़े नहीं हो सकते —मगर फिर हाथ भी नहीं हिलेगा, रथ वगैरह चलाना और घोड़े वगैरह दौड़ाना, यह असंभव है। मगर संख्या बडी करने का एक मोह होता है। वह हम पागल हैं, हम संख्या पर भरोसा करते हैं। हमारी आदतें ऐसी हैं। तुम्हारी जेब में पांच रुपये पड़े हों, तो तुम इस तरह दिखलाने की कोशिश करते हो, पचास पड़े हैं। क्योंकि हमारे मन में एक ही मूल्य है —धन का।

तो महावीर ने त्याग किया—छोटा—मोटा धन त्याग किया तो छोटा—मोटा त्याग हो जाएगा। हम जानते एक ही उपाय हैं, त्याग को भी तोलना हो तो धन के तराजू पर ही तोलते हैं। तो खूब त्याग दिखाते हैं —इतना—इतना था, वह सब छोड़ा! देखो, कितना महान त्याग! लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, असली बात तुम चूके जा रहे हो। जो पाया, उसकी बात करो। क्योंकि पाने के लिए छोड़ा। सच तो यह है, पाकर छोड़ा। इधर मिल गया, अब उधर कचरे को कौन संभालता है!