Tuesday 30 June 2015

तो जब पूरे सात शरीरों को हम समझेंगे, तब पहले और दूसरे शरीर में जोड़ बनता है। क्योंकि पहला शरीर है भौतिक शरीर, फिजिकल बॉडी, दूसरा शरीर है ईथरिक बॉडी, ईथर, भाव शरीर। वह भौतिक का ही सूक्ष्मतम रूप है। वह अभौतिक नहीं है, वह भौतिक का ही सूक्ष्मतम रूप है—इतना सूक्ष्मतम कि भौतिक उपाय भी उसे पकड़ने में अभी ठीक से समर्थ नहीं हो पाते। लेकिन अब भौतिकवादी इस बात को इनकार नहीं करता है कि भौतिक का सूक्ष्मतम रूप करीब—करीब अभौतिक हो जाता है। अब जैसे आज विज्ञान कहता है कि अगर हम पदार्थ को तोड़ते चले जाएं तो जो अंतिम, पदार्थ के विश्लेषण पर हमें मिलेंगे—इलेक्ट्रान, वे अभौतिक हो गए, वे इम्मैटीरियल हो गए हैं; क्योंकि वे सिर्फ विद्युत के कण हैं, उनमें पदार्थ और सब्सटेंस जैसा कुछ भी नहीं बचा, सिर्फ एनर्जी और ऊर्जा बच रही है। इसलिए बड़ी अदभुत घटना घटी है पिछले तीस वर्षों में कि जो विज्ञान यह बात स्वीकार करके चला था कि पदार्थ ही सत्य है, वह विज्ञान इस नतीजे पर पहुंचा है कि पदार्थ तो बिलकुल है ही नहीं, एनर्जी और ऊर्जा ही सत्य है, और पदार्थ जो है वह एनर्जी का, ऊर्जा का तीव्र घूमता हुआ रूप है, इसलिए भ्रम पैदा हो रहा है।
एक पंखा हमारे ऊपर चल रहा है। यह पंखा इतने जोर से चलाया जा सकता है कि इसकी तीन पंखुड़ियां हमें दिखाई पडनी बंद हो जाएं। और जब इसकी तीन पंखुड़ियां हमें दिखाई पड़नी बंद हो जाएंगी, तो पंखा पंखुड़ियां न मालूम होकर, टीन का एक गोल चक्कर घूम रहा है, ऐसा मालूम होगा। और तीनों पंखुड़ियों के बीच की जो खाली जगह है वह भर जाएगी, वह खाली नहीं रह जाएगी; क्योंकि तीन पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़ेगी।
असल में, पंखुड़ियां इतनी तेजी से घूम सकती हैं कि इसके पहले कि एक पंखुड़ी हटे एक जगह से और हमारी आंख से उसका प्रतिबिंब मिटे, उसके पहले दूसरी पंखुड़ी उसकी जगह आ जाती है; प्रतिबिंब पहला बना रहता है और दूसरा उसके ऊपर आ जाता है। इसलिए बीच की जो खाली जगह है वह हमें दिखाई नहीं पड़ती। यह पंखा इतनी तेजी से भी घुमाया जा सकता है कि आप इसके ऊपर मजे से बैठ सकें और आपको पता न चले कि नीचे कोई चीज बदल रही है। अगर दो पंखुडियों के बीच की खाली जगह इतनी तेजी से भर जाए कि एक पंखुड़ी आपके नीचे से हटे, आप इसके पहले कि खाली जगह में से गिरे, दूसरी पंखुड़ी आपको सम्हाल ले, तो आपको दो पंखुड़ियों के बीच का अंतर पता नहीं चलेगा। यह गति की बात है।
अगर ऊर्जा तीव्र गति से घूमती है तो हमें पदार्थ मालूम होती है। इसलिए वैज्ञानिक आज जिस एटामिक एनर्जी पर सारा का सारा विस्तार कर रहा है, उस एनर्जी को किसी ने देखा नहीं है, सिर्फ उसके इफेक्ट्स, उसके परिणाम भर देखे हैं। वह मूल अणु की शक्ति किसी ने देखी नहीं है, और कोई कभी देखेगा भी, यह भी अब सवाल नहीं है। लेकिन उसके परिणाम दिखाई पड़ते हैं।
ईथरिक बॉडी को अगर हम यह भी कहें कि वह मूल एटामिक बॉडी है, तो कोई हर्ज नहीं है। उसके परिणाम दिखाई पड़ते हैं। ईथरिक बॉडी को किसी ने देखा नहीं है, सिर्फ उसके परिणाम दिखाई पड़ते हैं। लेकिन उन परिणामों की वजह से वह है, यह स्वीकार कर लेने की जरूरत पड़ जाती है। यह जो दूसरा शरीर है, यह पहले भौतिक शरीर का ही सूक्ष्मतम रूप है; इसलिए इन दोनों के बीच कोई सीढ़ी बनाने में कठिनाई नहीं है। ये दोनों एक तरह से जुड़े ही हुए हैं—एक स्थूल है जो दिखाई पड जाता है, दूसरा सूक्ष्म है इसलिए दिखाई नहीं पड़ता।

Monday 29 June 2015

क तो जिसे हम शरीर कहते हैं और जिसे हम आत्मा कहते हैं, ये ऐसी दो चीजें नहीं हैं कि जिनके बीच सेतु न बनता हो, ब्रिज न बनता हो। इनके बीच कोई खाई नहीं है, इनके बीच जोड़ है।
तो सदा से एक खयाल था कि शरीर अलग है, आत्मा अलग है; और ये दोनों इस भांति अलग हैं कि इन दोनों के बीच कोई सेतु, कोई ब्रिज नहीं बन सकता। न केवल अलग हैं, बल्कि विपरीत हैं एक—दूसरे से। इस खयाल ने धर्म और विज्ञान को अलग कर दिया था। धर्म वह था, जो शरीर के अतिरिक्त जो है उसकी खोज करे, और विज्ञान वह था, जो शरीर की खोज करे— आत्मा के अतिरिक्त जो है, उसकी खोज करे।
स्वभावत:, दोनों तरह की खोज एक को मानती और दूसरे को इनकार करती रही, क्योंकि विज्ञान जिसे खोजता था, उसे वह कहता था शरीर है, आत्मा कहां! और धर्म जिसे खोजता था, उसे वह मानता था : आत्मा है, शरीर कहां!
तो धर्म जब अपनी पूरी ऊंचाइयों पर पहुंचा तो उसने शरीर को इल्‍यूजन और माया कह दिया, कि वह है ही नहीं; आत्मा ही सत्य है, शरीर भ्रम है। और विज्ञान जब अपनी ऊंचाइयों पर पहुंचा तो उसने कह दिया कि आत्मा तो एक झूठ, एक असत्य है, शरीर ही सब कुछ है। यह भ्रांति आत्मा और शरीर को अनिवार्य रूप से विरोधी तत्वों की तरह मानने से हुई।
अब मैंने सात शरीरों की बात कही। ये सात शरीर….. अगर पहला शरीर हम भौतिक शरीर मान लें और अंतिम शरीर आत्मिक मान लें, और बीच के पांच शरीरों को छोड़ दें, तो इनके बीच सेतु नहीं बन सकेगा। ऐसे ही जैसे जिन सीढ़ियों से चढ़कर आप आए हैं, ऊपर की सीढ़ी बचा लें और पहली सीढ़ी बचा लें नीचे की, और बीच की सीढ़ियों को छोड़ दें, तो आपको लगेगा कि पहली सीढ़ी कहां और दूसरी सीढ़ी कहां! बीच में खाई हो जाएगी। अगर आप सारी सीढ़ियों को देखें तो पहली सीढ़ी भी आखिरी सीढ़ी से जुड़ी है। और अगर ठीक से देखें तो आखिरी सीढ़ी पहली सीढ़ी का ही आखिरी हिस्सा है; और पहली सीढ़ी आखिरी सीढी का पहला हिस्सा है।

Sunday 28 June 2015

हर आदमी कहता है, बचपन में दुख नहीं था। अगर लौट सकता हो आदमी, फौरन लौट जाए। वह तो लौट नहीं सकता है, इसलिए रुका रह जाता है। कहता है बचपन में दुख नहीं था। अगर उसका वश चले तो वह कहे कि मां के गर्भ में बिलकुल दुख नहीं था। अगर लौट सके तो लौट जाए, लेकिन लौट नहीं सकता। फिर आगे बढ़ता जाता है। लेकिन जीवन के चुनाव में हम पीछे लौट सकते हैं। हम मूर्च्छा में लौट सकते हैं। हम तरकीबें खोज सकते हैं कि हम मूर्च्छित हो जाएं।
और वह जो दूर से आवाजें आती हैं, उन आवाजों के शब्द भी हमारी समझ में नहीं आते। क्योंकि आनंद हम जानते नहीं कि किस चीज का नाम है! कौन —सी चिड़िया है जिसको आनंद कहें! दुख हम जानते हैं, अच्छी तरह जानते हैं। और हम यह भी जानते हैं कि जितना सुख पाने की कोशिश की, उतना दुख पाया। अब यह भी डर लगता है कि आनंद पाने की कोशिश में कहीं और झंझट में न पड़ जाएं। जितना सुख पाने की कोशिश की उतना दुख पाया, तो यह आनंद हमें सुख का निकटतम मालूम पड़ता है कि कुछ सुख की ही गहन अनुभूति होगी। मगर झंझट से भी डरते हैं, क्योंकि सुख पाने की जितनी कोशिश की उतना दुख पाया, कहीं आनंद पाने की कोशिश में और भी मुसीबत न हो जाए, कहीं कोई महा दुख न मिल जाए। इसलिए सुन लेते हैं, हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लेते हैं। उस पार के लोगों को कहते हैं, तुम भगवान हो, तुम अवतार हो, तीर्थंकर हो, बड़े अच्छे हो। हम तुम्हारी पूजा करेंगे, लेकिन हमें पीछे लौटना है।
अज्ञात का भय मालूम पड़ता है। जो थोड़े —बहुत सुख हमने जमा रखे हैं, कहीं वे भी न छूट जाएं। वे सब छूटते मालूम पड़ते हैं आगे बढ़ो तो। क्योंकि हमने उसी सेतु पर जो कि सिर्फ पार होने के लिए था, घर बना लिया है, वहीं रहने लगे हैं। वहीं हमने सब इंतजाम कर लिया है। अपना बैठकखाना जमा लिया है उसी सेतु पर। अब कोई हमें कहता है, आगे आ जाओ, तो हमें डर लगता है कि इस सब का क्या होगा! यह सब छोड़ कर जाना पड़ेगा आगे! तो हम कहते हैं, जरा वक्त आने दो, बूढ़े होने दो, मौत करीब आने दो। जब यह सब छूटने लगेगा, तब हम एकदम से आ जाएंगे, क्योंकि फिर कोई डर नहीं रहेगा।
लेकिन जितनी मौत करीब आती है, उतनी पकड़ गहरी होती है। क्योंकि जितनी मौत करीब आती है उतना डर लगता है कि छूट न जाए, तो मुट्ठी जोर से कसते हैं। इसलिए बूढ़ा आदमी निपट कृपण हो जाता है, जवान आदमी उतना कृपण नहीं होता। उसकी कृपणता बढ़ जाती है बूढ़े की सब तरफ से। वह एकदम जोर से पकड़ता है। वह कहता है, अब जाने का वक्त हुआ, कहीं सब छूट न जाए। अगर ढीला पड़ा, कहीं हाथ न छूट जाए, इसलिए जोर से पकड़ लेता है। यह जोर की पकड़ ही बूढे आदमी को कुरूप कर जाती है, अन्यथा बूढ़े आदमी के सौंदर्य का कोई मुकाबला न हो। हम सुंदर बच्चे जानते हैं, फिर उनसे कम सुंदर जवान जानते हैं, और सुंदर के तो बहुत कम हैं। कभी—कभी घटना घटती है। क्योंकि जैसे—जैसे कृपणता बढ़ती है और पकड़ बढ़ती है, वैसे —वैसे सब कुरूप होता जाता है।
खुले हाथ सुंदर हैं, बंधी हुई मुट्ठी कुरूप हो जाती है। मुक्ति सौंदर्य है और बंधन गुलामी। सोचता तो है कि छोड़ देंगे कल, जब मौका छोड़ने के लिए आ जाएगा तब छोड़ देंगे। लेकिन जो आदमी उस
मौके की प्रतीक्षा करता है कि वह जब उससे छीना जायेगा तब छोड़ेगा, वह आदमी छोड़ना ही नहीं चाहता। और जब छीना जाता है तब पीड़ा आती है, और जब छोडा जाता है तो पीड़ा नहीं आती।
अब यह जो आगे बढ़ने का मामला है, यह चुनाव ही है हमारा। और इस चुनाव के लिए गति दी जा सकती है। इसके भी नियम हैं। सेतु तैयार है। वह भी प्राकृतिक है। मेरी बात खयाल में आ रही है न? आगे जाने के लिए भी सेतु तैयार है, वह कहता है, आओ। यह भी प्रकृति है। पीछे जाने के लिए भी तैयार है। वह कहता है, आओ। यह भी प्रकृति है। प्रकृति तुम्हें हर हालत में स्वागत करने को तैयार है। उसके सब दरवाजे पर वेलकम लिखा हुआ है। यही खतरा भी है। यानी किसी दरवाजे पर यह नहीं लिखा हुआ है कि मत आओ। सब दरवाजे पर, द्वार—द्वार पर—स्वागतम।
इसलिए चुनाव तुम्हारे हाथ में है। और यह प्रकृति की अनुकंपा ही है कि किसी भी द्वार पर तुम्हें इनकार नहीं है, तुम जहां आना चाहो, आ जाओ। मगर नरक के द्वार पर भी लगा हुआ है, स्वर्ग के द्वार पर भी लगा हुआ है। चुनाव अंततः हमारा होगा कि हमने कौन—सा स्वागतम चुना। इसमें हम प्रकृति को जिम्मेवार नहीं ठहरा सकेंगे कि तुमने स्वागतम क्यों लगाया? उसने तो सभी जगह लगा दिया था, उसमें कोई सवाल ही नहीं था, उसने कहीं भी रुकावट न डाली थी।
स्वतंत्रता इस का अर्थ है, स्वागतम का। यानी प्रकृति जो है, वह परम स्वतंत्र है भीतर से। और हम उसके हिस्से हैं, हम परम स्वतंत्र हैं। हम जो करना चाहते हैं, कर रहे हैं। इस करने में सब चीजों में उसका सहारा है। लेकिन चुनाव हमारा ही है। और जब मैं कहता हूं, हमारा ही, तो भ्रांति में मत पड़ जाना। क्योंकि हम भी प्रकृति के हिस्से ही हैं।
अगर इसे परम शब्दों में कहा जाए तो मतलब यह होगा कि प्रकृति की ही अनंत संभावनाएं हैं, प्रकृति के ही अनंत द्वार हैं, प्रकृति ही अपने अनंत द्वारों पर अपने ही अनंत अंशों से खोजती है, चुनती है, भटकती है, पहुंचती है। पर यह बहुत गोल हो जाता है। यह बात जो है बहुत गोल हो जाती है, इसमें कोने नहीं रह जाते।
और कठिनाई यह है कि प्रकृति के सब रास्ते गोल हैं, सरकुलर हैं। उसका कोई भी रास्ता कोने वाला नहीं है। चौखटा कोई रास्ता नहीं है उसका। उसके सब तारे, चांद, ग्रह, उपग्रह, गोल हैं। उन चांद—तारों की परिक्रमाएं गोल हैं। प्रकृति की सारी नियम —व्यवस्था वर्तुलाकार है।
इसलिए बहुत से धार्मिक प्रतीकों में वर्तुल का प्रयोग हुआ है, सर्किल का प्रयोग हुआ है। वह गोल है। और तुम कहीं से भी चलो, कहीं से भी चलकर कहीं भी पहुंच सकते हो। चुनाव सदा तुम्हारा है।

