Saturday 17 January 2015

ध्यान की साधना तो कठिन है, लेकिन असंभव नहीं; पर ध्यान की अभिव्यक्ति असंभव है। ध्यान करना आसान है। ध्यान क्या है, यह बताना अति कठिन है; करीब-करीब असंभव। क्योंकि ध्यान इतनी भीतरी अनुभूति है, शब्द उसे प्रगट नहीं कर पाते। और जो भी शब्दों में उसे प्रगट करने की कोशिश करता है, वह अनुभव करता है कि जो कहना चाहता था, वह नहीं कहा गया। जो नहीं कहना था, वह शब्दों से प्रगट हो गया। जो कहना था वह भीतर छूट गया। खाली कोरे शब्द चले गए–मुर्दा! निष्प्राण!
ध्यान कर लेना इतना कठिन नहीं, लेकिन ध्यान से जो जाना जाता है वह उसे बता देना, जिसने कभी ध्यान न किया हो; करीब-करीब असंभव है।
भारत की ध्यान की परंपरा अति प्राचीन है। इतिहास के पार जाती है यात्रा; प्रागैतिहासिक है। मोहनजोदड़ो, हरप्पा जैसे पुराने अवशेष, वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई सात हजार वर्ष पुराने हैं। वहां भी मूर्तियां मिली हैं, जो ध्यानस्थ हैं। सात हजार साल पहले भी हरप्पा और खजुराहो में कोई न कोई ध्यान कर रहा था।
फिर बोधिधर्म को भारत में कोई मिल क्यों न सका ग्राहक, खरीददार? परंपरा इतनी पुरानी हो गई, और शब्द इतने रटे-रटाये हो गए, और शास्त्र इतने कंठस्थ हो गए, कि लोग ध्यान के संबंध में तो जानने लगे, ध्यान को भूल गए। और ध्यान के संबंध में जानना एक बात, ध्यान को जानना बिलकुल दूसरी बात।
प्रेम के संबंध में जानना एक बात, और प्रेम को जानना बिलकुल दूसरी बात। आप पंडित भी हो सकते हैं, प्रेम के संबंध में सारा शास्त्र पढ़ डालें। प्रेम पर शोधकार्य भी कर सकते हैं। कोई विश्वविद्यालय आपको डी. लिट. की डिग्री भी दे दे, लेकिन प्रेम करना बात और है; क्योंकि प्रेम करने में तो मिटना होता है। प्रेम तो बड़ी खतरनाक यात्रा है। वहां तो अहंकार समाप्त होता है। वहां तो बूंद खोती है सागर में।
प्रेम तो इस जगत में असंभव जैसी घटना है क्योंकि वहां आप कम महत्वपूर्ण और दूसरा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। वहां आपकी आत्मा जैसे दूसरे में समा जाती है। जैसे उसका जीवन आपका जीवन, उसकी मृत्यु आपकी मृत्यु हो जाती है। यह असंभव घटना है। दूसरे का साधन की तरह उपयोग नहीं, साध्य की तरह उपयोग–असंभव है। तो प्रेम तो बहुत कठिन है। प्रेम के संबंध में जानना बहुत आसान है। शास्त्र खरीदे जा सकते हैं। सिद्धांत कंठस्थ हो सकते हैं।

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