Sunday 16 August 2015

कृष्‍ण कहते हैं, तू सब कुछ मुझमें समर्पित करके, आशा और ममता से मुक्त होकर, विगतज्वर होकर, सब तरह के बुखारों से ऊपर उठकर—बियांड फीवरिशनेस—तू कर्म कर।
इसमें दो—तीन बातें समझने की हैं। एक, सब मुझमें समर्पित करके! यहां कृष्ण जब भी कहें, जब भी कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, तो यह कृष्ण नाम के व्यक्ति के लिए कही गई बातें नहीं हैं। जब भी कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, तो यहां वे मुझसे, मैं से समग्र परमात्मा का ही अर्थ लेते हैं। यहां व्यक्ति कृष्ण से कोई प्रयोजन नहीं है। वे व्यक्ति हैं भी नहीं। क्योंकि जिसने भी जान लिया कि मेरे पास कोई अहंकार नहीं है, वह व्यक्ति नहीं परमात्मा ही है। जिसने भी जान लिया, मैं बूंद नहीं सागर हूं वह परमात्मा ही है। यहां जब कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, सब—कर्म भी, कर्म का फल भी, कर्म की प्रेरणा भी, कर्म का परिणाम भी—सब, सब मुझमें समर्पित करके तू युद्ध में उतर। कठिन है बहुत। समर्पण से ज्यादा कठिन शायद और कुछ भी नहीं है। यह समर्पण, सरेंडर संभव हो सके, इसलिए वे दो बातें और कहते हैं, विगतज्वर होकर, बियांड फीवरिशनेस।
हम सब बुखार से भरे हैं। बहुत तरह के बुखार हैं। तरह—तरह के बुखार हैं। क्रोध का बुखार है, काम का बुखार है, लोभ का बुखार है। इनको बुखार क्यों कह रहे हैं, इनको ज्वर क्यों कहते हैं कृष्ण? ज्वर हैं। असल में जिस चीज से भी शरीर का उत्ताप बढ़ जाए, वे सभी ज्वर हैं। मेडिकली भी, चिकित्साशास्त्र के खयाल से भी। क्रोध में भी शरीर का उत्ताप बढ़ जाता है। खयाल किया है आपने! क्रोध में भी आपका ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है, रक्तचाप बढ़ जाता है। क्रोध में हृदय तेजी से धड़कता है, श्वास जोर से चलती है, शरीर उत्तप्त होकर गर्म हो जाता है। कभी—कभी तो क्रोध में मृत्यु भी घटित होती है। अगर कोई आदमी पूरी तरह क्रोधित हो जाए, तो जलकर राख हो जा सकता है, मर ही सकता है। पूरे तो हम नहीं मरते, क्योंकि पूरा हम कभी क्रोध नहीं करते, लेकिन थोड़ा तो मरते ही हैं, इंच—इंच मरते हैं। नहीं पूरे मरते, लेकिन जब भी हम क्रोध करते हैं, तभी उम्र क्षीण होती है, तत्सण क्षीण होती है। कुछ हमारे भीतर जल जाता है और सूख जाता है। जीवन की कोई लहर मर जाती और जीवन की कोई हरियाली सूख जाती है। क्रोध करें और देखें कि ज्वर है क्रोध। कृष्ण यहां बड़ी ही वैज्ञानिक भाषा का उपयोग कर रहे हैं।
कभी खयाल किया है कि जब भी सेक्स, कामवासना मन को पकड़ती है, तो शरीर ज्वरग्रस्त हो जाता है, फीवरिश हो जाता है! हृदय की धडकन बढ़ जाती, रक्तचाप बढ जाता, खून की गति बढ़ जाती, श्वास बढ़ जाती, शरीर का ताप बढ़ जाता। प्रत्येक कामवासना में ग्रस्त क्षण में शरीर ज्वरग्रस्त हो जाता है। और अगर बहुत जोर से कामवासना पकडे, तो पसीना अनिवार्य है, वैसे ही जैसे कि ज्वर में आ जाता है। और अगर और जोर से कामवासना पकड़े, तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि शरीर पर, सारे शरीर पर चमड़ी पर लाल चकत्ते फैल जाते हैं। स्त्रियों के बहुत जल्दी, क्योंकि उनकी चमडी ज्यादा कोमल, ज्यादा डेलिकेट है। लाल चकत्ते पूरे शरीर पर फैल जाते हैं। पुरुषों के शरीर पर भी फैल जाते हैं।