Saturday 27 June 2015

इस जगत में जो भी घटता है वह प्राकृतिक ही होता है। अप्राकृतिक के होने का कोई उपाय ही नहीं है। जो भी होता है वह प्राकृतिक होता है। और मनुष्य अगर आध्यात्मिक विकास कर रहा है, तो वह उसकी प्रकृति की संभावना है। अगर छलांग लगा रहा है, तो प्रकृति की संभावना है। लेकिन चुनाव भी प्रकृति की संभावना है कि वह छलांग लगाने की दिशा में चले या छलांग न लगाने की दिशा में चले। वह भी प्राकृतिक संभावना है। इसका मतलब यह हुआ कि प्रकृति में अनंत संभावनाएं हैं, मल्टी पोटेशियलिटीज हैं। असल में जब हम प्रकृति शब्द का उपयोग करते हैं, तो हमें लगता है कि एक संभावना है। उससे भूल हो जाती है।
प्रकृति है अनंत संभावनाओं का संघट। इसमें सौ डिग्री पर पानी गरम होता है, यह भी प्राकृतिक घटना है। और शून्य डिग्री के नीचे बर्फ बनती है, यह भी प्राकृतिक घटना है। इसमें सौ डिग्री पर गरम होकर भाप बनने वाली प्राकृतिक घटना का खंडन नहीं होता, शून्य डिग्री पर बर्फ बनने वाली घटना से। एक प्राकृतिक, एक अप्राकृतिक, ऐसा नहीं है; दोनों प्राकृतिक हैं। इसमें ऊपर भी प्राकृतिक है, इसमें प्रकाश भी प्राकृतिक है। इसमें नीचे उतरना भी प्राकृतिक है, इसमें ऊपर जाना भी प्राकृतिक है। इसमें अनंत संभावनाएं हैं। हम सदा एक चौराहे पर खड़े हैं, जिसके अनंत मार्ग हैं। और मजा यह है कि हम जो चुनाव करेंगे, हमारी चुनाव की क्षमता भी प्रकृति की ही दी हुई क्षमता है। लेकिन हम अगर गलत रास्ता चुनें तो प्रकृति हमें उस गलत रास्ते की पूर्णता तक पहुंचा देगी।
प्रकृति बड़ी सहयोगी है। अगर हम नरक का रास्ता चुनें, तो वह उसी को साफ करने लगेगी कि आओ। वह इनकार नहीं करेगी। अगर हमें पानी का बर्फ बनाना है, तो प्रकृति क्यों इनकार करेगी कि तुम भाप बनाओ; वह बर्फ बनाएगी। अगर आपको नरक जाना है, तो वह नरक का रास्ता साफ करने लगेगी। अगर आपको स्वर्ग जाना है, तो वह स्वर्ग का रास्ता साफ करने लगेगी। अगर आपको जीना है, तो जीने का रास्ता साफ करेगी। अगर आपको मरना है, तो मरने का रास्ता साफ करेगी।
जीना भी प्राकृतिक घटना है और मरना भी प्राकृतिक घटना है और आपकी चुनाव की क्षमता भी प्राकृतिक है। इसको अगर मल्टी डाशमेंशनल, प्रकृति का बहु आयामी होना समझ में आ जाए, तो कठिनाई नहीं रह जाएगी।
दुख भी प्राकृतिक है, सुख भी प्राकृतिक है। अंधे की तरह जीना भी प्राकृतिक है, आख खोलकर जीना भी प्राकृतिक है। जागना भी प्राकृतिक है, सोना भी प्राकृतिक है। प्रकृति में अनंत संभावनाएं हैं। और मजा यह है कि हम कोई प्रकृति से बाहर नहीं हैं, हम प्रकृति के हिस्से हैं। और चुनाव भी प्रकृति की क्षमता है। पर जितना चेतन होता जाता है व्यक्ति, उतनी चुनाव की क्षमता प्रगाढ़ होती जाती है। जितना अचेतन होता है, उतनी चुनाव की क्षमता प्रगाढ़ नहीं होती। जैसे पानी अगर धूप में रखा है और उसको भाप नहीं बनना है, ऐसा उपाय नहीं है उसके पास। वह कठिनाई में पड़ेगा। उसे बनना है कि नहीं बनना है, इसका निर्णय वह नहीं कर सकता है। अगर धूप में पड़ा है तो भाप बनेगा और अगर सर्दी में पड़ा है तो बर्फ बनेगा। यह उसे भोगना पड़ेगा। भोगने का भी उसे पता नहीं चलेगा, क्योंकि चेतना क्षीण है, या नहीं है, या सोई हुई है।
एक वृक्ष अफ्रीका का वृक्ष सैकड़ों फुट ऊपर चला जाएगा। वह धूप की तलाश कर रहा है। अफ्रीका का वृक्ष लंबा हो जाएगा। हिंदुस्तान का वृक्ष उतना लंबा नहीं होगा, क्योंकि उतने घने जंगल नहीं हैं। जब घना जंगल होता है तो वृक्ष को अपनी जिंदगी बचाने के लिए ऊंचाई—ऊंचाई—ऊंचाई खोजनी पड़ती है, ताकि दूसरे वृक्षों के पार जाकर वह सूरज की रोशनी ले सके। अगर वह नहीं खोजता ऊंचाई, तो मर जाएगा। वह उसकी जिंदगी का सवाल है।
तो वृक्ष थोड़ा—सा चुनाव कर रहा है। घना जंगल होगा, तो वृक्ष चौड़े कम होने लगेंगे, लंबे ज्यादा होने लगेंगे, कोनीकल हो जाएंगे। क्योंकि चौड़ा होना खतरनाक है, चौड़े में मर जाएंगे, इधर—उधर के वृक्षों में उलझ जाएंगी शाखाएं और सूरज तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। अब सूरज तक पहुंचना है तो शाखाएं मत निकालो, अब तो एक ही पीड़ को लंबा करो। यह भी चुनाव है। यह भी वृक्ष चुन रहा है। इसी वृक्ष को अगर तुम ऐसे मुल्क में ले आओ जहां घने जंगल नहीं हैं, तो उसकी लंबाई कम हो जाएगी।
कुछ वृक्ष थोड़ा—बहुत सरकते भी हैं। साल में दस—पांच फीट सरक जाते हैं। उसका मतलब है, वह कुछ जड़ों को चलाते हैं पैरों की तरह। जिस तरफ उनको जाना है उस तरफ की जड़ों को मजबूत करके पकड़ लेते हैं, और जहां से छोड़ना है वहां की जड़ों को ढीला करके छोड़ देते हैं, तो थोड़ा सा सरक जाते हैं। दलदली जमीन हो तो उनको आसानी मिल जाती है। थोड़ा—सा सरकने लगते हैं।
कुछ वृक्ष और तरह की भी तैयारियां करते हैं, पक्षियों को लुभाते हैं, क्योंकि कुछ वृक्ष मांसाहारी हैं। तो पक्षियों को लुभाते हैं, फंसाते हैं और पक्षी आ जाएं, तो फौरन पत्ते बंद कर लेते हैं। और पक्षियों को लुभाने के उन्होंने बड़े इंतजाम किए हुए हैं। उनके ऊपर थालियों जैसे पत्ते होंगे। थालियों में बड़ा सुगंधित रस होगा। वह रस अपनी थालियों में भरे रहेंगे। स्वभावत: उनका रस दूर—दूर से सुगंध की वजह से पक्षियों को खींचेगा। पक्षी उस रस को पीने आकर बैठे नहीं कि चारों तरफ के पत्ते उस थाली पर बंद होकर पक्षी को दबा लेंगे। उसका खून पी जाएगा वृक्ष। अब नहीं कहा जा सकता कि यह चुनाव नहीं कर रहा है। यह चुनाव कर रहा है। यह अपनी तरफ से कुछ इंतजाम भी कर रहा है। यह अपनी तरफ से कुछ खोज भी कर रहा है।
पशु और भी ज्यादा चुनाव कर रहे हैं, भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं। लेकिन इन सबके चुनाव मनुष्य के चुनाव की दृष्टि से बहुत साधारण हैं।
मनुष्य के सामने और बड़े चुनाव हैं, क्योंकि उसकी चेतना और भी विकसित हो गई है। अब वह शरीर से ही नहीं चुनता है, अब वह मन से भी चुनता है। और अब वह जगत में पृथ्वी की यात्रा ही नहीं चुनता, पृथ्वी के ऊपर वर्टिकल यात्रा भी चुनता है। वह भी उसका चुनाव है। लेकिन है हाथ में सदा।
अब इस संबंध में अभी खोजबीन होनी बाकी है, लेकिन मुझे लगता है कि जिस दिन भी खोजबीन होगी, यह बात पाई जा सकेगी। कुछ वृक्ष हो सकते हैं, जो सुसाइडल हों, जो जीना न चुनें और जहां घना जंगल है, वहां भी छोटे रह जाएं और मर जाएं। अब यह खोजबीन होनी बाकी है। आदमी में तो हमें साफ दिखाई पड़ता है कि कुछ लोग सुसाइडल हैं। वे जीने को नहीं चुनते, मरने को चुनते रहते हैं। उनको जहां भी कांटा दिखाई पड़े, वह बिलकुल दीवाने की तरह काटे की तरफ जाते हैं। फूल दिखाई पड़े, तो उन्हें जंचते ही नहीं। उन्हें जहां हार दिखाई पड़े, वहा वह बिलकुल हिप्नोटाइज होकर सरकते हैं। जहां जीत दिखाई पड़े, वहा वे पच्चीस बहाने बनाते हैं। जहां विकास की संभावना हो, उसके खिलाफ वे हजार तर्क इकट्ठे कर लेते हैं। जहां पतन का सुनिश्चित विश्वास हो उनको, वहां वे बिलकुल बेधड़क बढ़े चले जाते हैं।
यह सब चुनाव है। और यह चुनाव जितना मनुष्य जागरूक होता चला जाएगा उतना ही यह चुनाव आनंद की ओर अग्रसर होने लगेगा। जितना मूर्च्छित होगा, उतना दुख की तरफ अग्रसर होता रहेगा।
तो जब मैं कहता हूं कि चुनना ही पड़ेगा। भाप बनने के उपाय हैं, लेकिन भाप की जगह तुम्हें
पहुंचना पड़ेगा। बर्फ बनने के उपाय हैं, बर्फ की जगह तुम्हें पहुंचना पड़ेगा। जिंदा रहने के उपाय हैं, लेकिन जिंदगी की व्यवस्था खोजनी पड़ेगी। मरने के उपाय हैं, मरने की व्यवस्था खोजनी पड़ेगी। चुनाव तुम्हारा है। और तुम और प्रकृति दो नहीं हो। तुम ही प्रकृति हो।
अब इसका मतलब हुआ कि प्रकृति की जो मल्टी—डायमेशनलिटी है, वह दो तरह की है। महावीर ने एक शब्द का प्रयोग किया है, वह समझने जैसा है। महावीर का एक शब्द है, अनंत अनंत—इनफिनिट इनफिनिटीज। यानी एक तो अनंत शब्द है हमारे पास। अनंत का मतलब होता है, एक दिशा में अनंत। अनंत अनंत का अर्थ होता है अनंत दिशाओं में अनंत। यानी ऐसा नहीं है कि दो दिशाओं पर ही अनंतता है, सभी दिशाओं में अनंतता है। सभी अनंतताओं में अनंतताएं हैं। तो यह जगत जो है इनफिनिट नहीं है, कहना चाहिए इनफिनिट इनफिनिटीज है।
तो यहां मैंने कहा कि एक तो अनंत दिशाएं हैं। और प्रकृति सबका मौका देती है। अनंत चुनाव हैं, उनका भी मौका देती है। और अनंत व्यक्ति हैं, जो प्रकृति के ही अनंत हिस्से हैं। और सबको अपना — अपना स्वतंत्र मौका है कि यह चुने या न चुने। और इन सबका नियोजन ऊपर से नहीं हो रहा है, इन सबका नियोजन भीतर से हो रहा है। यानी यह जो अनंतता है —कहना चाहिए, अनंत अनंतता है—यह भी इस तरह नहीं है जैसे कि एक बैल को कोई आदमी गले में रस्सी बांधकर आगे से खींच रहा हो। इस तरह नहीं है। या कोई उस बैल को पीछे से कोड़े मारकर किसी रास्ते पर धका रहा हो, इस तरह भी नहीं है। यह अनंत अनंतता इस तरह है, जैसे कोई झरना अपनी भीतरी ताकत से फूट पड़ा है और बह रहा है। न उसे कोई आगे से खींच रहा है, न उसे कोई कोड़े मार रहा है, न उसे कोई पुकार रहा है, न कोई उससे कह रहा है कि तुम जाओ। लेकिन उसमें शक्ति है, ऊर्जा है। और ऊर्जा क्या करे? ऊर्जा फूट रही है, ऊर्जा बह रही है। यह इनर एक्सपैंशन है।
अनंत आयाम, अनंत चुनाव, अनंत चुनाव करने वाले अंश और इन सबके ऊपर ऊपर से कोई नियोजन नहीं है, कोई ऊपर नियंता जैसा परमात्मा नहीं है। कोई ऊपर बैठकर मार्गदर्शन देने वाला प्रभु नहीं, कोई इंजीनियर नहीं, बल्कि भीतर की अनंत ऊर्जा ही एकमात्र आधार है, जिसके आधार पर सब फैलता जाता है।

