Friday 21 August 2015

कृष्ण का सारा जोर, वह जो इनर रियलिटी है, वह जो भीतर का सत्य है, उसको रूपांतरित करने का है। उसको बदल डाल! वहां तू बस अभिनेता हो जा। लेकिन अर्जुन तो पूछेगा न, कि अभिनेता भी क्यों हो जाऊं? क्योंकि अभिनेता अभी अर्जुन हो नहीं गया। इसलिए बेचारे कृष्ण को मजबूरी में, इन कंपल्शन, एक कारण बताना पडता है। और वह कारण यह कि लोकमंगल के कारण, लोक के मंगल के लिए।
वस्तुत: इस कारण की भी कोई जरूरत नहीं है। और अगर कृष्ण कृष्ण की ही हैसियत से बात करते होते, दूसरा आदमी भी कृष्ण की हैसियत का आदमी होता, तो यह शर्त न जोड़ी गई होती। क्योंकि अनासक्त व्यक्ति का कर्म अनकडीशनल है। जब सारा लोक ही लीला है, तो लोकमंगल की बात भी बेमानी है। लेकिन कृष्म को जोड़नी पड़ती है यह शर्त। जिससे वे बात कर रहे हैं, वह पूछेगा, फिर भी कोई कारण तो हो? कि अभिनय भी बेकार करें? जहा कोई देखने ही न आया हो, वहां अभिनय क्या करें? तो कृष्ण कहते हैं, दर्शकों के आनंद के लिए तू अभिनय कर।
यह जो दूसरी बात वे कह रहे हैं कि लोकमंगल के लिए, इस बात को कृष्म बहुत मजबूरी में कह रहे हैं। यह मजबूरी अर्जुन की समझ के कारण पैदा हुई है। अर्जुन समझ ही नहीं सकता कि बिना कारण भी कोई कर्म हो सकता है, अकारण भी, अनकाब्द, अनकडीशनल, बेशर्त। कि जहां कोई वजह नहीं है, तो वहा क्यों काम करूं? हम भी पूछेंगे, हम भी कहेंगे कि यह तो बिलकुल पागल का काम हो जाएगा। जब कोई भी कारण नहीं है, तो काम करें ही क्यों? हमारा वही आसक्त मन पूछ रहा है। आसक्त मन कहता है, कारण हो, तो काम करो। कारण न हो, तो मत करो। यह हमारे आसक्त मन की शर्त है। यह हमारा आसक्त मन या तो कहता है कि लोभ हो, तो काम करो, लोभ न हो, तो मत करो,। विश्राम करो। यह आसक्त मन का तर्क है।
अर्जुन तो आसक्त है। अभी वह अनासक्त हुआ नहीं। कृष्ण को उसको ध्यान में रखकर एक बात और कहनी पड़ती है। अन्यथा इतना कहना काफी है कि जैसे अज्ञानी आसक्तजन कर्म करते हैं, ऐसा ही तू अनासक्त होकर कर। अभिनेता हो जा। लेकिन इतना अर्जुन के लिए काफी नहीं होगा। अर्जुन के लिए थोड़ा—सा कारण चाहिए। तो कृष्ण कहते हैं, दूसरों के हित के लिए! दूसरों के हित के लिए तू कर। क्यों? इतना झूठ भी क्यों? है वह झूठ। झूठ इस अर्थों में—ऐसा नहीं है कि दूसरों का हित नहीं होगा; ध्यान रखें, दूसरों का हित होगा, उस अर्थ में झूठ नहीं है—झूठ इस अर्थों में कि अनासक्त कर्म के लिए इतनी शर्त भी उचित नहीं है।
