Friday 28 August 2015

किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो…।’
प्रेमपूर्वक में कुंजी है। क्या तुमने कभी किसी चीज को प्रेमपूर्वक देखा है? तुम ही कह सकते हो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि किसी चीज को प्रेमपूर्वक देखने का क्या अर्थ होता है। तुमने किसी चीज को लालसा— भरी आंखों से देखा होगा, कामनापूर्वक देखा होगा। वह दूसरी बात है। वह बिलकुल भिन्न, विपरीत बात है। पहले इस भेद को समझो।
तुम एक सुंदर चेहरे को, सुंदर शरीर को देखते हो और तुम सोचते हो कि तुम उसे प्रेमपूर्वक देख रहे हो। लेकिन तुम उसे क्यों देख रहे हो? क्या तुम उससे कुछ पाना चाहते हो? तब वह वासना है, कामना है, प्रेम नहीं। क्या तुम उसका शोषण करना चाहते हो? तब वह वासना है, प्रेम नहीं। तब तुम सच में यह चाहते हो कि मैं कैसे इस शरीर को उपयोग में लाऊं, कैसे इसका मालिक बनूं कैसे इसे अपने सुख का साधन बना लूं।
वासना का अर्थ है कि कैसे किसी चीज को अपने सुख के लिए उपयोग में लाऊं। प्रेम का अर्थ है कि उससे मेरे सुख का कुछ लेना—देना नहीं है। सच तो यह है कि वासना कुछ लेना चाहती है और प्रेम कुछ देना चाहता है। वे दोनों सर्वथा एक—दूसरे के प्रतिकूल हैं।
अगर तुम किसी सुंदर व्यक्ति को देखते हो और उसके प्रति प्रेम अनुभव करते हो तो तुम्हारी चेतना में तुरंत भाव उठेगा कि कैसे इस व्यक्ति को, इस पुरुष या स्त्री को सुखी करूं। यह फिक्र अपनी नहीं, दूसरे की है। प्रेम में दूसरा महत्वपूर्ण है, वासना में तुम महत्वपूर्ण हो।
वासना में तुम दूसरे को अपना साधन बनाने की सोचते हो, और प्रेम में तुम स्वय साधन बनने की सोचते हो। वासना में तुम दूसरे को पोंछ देना चाहते हो; प्रेम में तुम स्वय मिट जाना चाहते हो। प्रेम का अर्थ है देना, वासना का अर्थ है लेना। प्रेम समर्पण है; वासना आक्रमण है।
तुम क्या कहते हो, उसका कोई अर्थ नहीं है। वासना में भी तुम प्रेम की भाषा काम में लाते हो। तुम्हारी भाषा का बहुत मतलब नहीं है। इसलिए धोखे में मत पडो। भीतर देखो और तब तुम समझोगे कि तुमने जीवन में एक बार भी किसी व्यक्ति या वस्तु को प्रेमपूर्वक नहीं देखा है।
एक दूसरा भेद भी समझ लेने जैसा है।
सूत्र कहता है : ‘किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो……।’
असल में अगर तुम किसी पार्थिव, जड़ वस्तु को भी प्रेमपूर्वक देखो तो वह वस्तु व्यक्ति बन जाएगी। तुम्हारा प्रेम वस्तु को भी व्यक्ति में रूपांतरित करने की कुंजी है। अगर तुम वृक्ष को प्रेमपूर्वक देखो तो वृक्ष व्यक्ति बन जाएगा।