Friday 26 June 2015

तो मैं न केवल बीमारी के खिलाफ कह रहा हूं, मैं औषधि के भी खिलाफ कह रहा हूं। क्योंकि मेरा अनुभव यह है कि इधर हजारों साल में बीमारी के खिलाफ तो बहुत बातें कही गईं और तब बीमारी तो छूट गई पर औषधि पकड़ गई। और जिन लोगों ने औषधि को पकड़ा, वे बीमारों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हुए।
इसलिए दोनों ही बातें खयाल में रखनी जरूरी हैं। बीमारी छोड़नी है और औषधि भी छोड़नी है। मन छोड़ना है, ध्यान भी छोड़ना है। संसार छोड़ना है, धर्म भी छोड़ना है। और एक ऐसी जगह आ जाना है, जहां न कुछ छोड़ने को बचता है, न कुछ पकड़ने को बचता है। तब वही रह जाता है, जो है। और इसलिए यह सारी की सारी जिन प्रक्रियाओं की मैं बात करता हूं —चाहे कुंडलिनी की, चाहे चक्रों की, सप्त शरीरों की, यह सारा का सारा स्वप्न का ही हिस्सा है। लेकिन स्वप्न में तुम हो और जब तक तुम स्वप्न को ठीक से न समझ लो, तुम स्वप्न के बाहर नहीं आ सकते हो।
स्वप्न के बाहर आने के लिए भी स्वप्न को ठीक से समझ लेना जरूरी है। और स्वप्न का भी अपना अस्तित्व है, और झूठ का भी अपना अस्तित्व है। वह है जगत में। और उससे छूटने के लिए भी उपाय हैं। मगर दोनों ही अंततः छोड़ने योग्य हैं, इसलिए मैं कहता हूं कि दोनों ही असत्य हैं। अगर मैं इनमें से एक को सत्य कहूंगा, तो फिर तुम उसे छोड़ोगे कैसे? फिर तुम उसे छोड़ोगे नहीं। सत्य कहीं छोड़ा जाता है? सत्य तो सदा पकड़ा जाता है। इसलिए तुम कुछ भी न पकड़ पाओ, तुम्हारी कुछ भी क्लिगिंग न हो पाए, तुम कहीं भी किसी ग्रंथि में, किसी बंधन में न पड़ पाओ, इसलिए मैं कहता हूं कि न तो संसार सत्य है और न साधना सत्य है। संसार के असत्य को काटने के लिए साधना का असत्य है। जब दोनों असत्य समतल होकर कट जाते हैं तब जो शेष रह जाता है वह सत्य है। वह न संसार का है, न साधना का। वह दोनों के बाहर, या दोनों के पीछे, या दोनों के पार, या दोनों को अतिक्रमण करता हुआ है। जब दोनों नहीं रह जाएंगे।
इसलिए मैं एक तीसरे तरह के आदमी की तुमसे बात कर रहा हूं जो न संसारी है, न संन्यासी है। जब मुझे कोई पूछता है कि क्या आप संन्यासी हैं, तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाता हूं। क्योंकि अगर मैं अपने को संन्यासी कहूं, तो मैं उसी द्वंद्व के भीतर अपने को बांधता हूं जो संसारी और संन्यासी के बीच है। जब कोई पूछता है कि क्या आप संसारी हैं, तब भी मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं। क्योंकि अगर मैं अपने को संसारी कहूं तो मैं फिर उसी द्वंद्व में खड़ा हो जाता हूं, जो संन्यासी और संसारी के बीच है। तो या तो मैं कहूं कि मैं दोनों हूं एक साथ, जो कि बिलकुल बेमानी हो जाता है, मीनिगलेस हो जाता है। क्योंकि अगर संसारी और संन्यासी दोनों हूं एक साथ, तो मतलब ही खो गया, क्योंकि मतलब द्वंद्व में था, मतलब विरोध में था। संसार छोड़ने का अर्थ संन्यास था, संन्यास न ग्रहण करने का अर्थ संसार था। अब अगर मैं कहूं कि दोनों ही हूं, तो शब्द अर्थ खो देते हैं। या कहूं? दोनों ही नहीं हूं, तब भी बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है, क्योंकि दो के बाहर तीसरे का हमें कोई खयाल ही नहीं है कि कोई तीसरा भी हो सकता है। कहते हैं आप, यहां या वहां। या तो कहिए जिंदा हैं, या कहिए मर गए हैं। दोनों नहीं हैं, ऐसा कैसे चलेगा! ऐसा नहीं चल सकता। हम द्वंद्व में बांटकर, काटकर जीते हैं सारी चीजों को कि या यह कहिए या यह कहिए।
कहिए अंधेरा है, कहिए प्रकाश है। संध्या के रंग का हमारे पास कोई स्थान नहीं है, जो दोनों नहीं होता। ‘से ‘ की हमारी जिंदगी में कोई जगह नहीं है। या तो हम सफेद में तोड़ देते हैं या काले में तोड़ देते हैं। बल्कि सचाई ग्रे की ही ज्यादा है। ग्रे ही जरा सघन हो जाता है तो काला हो जाता है और जरा विरल हो जाता है तो सफेद हो जाता है। मगर उसकी कोई जगह नहीं है। या तो कहिए मित्र हैं, या कहिए शत्रु हैं, दोनों के बीच तीसरी कोई जगह नहीं है। असल में तीसरी ही असली जगह है। लेकिन उसका कोई स्थान नहीं है हमारी भाषा में, हमारे सोचने में, हमारे ढंग में।
आप मुझसे पूछते हैं कि मेरे मित्र हैं या शत्रु हैं। अगर मैं कहूं दोनों हूं, तो मुश्किल हो जाती है। क्योंकि फिर समझ मुश्किल हो जाती है कि दोनों कैसे हो सकते हैं। या मैं कहूं दोनों नहीं हूं, तो भी बेमानी हो जाती है। क्योंकि फिर कोई मतलब नहीं रहा। और सचाई यह है कि जब आदमी पूरी तरह स्वस्थ होगा, तो या तो दोनों होगा या दोनों नहीं होगा। यह दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तब न तो वह शत्रु होगा, न मित्र होगा। और मेरा खयाल यह है कि तभी वह ठीक अर्थों में मनुष्य होगा। उसकी कोई शत्रुता नहीं, उसकी कोई मित्रता नहीं। उसका कोई संन्यास नहीं, उसका कोई संसार नहीं। तीसरे आदमी के लिए ही मेरी तलाश है। और जो सारी बातें मैं कह रहा हूं वे सिर्फ स्वप्न को तोड्ने के लिए हैं। और अगर स्वप्न टूट ही गया है, तो उन बातों का कोई भी अर्थ नहीं है।
एक कहानी तुमसे कहूं। एक झेन फकीर हुआ। सुबह उठा…….और उस फकीर का स्वप्नों के विश्लेषण पर बड़ा भरोसा था। हैं भी स्वप्न बड़े काम के। वे आदमी के संबंध में बड़ी खबरें लाते हैं। और चूंकि आदमी झूठा है, इसलिए स्वप्न से खबर मिल सकती है, झूठी चीजों से खबर मिल सकती है।
आदमी के चेहरे को दोपहर में जब तुम भरे बाजार में देखते हो, तब वह उतना सच्चा नहीं होता है, जितना रात के सपने में वह सच्चा होता है—सपना जो कि बिलकुल झूठा है। अगर दोपहर में तुमने उसे अपनी पत्नी को हाथ जोड़ते हुए और यह कहते देखा है कि तुझसे सुंदर कोई भी नहीं है, तो उसके सपने में पता लगाओ। उसकी पत्नी शायद ही उसके सपने में आती हो। और दूसरी स्त्रियां जरूर आती हैं। उसका सपना ज्यादा ठीक खबर देगा उसके बाबत—सपना जो कि झूठ है।
लेकिन आदमी झूठ है, इसलिए झूठ से ही पता लगाना पड़ेगा। अगर आदमी सच्चा होता, तो उसको जिंदगी सामने ही बता देती। सपने में जाने की कोई जरूरत नहीं थी, उसका चेहरा बता देता। वह अपनी पत्नी से कह देता कि तू बहुत ज्यादा सुंदर नहीं, पड़ोस की स्त्री बहुत सुंदर मालूम पड़ती है। वह दूसरी बात है, वैसा आदमी नहीं है। वैसा आदमी अगर हो, तो उसके सपने बंद हो जाएंगे। जो पति अपनी पत्नी से कह सकता है कि आज तो तेरे प्रति मेरे मन में कोई प्रेम नहीं उठता है, उस सड़क से जो औरत जा रही है, वह मेरे प्रेम को खींचे लेती है। इतनी सरलता से जो कह सकता है, उसके सपने बंद हो जाएंगे, क्योंकि उसके सपने में उस औरत को आने की कोई जरूरत नहीं है, उसने दिन में ही बात समाप्त कर ली है। बात रफा—दफा हो गई, सपना बचा नहीं।
सपना जो है, वह लिंगरिंग है। जो चीज नहीं हो पाई दिन में, जो नहीं कह पाया, नहीं जी पाया, वह भीतर बैठा है, वह रात में जीने की कोशिश करेगा। दिन भर झूठा रहा, इसलिए रात सपने में झूठ सचाइयां बनकर प्रकट होने लगेगा। इसलिए पूरा मनोविज्ञान आज का, चाहे फ्रायड हो, चाहे का हो, चाहे एडलर हो, सारा का सारा मनोविज्ञान सपने का विश्लेषण है।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि आदमी को जानने के लिए सपने का विश्लेषण करना पड़ रहा है। ड्रीम एनालिसिस आदमी को जानने का रास्ता है। सोचो, इसका क्या मतलब होता है? आज अगर तुम एक मनोविश्लेषक के पास जाते हो, मनोवैज्ञानिक के पास जाते हो, मनोचिकित्सक के पास जाते हो, तो वह तुम्हारी फिक्र ही नहीं करता, वह कहता है, अपने सपने बताओ। क्योंकि तुम तो आदमी झूठे हो, तुम्हारे बाबत कुछ पूछना बेकार है, जरा तुम्हारे सपनों से पूछ लें। क्योंकि तुम झूठे आदमी हो, उन झूठे सपनों में बिलकुल साफ—साफ प्रकट हो जाते हो। वहां तुम्हारा रिफ्लेक्शन है, वहां तुम्हारी असली तस्वीर बनती है। हम तुम्हारे सपनों में झांकना चाहते हैं। सारा मनोविज्ञान सपने के विश्लेषण पर खड़ा हुआ है।

