Saturday, 8 August 2015

जिसे तुम सुख कहते हो, कबीर उस सुख की बात नहीं कर रहे हैं। क्योंकि उस सुख में रहना हो ही नहीं सकता। वह आया भी नहीं, कि गया हो जाता है। आ भी नहीं पाया, कि जा रहा है। इधर तुम देख रहे थे कि मुंह था अपनी तरफ, तुम ठीक से पहचान भी न पाए थे कि सुख आ रहा था, कि देखा कि पीठ हो गई, जा रहा है।
क्षण भर के सुख में कैसे रहोगे? होश आते ही क्षण खो जाता है। और फिर सुख-जिसे तुम सुख कहते हो–जब आता है, तब भी मन सुख से ही भरा रहता है। क्योंकि तुम जानते हो कि यह टिकेगा नहीं। तब भी भीतर एक गहरी उदासी घेरे रहती है चित्त को। तुम जानते हो भलीभांति, कि यह लहर की तरह आया, और लहर की तरह चला जाएगा। यह लहर तट पर सदा रुकनेवाली नहीं है। जैसी आई है, वैसी चली जाएगी। यह ज्वारा जल्दी ही भाटा हो जाएगा।
स्वभावतः जब सुख आता है, और पता चलता रहता है कि गया…गया…गया। कैसे तुम सुख में रह सकते हो? सुख आता है, तो तुम पकड़ने की कोशिश से भर जाते हो। रहना तो बहुत मुश्किल है, पकड़ते हो। रोक लें थोड़ी देर और, एक क्षण और, उस पकड़ने में ही वह क्षण खो जाता है, जो कि जीने का क्षण हो सकता था। सुख आता है, तब कहीं चला न जाए, यह चिंता मन में व्याप्त हो जाती है। दुख होता है, तब तुम दुख से पीड़ित। दुख होता है, तब तुम चिंता से पीड़ित, कि कैसे जाए। सुख होता है, तो तुम इस चिंता से पीड़ित कि कहीं चला न जाए। कि जब गया–कि अब गया। कैसे बांध लूं।
रह कैसे पाओगे? सुख में रहना तो तभी हो सकता है, जब सुख आए और न। आ गया, फिर जाने को न हो। तुम्हारा स्वभाव हो जाए, चित्त की वृत्ति नहीं। चित्त की वृत्ति तो लहर की तरह आती है और चलती जाती है। तुम जिसको सुख कहते हो, वह चित्त की एक तरंग है। कबीर जिस सुख की बात कर रहे हैं, वह अस्तित्व की अवस्था है। वह आत्मा की भावदशा है। स्वभाव फिर जाता नहीं।
बोधिधर्म चीन गया: एक बहुत महत्वपूर्ण संन्यासी, बौद्ध भिक्षु। चीन के सम्राट ने उसे पूछा, कि क्रोध आता है, लोभ आता है, अशांति आती है, क्या करूं? तो बोधिधर्म ने कहा, आंख बंद कर। मुझे बता, अभी क्रोध है? सम्राट ने कहा, अभी तो नहीं। तो बोधिधर्म ने कहा, जो चौबीस घंटे और सदा नहीं है, वह तेरा स्वभाव नहीं है। आता है, जो चला जाता है, वह तू कैसे हो सकता है? तू तो सदा है। क्या तू यह भी कह सकता है, कि कभी-कभी तू होता है और कभी-कभी नहीं भी हो जाता है? नहीं, सम्राट न कहा, मैं तो चौबीस घंटे में चाहे क्रोध हो, चाहे अशांति हो, चाहे शांति हो, चाहे सुख हो, चाहे नींद हो, चाहे जागरण हो, मैं तो सतत हूं। तो बोधिधर्म ने कहा, वह जो सतत है, उसकी फिकर कर। उसको जान। और जो कभी आता है और कभी चला जाता है, वह तो बाहर की तरंग है। किनारे को छूती है, लौट जाती है। उस पर ज्यादा ध्यान मत दे।