उस दिन मैं विवेक से बात करता था। मैंने उससे कहा कि जब हम नए आश्रम में जाएंगे तो वहां हम हरेक वृक्ष को नाम देंगे, क्योंकि हरेक वृक्ष व्यक्ति है। क्या कभी तुमने सुना है कि कोई वृक्षों को नाम दे? कोई वृक्षों को नाम नहीं देता है, क्योंकि कोई वृक्षों को प्रेम नहीं करता। अगर प्रेम करे तो वृक्ष व्यक्ति बन जाए। तब वह भीड़ का, जंगल का हिस्सा नहीं रहा, वह अनूठा हो गया।
तुम कुत्तों और बिल्लियों को नाम देते हो। जब तुम कुत्ते को नाम देते हो, उसे ‘टाइगर’ कहते हो, तो कुत्ता व्यक्ति बन जाता है। तब वह बहुत से कुत्तों में एक कुत्ता नहीं रहा, तब उसको व्यक्तित्व मिल गया। तुमने व्यक्ति निर्मित कर दिया। जब भी तुम किसी चीज को प्रेमपूर्वक देखते हो वह चीज व्यक्ति बन जाती है।
और इसका उलटा भी सही है। जब तुम किसी व्यक्ति को वासनापूर्वक देखते हो तो वह व्यक्ति वस्तु बन जाता है। यही कारण है कि वासना— भरी आंखों में विकर्षण होता है, क्योंकि कोई भी वस्तु होना नहीं चाहता है। जब तुम अपनी पत्नी को, या किसी दूसरी स्त्री को, या पुरुष को, वासना की दृष्टि से देखते हो, तो उससे दूसरे को चोट पहुंचती है। तुम असल में क्या कर रहे हो? तुम एक जीवित व्यक्ति को मृत साधन में, यंत्र में बदल रहे हो। ज्यों ही तुमने सोचा कि कैसे उसका उपयोग करें कि तुमने उसकी हत्या कर दी।
यही कारण है कि वासना— भरी आंखें विकर्षक होती हैं, कुरूप होती हैं। और जब तुम किसी को प्रेम से भरकर देखते हो तो दूसरा ऊंचा उठ जाता है, वह अनूठा हो जाता है। अचानक वह व्यक्ति हो उठता है।
एक वस्तु बदली जा सकती है, उसकी जगह ठीक वैसी ही चीज लायी जा सकती है; लेकिन उसी तरह एक व्यक्ति नहीं बदला जा सकता। वस्तु का अर्थ है जो बदली जा सके; व्यक्ति का अर्थ है जो नहीं बदला जा सके। किसी पुरुष या स्त्री के स्थान पर ठीक वैसा ही पुरुष या स्त्री नहीं लायी जा सकती। व्यक्ति अनूठा है, वस्तु नहीं।
प्रेम किसी को भी अनूठा बना देता है। यही कारण है कि प्रेम के बिना तुम नहीं महसूस करते कि मैं व्यक्ति हूं। जब तक कोई तुम्हें गहन प्रेम न करे, तुम्हें तुम्हारे अनूठेपन का एहसास ही नहीं होता। तब तक तुम भीड़ के हिस्से हो—एक नंबर, एक संख्या। और तुम बदले जा सकते हो।
उदाहरण के लिए, अगर तुम किसी दफ्तर में क्‍लर्क हो या स्‍कूल में शिक्षक हो या विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो, तो तुम्हारी प्रोफेसरी बदली जा सकती है; दूसरा प्रोफेसर तुम्हारी जगह ले लेगा। वह कभी भी तुम्हारी जगह ले सकता है, क्योंकि वहां तुम प्रोफेसर के रूप में काम आते हो। वहां तुम्हारे काम से मतलब है। वैसे ही अगर तुम क्लर्क हो तो कोई भी तुम्हारा काम कर दे सकता है। काम तुम्हारा इंतजार नहीं करेगा। अगर तुम इस क्षण मर जाओ तो अगले क्षण कोई तुम्हारी जगह ले लेगा, और काम चलता रहेगा। तुम एक संख्या थे, दूसरी संख्या से चल जाएगा। तुम एक उपयोग भर थे।