Thursday 25 June 2015

तो मैं साधक को निरंतर यह स्मरण रखवाना चाहता हूं कि जो साधना वह कर रहा है, वह एक गहरे झूठ में उतर जाने का ऐंटीडोट है। और झूठ का ऐंटीडोट झूठ ही होगा। जहर को जहर ही काटेगा। सिर्फ विपरीत रुख होगा। लेकिन यह याद दिलाना जरूरी है, नहीं तो संसार तो छूटेगा, संन्यास पकड़ जाएगा। संसार तो छूट जाएगा और संन्यास पकड़ जाएगा। और दुकान तो छूट जाएगी, मंदिर पकड़ जाएगा। धन तो छूट जायेगा, ध्यान पकड जाएगा। और पकड़ना कुछ भी खतरनाक है। क्योंकि जो भी पकड़ जाएगा, वह बंधन बन जाएगा। वह चाहे धन हो, और चाहे ध्यान हो। ठीक साधना उस दिन जानना जिस दिन ध्यान की जरूरत न रह जाए, जिस दिन ध्यान बेकार हो जाए।
स्वभावत:, जो आदमी छत पर पहुंच गया है उसके लिए सीढ़ी बेकार हो जानी चाहिए। और अगर वह अब भी कहता है कि मेरे लिए सीढ़ी बड़े काम की है, तो समझना कि अभी छत पर नहीं पहुंचा। अभी कहीं सीडी पर ही खड़ा होगा। और हो सकता है कि सीडी के आखिरी चरण पर पहुंच जाये, आखिरी सोपान पर पहुंच जाए, और फिर भी अगर सीढ़ी को पकड़े रहे, तो ध्यान रखना छत से वह अभी भी उतना ही दूर है जितना सीडी के पहले सोपान पर था। छत पर नहीं पहुंचा। दोनों हालत में छत से दूर है। तुम सीढ़ी पूरी भी चढ़ जाओ, लेकिन अगर आखिरी चरण पर रुक जाओ, तो भी तुम पहुंचे कहां! हो तो तुम वहीं। सीडी पर फर्क पड़ गया। पहले तुम पहले सोपान पर थे सीडी के, अब सौवें सोपान पर हो। लेकिन हो सीडी पर। और जो सीडी पर है, वह छत पर नहीं है। छत पर होने के लिए दो काम करने पड़े, सीढ़ी चढ़नी पड़े और सीडी छोड़नी भी पड़े।
इसलिए मैं कहता हूं ध्यान का उपयोग भी है और साथ में कहता हूं कि ध्यान ऐंटीडोट से ज्यादा नहीं। इसलिए मैं कहता हूं, साधना करना भी और कहता हूं छोड़ना भी। और जब दोनों बातें मुझे कहनी हैं तो कठिनाई तो इसमें शुरू होगी ही, क्योंकि तुम सोचोगे ही स्वभावत: कि साधना के लिए इतनी बातें करते हैं आप कि यह करो, वह करो, और फिर कह देते हैं कि यह सब झूठा है। तो हमारे मन में होता है कि जब झूठा है तो करें ही क्यों! हमारा तर्क यह है कि जब सीडी से उतरना ही पड़ेगा तो हम चढ़े ही क्यों? लेकिन ध्यान रहे, अगर सीडी पर नहीं चढ़े, तब भी सीडी के बाहर रहोगे, और जो सीढ़ी पर चढ़कर छत पर उतर गया है, वह भी सीडी के बाहर हो गया है; लेकिन तुम दोनों के प्लेन अलग होंगे। वह छत पर होगा और तुम जमीन पर होओगे। तुम भी सीढ़ी पर नहीं हो, वह भी सीढ़ी पर नहीं है, लेकिन तुम दोनों में बुनियादी फर्क है। तुम सीढ़ी पर चढ़े नहीं, इसलिए सीडी के बाहर हो; वह सीडी पर चढ़ा और उतरा, इसलिए सीढ़ी के बाहर है।
और जिंदगी बड़ा राज है। उसमें कुछ चीजें चढ़नी भी पड़ती हैं और उतरनी भी पड़ती हैं। उसमें कभी कुछ पकड़ना भी पड़ता है और कभी कुछ छोड़ना भी पड़ता है। लेकिन हमारा मन कहता है कि अगर पकड़ना है तो फिर बिलकुल पकड़ो, अगर छोड़ना है तो बिलकुल छोड़ो। यह तर्क खतरनाक है। इससे जिंदगी में कभी कोई गति नहीं हो सकती।
तो चूंकि दोनों ही बातें मेरे खयाल में हैं और मैं देख रहा हूं कि ऐसी कठिनाई हो गई है कि कुछ लोगों ने धन को पकड़ा है, कुछ लोगों ने धर्म को पकड़ा हुआ है, कुछ लोगों ने संसार को पकड़ा है, किन्हीं ने मोक्ष को पकड़ा है, लेकिन पकड़ नहीं छूटती। और मुक्त वही है जिसकी कोई पकड़ नहीं है। और सत्य को वही जानेगा जिसकी कोई क्लिगिंग, कोई अटकाव, कोई रुकाव, जिसका कोई आग्रह नहीं है। सत्य को वही जानेगा जिसकी कोई शर्त नहीं है, जिसकी कोई कंडीशन नहीं है। अगर तुम्हारी इतनी भी शर्त है कि मैं मंदिर में ही रहूंगा, मैं दुकान पर न जाऊंगा, तो तुम सत्य को न जान सकोगे। तुम उसी सत्य को जान सकोगे जो मंदिर के झूठ के साथ पैदा होता है। अगर तुम्हारी इतनी भी शर्त है कि मैं इस भांति से ही जीऊंगा, संन्यासी की तरह जीऊंगा, अगर यह भी तुम्हारी शर्त है, तो तुम सत्य को न जान पाओगे।
तुम सीडी तो चढ़े, लेकिन आखिरी सोपान पर खड़े होकर तुमने सीडी पकड़ ली। कई दफे मन में होता भी है कि जिस सीडी ने इतनी दूर तक चढ़ाया, उसे एकदम छोड़ कैसे दें! उसे पकड़ लेने का मन हो जाता है। आम तौर से तभी तरफ यह होता है।

Wednesday 24 June 2015

हली बात तो यह कि जिसे मैं असत्य कहता हूं, झूठ कहता हूं? उसका मतलब यह नहीं होता है कि वह नहीं है। असत्य भी होता तो है ही। अगर न हो तो असत्य भी नहीं हो सकता। झूठ का भी अपना अस्तित्व है, स्वप्न का भी अपना अस्तित्व है। जब हम कहते हैं, स्वप्न झूठ है, तो उसका यह मतलब नहीं होता है कि स्वप्न का अस्तित्व नहीं है। उसका केवल इतना ही मतलब होता है कि स्वप्न का अस्तित्व मानसिक है, वास्तविक नहीं है। मन की तरंग है, तथ्य नहीं है। जब हम कहते हैं, जगत माया है, तो उसका मतलब यह नहीं होता है कि जगत नहीं है। क्योंकि अगर नहीं है, तो किससे कह रहे हैं? कौन कह रहा है? किसलिए कह रहा है? जब कोई जगत को माया कहता है, तब इतना तो मान ही लेता है कि कहने वाला है, सुनने वाला है। इतना भी मान लेता है कि किसी को समझाना है, किसी को समझना है। इतना तो सत्य हो ही जाता है। नहीं, लेकिन जब हम जगत को माया कहते हैं तो यह मतलब नहीं होता है कि जगत नहीं है। केवल इतना ही अर्थ होता है जगत को माया कहने का कि जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं है। एपीयरेंस है, जैसा है, वैसा दिखाई नहीं पड़ता। और जैसा नहीं, वैसा दिखाई पड़ता।
जैसे एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है। सांझ है, अंधेरा हो गया है। और एक रस्सी पड़ी हुई दिखाई पड़ गई है और वह सांप समझकर डर कर भाग खड़ा हुआ है। कोई उससे कहता है कि सांप असत्य था, झूठ था। तुम व्यर्थ ही भागे। तब इसका क्या मतलब हुआ? सांप झूठ था, इसका यह मतलब तो नहीं हुआ कि उसे सांप दिखाई नहीं पड़ा। अगर उसे नहीं दिखाई पड़ता तो वह भागता नहीं। उसे तो दिखाई पड़ा। जहां तक दिखाई पड़ने का संबंध है, उसके लिए सांप था। और जब उसे दिखाई पड़ा तो रस्सी अगर न होती तो खाली जगह में दिखाई भी नू पड़ता। रस्सी ने सांप के भ्रम को सहारा भी दिया। उसे भीतर कुछ दिखाई पड़ा, बाहर कुछ और था। रस्सी का टुकड़ा पड़ा था और उसे लगा कि सांप है। रस्सी रस्सी की तरह न दिखाई पड़ी जो वह थी, रस्सी सांप की तरह दिखाई पड़ी जो वह नहीं थी। जो था, वह नहीं दिखाई पड़ा; और जो नहीं था, वह दिखाई पड़ा। लेकिन जो था उसके ऊपर ही जो नहीं था वह आरोपित हुआ है।
तो जब असत्य, झूठ, भ्रम, माया, इल्‍यूजन, एपीयरेंस, इन शब्दों का प्रयोग होता है तो एक बात खयाल रख लेना। इसका यह मतलब नहीं कि नहीं है। अब समझ लो कि जो आदमी भाग खड़ा हुआ है सांप देखकर, हम उसे बहुत समझाते हैं कि वहां सांप नहीं है, लेकिन वह कहता है कि मैं कैसे मानूं! मैंने सांप देखा है। हम उससे कहते हैं, तू वापस जाकर देख। वह कहता है कि एक लकड़ी मेरे हाथ में दे दो, तो मैं जा भी सकता हूं। अब मुझे पता है कि सांप वहा नहीं है, लकड़ी ले जाना बेकार है। लेकिन उसे पता है कि सांप वहां है और लकड़ी ले जाना सार्थक है। मैं उसे एक लकड़ी देता हूं। तुम मुझसे कहोगे कि जब सांप नहीं है तो आप लकड़ी क्यों दे रहे हैं। तब तो आप भी मान रहे हैं कि सांप है। फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि सांप नहीं है, सांप झूठा है। लेकिन तुम्हें दिखाई पड़ा है और तुम्हारे जाने की हिम्मत नहीं है। तुम्हारे लिए तो सच ही है। मैं तुम्हें एक लकड़ी देता हूं कि यह ले जाओ। अगर सांप हो तो मार डालना, अगर न हो तब तो कोई सवाल ही नहीं है।
मनुष्य को जो दिखाई पड़ रहा है जीवन में, वह जीवन का सत्य नहीं है। वह पूरी तरह जागकर देखा जाए तभी सत्य दिखाई पड़ेगा। जिस मात्रा में हम मूर्च्छित हैं, उसी मात्रा में सत्य के भीतर झूठ का मिश्रण है। जिस मात्रा में हम सोए हुए हैं, उसी मात्रा में जो हम देख रहे हैं वह विकृत है, परवटेंड है। वह वही नहीं है, जो है—एक।
लेकिन जो सोया हुआ है, उससे हम कहते हैं कि नहीं, सब असत्य है, सब माया है। लेकिन वह कहता है कि कैसे मानूं कि माया है। मेरा लडका बीमार पड़ा है। मैं कैसे मानूं कि माया है! मैं भूखा हूं। मैं कैसे मानूं कि माया है! क्योंकि मुझे मकान चाहिए। मैं कैसे मानूं कि ये सब बातें माया हैं! क्योंकि शरीर है। पत्थर मारता हूं शरीर पर, तो खून निकलता है और दर्द भी होता है।
तब इसके लिए क्या किया जाए।
इसे जगाने के लिए कोई उपाय खोजना पड़ेगा। और जो उपाय होंगे वे लकड़ी की भांति होंगे। और जिस दिन यह जाग जाएगा उस दिन उन उपायों के साथ वही व्यवहार करेगा जो कि हमने जिस आदमी को लकड़ी दे दी है वह जब सांप के पास जाएगा, पाएगा रस्सी है, तो हंसेगा और लकड़ी फेंक देगा। और कहेगा सांप तो झूठ था ही, लकड़ी को ढोना भी नाहक व्यर्थ हुआ। और शायद वह लौट कर मुझ पर नाराज भी होगा कि आपने इतनी देर लकड़ी दी रखने के लिए, नाहक ढोना पड़ा वहां तक, वहा सांप नहीं था।
जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं या जिसको कुंडलिनी कह रहा हूं या जिसे साधना की प्रक्रिया कह रहा हूं वह असल में उसकी तलाश है, जो नहीं है। और जिस दिन तुम उसे देख लोगे ठीक से जाकर कि नहीं है, उस दिन सब प्रक्रिया बेकार हो जाएगी। सब बेमानी हो जाएगी। उस दिन तुम कहोगे, बीमारी भी झूठ थी, इलाज भी झूठ था।
असल में झूठी बीमारी का सही इलाज नहीं हो सकता। या कि हो सकता है? अगर बीमारी झूठ है तो सही इलाज कभी भी नहीं हो सकता। लेकिन झूठी बीमारी के लिए झूठा इलाज चाहिए। झूठी बीमारी झूठे इलाज से ठीक हो सकती है। दो झूठ भी एक दूसरे को काट देते हैं। इसलिए जब मैं कहता हूं कि समस्त साधना की प्रक्रियाएं इस अर्थ में असत्य हैं —असत्य इस अर्थ में हैं कि जिसे हम खोज रहे हैं, उसे हमने कभी खोया नहीं।
रस्सी पूरे वक्त रस्सी है। वह एक क्षण को भी सांप नहीं बनी है। रस्सी हमने खो दी है लेकिन। सामने रस्सी पड़ी है, लेकिन हमने खो दी है। वह एक क्षण को सांप नहीं बनी है, लेकिन हमारे लिए सांप है। ऐसा सांप जो एक क्षण को भी नहीं है। अब एक बड़ी जिच, एक बड़ी उलझाव की स्थिति है। है रस्सी, दिखता सांप है। सांप को मारना है, रस्सी को खोजना है। बिना सांप को मारे रस्सी को खोजना मुश्किल है, बिना रस्सी को खोजे सांप का मरना मुश्किल है। अब कुछ करना पड़े। और जो कुछ भी हम करेंगे, होगा क्या उससे? इतना ही होगा न कि जो नहीं था, दिखाई पड़ जाएगा नहीं है। जो है, दिखाई पड़ जाएगा जो है। और जिस दिन हम जानेंगे उस दिन क्या हम कहेंगे कि हमने कुछ उपलब्ध किया? क्या उस दिन हम कह सकेंगे कि सांप हमने खोया और रस्सी हमने पाई? क्योंकि सांप तो था ही नहीं जिसे खोया जाए और रस्सी सदा थी। पाने की कोई जरूरत ही न थी। वह थी ही वहां, वह मौजूद ही थी।
इसलिए बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और पहली सुबह जब लोग उनके पास आए और उनसे पूछने लगे कि आपको क्या मिला? तो बुद्ध ने कहा, यह मत पूछो, मिला मुझे कुछ भी नहीं। तो उन लोगों ने कहा, इतने दिन की मेहनत बेकार गई? आप बरसों से तपस्या करते हैं, खोज करते हैं! बुद्ध ने कहा, अगर मिलने की भाषा में पूछते हो तो बेकार गई, क्योंकि मिला कुछ भी नहीं। लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि तुम भी गुजरो उसी रास्ते से, तुम भी करो वही। उन लोगों ने कहा, आप पागल तो नहीं हैं! क्योंकि जो बेकार ही गया, उसको हम क्यों करें! बुद्ध ने कहा, मिला तो कुछ नहीं, लेकिन खोया जरूर। वह जो नहीं था उसे खोया। जो था ही नहीं और जिसे मैं समझता था है, उसे खोया। और जो सदा से मिला ही हुआ था, पाया ही हुआ था, जिसे पाना ही नहीं था, लेकिन जिसे झूठ के पर्दे के बीच मैंने समझा था कि नहीं है, उसे पाया।
अब इसका क्या मतलब हुआ? जो मिला ही हुआ था वह फिर मिला। कैसे कहें इसको! जो पाया ही हुआ था, उसको पाया! जिसे कभी पाया ही नहीं था, उसको खोया!
तो जब मैं कह रहा हूं कि सारी साधना की प्रक्रिया असत्य है, तो इसका यह मतलब नहीं है कि मत करना। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि तुम इतने गहरे असत्य में घिरे हो कि सिवाय उसके विपरीत असत्य के और कोई काटने का उपाय नहीं है। तुम इतने झूठ की तरफ चले गए हो कि तुम लौटोगे तो इतना रास्ता तुम्हें झूठ का ही पार करना पड़ेगा, जितना तुम झूठ में चले गए हो।

