Saturday 1 August 2015

तुम पूछते हो, मेरा क्‍या काम है। मेरा काम एक ही: तुम्‍हारा नशा तोड़ना है। और तुम्‍हारा यह नशा टूट जाए तो तुम्‍हें उस नशे की तरफ ले चलना है, जो पीओ एक बार तो फिर टूटता ही नहीं।
अभी तुम बहुत तरह के नशों में जी रहे हो—धन के नशे में, पद के नशे में, प्रतिष्‍ठ के नशे में, ये सब नशे छोड़ देने है। और एक नशा पी लेना है—ध्‍यान का, समाधि का, एक शराब समाधि की। और एक घूँट काफी है। एक घूँट सागर के बराबर है। एक घूँट पिया कि नशा कभी उतरता ही नहीं। और नशा भी ऐसा नशा कि बेहोशी भी आती है और होश भी आता है। साथ-साथ आते है। युगपत आते है। एक तरफ बेहोशी। और तभी मजा है। जब बेहोशी के बीच होश का दिया जलता हे। जब तुम नाचते भी हो मस्‍ती में और भीतर कोई ठहरा भी होता है। जब बाहर तो तुम्‍हारा नृत्‍य मीरा को होता है और भीतर तुम्‍हारा ठहराव बुद्ध का होता है-–तब मजा है। तब जिंदगी आनंद है, तब जीवन उत्‍सव है।
मेरी दृष्‍टि में, उस क्षण ही अनुभव होता है कि परमात्‍मा है। उसके पहले लाख मानों मानने से कुछ भी नहीं होता है। और जिसने जाना उसके जीवन में सौभाग्‍य की घड़ी आ गई।
जो मेरे पास इक्कट्ठे है, उनको पुराने नशे से अलग करना है ओर नये नशा दे देना है। यह भी कोई काम नहीं। यह भी मेरी मौज, यह भी मेरा मजा,यह भी मेरी मस्‍ती। इसलिए किसी का नशा टूट जाये तो ठीक; न टूटे तो मैं नाराज नहीं। टूट जाए तो शुभ: न टूटे उसकी मर्जी।

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