लेकिन फिर कोई इसी क्लर्क या प्रोफेसर के साथ प्रेम में पड़ जाता है। अचानक वह क्लर्क क्लर्क नहीं रह जाता, वह एक अनूठा व्यक्ति हो उठता है। अगर वह मर जाए तो उसकी प्रेमिका उसकी जगह किसी को भी नहीं बिठा सकती। उसे बदला नहीं जा सकता है। तब सारी दुनिया वैसी की वैसी रह सकती है, लेकिन वह व्यक्ति जो इसके प्रेम में था वही नहीं रहेगा। यह अनूठापन, यह व्यक्ति होना प्रेम के द्वारा घटित होता है।
यह सूत्र कहता है. ‘किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो……।’
यह किसी विषय या व्यक्ति में कोई फर्क नहीं करता है। उसकी जरूरत नहीं है। क्योंकि जब तुम प्रेमपूर्वक देखते हो तो कोई भी चीज व्यक्ति हो उठती है। यह देखना ही बदलता है, रूपांतरित करता है।
तुमने देखा हो या न देखा हो, जब तुम किसी खास कार को, समझो वह फिएट है, चलाते हो तो क्या होता है। एक ही जैसे हजारों—हजार फिएट हैं, लेकिन तुम्हारी कार, अगर तुम अपनी कार को प्रेम करते हो, अनूठी हो जाती है, व्यक्ति बन जाती है। उसे बदला नहीं जा सकता; एक नाता—रिश्ता निर्मित हो गया। अब तुम इस कार को एक व्यक्ति समझते हो। अगर कुछ गड़बड़ हो जाए, जरा सी आवाज आने लगे, तो तुम्हें तुरंत उसका एहसास होता है। और कारें बहुत तुनुकमिजाज होती हैं। तुम अपनी कार के मिजाज से परिचित हो कि कब वह अच्छा महसूस करती है और कब बुरा। धीरे—धीरे कार व्यक्ति बन जाती है। क्यों?
अगर प्रेम का संबंध है तो कोई भी चीज व्यक्ति बन जाती है। और अगर वासना का संबंध हो तो व्यक्ति भी वस्तु बन जाता है। और यह बड़े से बड़ा अमानवीय कृत्य है जो आदमी कर सकता है कि वह किसी को वस्तु बना दे।
‘किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो।’
इसके लिए कोई क्या करे? प्रेम से जब देखते हो तो क्या करना होता है? पहली बात : अपने को भूल जाओ। अपने को बिलकुल भूल जाओ। एक फूल को देखो और अपने को बिलकुल भूल जाओ। फूल तो हो, लेकिन तुम अनुपस्थित हो जाओ। फूल को अनुभव करो और तुम्हारी चेतना से गहरा प्रेम फूल की ओर प्रवाहित होगा। और तब अपनी चेतना को एक ही विचार से भर जाने दो कि कैसे मैं इस फूल के ज्यादा खिलने में, ज्यादा सुंदर होने में, ज्यादा आनंदित होने में सहयोगी हो सकता हूं। मैं क्या कर सकता हूं?