Tuesday 23 June 2015

ह हमारे भीतर की एक प्यास है, जिसको हमने पूरा होने से, बढ़ने से, जगने से सब तरह से रोका है। वह प्यास जगह— जगह खड़ी हो जाती है, हमारे हर रास्ते पर प्रश्नचिह्न बन जाती है। और वह कहती है इतना धन पा लिया, लेकिन कुछ मिला नहीं; इतना यश पा लिया, लेकिन कुछ मिला नहीं, सब पा लिया, लेकिन खाली हो तुम। वह प्यास जगह—जगह से हमें कोंचती है, कुरेदती है, जगह—जगह से छेदती है। लेकिन हम उसको झुठलाकर फिर अपने काम में और जोर से लग जाते हैं, ताकि यह आवाज सुनाई न पड़े। इसलिए धन कमानेवाला और जोर से कमाने लगता है, और जोर से कमाने लगता है। यश की दौडवाला और तेजी से दौड़ने लगता है। वह अपने कान बंद कर लेता है कि सुनाई न पड़े कि कुछ भी नहीं मिला।
हमारा सारा का सारा इंतजाम प्यास को जगने से रोकता है। अन्यथा….. .एक दिन जरूर पृथ्वी पर ऐसा होगा कि जैसे बच्चे भूख और प्यास लेकर, और सेक्स और यौन लेकर पैदा होते हैं, ऐसे ही वे डिवाइन थर्स्ट, परमात्मा की प्यास लेकर भी पैदा होते हुए मालूम पड़ेंगे। वह दुनिया कभी बन सकती है, बनाने जैसी है। कौन बनाए उसे?
बहुत प्यासे लोग जो परमात्मा को खोजते हैं, उस दुनिया को बना सकते हैं। लेकिन जैसा अब तक है, उस सारे षड्यंत्र को तोड़ देने की जरूरत है, तब ऐसा हो सकता है।
प्यास तो है। लेकिन आदमी कृत्रिम उपाय कर ले सकता है। अब चीन में हजारों साल तक स्त्रियों के पैर में लोहे का जूता पहनाया जाता था, कि पैर छोटा रहे। छोटा पैर सौंदर्य का चिह्न था। जितना छोटा पैर हो, उतने बड़े घर की लड़की थी। तो स्त्रियां चल ही नहीं सकती थीं, पैर इतने छोटे रह जाते थे। शरीर तो बड़े हो जाते, पैर छोटे रह जाते। वे चल ही न पातीं। जो स्त्री बिलकुल न चल पाती, वह उतने शाही खानदान की स्त्री! क्योंकि गरीब की स्त्री तो अफोर्ड नहीं कर सकती थी, उसको तो पैर बड़े ही रखना पड़ता था, उसको तो चलना पड़ता था, काम करना पड़ता था। सिर्फ शाही स्त्रियां चलने से बच सकती थीं। तो कंधों पर हाथ का सहारा लेकर चलती थीं। अपंग हो जाती थीं, लेकिन समझा जाता था कि सौंदर्य है। अपंग होना था वह।
आज चीन की कोई लड़की तैयार न होगी, कहेगी पागल थे वे लोग। लेकिन हजारों साल तक यह चला। जब कोई चीज चलती है तो पता नहीं चलता। जब हजारों लोग, इकट्ठी भीड़ करती है तो पता नहीं चलता। जब सारी भीड़ पैरों में जूते पहना रही हो लोहे के, तो सारी लड़कियां पहनती थीं। जो नहीं पहनती, उसको लोग कहते कि तू पागल है। उसे अच्छा, सुंदर पति न मिलता, संपन्न परिवार न मिलता, वह दीन और दरिद्र समझी जाती। और जहां भी उसका पैर दिख जाता वहीं गंवार समझी जाती— अशिक्षित, असंस्कृत। क्योंकि तेरा पैर इतना बड़ा! पैर सिर्फ बड़े गंवार के ही चीन में होते थे, सुसंस्कृत का पैर तो छोटा होता था।
तो हजारों साल तक इस खयाल ने वहां की स्त्रियों को पंगु बनाए रखा। खयाल भी नहीं आया कि हम यह क्या पागलपन कर रहे हैं! लेकिन वह चला। जब टूटा तब पता चला कि यह तो पागलपन था।
ऐसे ही सारी मनुष्यता का मस्तिष्क पंगु बनाया गया है, ईश्वर की दृष्टि से। ईश्वर की तरफ जाने की जो प्यास है, उसे सब तरफ से काट दिया जाता है; उसको पनपने के मौके नहीं दिए जाते। और अगर कभी उठती भी हो, तो झूठे सब्स्‍टियूट खड़े कर दिए जाते हैं और बता दिया जाता है— परमात्मा चाहिए? चले जाओ मंदिर में! परमात्मा चाहिए? पढ़ लो गीता, पढ़ो कुरान, पढ़ो वेद— मिल जाएगा।
वहां कुछ भी नहीं मिलता, शब्द मिलते हैं। मंदिर में पत्थर मिलते हैं। तब आदमी सोचता है कि कुछ भी नहीं है, तो शायद अपनी प्यास ही झूठी रही होगी। और फिर प्यास ऐसी चीज है कि आई और गई। जब तक आप मंदिर गए तब तक प्यास चली गई। जब तक आपने गीता पढ़ी तब तक प्यास चली गई। फिर धीरे— धीरे प्यास कुंठित हो जाती है। और जब किसी प्यास को तृप्त होने का मौका न मिले तो वह मर जाती है। वह धीरे— धीरे मर जाती है।
अगर आप तीन दिन भूखे रहें, तो बहुत जोर से भूख लगेगी पहले दिन; दूसरे दिन और जोर से लगेगी, तीसरे दिन और जोर से लगेगी, चौथे दिन कम हो जाएगी, पांचवें दिन और कम हो जाएगी, छठवें दिन और कम हो जाएगी; पंद्रह दिन के बाद भूख लगनी बंद हो जाएगी। महीने भर भूखे रह जाएं, फिर पता ही नहीं चलेगा कि भूख क्या है। कमजोर होते चले जाएंगे, क्षीण होते चले जाएंगे, रोज वजन कम होता चला जाएगा, अपना मांस पचा जाएंगे, लेकिन भूख लगनी बंद हो जाएगी; क्योंकि अगर महीने भर तक भूख को मौका न दिया बढ़ने का, तो मर जाएगी।

Monday 22 June 2015

म सबके भीतर है जन्म के साथ ही वह प्यास भी, वह भूख भी, लेकिन वह जाग नहीं पाती। बहुत कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यही है…….सबसे बडा कारण तो यही है कि जो बड़ी भीड़ है हमारे चारों तरफ, उस भीड़ में वह प्यास कहीं भी नहीं है। और अगर किसी व्यक्ति में उठती भी है तो वह उसे दबा लेता है, क्योंकि वह उसे पागलपन मालूम होती है। चारों तरफ जहां सारे लोग धन की प्यास से भरे हों, यश की प्यास से भरे हों, वहां धर्म की प्यास पागलपन मालूम पड़ती है। और चारों तरफ के लोग संदिग्ध हो जाते हैं कि कुछ दिमाग तो नहीं खराब हो रहा है! आदमी अपने को दबा देता है। उठ नहीं पाती, जग नहीं पाती सब तरफ से दमन हो जाता है। और जो हमने दुनिया बनाई है, उस दुनिया में हमने परमात्मा को जगह नहीं छोड़ी, क्योंकि जैसा मैंने कहा बड़ा खतरनाक है परमात्मा को जगह छोड़ना, हमने वह जगह नहीं छोड़ी है।
पत्नी डरती है कि कहीं पति के जीवन में परमात्मा न आ जाए। क्योंकि परमात्मा के आने से पत्नी तिरोहित भी हो सकती है। पति डरता है, कहीं पत्नी के जीवन में परमात्मा न आ जाए। क्योंकि अगर परमात्मा आ गया तो पति परमात्मा का क्या होगा? यह सब्‍स्‍टियूट परमात्मा कहां जाएगा? इसकी जगह कहां होगी?
हमने जो दुनिया बनाई है, उसमें परमात्मा को जगह नहीं रखी है। और परमात्मा वहां डिस्टरबिंग साबित होगा। वह अगर वहां आता है तो वहां गड़बड़ होगी। गड़बड़ सुनिश्चित है। वहां कुछ न कुछ अस्तव्यस्त होगा। वहां नींद टूटेगी, कहीं कुछ होगा कहीं कुछ चीजें बदलनी पड़ेगी। हम ठीक वही तो नहीं रह जाएंगे जो हम थे। तो इसलिए हमने उसे घर के बाहर छोड़ा है। लेकिन कहीं वह जग ही न जाए उसकी प्यास, इसलिए हमने झूठे परमात्मा अपने घरों में बना लिए—कि अगर किसी को जगे भी, तो यह रहे भगवान। एक पत्थर की मूर्ति खड़ी है, उसकी पूजा करो। ताकि असली भगवान की तरफ प्यास न चली जाए। तो सब्‍स्‍टियूट गॉड्स हमने पैदा किए हुए हैं। यह आदमी की सबसे बड़ी कनिंगनेस, सबसे बड़ी चालाकी, सबसे बड़ा षड्यंत्र है। परमात्मा के खिलाफ जो बड़े से बड़ा षड्यंत्र है, वह आदमी के बनाए हुए परमात्मा हैं।
इनकी वजह से जो प्यास उसकी खोज में जाती, वह उसकी खोज में न जाकर मंदिरों और मस्जिदों के आसपास भटकने लगती है, जहां कुछ भी नहीं है। और जब वहां कुछ भी नहीं मिलता तो आदमी को लगता है कि इससे तो अपना वह घर ही बेहतर; इस मंदिर और मस्जिद में क्या रखा हुआ है! तो मंदिर—मस्जिद हो आता है, घर लौट आता है। उसे पता नहीं कि मंदिर— मस्जिद बहुत धोखे की ईजाद हैं।
मैंने तो सुना है कि एक दिन शैतान ने लौटकर अपनी पत्नी को कहा कि अब मैं बिलकुल बेकार हो गया हूं अब मुझे कोई काम ही न रहा। उसकी पत्नी बहुत हैरान हुई, जैसे कि पत्‍निया हैरान होती हैं अगर कोई बेकार हो जाए। उसकी पत्नी ने कहा, आप और बेकार! लेकिन आप कैसे बेकार हो गए? आपका काम तो शाश्वत है! लोगों को बिगाड़ने का काम तो सदा चलेगा; यह बंद तो होनेवाला नहीं। यह कैसे बंद हो गया? आप कैसे बेकार हो गए? उस शैतान ने कहा, मैं बेकार बड़ी मुश्किल से हो गया, बड़े अजीब ढंग से हो गया। अब मेरा जो काम था वह मंदिर और मस्जिद, पंडित और पुजारी कर देते हैं; मेरी कोई जरूरत नहीं है। आखिर भगवान से ही लोगों को भटकाता था। अब भगवान की तरफ कोई जाता ही नहीं! बीच में मंदिर खड़े हैं, वहीं भटक जाता है। हम तक कोई आता ही नहीं मौका कि हम भगवान से भटकाएं।
परमात्मा की प्यास तो है। और बचपन से ही हम परमात्मा के संबंध में कुछ सिखाना शुरू कर देते हैं, उससे नुकसान होता है; जानने के पहले यह भ्रम पैदा होता है कि जान लिया। हर आदमी परमात्मा को जानता है! प्यास पैदा ही नहीं हो पाती और हम पानी पिला देते हैं। उससे ऊब पैदा हो जाती है और घबड़ाहट पैदा हो जाती है। परमात्मा अरुचिकर हो जाता है हमारी शिक्षाओं के कारण; कोई रुचि नहीं रह जाती। और इतना ठूंस देते हैं, दिमाग को ऐसा स्टफ कर देते हैं—गीता, कुरान, बाइबिल से, महात्माओं से, साधुओं—संतों से, वाणियों से इस बुरी तरह सिर भर देते हैं कि मन यह होता है कि कब इससे छुटकारा हो। तो परमात्मा तक जाने का सवाल नहीं उठता।
हमने जो व्यवस्था की है वह ईश्वर—विरोधी है, इसलिए प्यास बड़ी मुश्किल हो गई। और अगर कभी उठती है तो आदमी फौरन पागल मालूम होने लगता है। तत्काल पता चलता है कि यह आदमी पागल हो गया है, क्योंकि वह हम सबसे भिन्न हो जाता है। वह और ढंग से जीने लगता है; वह और ढंग से श्वास लेने लगता है; सब उसका तौर—तरीका बदल जाता है। वह हमारे बीच का आदमी नहीं रह जाता, वह स्ट्रेजर हो जाता है, वह अजनबी हो जाता है।
हमने जो दुनिया बनाई है, वह ईश्वर—विरोधी है। बड़ा पक्का षड्यंत्र है। और अभी तक हम सफल ही रहे हैं। अभी तक हम सफल ही हुए चले जा रहे हैं। हम ईश्वर को बिलकुल बाहर कर दिए हैं। उसकी ही दुनिया से हमने उसे बिलकुल बाहर किया हुआ है। और हमने एक जाल बनाया है जिसके भीतर उसके घुसने के लिए हमने कोई दरवाजा नहीं छोड़ा है। तो प्यास कैसे जगे? लेकिन, प्यास भला न जगे, प्यास का भला पता न चले, लेकिन तड़पन भीतर और गहरी घूमती रहती है जिंदगी भर। यश मिल जाता है, फिर भी लगता है कुछ खाली रह गया; धन मिल जाता है और लगता है कि कुछ अनमिला रह गया; प्रेम मिल जाता है और लगता है कि कुछ छूट गया जो नहीं मिला, नहीं पाया जा सका।

