ध्यान के प्रथम कदम मनुष्य के एक नर्म मुलायम मिट्टी पर पड़ें कदमों की तरह होते है जो बहुत गहरी छाप छोड़ जाते है। फिर आप उसमें श्रद्धा की गुड़ाई की हो तो सोने पे सुहागा समझो। अगर उस भूमि में अपने बीज बो दिया तो वह बहुत गहरा और उँचा वृक्ष जरूर बनेगा। जिसे कोई भी मीलों दूर से भी देख सकेगें। इस लिए प्रथम अनुभूतियों को आज भी में अपने बिलकुल पास महसूस करता हूं, जैसे वो अभी कोरी और अनछुई है। ध्यान के पहले दिन ही चित मुझे अचेतन की उन गहराइयों में ले गया। जिस की अनुभूति आज मैं रोंए रेशे में मांस मज्जा बन कर समा गई है।
ओशो ने एक जगह कहां है…
‘’जब भी कोई साधक भीतर प्रविष्ट होता है, तो प्रकाश से उसकी सीधी मुलाकात कभी नहीं होती। होगी भी नहीं, क्योंकि प्रकाश तो बहुत गहरे में छिपा है। हमारे और हमारे ही प्रकाश के बीच अंधकार की गहरी पर्त है। तो पहले तो भीतर आँख बंद करते ही अंधकार हो जाता है। इस अंधकार से भयभीत मत होना। और इस अंधकार में काई कल्पित अंधकार निर्मित मत करना। इस अंधकार में प्रवेश करते ही जाना….कल्पित प्रकाश भी हम निर्मित कर सकते है। लेकिन इस कल्पित प्रकाश के कारण असली प्रकाश का कोई पता नहीं चलेगा।
बहुत सी साधनाएं, जो प्रकाश की कल्पना से शुरू होती है; वे साधनाएं इस अंधकार के पार नहीं ले जाती। …….बंद आँख करके हम उस प्रकाश को देखने की कोशिश भी कर सकते है। और कोशिश की तो सफल भी होगें। क्योंकि वह प्रकाश हमारी कल्पना ने निर्मित किया है। वह आपके ही मन की उत्पती है। वह आपकी ही संतति है। उससे ये अंधकार नहीं कटेगा।
हां वहां एक और भी प्रकाश है; जब हम अंधेरे में प्रवेश करते चले जाते है। तब वह एक दिन उपल्बध होगा। जिसे हमने सोच और चाह कर निर्मित नहीं किया। लेकिन अंधकार में डूबते-डूबते एक दिन अंधेरे की वह पर्त टूट जाती है। और हम प्रकाश के लोक में प्रवेश कर जाते है।
पहली मुलाकात वास्तविक साधक को अंधकार से होगी….झूठे साधक को प्रकाश से भी हो सकती है।…
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