यह महत्व की बात नहीं है कि तुम कुछ कर सकते हो या नहीं, यह प्रासंगिक नहीं है। यह भाव कि मैं क्या कर सकता हूं यह पीड़ा, गहरी पीड़ा कि इस फूल को ज्यादा सुंदर, ज्यादा जीवंत और ज्‍यादा प्रस्‍फुटित बनाने के लिए मैं क्या करू, ज्यादा महत्व की है। इस विचार को अपने पूरे प्राणों में गूंजने दो। अपने शरीर और मन के प्रत्येक तंतु को इस विचार से भीगने दो। तब तुम समाधिस्थ हो जाओगे और फूल एक व्यक्ति बन जाएगा।
‘दूसरे विषय पर मत जाओ।’
तुम जा नहीं सकते। अगर तुम प्रेम में हो तो नहीं जा सकते। अगर तुम इस समूह में बैठे किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो तुम्हारे लिए सब भीड़ भूल जाती है और केवल वही चेहरा बचता है। सच में तुम और किसी को नहीं देखते, उस एक चेहरे को ही देखते हो। सब वहां हैं, लेकिन वे नहीं के बराबर हैं, वे तुम्हारी चेतना की महज परिधि पर होते हैं। वे महज छायाएं हैं। मात्र एक चेहरा रहता है। अगर तुम किसी को प्रेम करते हो तो मात्र वही चेहरा रहता है। इसलिए दूसरे पर तुम नहीं जा सकते।
दूसरे विषय पर मत जाओ, एक के साथ ही रहो। गुलाब के फूल के साथ या अपनी प्रेमिका के चेहरे के साथ रहो। और उसके साथ प्रेमपूर्वक रहो, प्रवाहमान रहो, समग्र हृदय से उसके साथ रही। और इस विचार के साथ रहो कि मैं अपनी प्रेमिका को ज्यादा सुखी और आनंदित बनाने के लिए क्या कर सकता हूं।
‘यहीं विषय के मध्य में—आनंद।’
और जब ऐसी स्थिति बन जाए कि तुम अनुपस्थित हो, अपनी फिक्र नहीं करते, अपने सुख—संतोष की चिंता नहीं लेते, अपने को पूरी तरह भूल गए हो, जब तुम सिर्फ दूसरे के लिए चिंता करते हो, दूसरा तुम्हारे प्रेम का केंद्र बन गया है, तुम्हारी चेतना दूसरे में प्रवाहित हो रही है, जब गहन करुणा और प्रेम के भाव से तुम सोचते हो कि मैं अपनी प्रेमिका को आनंदित करने के लिए क्या कर सकता हूं तब इस स्थिति में अचानक, ‘यहीं विषय के मध्य में—आनंद’, अचानक उप—उत्पत्ति की तरह तुम्हें आनंद उपलब्ध हो जाता है। तब अचानक तुम केंद्रित हो गए।
यह बात विरोधाभासी लगती है। क्योंकि सूत्र कहता है कि अपने को बिलकुल भूल जाओ, आत्म—केंद्रित मत बनो, दूसरे में पूरी तरह प्रवेश करो।
बुद्ध निरंतर कहते थे कि जब भी तुम प्रार्थना करो तो दूसरों के लिए करो—अपने लिए नहीं। अन्यथा प्रार्थना व्यर्थ है।
एक आदमी बुद्ध के पास आया और उसने कहा कि मैं आपके उपदेश को स्वीकार करता हूं लेकिन उसकी एक बात मानना बहुत कठिन है। आप कहते हैं कि जब तुम प्रार्थना करो तो अपनी मत सोचो, अपने लिए मत कुछ मांगो; सदा यही कहो कि मेरी प्रार्थना से जो फल आए वह सबको मिले, कोई आनंद उतरे तो वह सब में बंट जाए। उस आदमी ने कहा, यह बात भी ठीक है, लेकिन मैं इसमें एक अपवाद, एक ही अपवाद करना चाहूंगा। और वह यह कि यह कृपा मेरे पड़ोसी को न मिले, क्योंकि वह मेरा शत्रु है। यह आनंद मेरे पड़ोसी को छोड्कर सबको प्राप्त हो।