Sunday 21 June 2015

एक मित्र पूछते हैं कि ओशो जन्म के साथ ही भूख होती है नीदं होती है प्यास होती है लेकिन प्रमु की प्यास तो होता है?
स बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। प्यास तो प्रभु की भी जन्म के साथ ही होती है, लेकिन पहचानने में बड़ा समय लग जाता है। जैसे उदाहरण के लिए बच्चे सभी सेक्स के साथ पैदा होते हैं, लेकिन पहचानने में चौदह साल लग जाते हैं। काम की, सेक्स की भूख तो जन्म के साथ ही होती है, लेकिन चौदह—पंद्रह साल लग जाते हैं उसकी पहचान आने में। और पहचान आने में चौदह—पंद्रह साल क्यों लग जाते हैं? प्यास तो भीतर होती है, लेकिन शरीर तैयार नहीं होता। चौदह साल में शरीर तैयार होता है, तब प्यास जग पाती है। अन्यथा सोई पड़ी रहती है।
परमात्मा की प्यास भी जन्म के साथ ही होती है, लेकिन शरीर तैयार नहीं हो पाता। और जब भी शरीर तैयार हो जाता है तब तत्काल जग जाती है। तो कुंडलिनी शरीर की तैयारी है। लेकिन आप कहेंगे कि यह अपने आप क्यों नहीं होता?
कभी—कभी अपने आप होता है। लेकिन—इसे समझ लें— मनुष्य के विकास में कुछ चीजें पहले व्यक्तियों को होती हैं, फिर समूह को होती हैं। जैसे उदाहरण के लिए, ऐसा प्रतीत होता है कि पूरे वेद को पढ़ जाएं, ऋग्वेद को पूरा देख जाएं, तो ऐसा नहीं लगता कि ऋग्वेद में सुगंध का कोई बोध है। ऋग्वेद के समय के जितने शास्त्र हैं सारी दुनिया में, उनमें कहीं भी सुगंध का कोई भाव नहीं है। फूलों की बात है, लेकिन सुगंध की बात नहीं है। तो जो जानते हैं, वे कहते हैं कि ऋग्वेद के समय तक आदमी की सुगंध की जो प्यास है वह जाग नहीं पाई थी। फिर कुछ लोगों को जागी।
अभी भी सुगंध मनुष्यों में बहुत कम लोगों को ही अर्थ रखती है, बहुत कम लोगों को। अभी सारे लोगों में सुगंध की इंद्रिय पूरी तरह जाग नहीं पाई है। और जितनी विकसित कौंमें हैं, उतनी ज्यादा जाग गई है, जितनी अविकसित कौमें हैं, उतनी कम जागी है। कुछ तो कबीले अभी भी दुनिया में ऐसे हैं जिनके पास सुगंध के लिए कोई शब्द नहीं है। पहले कुछ लोगों को सुगंध का भाव जागा, फिर वह धीरे— धीरे गति की और वह कलेक्टिव माइंड, सामूहिक मन का हिस्सा बना।
और भी बहुत सी चीजें धीरे— धीरे जागी हैं, जो कभी नहीं थीं, एक दिन था कि नहीं थीं। रंग का बोध भी बहुत हैरान करनेवाला है। अरस्तू ने अपनी किताबों में तीन रंगों की बात की है। अरस्तू के जमाने तक यूनान में लोगों को तीन रंगों का ही बोध होता था। बाकी रंगों का कोई बोध नहीं होता था। फिर धीरे— धीरे बाकी रंग दिखाई पड़ने शुरू हुए। और अभी भी जितने रंग हमें दिखाई पड़ते हैं, उतने ही रंग हैं, ऐसा मत समझ लेना। रंग और भी हैं, लेकिन अभी बोध नहीं जगा। इसलिए कभी एल एस डी, या मेस्कलीन, या भांग, या गांजा के प्रभाव में बहुत से और रंग दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं, जो हमने कभी भी नहीं देखे हैं। और रंग हैं अनंत। उन रंगों का बोध भी धीरे— धीरे जाग रहा है।
अभी भी बहुत लोग हैं जो कलर ब्लाइंड हैं। यहां अगर हजार मित्र आए हों, तो कम से कम पचास आदमी ऐसे निकल आएंगे जो किसी रंग के प्रति अंधे हैं। उनको खुद पता नहीं होगा। उनको खयाल भी नहीं होगा। कुछ लोगों को हरे और पीले रंग में कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता। साधारण लोगों को नहीं, कभी—कभी बड़े असाधारण लोगों को, बर्नार्ड शॉ को खुद कोई फर्क पता नहीं चलता था हरे और पीले रंग में। और साठ साल की उम्र तक पता नहीं चला कि उसको पता नहीं चलता है। वह तो पता चला साठवीं वर्षगांठ पर किसी ने एक सूट भेंट किया। वह हरे रंग का था। सिर्फ टाई देना भूल गया था, जिसने भेंट किया था। तो बर्नार्ड शॉ बाजार टाई खरीदने गया। वह पीले रंग की टाई खरीदने लगा। तो उस दुकानदार ने कहा कि अच्छा न मालूम पड़ेगा इस हरे रंग में यह पीला। उसने कहा कि क्या कह रहे हैं? बिलकुल दोनों एक से हैं। उस दुकानदार ने कहा, एक से! आप मजाक तो नहीं कर रहे? क्योंकि बर्नार्ड शॉ आमतौर से मजाक करता था। सर, आप मजाक तो नहीं कर रहे? इन दोनों को एक रंग कह रहे हैं आप! यह पीला है, यह हरा है। उसने कहा, दोनों हरे हैं। पीला यानी? तब बर्नार्ड शॉ ने आंख की जांच करवाई तो पता चला पीला रंग उसे दिखाई नहीं पड़ता; पीले रंग के प्रति वह अंधा है।
एक जमाना था कि पीला रंग किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। पीला रंग मनुष्य की चेतना में नया रंग है। तो बहुत से रंग नये आए हैं मनुष्य की चेतना में। संगीत सभी को अर्थपूर्ण नहीं है, कुछ को अर्थपूर्ण है। उसकी बारीकियों में कुछ लोगों को बड़ी गहराइयां हैं। कुछ के लिए सिर्फ सिर पीटना है। अभी उनके लिए स्वर का बोध गहरा नहीं हुआ है। अभी मनुष्य—जाति के लिए संगीत सामूहिक अनुभव नहीं बना। और परमात्मा तो बहुत ही दूर, आखिरी, अतींद्रिय अनुभव है। इसलिए बहुत थोड़े से लोग जाग पाते हैं। लेकिन सबके भीतर जागने की क्षमता जन्म के साथ है।
लेकिन जब भी हमारे बीच कोई एक आदमी जाग जाता है, तो उसके जागने के कारण भी हममें बहुतों की प्यास जो सोई हो वह जागना शुरू हो जाती है। जब कभी कोई एक कृष्ण हमारे बीच उठ आता है, तो उसे देखकर भी, उसकी मौजूदगी में भी हमारे भीतर जो सोया है वह जागना शुरू हो जाता है।