न तो सुख मूल्यवान है तुम्हारा, न दुख मूल्यवान है तुम्हारा। तुमने बहुत ध्यान इन पर दिया, इसलिए तुम बुरी तरह उलझ गए हो। वे ध्यान देने योग्य भी नहीं है। उपेक्षा के अतिरिक्त उनके प्रति दूसरा भाव नहीं चाहिए। सुख आए तो उपेक्षा रखना, क्योंकि वह जाने ही वाला है। दुख आए तो उपेक्षा रखना, कि जानते हो कि कितनी देर टिकेगा! कभी दुख सदा नहीं टिकता। तो फिर क्या इतनी परेशान होने की जरूरत है? रह लेने दो थोड़ी देर।
आ गया है पक्षी उड़कर तुम्हारे कमरे में, दुख का हो या सुख का क्षण भर फड़फड़ाएगा, दूसरी खिड़की से निकल जाएगा। कोई सदा रहने को नहीं है। एक खिड़की से प्रवेश कर जाता है पक्षी, क्षण भर फड़फड़ाता है, दूसरी खिड़की से निकल कर, अनंत यात्रा पर निकल जाता है। तुम तो वह भवन हो, जहां पक्षी थोड़ी देर उड़ा–वह रिक्तता, वह खाली जगह; उसी ससे अपना तादात्म्य करो, तो तुम समझ पाओगे कबीर किस सुख की बात कर रहे हैं! जो आता है, और जाता नहीं। आया कि आया, फिर जाने का नाम नहीं लेता। वह कोई मेहमान नहीं है, वह तुम ही हो। वह कोई अतिथि नहीं है, वह स्वयं आतिथेय है। मेहमान नहीं, मेजबान। वह तुम ही हो। वह कोई किनारे पर आनेवाली तरंग नहीं, वह किनारा ही है।
सहज समाधें सुख में रहिबा, कौटि कलप विश्राम।
गुरु कृपाल कृपा जब किन्हीं, हिरदै कंवल विगासा।
जब गुरु का प्रसाद मिला, जब गुरु की कृपा हुई, जब उसकी अनुकंपा बरसी, तो हृदय का कमल विकसित हुआ।
खुद की चेष्टा से भूमि तैयार होती है। इसलिए जो लोग खुद की चेष्टा को ही सब कुछ समझ लेते हैं, भटक जाते हैं। खुद की चेष्टा ऐसी ही है, जैसे कोई अपने जूतों के बंदों को उठाकर खुद को उठाने की कोशिश करे। थोड़ा-बहुत उछल कूद मचा सकता है। क्षण दो क्षण को, फीट दो फीट छलांग भी लगा सकता है। लेकिन कितनी देर यह छलांग टिकेगी? उछल भी नहीं पाएगा, कि पाएगा कि फिर जमीन पर खड़ा है।
आदमी की सामर्थ्य कितनी! बड़ी छोटी सामर्थ्य है। उस छोटी सामर्थ्य से विराट को खोजने हम जाएं, तो हम विराट को भी रंग डालेंगे। वह विराट भी हम जैसा ही छोटा हो जाएगा, इसलिए तो हमारे सब भगवान छोटे हो गए हैं। छोटे आदमी का भगवान बड़ा कैसे हो सकता है?