मन आत्म—केंद्रित है। बुद्ध ने उस आदमी से कहा कि तब तुम्हारी प्रार्थना व्यर्थ है। अगर तुम सब कुछ सबको बांटने को तैयार नहीं हो तो कुछ भी फल नहीं होगा। और सबमें बांट दोगे तो सब तुम्हारा होगा।
प्रेम में तुम्हें अपने को भूल जाना है। लेकिन तब यह बात विरोधाभासी लगने लगती है। तब केंद्रित होना कब और कैसे घटित होगा? दूसरे में समग्ररूपेण संलग्‍न होने से जब। तुम स्वयं को पूरी तरह भूल जाते हो और जब दूसरा ही बचता है, तुम आनंद से, आशीर्वाद से भर दिए जाते हो।
क्यों? क्योंकि जब तुम्हें अपनी फिक्र नहीं रहती तो तुम खाली, रिक्त हो जाते हो। तब आंतरिक आकाश निर्मित हो जाता है। जब तुम्हारा मन पूरी तरह दूसरे में संलग्न है तो तुम अपने भीतर मन—रहित हो जाते हो, तब तुम्हारे भीतर विचार नहीं रह जाते हैं। और तब यह विचार भी कि मैं दूसरे को अधिक सुखी, अधिक आनंदित बनाने के लिए क्या कर सकता हूं जाता रहता है। क्योंकि सच में तुम कुछ नहीं कर सकते। तब यह विचार विराम बन जाता है, तुम कुछ नहीं कर सकते। क्या कर सकते हो? क्योंकि अगर सोचते हो कि मैं कुछ कर सकता हूं तो अब भी तुम अहंकार की भाषा में सोच रहे हो।
स्मरण रहे, प्रेमपात्र के साथ व्यक्ति बिलकुल असहाय हो जाता है। जब भी तुम किसी को प्रेम करते हो, तुम असहाय हो जाते हो। यही प्रेम की पीड़ा है कि तुम्हें पता ही नहीं चलता कि मैं क्या कर सकता हूं। तुम सब कुछ करना चाहोगे, तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका को सारा ब्रह्मांड दे देना चाहोगे। लेकिन तुम कर क्या सकते हो? अगर तुम सोचते हो कि यह या वह कर सकते हो तो तुम अभी प्रेम में नहीं हो। प्रेम बहुत असहाय है, बिलकुल असहाय है। और वह असहायपन सुंदर है, क्योंकि उसी असहायपन में तुम समर्पित हो जाते हो।
किसी को प्रेम करो और तुम असहाय अनुभव करोगे। किसी को घृणा करो और तुम्हें लगेगा कि तुम कुछ कर सकते हो। प्रेम करो और तुम बिलकुल असमर्थ हो। तुम क्या कर सकते हो? जो भी तुम कर सकते हो वह इतना क्षुद्र लगता है, इतना अर्थहीन। वह कभी भी पर्याप्त नहीं मालूम पड़ता। कुछ नहीं किया जा सकता है। और जब कोई समझता है कि कुछ नहीं किया जा सकता तब वह असहाय अनुभव करता है। जब कोई सब कुछ करना चाहता है और समझता है कि कुछ नहीं किया जा सकता, तब मन रुक जाता है। और इसी असहायावस्था में समर्पण घटित होता है। तुम खाली हो गए।
यही कारण है कि प्रेम गहन ध्यान बन जाता है। अगर सच में तुम किसी को प्रेम करते हो तो किसी अन्य ध्यान की जरूरत न रही। लेकिन क्योंकि कोई भी प्रेम नहीं करता है, इसलिए एक सौ बारह विधियों की जरूरत पड़ी। और वे भी काफी नहीं हैं।
उस दिन कोई यहां था। वह कह रहा था कि इससे मुझे बहुत आशा बंधी है। मैंने पहली दफा आप से ही सुना है कि एक सौ बारह विधियां हैं। इससे बहुत आशा होती है। लेकिन मन में कहीं एक विषाद भी उठता है कि क्या कुल एक सौ बारह विधियां ही हैं? क्योंकि अगर मेरे लिए वे सब की सब व्यर्थ हुईं तो क्या होगा? क्या कोई एक सौ तेरहवीं विधि नहीं है?