Saturday 20 June 2015

पूछा जा रहा है कि ओशो कुंडलिनी जाग्रत हो तो कभी— कभी किन्हीं केंद्रों पर अवरोध हो जाता है? रुक जाती है। तो उसके रुक जाने का कारण क्या है? और गति देने का उपाय क्या है?
कारण कुछ और नहीं सिर्फ एक है कि हम पूरी शक्ति से नहीं पुकारते और पूरी शक्ति से नहीं जगाते। हम सदा ही अधूरे हैं और आशिक हैं। हम कुछ भी करते हैं तो आधा—आधा, हाफ हाटेंडली करते हैं। हम कुछ भी पूरा नहीं कर पाते। बस इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। अगर हम पूरा कर पाएं तो कोई बाधा नहीं है।
लेकिन हमारी पूरे जीवन में सब कुछ आधा करने की आदत है। हम प्रेम भी करते हैं तो आधा करते हैं। और जिसे प्रेम करते हैं उसे घृणा भी करते हैं। बहुत अजीब सा मालूम पड़ता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे घृणा भी करते हैं। और जिसे हम प्रेम करते हैं और जिसके लिए जीते हैं, उसे हम कभी मार डालना भी चाहते हैं। ऐसा प्रेमी खोजना कठिन है जिसने अपनी प्रेयसी के मरने का विचार न किया हो। ऐसा हमारा मन है, आधा—आधा। और विपरीत आधा चल रहा है। जैसे हमारे शरीर में बायां और दायां पैर है, वे दोनों एक ही तरफ चलते हैं, लेकिन हमारे मन के बाएं—दाएं पैर उलटे चलते हैं। वही हमारा तनाव है। हमारे जीवन की अशांति क्या है? कि हम हर जगह आधे हैं।
अब एक युवक मेरे पास आया, और उसने मुझे कहा कि मुझे बीस साल से आत्महत्या करने का विचार चल रहा है। तो मैंने कहा, पागल, कर क्यों नहीं लेते हो? बीस साल बहुत लंबा वक्त है। बीस साल से आत्महत्या का विचार कर रहे हो तो कब करोगे? मर जाओगे पहले ही, फिर करोगे? वह बहुत चौंका। उसने कहा, आप क्या कहते हैं? मैं तो आया था कि आप मुझे समझाएंगे कि आत्महत्या मत करो। मैंने कहा, मुझे समझाने की जरूरत है? बीस साल से तुम कर ही नहीं रहे हो! और उसने कहा कि जिसके पास भी मैं गया वही मुझे समझाता है कि ऐसा कभी मत करना। मैंने कहा, उन समझाने वालों की वजह से ही न तो तुम जी पा रहे हो और न तुम मर पा रहे हो; आधे—आधे हो गए हो। या तो मरो या जीओ। जीना हो तो फिर आत्महत्या का खयाल छोड़ो, और जी लो। और मरना हो तो मर जाओ, जीने का खयाल छोड़ दो।
वह दो—तीन दिन मेरे पास था। रोज मैं उससे यही कहता रहा कि अब तू जीवन का खयाल मत कर, बीस साल से सोचा है मरने का तो मर ही जा। तीसरे दिन उसने मुझसे कहा, आप कैसी बातें कर रहे हैं? मैं जीना चाहता हूं। तो मैंने कहा, मैं कब कहता हूं कि तुम मरो। तुम ही पूछते थे कि मैं बीस साल से मरना चाहता हूं।
अब यह थोडा सोचने जैसा मामला है. कोई आदमी बीस साल तक मरने का सोचे, तो यह आदमी मरा तो है ही नहीं, जी भी नहीं पाया है। क्योंकि जो मरने का सोच रहा है, वह जीएगा कैसे? हम आधे—आधे हैं। और हमारे पूरे जीवन में आधे—आधे होने की आदत है। न हम मित्र बनते किसी के, न हम शत्रु बनते, हम कुछ भी पूरे नहीं हो पाते।
और आश्चर्य है कि अगर हम पूरे भी शत्रु हों तो आधे मित्र होने से ज्यादा आनंददायी है।
असल में, पूरा होना कुछ भी आनंददायी है। क्योंकि जब भी व्यक्तित्व पूरा का पूरा उतरता है, तो व्यक्तित्व में सोई हुई सारी शक्तियां साथ हो जाती हैं। और जब व्यक्तित्व आपस में बंट जाता है, स्जिट हो जाता है, दो टुकड़े हो जाता है, तब हम आपस में भीतर ही लड़ते रहते हैं। अब जैसे कुंडलिनी जाग्रत न हो, बीच में अटक जाए, तो उसका केवल एक मतलब है कि आपके भीतर जगाने का भी खयाल है, और जग जाए, इसका डर भी।
आप चले भी जा रहे हैं मंदिर की तरफ, और मंदिर में प्रवेश की हिम्मत भी नहीं है। दोनों काम कर रहे हैं। आप ध्यान की तैयारी भी कर रहे हैं और ध्यान में उतरने का, ध्यान में छलांग लगाने का साहस भी नहीं जुटा पाते हैं। तैरने का मन है, नदी के किनारे पहुंच गए हैं, और तट पर खड़े होकर सोच रहे हैं। तैरना भी चाहते हैं, पानी में भी नहीं उतरना चाहते! इरादा कुछ ऐसा है कि कहीं कमरे में गद्दा—तकिया लगाकर, उस पर लेटकर हाथ—पैर फड़फड़ाकर तैरने का मजा मिल जाए तो ले लें।
नहीं, पर गद्दे—तकिए पर तैरने का मजा नहीं मिल सकता। तैरने का मजा तो खतरे के साथ जुड़ा है।
आधापन अगर है तो कुंडलिनी में बहुत बाधा पड़ेगी। इसलिए अनेक मित्रों को अनुभव होगा कि कहीं चीज जाकर रुक जाती है। रुक जाती है तो एक ही बात ध्यान में रखना, और कोई बहाने मत खोजना। बहुत तरह के बहाने हम खोजते है—कि पिछले जन्म का कर्म बाधा पड़ रहा होगा, भाग्य बाधा पड़ रहा होगा, अभी समय नहीं आया होगा। ये हम सब बातें सोचते हैं ये सब बातें कोई भी सच नहीं हैं। सच सिर्फ एक बात है कि आप पूरी तरह जगाने में नहीं लगे हैं। अगर कहीं भी कोई अवरोध आता हो, तो समझना कि छलांग पूरी नहीं ले रहे हैं। और ताकत से कूदना, अपने को पूरा लगा देना, अपने को समग्रीभूत छोड़ देना। तो किसी केंद्र पर, किसी चक्र पर कुंडलिनी रुकेगी नहीं। वह तो एक क्षण में भी पार कर सकती है पूरी यात्रा, और वर्षों भी लग सकते हैं। हमारे अधूरेपन की बात है। अगर हमारा मन पूरा हो तो अभी एक क्षण में भी सब हो सकता है।
कहीं भी रुके तो समझना कि हम पूरे नहीं हैं, तो पूरा साथ देना, और शक्ति लगा देना। और शक्ति की अनंत—अनंत सामर्थ्य हमारे भीतर है। हमने कभी किसी काम में कोई बड़ी शक्ति नहीं लगाई है। हम सब ऊपर—ऊपर जीते हैं। हमने अपनी जड़ों को कभी पुकारा ही नहीं। इसीलिए बाधा पड़ सकती है। और ध्यान रहे, और कोई बाधा नहीं है।

Friday 19 June 2015

 एक मित्र पूछ रहे हैं कि ओशो कुंडलिनी जागरण में खतरा है तो कौन सा खतरा है? और यदि खतरा है तो फिर उसे जाग्रत ही क्यों किया जाए?
तरा तो बहुत है। असल में, जिसे हमने जीवन समझ रखा है, उस पूरे जीवन को ही खोने का खतरा है। जैसे हम हैं, वैसे ही हम कुंडलिनी जाग्रत होने पर न रह जाएंगे; सब कुछ बदलेगा—सब कुछ—हमारे संबंध, हमारी वृत्तियां, हमारा संसार; हमने कल तक जो जाना था वह सब बदलेगा। उस सबके बदलने का ही खतरा है।
लेकिन अगर कोयले को हीरा बनना हो, तो कोयले को कोयला होना तो मिटना ही पड़ता है। खतरा बहुत है। कोयले के लिए खतरा है। अगर हीरा बनेगा तो कोयला मिटेगा तो ही हीरा बनेगा। शायद यह आपको खयाल में न हो कि हीरे और कोयले में जातिगत कोई फर्क नहीं है; कोयला और हीरा एक ही तत्व हैं। कोयला ही लंबे अरसे में हीरा बन जाता है। हीरे और कोयले में केमिकली कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं है। लेकिन कोयला अगर हीरा बनना चाहे तो कोयला न रह सकेगा। कोयले को बहुत खतरा है। और ऐसे ही मनुष्य को भी खतरा है—परमात्मा होने के रास्ते पर कोई जाए, तो मनुष्य तो मिटेगा।
नदी सागर की तरफ दौड़ती है। सागर से मिलने में बड़ा खतरा है। नदी मिटेगी; नदी बचेगी नहीं। और खतरे का मतलब क्या होता है? खतरे का मतलब होता है, मिटना।
तो जिनकी मिटने की तैयारी है, वे ही केवल परमात्मा की तरफ यात्रा कर सकते हैं। मौत इस बुरी तरह नहीं मिटाती जिस बुरी तरह ध्यान मिटा देता है। क्योंकि मौत तो सिर्फ एक शरीर से छुडाती है और दूसरे शरीर से जुड़ा देती है। आप नहीं बदलते मौत में। आप वही के वही होते हैं जो थे, सिर्फ वस्त्र बदल जाते हैं। इसलिए मौत बहुत बड़ा खतरा नहीं है। और हम सारे लोग तो मौत को बड़ा खतरा समझते हैं। तो ध्यान तो मृत्यु से भी ज्यादा बड़ा खतरा है; क्योंकि मृत्यु केवल वस्त्र छीनती है, ध्यान आपको ही छीन लेगा। ध्यान महामृत्यु है।
पुराने दिनों में जो जानते थे, वे कहते ही यही थे ध्यान मृत्यु है; टोटल डेथ। कपड़े ही नहीं बदलते, सब बदल जाता है। लेकिन जिसे सागर होना हो जिस सरिता को, उसे खतरा उठाना पड़ता है। खोती कुछ भी नहीं है, सरिता जब सागर में गिरती है तो खोती कुछ भी नहीं है, सागर हो जाती है। और कोयला जब हीरा बनता है तो खोता कुछ भी नहीं है, हीरा हो जाता है। लेकिन कोयला जब तक कोयला है तब तक तो उसे डर है कि कहीं खो न जाऊं, और नदी जब तक नदी है तब तक भयभीत है कि कहीं खो न जाऊं। उसे क्या पता कि सागर से मिलकर खोएगी नहीं, सागर हो जाएगी। वही खतरा आदमी को भी है।
और वे मित्र पूछते हैं कि फिर खतरा हो तो खतरा उठाया ही क्यों जाए?
यह भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। जितना खतरा उठाते हैं हम, उतने ही जीवित हैं; और जितना खतरे से भयभीत होते हैं, उतने ही मरे हुए हैं। असल में, मरे हुए को कोई खतरा नहीं होता। एक तो बड़ा खतरा यह नहीं होता कि मरा हुआ मर नहीं सकता है अब। जीवित जो है वह मर सकता है। और जितना ज्यादा जीवित है, उतनी ही तीव्रता से मर सकता है।
एक पत्थर पड़ा है और पास में एक फूल खिला है। पत्थर कह सकता है फूल से कि तू नासमझ है! क्यों खतरा उठाता है फूल बनने का? क्योंकि सांझ न हो पाएगी और मुरझा जाएगा। फूल होने में बड़ा खतरा है, पत्थर होने में खतरा नहीं है। पत्थर सुबह भी पड़ा था, सांझ जब फूल गिर जाएगा तब भी वहीं होगा। पत्थर को ज्यादा खतरा नहीं है, क्योंकि पत्थर को ज्यादा जीवन नहीं है। जितना जीवन, उतना खतरा है।
इसलिए जो व्यक्ति जितना जीवंत होगा, जितना लिविंग होगा, उतना खतरे में है।
ध्यान सबसे बड़ा खतरा है, क्योंकि ध्यान सबसे गहरे जीवन की उपलब्धि में ले जाने का द्वार है।
नहीं, वे मित्र पूछते हैं कि खतरा है तो जाएं ही क्यों? मैं कहता हूं र खतरा है इसलिए ही जाएं। खतरा न होता तो जाने की बहुत जरूरत न थी। जहां खतरा न हो वहां जाना ही मत, क्योंकि वहां सिवाय मौत के और कुछ भी नहीं है। जहां खतरा हो वहां जरूर जाना, क्योंकि वहां जीवन की संभावना है।
लेकिन हम सब सुरक्षा के प्रेमी हैं, सिक्योरिटी के प्रेमी हैं।
इनसिक्योरिटी, असुरक्षा है, खतरा है, तो भागते हैं भयभीत होकर, डरते हैं, छिप जाते हैं। ऐसे—ऐसे हम जीवन खो देते हैं। जीवन को बचाने में बहुत लोग जीवन खो देते हैं। जीवन को तो वे ही जी पाते हैं जो जीवन को बचाते नहीं, बल्कि उछालते हुए चलते हैं। खतरा तो है। इसीलिए जाना, क्योंकि खतरा है। और बड़े से बड़ा खतरा है। और गौरीशंकर की चोटी पर चढ़ने में इतना खतरा नहीं है। और न चांद पर जाने में इतना खतरा है। अभी यात्री भटक गए थे, तो बड़ा खतरा है। लेकिन खतरा वस्त्रों को ही था। शरीर ही बदल सकते थे। लेकिन ध्यान में खतरा बड़ा है, चांद पर जाने से बड़ा है।
पर खतरे से हम डरते क्यों हैं? यह कभी सोचा कि खतरे से हम इतने डरते क्यों हैं? सब तरह के खतरे से डरने के पीछे अज्ञान है। डर लगता है कि कहीं मिट न जाएं। डर लगता है कहीं खो न जाएं। डर लगता है कहीं समाप्त न हो जाएं। तो बचाओ, सुरक्षा करो, दीवाल उठाओ, किला बनाओ, छिप जाओ। अपने को बचा लो सब खतरों से।

