Sunday 4 January 2015

पतंजलि कहते है, ‘’स्‍वार्थ परम ज्ञान ले आता है।‘’
स्‍वार्थ। स्‍वार्थी हो जाओ, यही है धर्म का वास्‍तविक मर्म, यह जानने का प्रयास करो कि तुम्‍हारा वास्‍तविक स्‍वार्थ क्‍या है। स्‍वयं को दूसरों से अलग पहचानने का प्रयास करो—परार्थ, दूसरों से अलग। और यह मत सोचना कि जो लोग तुम से अलग है, बहार है, वहीं दूसरे है। वे तो दूसरे है ही। लेकिन तुम्‍हारा शरीर भी दूसरा है। एक दिन तुम्‍हारा शरीर भी मिट्टी में मिल जायेगा। शरीर भी इस पृथ्‍वी का अंश है। तुम्‍हारी श्‍वास भी तुम्‍हारी नहीं है। वह भी दूसरों के द्वारा दी हुई है; वह हवा में वापस लौट जायेगी। बस कुछ थोड़े समय के लिए ही तुम्‍हें श्‍वास दी गयी है। वह श्‍वास उधार मिली हुई है। तुम्‍हें उसे लौटाना ही होगा। तुम यहां नहीं रहोगे। लेकिन तुम्‍हारी श्‍वास यहीं हवाओं में रहेगी। तुम यहां नहीं रहोगे, लेकिन तुम्‍हारा शरीर पृथ्‍वी में रहेगा। मिट्टी-मिट्टी में मिल जाएगी। जिसे अभी तुम अपना रक्‍त समझते हो, वह नदियों में प्रवाहित हो रहा होगा। सभी कुछ यहीं समाहित हो जाएगा।
लेकिन एक चीज तुमने किसी से उधार नहीं ली। और वह है तुम्‍हारा साक्षी भाव, वह है तुम्‍हारी जागरूकता। बुद्धि खो जायेगी, तर्क खो जाएगा। यह सभी ऐसे ही है जैसे आकाश में बादल आते है: वे आते है और फिर चले जाते है। लेकिन आकाश वहीं का वही रहता है। तुम विराट आकाश की भांति ही बने रहोगे। वहीं अनंत विराट आकाश पुरूष है—अंतर आकाश ही पुरूष है।

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