और वह आदमी सही है। वह सही है! अगर ये एक सौ बारह विधियां तुम्हारे काम न आ सकीं तो कोई उपाय नहीं है। इसलिए उसका कहना ठीक है कि आशा के पीछे—पीछे विषाद भी घेरता है। लेकिन सच तो यह है कि विधियों की जरूरत इसलिए पड़ती है कि बुनियादी विधि खो गई है। अगर तुम प्रेम कर सको तो किसी विधि की जरूरत नहीं है। प्रेम स्वयं सबसे बड़ी विधि है।
लेकिन प्रेम कठिन है, एक तरह से असंभव। प्रेम का अर्थ है अपने को ही अपनी चेतना से निकाल बाहर करना और उसकी जगह, अपने अहंकार की जगह दूसरे को स्थापित करना। प्रेम का अर्थ है अपनी जगह दूसरे को स्थापित करना, मानो कि अब तुम नहीं हो और सिर्फ दूसरा है।
ज्या पाल सार्त्र कहता है कि दूसरा नरक है। और वह सही है। वह सही है, क्योंकि दूसरा तुम्हारे लिए नरक ही बनाता है। लेकिन सार्त्र गलत भी हो सकता है, क्योंकि दूसरा अगर नरक है तो वह स्वर्ग भी हो सकता है।
अगर तुम वासना से जीते हो तो दूसरा नरक है। क्योंकि तुम उस व्यक्ति की हत्या करने में लगे हो, तुम उसे वस्तु में बदलने में लगे हो। तब वह व्यक्ति भी प्रतिक्रिया में तुम्हें वस्तु बनाना चाहेगा। और उससे ही नरक पैदा होता है।
तो सब पति—पत्नी एक—दूसरे के लिए नरक पैदा कर रहे हैं, क्योंकि हरेक दूसरे पर मालकियत करने में लगा है। मालकियत सिर्फ चीजों की हो सकती है, व्यक्तियों की नहीं। तुम किसी वस्तु को तो अधिकार में कर सकते हो, लेकिन किसी व्यक्ति को अधिकार में नहीं कर सकते। लेकिन तुम व्यक्ति पर अधिकार करने की कोशिश करते हो। और उस कोशिश में व्यक्ति वस्तु बन जाते हैं। और अगर मैं तुम्हें वस्तु बना दूं तो तुम प्रतिशोध लोगे। तब मैं तुम्हारा शत्रु हूं। तब तुम भी मुझे वस्तु बनाने की कोशिश करोगे। उससे ही नरक बनता है।
तुम अपने कमरे में अकेले बैठे हो। और तभी तुम्हें अचानक पता चलता है कि कोई चाबी के छेद से भीतर झांक रहा है। गौर से देखो कि क्या होता है। तुम्हें कोई बदलाहट महसूस हुई? तुम क्यों इस झांकने वाले पर नाराज होते हो? वह कुछ भी तो नहीं कर रहा है, सिर्फ झांक रहा है। तुम नाराज क्यों हो रहे हो? उसने तुम्हें वस्तु में बदल दिया। वह झांक रहा है और झांककर उसने तुम्हें वस्तु बना दिया, आब्जेक्ट बना दिया। उससे ही तुम्हें बेचैनी होती है।
और वही बात उस आदमी के साथ होगी। अगर तुम उस चाबी के छेद के पास आकर बाहर देखने लगो तो दूसरा व्यक्ति घबरा जाएगा। एक क्षण पहले वह द्रष्टा था और तुम दृश्य थे। अब वह अचानक पकड़ा गया है और तुम्हें देखते हुए पकड़ा गया है। और अब वही वस्तु बन गया है।