Thursday 18 June 2015

हम सबके भीतर अनंत संभावना छिपी है। लेकिन उन अनंत संभावनाओं का बोध जब तक हमें भीतर से न होने लगे तब तक कोई शास्त्र प्रमाण नहीं बनेगा। और कोई भी चिल्लाकर कहे कि पा लिया, तो भी प्रमाण नहीं बनेगा। क्योंकि जिसे हम नहीं जान लेते हैं, उस पर हम कभी विश्वास नहीं कर पाते हैं। और ठीक भी है, क्योंकि जिसे हम नहीं जानते उस पर विश्वास करना प्रवंचना है, डिसेपान है। अच्छा है कि हम कहें कि हमें पता नहीं कि ईश्वर है। लेकिन किन्हीं को पता हुआ है, और किन्हीं को केवल पता ही नहीं हुआ है, बल्कि उनकी सारी जिंदगी बदल गई, उनके चारों तरफ हमने फूल खिलते देखे हैं अलौकिक। लेकिन उनकी पूजा करने से वह हमारे भीतर नहीं हो जाएगा।
सारा धर्म पूजा पर रुक गया है। फूल की पूजा करने से नये बीज कैसे फूल बन जाएंगे? और नदी कितनी ही सागर की पूजा करे तो सागर न हो जाएगी। और अंडा पक्षियों की कितनी ही पूजा करे तो भी आकाश में पंख नहीं फैला सकता। अंडे को टूटना पड़ेगा। और पहली बार जब कोई पक्षी अंडे के बाहर टूटकर निकलता है तो उसे भरोसा नहीं आता; उड़ते हुए पक्षियों को देखकर वह विश्वास भी नहीं कर सकता कि यह मैं भी कर सकूंगा। वृक्षों के किनारों पर बैठकर वह हिम्मत जुटाता है। उसकी मां उड़ती है, उसका बाप उड़ता है, वे उसे धक्के भी देते हैं, फिर भी उसके हाथ—पैर कंपते हैं। वह जो कभी नहीं उड़ा, कैसे विश्वास करे कि ये पंख उड़ेंगे? आकाश में खुल जाएंगे, अनंत की, दूर की यात्रा पर निकल जाएगा।
मैं जानता हूं कि इन तीन दिनों में आप भी वृक्ष के किनारे पर बैठेंगे, मैं कितना ही चिल्लाऊंगा कि छलांग लगाएं, कूद जाएं, उड़ जाएं—विश्वास नहीं पड़ेगा, भरोसा नहीं होगा। जो पंख उड़े नहीं, वे कैसे मानें कि उड़ना हो सकता है? लेकिन कोई उपाय भी तो नहीं है, एक बार तो बिना जाने छलांग लेनी ही पड़ती है।
कोई पानी में तैरना सीखने जाता है। अगर वह कहे कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं तब तक उतरूंगा नहीं, तो गलत नहीं कहता है, ठीक कहता है, उचित कहता है, एकदम कानूनी बात कहता है। क्योंकि जब तक तैरना न सीखूं तो पानी में कैसे उतरूं! लेकिन सिखानेवाला कहेगा कि जब तक उतरोगे नहीं, सीख नहीं पाओगे। और तब तट पर खड़े होकर विवाद अंतहीन चल सकता है। हल क्या है? सिखानेवाला कहेगा, उतरो! कूदो! क्योंकि बिना उतरे सीख न पाओगे।
असल में, सीखना उतर जाने से ही शुरू होता है। सब लोग तैरना जानते हैं, सीखना नहीं पड़ता है तैरना। अगर आप तैरना सीखे हैं तो आपको पता होगा, तैरना सीखना नहीं पड़ता। सारे लोग तैरना जानते हैं, ढंग से नहीं जानते हैं—गिर जाते हैं पानी में तो ढंग आ जाता है; हाथ—पैर बेढंगे फेंकते हैं, फिर ढंग से फेंकने लगते हैं। हाथ—पैर फेंकना सभी को मालूम है। एक बार पानी में उतरे तो ढंग से फेंकना आ जाता है। इसलिए जो जानते हैं, वे कहेंगे कि तैरना सीखना नहीं है, रिमेंबरिग है—एक याद है, पुनर्स्मरण है।
इसलिए परमात्मा की जो अनुभूति है, जाननेवाले कहते हैं, वह स्मरण है। वह कोई ऐसी अनुभूति नहीं है जिसे हम आज सीख लेंगे। जिस दिन हम जानेंगे, हम कहेंगे, अरे! यही था तैरना! ये हाथ—पैर तो हम कभी भी फेंक सकते थे। लेकिन इन हाथ— पैर के फेंकने का इस नदी से, इस सागर से कभी मिलन नहीं हुआ। हिम्मत नहीं जुटाई, किनारे पर खड़े रहे। उतरना पड़े, कूदना पड़े। लेकिन कूदते ही काम शुरू हो जाता है।
वह जिस केंद्र की मैं बात कर रहा हूं वह हमारे मस्तिष्क में छिपा हुआ पड़ा है। अगर आप जाकर मस्तिष्कविदों से पूछें, तो वे कहेंगे, मस्तिष्क का बहुत थोड़ा सा हिस्सा काम कर रहा है; बड़ा हिस्सा निष्‍क्रिय है, इनएक्टिव है। उस बड़े हिस्से में क्या— क्या छिपा है, कहना कठिन है। बड़े से बड़ी प्रतिभा और जीनियस का भी बहुत थोड़ा सा मस्तिष्क काम करता है। इसी मस्तिष्क में वह केंद्र है जिसे हम सुपर—सेंस, अतींद्रिय—इंद्रिय कहें, जिसे हम छठवीं इंद्रिय कहें, या जिसे हम तीसरी आंख, थर्ड आई कहें। वह केंद्र छिपा है जो खुल जाए तो हम जीवन को बहुत नये अर्थों में देखेंगे—पदार्थ विलीन हो जाएगा और परमात्मा प्रकट होगा; आकार खो जाएगा और निराकार प्रकट होगा; रूप मिट जाएगा और अरूप आ जाएगा; मृत्यु नहीं हो जाएगी और अमृत के द्वार खुल जाएंगे। लेकिन वह देखने का केंद्र हमारा निष्‍क्रिय है। वह केंद्र कैसे सक्रिय हो?
मैंने कहा, जैसे बल्व तक अगर विद्युत की धारा न पहुंचे, तो बल्व निष्‍क्रिय पडा रहेगा; धारा पहुंचाएं और बल्व जाग उठेगा। बल्व सदा प्रतीक्षा कर रहा है कि कब धारा आए। लेकिन अकेली धारा भी प्रकट न हो सकेगी। बहती रहे, लेकिन प्रकट न हो सकेगी; प्रकट होने के लिए बल्व चाहिए। और प्रकट होने के लिए धारा भी चाहिए।
हमारे भीतर जीवन— धारा है, लेकिन वह प्रकट नहीं हो पाती; क्योंकि जब तक वह वहां न पहुंच जाए, उस केंद्र पर जहां से प्रकट होने की संभावना है, तब तक अप्रकट रह जाती है।
हम जीवित हैं नाम मात्र को। सांस लेने का नाम जीवन है? भोजन पचा लेने का नाम जीवन है? रात सो जाने का नाम, सुबह जग जाने का नाम जीवन है? बच्चे से जवान, जवान से के हो जाने का नाम जीवन है? जन्मने और मर जाने का नाम जीवन है? और अपने पीछे बच्चे छोड जाने का नाम जीवन है?
नहीं, यह तो यंत्र भी कर सकता है। और आज नहीं कल कर लेगा, बच्चे टेस्ट—टधूब में पैदा हो जाएंगे। और बचपन, जवानी और बुढ़ापा बड़ी मैकेनिकल, बड़ी यांत्रिक क्रियाएं हैं। जब कोई भी यंत्र थकता है, तो जवानी भी आती है यंत्र की, बुढ़ापा भी आता है। सभी यंत्र बचपन में होते हैं, जवान होते हैं, के होते हैं। घड़ी भी खरीदते हैं तो गारंटी होती है कि दस साल चलेगी। वह जवान भी होगी घड़ी, की भी होगी, मरेगी भी। सभी यंत्र जन्मते हैं, जीते हैं, मरते हैं। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह यांत्रिकता, मैकेनिकल होने से कुछ और ज्यादा नहीं है। जीवन कुछ और है।

Wednesday 17 June 2015

हमारे भीतर भी कोई केंद्र है जिससे वह जाना जाता है, जिसे हम परमात्मा कहें। लेकिन उस तक हमारी जीवन— धारा नहीं दौड़ती तो वह केंद्र निष्‍क्रिय पड़ रह जाता है। आंखें हों ठीक बिलकुल, और आंखों तक जीवन की धारा न दौड़े, तो आंखें बेकार हो जाएं।
एक लड़की को मेरे पास लाए थे कुछ मित्र। उस युवती का किसी से प्रेम था और घर के लोगों को पता चला और प्रेम के बीच दीवाल उन्होंने खड़ी की। अब तक हम इतनी अच्छी दुनिया नहीं बना पाए जहां प्रेम के लिए दीवालें न बनानी पड़े। उन्होंने दीवाल खड़ी कर दी, उस युवती को और उस युवक को मिलने का द्वार बंद कर दिया। बड़े घर की युवती थी, बीच से छत से दीवाल उठा दी, आर—पार देखना न हो सके। जिस दिन वह दीवाल उठी, उसी दिन वह लड़की अचानक अंधी हो गई। उसे डाक्टरों के पास ले गए। उन्होंने कहा, आंख तो बिलकुल ठीक है, लेकिन लड़की को दिखाई कुछ भी नहीं पड़ता है! पहले तो शक हुआ, मां—बाप ने डांटा—डपटा, मारने—पीटने की धमकी दी। लेकिन डांटने—डपटने से अंधेपन तो ठीक नहीं होते। डाक्टरों को दिखाया। डाक्टरों ने कहा, आंख बिलकुल ठीक है। लेकिन फिर भी डाक्टरों ने कहा कि लड़की झूठ नहीं बोलती है, उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है। साइकोलाजिकल ब्लाइंडनेस, उन्होंने कहा कि मानसिक अंधापन आ गया। तो उन्होंने कहा, हम कुछ न कर सकेंगे। लड़की की जीवन— धारा आंख तक जानी बंद हो गई है; वह जो ऊर्जा आंख तक जाती है, वह बंद हो गई है, वह धारा अवरुद्ध हो गई है। आंख ठीक है, लेकिन जीवन— धारा आंख तक नहीं पहुंचती है।
उस लड़की को मेरे पास लाए, मैंने सारी बात समझी। मैंने उस लड़की को पूछा कि क्या हुआ? तेरे मन में क्या हुआ है? उसने कहा कि मेरे मन में यह हुआ है कि जिसे देखने के लिए मेरे पास आंखें हैं, अगर उसे न देख सकूं तो आंखों की क्या जरूरत है? बेहतर है कि अंधी हो जाऊं। कल रात भर मेरे मन में एक ही खयाल चलता रहा। रात मैंने सपना भी देखा कि मैं अंधी हो गई हूं। और यह जानकर मेरा मन प्रसन्न हुआ कि अंधी हो गई हूं। क्योंकि जिसे देखने के लिए आंख आनंदित होती, अब उसे देख नहीं सकूंगी तो आंख की क्या जरूरत है, अंधा ही हो जाना अच्छा है।
उसका मन अंधा होने के लिए राजी हो गया, जीवन— धारा आंख तक जानी बंद हो गई है। आंख ठीक है, आंख देख सकती है, लेकिन जिस शक्ति से देख सकती थी वह आंख तक नहीं आती है।
हमारे व्यक्तित्व में छिपा हुआ कोई केंद्र है जहां से परमात्मा पहचाना, जाना जाता है; जहां से सत्य की झलक मिलती है; जहां से जीवन की मूल ऊर्जा से हम संबंधित होते हैं; जहां से पहली बार संगीत उठता है वह जो किसी वाद्य से नहीं उठ सकता जहां से पहली बार वे सुगंधें उपलब्ध होती हैं जो अनिर्वचनीय हैं; और जहां से उस सबका द्वार खुलता है जिसे हम मुक्ति कहें; जहां कोई बंधन नहीं, जहां परम स्वतंत्रता है; जहां कोई सीमा नहीं और असीम का विस्तार है, जहां कोई दुख नहीं और जहां आनंद, और आनंद, और आनंद, और आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। लेकिन उस केंद्र तक हमारी जीवन— धारा नहीं जाती, एनर्जी नहीं जाती, ऊर्जा नहीं जाती, कहीं नीचे ही अटककर रह जाती है।
इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि तीन दिन जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं इस ऊर्जा को, इस शक्ति को उस केंद्र तक पहुंचाने का ही प्रयास करना है, जहां वह फूल खिल जाए, वह दीया जल जाए, वह आंख मिल जाए—वह तीसरी आंख, वह सुपर सेंस, वह अतींद्रिय इंद्रिय खुल जाए—जहां से कुछ लोगों ने देखा है, और जहां से सारे लोग देखने के अधिकारी हैं। लेकिन बीज होने से ही जरूरी नहीं कि कोई वृक्ष हो जाए। हर बीज अधिकारी है वृक्ष होने का, लेकिन सभी बीज वृक्ष नहीं हो पाते। क्योंकि बीज की संभावना तो है, पोटेशियलिटी तो है कि वृक्ष हो जाए, लेकिन खाद भी जुटानी पड़ती है, जमीन में बीज को दबना भी पड़ता, मरना भी पड़ता, टूटना पड़ता, बिखरना पड़ता। जो बीज टूटने, बिखरने को, मिटने को राजी हो जाता है वह वृक्ष हो जाता है। और अगर वृक्ष के पास हम बीज को रखकर देखें तो पहचानना बहुत मुश्किल होगा कि यह बीज इतना बड़ा वृक्ष बन सकता है! असंभव! असंभव मालूम पड़ेगा। इतना सा बीज इतना बड़ा वृक्ष कैसे बनेगा!
ऐसा ही लगा है सदा। जब कृष्ण के पास हम खड़े हुए हैं, तो ऐसा ही लगा है कि हम कहां बन सकेंगे! तो हमने कहा तुम भगवान हो, हम साधारणजन, हम कहां बन सकेंगे। तुम अवतार हो, हम साधारणजन, हम तो जमीन पर ही रेंगते रहेंगे; हमारी यह सामर्थ्य नहीं। जब कोई बुद्ध और कोई महावीर हमारे पास से गुजरा है, तो हमने उसके चरणों में नमस्कार कर लिए हैं— और कहा कि तीर्थंकर हो, अवतार हो, ईश्वर के पुत्र हो, हम साधारणजन!
अगर बीज कह सकता, तो वृक्ष के पास वह भी कहता कि भगवान हो, तीर्थंकर हो, अवतार हो; हम साधारण बीज, हम कहा ऐसे हो सकेंगे! बीज को कैसे भरोसा आएगा कि इतना बड़ा वृक्ष उसमें छिपा हो सकता है? लेकिन यह बड़ा वृक्ष कभी बीज था, और जो आज बीज है वह कभी बड़ा वृक्ष हो सकता है।