कृष्ण जब कह रहे हैं कि ज्वर से मुक्त हुए बिना कोई समर्पण नहीं कर सकता। क्यों? विगतज्वर ही समर्पण कर सकता है, जिसके जीवन में कोई ज्वर नहीं रहा। अब यह बड़े मजे की बात है, अगर जीवन में ज्वर न रहे, तो अहंकार नहीं रहता, क्योंकि अहंकार के लिए ज्वर भोजन है। जितना जीवन में क्रोध हो, लोभ हो, काम हो, उतना ही अहंकार होता है। और अहंकार समर्पण में बाधा है। अहंकार ही एकमात्र बाधा है, जो समर्पण नहीं करने देती।
और अक्सर ऐसा होता है कि मंदिर में परमात्मा की मूर्ति के सामने जब आप सिर रख देते हैं, तब सिर तो जमीन पर होता है, अहंकार वापस पीछे ही खड़ा रहता है, वह नहीं झुकता। कभी खयाल करना, जब आप मंदिर में झुकें, तो आप देखना कि सिर तो रखा है पत्थर पर और अहंकार पीछे अकड़ा हुआ खड़ा है। वह दूसरे काम कर रहा है। वह देख रहा है कि कोई देखने वाला भी है या नहीं। वहू देख रहा है कि मंदिर में कोई आ रहा है कि नहीं। जरा लोग देख लें और गांव में खबर पहुंच जाए कि यह आदमी बड़ा धार्मिक है। वह यह देख रहा है, वह अपने काम में लीन है, वह अपने काम में लगा हुआ है। अहंकार सघन होगा, डेस होगा। और सघन होता जाएगा, जितना ज्वर होगा जीवन में। और चौबीस घंटे ज्वर के अतिरिक्त क्या है हमारे जीवन में!
ही, बीच—बीच में छोटे—छोटे वक्त रहते हैं, जिनको हम कह सकते हैं, शांति के वक्त। लेकिन वे होते नहीं हैं शांति के। वह सिर्फ दूसरे ज्वर की तैयारी का समय होता है। तैयारी के लिए वक्त लगता है न! आदमी दिनभर, चौबीस घंटे क्रोध नहीं कर सकता, असंभव है। घंटे भर क्रोध करे, तो तीन घंटे विश्राम चाहिए। तीन घंटे विश्राम करके फिर ताजा होना चाहिए, तब फिर क्रोध कर सकता है। तो बीच—बीच में जिनको हम शांति के क्षण कहते हैं, वे विगतज्वर होने के नहीं हैं, वे केवल बीच में विश्राम के और पुन: तैयारी के क्षण हैं।
इसलिए आप एक और बात खयाल करेंगे कि हर आदमी के क्रोध के दौर होते हैं, पीरियड्स होते हैं। और अगर आप डायरी रखें, तो आप अपने पीरियड पकड़ लेंगे, उसी तरह जैसे रोज आदमी जिस वक्त पर सोता है, उसी वक्त पर नींद आती है। रोज भूख लगती है वक्त पर। अगर आप एक महीनेभर डायरी रखें, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे कि आपके क्रोध का भी पीरियड है, जो वक्त पर लौटता है। हमेशा लौट आता है। आपके सेक्स का भी वक्त है, जो हमेशा लौट आता है। लेकिन अगर आप डायरी रखें, तो आपको खयाल रहे कि ठीक इसका भी एक कैलेंडर है, इसके भी आवागमन का एक वर्तुल है।
पूरी जिंदगी हमारी एक ज्वरों के वर्तुल में घूमती रहती है। कभी क्रोध, कभी काम, कभी लोभ, कभी कुछ, कभी कुछ। उसी में हम जीते और रिक्त होते चले जाते हैं। इनसे जो विगत हो जाए, इनके जो पार हो जाए, वही व्यक्ति समर्पण को उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि इनके जो पार हो जाए, उसके पास अहंकार बचता ही नहीं। इसलिए समर्पण अपने आप हो जाता है।
यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि समर्पण आप कर नहीं सकते हैं, समर्पण सदा होता है। आपका किया हुआ समर्पण, समर्पण नहीं होगा, क्योंकि करने वाला मौजूद है। और करने वाला ही तो बाधा है, वही तो समर्पण नहीं होने देता। इसलिए अगर कोई कहे कि मैं परमात्मा को समर्पित करता हूं तभी समझना कि समर्पण हुआ नहीं। क्योंकि कल यह आदमी कहेगा कि वापस लेता हूं तो परमात्मा क्या कर सकता है! वापस ले लो। नहीं, एक आदमी जब कहे कि अब कोई उपाय ही नहीं है, मैं परमात्मा कभी समर्पित हूं, तब अब वापस लेने वाला नहीं बचा। इसलिए कभी कोई मैं के रहते समर्पण नहीं कर सकता। अगर ठीक से समझें, तो मैं का न रह जाना ही समर्पण है। और मैं कब नहीं रहेगा? जब ज्वर नहीं रहेंगे।
इसे ऐसा भी समझ लें कि ज्वरों के जोड़ का नाम मैं है। तो अभी मैंने आपसे कहा कि मैं एक भ्रम है। लेकिन भ्रम भी काम करता है, क्योंकि ये ज्वर बडे सत्य हैं और भ्रम इन ज्वरों के रथ पर सवार हो जाता है। ये ज्वर बड़े सत्य हैं। ये काम, क्रोध, लोभ बड़े सत्य हैं। इनका शारीरिक अर्थ भी है, इनका मानसिक अर्थ भी है। ये साइकोसोमेटिक हैं। ये शरीर और मन दोनों में इनका सत्य है। इनके ऊपर अहंकार सवारी करता है। और इनको जब तक हम विसर्जित न कर दें, तब तक अहंकार रथ के नीचे नहीं उतरता। इनको कैसे विसर्जित करें? ये ज्वर कैसे चले जाएं?
पहली तो बात यह है, इन्हें हमने कभी ज्वर की तरह, बीमारी की तरह देखा नहीं। और जिस चीज को हम बीमारी की तरह न देखें, उसे हम कभी विसर्जित नहीं कर सकते। कोई आदमी टी बी. नहीं बचाना चाहता और कोई आदमी कैंसर नहीं बचाना चाहता। क्योंकि उनको हम बीमारियों की तरह पहचानते हैं। लेकिन क्रोध, लोभ, मोह, काम, इन्हें हम बीमारियों की तरह नहीं पहचानते। इसलिए हम इन्हें बचाना चाहते हैं। हम कहते हैं कि बिना क्रोध के चलेगा कैसा? कोई आदमी नहीं कहता कि बिना टी बी के चलेगा कैसे? नहीं, वह कहता है, टी बी हो गई, तो चलेगा ही नहीं। टी बी एकदम अलग करो। अभी हम शरीर की बीमारियां तो पहचानने लगे हैं। लेकिन मन की बीमारियां हम अभी तक नहीं पहचान पाए।
और ध्यान रहे, अगर कोई आपके शरीर की बीमारियों की तरफ इशारा करे, तो आप कभी नाराज नहीं होते, लेकिन अगर आपके मन की बीमारियों की तरफ कोई इशारा करे, तो आप लड़ने को तैयार हो जाते हैं। कोई आदमी कहे कि देखिए, आपके पैर में घाव हो गया है, तो आप उससे लड़ते नहीं कि तुमने हमारा अपमान कर दिया कि हमारे पैर में घाव बता दिया। आप धन्यवाद देते हैं कि तुम्हारी बडी कृपा कि तुमने याद दिला दी। लेकिन कोई आदमी कहे कि बड़े लोभी हो, तो लकड़ी लेकर खड़े हो जाते हैं कि आप क्या कह रहे हैं! असल में मन को बीमारी को हम बीमारी स्वीकार नहीं करते। मन की बीमारी को तो हम समझते हैं कि कोई बड़ी धरोहर है, उसे बचाना है, उसे बचा—बचाकर रखना है, उसे सुम्हाल—सम्हालकर रखना है।
कृष्ण कह है, ये सब ज्वर हैं।


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