जब कोई तुम्हें देख रहा है तो तुम्हें लगता है कि मेरी स्वतंत्रता बाधित हुई, नष्ट हुई। यही कारण है कि प्रेमपात्र को छोड्कर तुम किसी को घूर नहीं सकते, टकटकी लगाकर देख नहीं सकते। अगर तुम प्रेम में नहीं हो तो वह घूरना कुरूप होगा, हिंसक होगा। ही, अगर तुम प्रेम में हो तो वह घूरना सुंदर है, क्योंकि तब तुम घूरकर किसी को वस्तु में नहीं बदलते हो। तब तुम दूसरे की आंख में सीधे झांक सकते हो, तब तुम दूसरे की आंख में गहरे प्रवेश कर सकते हो। तुम उसे वस्तु में नहीं बदलते, बल्कि तुम्हारा प्रेम उसे व्यक्ति बना देता है। यही कारण है कि सिर्फ प्रेमियों को घूरना सुंदर होता है, शेष सब घूरना कुरूप है, गंदा है।
मनस्विद कहते कि तुम किसी व्यक्ति को, अगर वह अजनबी है, कितनी देर तक घूरकर देख सकते हो, इसकी सीमा है।
तुम इसका निरीक्षण करो और तुम्हें पता चल जाएगा कि इसकी अवधि कितनी है। इस समय की सीमा है। उससे एक क्षण ज्यादा घूरो और दूसरा व्यक्ति क्रुद्ध हो जाएगा। सार्वजनिक रूप से एक चलती हुई नजर क्षमा की जा सकती है। क्‍योंकि उससे लगेगा कि तुम देख भर रहे थे, घूर नहीं रहे थे। दृष्टि गड़ाकर देखना दूसरी बात है।
अगर मैं तुम्हें चलते—चलते देख लेता हूं तो उससे कोई संबंध नहीं बनता है। या मैं गुजर रहा हूं और तुम मुझ पर निगाह डालों तो उससे कुछ बनता—बिगड़ता नहीं है। वह अपराध नहीं है, ठीक है। लेकिन अगर तुम अचानक रुककर मुझे देखने लगो तो तुम निरीक्षक हो गए। तब तुम्हारी दृष्टि से मुझे अड़चन होगी और मैं अपमानित अनुभव करूंगा। तुम कर क्या रहे हो? मैं व्यक्ति हूं वस्तु नहीं। यह कोई देखने का ढंग है?
इसी वजह से कपड़े महत्वपूर्ण हो गए हैं। अगर तुम किसी के प्रेम में हो तभी तुम उसके समक्ष नग्न हो सकते हो। क्योंकि जिस क्षण तुम नग्न होते हो, तुम्हारा समूचा शरीर दृष्टि का विषय बन जाता है, कोई तुम्हारे पूरे शरीर को निहार सकता है। और अगर वह तुम्हारे प्रेम में नहीं है तो उसकी आंखें तुम्हारे पूरे शरीर को, तुम्हारे पूरे अस्तित्व को वस्तु में बदल देंगी। लेकिन अगर तुम किसी के प्रेम में हो, तो तुम उसके सामने लज्जा महसूस किए बिना ही नग्न हो सकते हो। बल्कि तुम्हें नग्न होना रास आएगा, क्योंकि तुम चाहोगे कि यह रूपांतरकारी प्रेम तुम्हारे पूरे शरीर को व्यक्ति में रूपांतरित कर दे।
जब भी तुम किसी को वस्तु में बदलते हो तो वह कृत्य अनैतिक है। लेकिन अगर तुम प्रेम से भरे हो तो उस प्रेम— भरे क्षण में यह घटना, यह आनंद किसी भी विषय के साथ संभव हो जाता है।
‘यहीं विषय के मध्य में—आनंद।’
अचानक तुम अपने को भूल गए हो, दूसरा ही है। और तब वह सही क्षण आएगा, जब कि तुम पूरे के पूरे अनुपस्थित हो जाओगे, तब दूसरा भी अनुपस्थित हो जाएगा। और तब दोनों के बीच वह धन्यता घटती है। प्रेमियों की यही अनुभूति है।
यह आनंद एक अज्ञात और अचेतन ध्यान के कारण घटता है। जहां दो प्रेमी हैं वहां धीरे— धीरे दोनों अनुपस्थित हो जाते हैं; और वहां एक शुद्ध अस्तित्व बचता है जिसमें कोई अहंकार नहीं है, कोई द्वंद्व नहीं है। वहां मात्र संवाद है, साहचर्य है, सहभागिता है। उस संयोग में ही आनंद उतरता है। यह समझना गलत है कि यह आनंद तुम्हें किसी दूसरे से मिला है। वह आनंद आया है, क्योंकि तुम अनजाने ही एक गहरी ध्यान—विधि में उतर गए हो।