तुम राम को बनाओगे, तो अपनी ही शक्ल में बनाओगे। कितने ही धनुष वगैरह दे दो, कितनी ही मूर्ति सुंदर बनाओ, लेकिन होगी आदमी ही मूर्ति। तुम्हारी ही मूर्ति का प्रतिफलन होगा। तुम कृष्ण का जीवन पढ़ोगे, तुम क्या पढ़ोगे? तुम अपने को ही पढ़ लोगे। बुद्ध को तुम, महावीर को, गौर से देखो! या तो तुम्हारे चेहरे उन में प्रकट हुए हैं, या तुम्हारी आकांक्षा–ज्यादा से ज्यादा तुम्हारी आकांक्षाएं, अभीप्साएं, जैसे तुम होना चाहोगे। लेकिन तुमसे बाहर कुछ भी नहीं जा सकता। तुम जो भी करोगे, तुम उसे घेर लोगे। वह तुम्हारी प्रतिध्वनि होगी।
इसलिए कबीर कहते हैं–गुरु कृपाल जब किन्हीं।
गुरु से अर्थ है, जो जाग गया। जो जाग गया, वह तुम्हारे और परमात्मा के बीच कड़ी बन सकता है। इसे थोड़ा समझो।
गुरु एक द्वार है; द्वार से ज्यादा कुछ भी नहीं। उस द्वार के एक तरफ तुम हो और दूसरी तरफ परमात्मा है। तुम परमात्मा को समझने में असमर्थ हो। क्योंकि वह भाषा बिलकुल अपरिचित। वह रूप अनचीन्हा। वह राग अनसुना। तुम्हारे कान उस संगीत के लिए तैयार नहीं है। तुम्हारा हृदय उस स्पर्श के लिए तैयार नहीं। तुम्हारी भूमि घास-पात से भरी है। वे बीज तुममें गिर भी जाएं, तो भी अंकुरित न हो पाएंगे।
फिर तुम द्वार की तरफ पीठ किए खड़े हो। परमात्मा की तरफ तुम उन्मुख नहीं हो, परमात्मा से विमुख हो। संसार की तरफ जितनी उन्मुखता होगी, उतनी परमात्मा की तरफ विमुखता होगी, पीठ होगी। तुम मुंह तो एक ही तरफ कर सकते हो–या तो संसार की तरफ या परमात्मा की तरफ।
संन्यासी का इतना ही अर्थ है, जिसने संसार की तरफ पीठ कर ली और मुंह परमात्मा की तरफ कर लिया। गृहस्थ का अर्थ है, जिसने पीठ परमात्मा की तरफ की और मुंह संसार की तरफ किया। बस, उनके खड़े होने के ढंग का जरा सा फर्क है। एक जहां पीठ किए है, दूसरा वहां मुंह किए है। बस, इतना ही फर्क है। जरा सा मुड़ना, एक सौ अस्सी डिग्री धूम जाना–और गृहस्थ संन्यासी हो जाता है। एक क्षण में! संन्यासी गृहस्थ हो सकता है।
मुंह कहां है? प्रभु-उन्मुखता, संन्यास है। लेकिन तुम्हारी पीठ द्वार की तरफ…और उस द्वार के पार जो अनंत फैला हुआ है, वह तुम्हारी परिभाषाओं में नहीं आता है। तुमने जो भी जाना है, उससे उसका कोई मेल नहीं है। तुम्हारा सब जानना व्यर्थ है। गुरु का अर्थ है, जो कभी तुम जैसा था। पीठ किए खड़ा था द्वार की तरफ। फिर उसने द्वार की तरफ मुंह किया।
गुरु का अर्थ है, जो तुम्हारी भाषा भलीभांति समझता है। जो तुम्हारे बीच से ही पाया है। जिसका अतीत तुम्हारे जैसा ही था। लेकिन जिसका वर्तमान भिन्न हो गया है। जिसके जीवन में परमात्मा की थोड़ी किरण उतर गई है। वह परमात्मा की भाषा को भी थोड़ा समझा है। वह अनुवाद का काम कर सकता है।
गुरु एक अनुवादक है, एक ट्रांसलेटर। वह परमात्मा को समझता है, उसकी भाषा को। वह तुम्हें समझता है, तुम्हारी भाषा को। वह परमात्मा को तुम्हारी भाषा में लाता है। वह परमात्मा को तुम्हारे अनुकूल…जिसे तुम सह सको। वह छानता है तुम्हारे लिए। रस लग जाए, तो तुम छलांग ले लोगे। लेकिन रस इतना बड़ा न हो कि उस आघात में तुम मिट जाओ। वह धीरे-धीरे तुम्हें तैयार करता है।

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