इसलिए मैं आपसे कहना चाहूंगा कि कृष्ण, बुद्ध और महावीर ‘ के सभी वचन पूर्ण सत्य नहीं हैं; उनमें थोड़ा असत्य आता है। उनके कारण, जिनसे वे बोले गए हैं। क्योंकि पूर्ण सत्य अर्जुन नहीं समझ सकता। पूर्ण सत्य बुद्ध के सुनने वाले नहीं समझ सकते। पूर्ण सत्य बोलना हो, तो असत्य मिश्रित होता है। और अगर पूर्ण सत्य ही बोलना हो और असत्य मिश्रित न करना हो, तो चुप रह जाना पड़ता है, बोलना नहीं पड़ता। इन दो के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।
इस दूसरे हिस्से में अर्जुन को कारण बताया जा रहा है। वह कारण वैसे ही है जैसे हम मछलियों के लिए, पकड़ने के लिए आटा और आटे के भीतर काटा लगाकर डाल देते हैं। मछली कांटा नहीं पकड़ेगी, भाग खड़ी होगी। अर्जुन भी शुद्ध अनासक्त कर्म नहीं पकड़ सकता। वह कहेगा, फिर करें ही क्यों? यही तो मैं कह रहा हूं माधव! वह कहेगा, यही तो मैं कह रहा हूं कृष्ण! कि जब अनासक्ति ही है, तो मैं जाता हूं। कर्म क्यों करूं? यही तो मैं कह रहा हूं! आप भी यही कह रहे हैं, तो मुझे जाने दें। इस युद्ध से बचाएं, इस भयंकर कर्म में मुझे न जोतें।
कृष्ण को उस कांटे पर थोड़ा आटा भी लगाना पड़ता है। वह आटा लोकमंगल का है। तो शायद अर्जुन लोकमंगल के लिए…। क्यों? लेकिन अगर अर्जुन की जगह ब्राह्मण होता, तो लोकमंगल काम नहीं करता शब्द। क्षत्रिय को काम कर सकता है। क्षत्रिय को काम कर सकता है। अगर बुद्ध से कृष्ण ने कहा होता कि लोकमंगल के लिए रुके रहो राजमहल में, वे कहते, कोई लोकमंगल नहीं है। जब तक आत्मा का मंगल नहीं हुआ, तब तक लोकमंगल हो कैसे सकता है? बुद्ध स्पष्ट कह देते कि बंद करो गीता, हम जाते हैं!
वह आदमी ब्राह्मण है। उस आदमी पर कृष्ण की गीता काम न करती उस तरह से, जिस तरह से अर्जुन पर काम कर सकती है। असल में कृष्ण ने फिर यह गीता कही ही न होती। यह गीता एड्रेस्ट है। यह अर्जुन के लिए, क्षत्रिय व्यक्तित्व के लिए है। इस पर पता लिखा है। इसलिए वे कहते हैं, लोकमंगल के लिए। क्योंकि क्षत्रिय के मन में, लोग क्या कहते हैं, इसका बड़ा भाव है। शक्ति के आकांक्षी के मन में, लोग क्या कहते हैं, लोगों का क्या होता है, इसका बड़ा भाव है। क्षत्रिय अपने पर पीछे, लोगों की आंखों में। पहले देखता है। लोगों की आंखों में देखकर ही वह अपनी चमक पहचानता है।
इसलिए कृष्ण बार—बार अर्जुन को कहते हैं, लोकमंगल के लिए। ऐसा नहीं है कि लोकमंगल नहीं होगा, लोकमंगल होगा। लेकिन वह गौण है, वह हो जाएगा; वह बाइप्रोडक्ट है। लेकिन कृष्ण को जोर देना पड़ता है लोकमंगल के लिए, क्योंकि वे जानते हैं, सामने जो बैठा है, शायद लोगों के मंगल के लिए ही रुक जाए। शायद लोगों की आंखों में उसके लिए जो भाव बनेगा, उसके लिए रुक जाए। क्षत्रिय है। यद्यपि रुक जाए, तो कृष्ण धीरे— धीरे उसे उस अनासक्ति पर ले जाएंगे, जहा आटा निकल जाता है और काटा ही रह जाता है। एक—एक कदम, एक—एक कदम बढ़ना होगा। और कृष्ण एक—एक कदम ही बढ़ रहे हैं।

No comments:

Post a Comment