तुम यह सचेतन भी कर सकते हो। और जब सचेतन करते हो तो तुम और गहरे जाते हो, क्योंकि तब तुम विषय से बंधे नहीं हो। यह रोज ही होता है। जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम जो आनंद अनुभव करते हो उसका कारण दूसरा नहीं है, उसका कारण बस प्रेम है। और प्रेम क्यों कारण है? क्योंकि यह घटना घटती है, यह सूत्र घटता है।
लेकिन तब तुम एक गलतफहमी से ग्रस्त हो जाते हो, तुम सोचते हो कि अ या ब के सान्निध्य के कारण यह आनंद घटा। और तुम सोचते हो कि मुझे अ को अपने कब्जे में करना चाहिए क्योंकि अ की उपस्थिति के बिना मुझे यह आनंद नहीं मिलेगा। और तुम ईर्ष्यालु हो जाते हो। तुम्हें डर लगने लगता है कि अ किसी दूसरे के कब्जे में न चला जाए, क्योंकि तब दूसरा आनंदित होगा और तुम दुखी होओगे। इसलिए तुम पक्का कर लेना चाहते हो कि अ किसी और के कब्जे में न जाए। अ को तुम्हारे ही कब्जे में होना चाहिए, क्योंकि उसके द्वारा तुम्हें किसी और लोक की झलक मिली।
लेकिन जिस क्षण तुम मालकियत की चेष्टा करते हो उसी क्षण उस घटना का सब सौंदर्य, सब कुछ नष्ट हो जाता है। जब प्रेम पर कब्जा हो जाता है, प्रेम समाप्त हो जाता है। तब प्रेमी महज एक वस्तु होकर रह जाता है। तुम उसका उपयोग कर सकते हो, लेकिन फिर वह आनंद नहीं घटित होगा। वह आनंद तो दूसरे के व्यक्ति होने से आता था। दूसरा तो निर्मित हुआ था; तुमने उसके भीतर व्यक्ति को निर्मित किया था, उसने तुम्हारे भीतर वही किया था। तब कोई आब्जेक्ट नहीं था। तब दोनों दो जीवंत निजता थे, ऐसा नहीं था कि एक व्यक्ति था और दूसरा वस्तु। लेकिन ज्यों ही तुमने मालकियत की कि आनंद असंभव हो गया।
और मन सदा स्वामित्व करना चाहेगा, क्योंकि मन सदा लोभ की भाषा में सोचता है। सोचता है कि एक दिन जो आनंद मिला वह रोज—रोज मिलना चाहिए, इसलिए मुझे स्वामित्व जरूरी है। लेकिन यह आनंद ही तब घटता है जब स्वामित्व की बात नहीं रहती। और आनंद दूसरे के कारण नहीं, तुम्हारे कारण घटता है। यह स्मरण रहे कि आनंद तुम्हारे कारण घटता है, क्योंकि तुम दूसरे में इतने समाहित हो गए कि आनंद घटित हुआ।
यह घटना गुलाब के फूल के साथ भी घट सकती है; चट्टान या वृक्ष या किसी भी चीज के साथ घट सकती है। एक बार तुम उस स्थिति से परिचित हो गए जिसमें यह आनंद घटता है, तो वह कहीं भी घट सकता है। यदि तुम जानते हो कि तुम नहीं हो और किसी गहन प्रेम में तुम दूसरे में प्रवेश कर गए—चाहे वह दूसरा वृक्ष हो, आकाश हो, तारे हों, कोई हों—यदि तुम्हारी समस्त चेतना दूसरे की ओर प्रवाहित हो जाए तो अहंकार तुम्हें छोड़ देता है और अहंकार की उस अनुपस्थिति में आनंद फलित होता है।

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