Saturday 22 August 2015

कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, वह कृष्ण को भलीभांति पता था, बुद्ध को भी पता था, महावीर को भी पता था, लाओत्से को भी पता था, क्राइस्ट को भी पता था। लेकिन क्राइस्ट, लाओत्से, बुद्ध और महावीर और कृष्ण ने इस भांति नहीं कहा, जिस भांति वे कहते हैं। इसलिए बुद्ध, क्राइस्ट और महावीर से तो लोगों के जीवन में मंगल फलित हुआ; कृष्णमूर्ति की बातों से मंगल फलित नहीं हुआ है, नहीं हो सकता है। इसलिए नहीं कि जो कहा जा रहा है वह गलत है, बल्कि इसलिए कि वह जिनसे कहा जा रहा है, उनको बिना समझे कहा जा रहा है।
इसलिए चालीस—चालीस वर्ष से कृष्णमूर्ति को लोग बैठकर सुन रहे हैं। उससे कृष्णमूर्ति उनकी समझ में नहीं आए, सिर्फ महावीर, बुद्ध और कृष्ण उनकी समझ के बाहर हो गए हैं। उससे सूरज उनकी जिंदगी में नहीं उतरा, सिर्फ जो उनके पास छोटे—मोटे दीए थे, वे भी उन्होंने बुझा दिए हैं। और अब अगर उनसे कोई दीयो। की बात करे, तो वे सूरज की बात करते हैं। और सूरज उनकी जिंदगी में नहीं है। अब अगर उनसे कोई साधना की बात करे, तो वे कहते हैं, साधना से क्या होगा? साधना से कुछ नहीं हो सकता। और बिना साधना की उनकी जिंदगी में कुछ भी नहीं हुआ है! अब अगर उनसे कोई उपाय की बात करे कि इस उपाय से मन शात होगा, आनंदित होगा, तो वे कहेंगे, उपाय से कंडीशनिंग हो जाती है, संस्कार हो जाते हैं। उपाय से कुछ भी नहीं हो सकता, इससे तो कंडीशनिंग हो जाएगी। और नान—कंडीशनिंग उनकी हुई नहीं है सुन—सुनकर। सूरज उतरा नहीं! जिन दीयों से सूरज के अभाव में काम चल सकता था, वे भी बुझा दिए गए हैं। सूरज निकल आए, फिर तो दीए अपने से ही बुझ जाते हैं, बुझाने नहीं पड़ते। और जलते भी रहें, तो दिखाई नहीं पड़ते। उनका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, वे व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन सूरज न निकले, तो छोटे —से दीए भी काम करते हैं।
बुद्ध और महावीर में ज्यादा करुणा है, कृष्णमूर्ति के बजाय। कृष्ण और क्राइस्ट में ज्यादा करुणा है, कृष्णमूर्ति के बजाय। करुणा इस अर्थों में कि वे निपट सत्य को निपट सत्य की तरह नहीं कह दे रहे हैं, आप पर भी ध्यान है कि जिससे कह रहे हैं, उस पर क्या होगा! सवाल यही महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं कह दूं सत्य को। सवाल यह भी महत्वपूर्ण है, परिणाम क्या है? इससे होगा क्या? उससे जो होगा, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है, बजाय मेरे कह देने के। क्योंकि अंततः मैं कह इसलिए रहा हूं कि कुछ हो, और वह मंगलदायी हो। फ्रायड ने, डार्विन ने, कृष्णमूर्ति ने सारे जगत में जो बातें कही हैं, वे झूठ नहीं हैं, वे सच हैं। उनकी सचाई में रत्तीभर फर्क नहीं है। लेकिन उन्हें बुद्धिमानी से नहीं कहा गया है। जानते हैं, जो जानते हैं, वह ठीक जानते हैं। लेकिन जिनसे कहा जा रहा है, उन्हें ठीक से नहीं जानते। आदमी से गलत छुडा लेना बहुत आसान है, जरा भी कठिन नहीं है। किसी चीज को भी गलत सिद्ध कर देना बहुत आसान है, जरा भी कठिन नहीं है। लेकिन सही का पदार्पण, सही का आगमन और अवतरण बहुत कठिन है।
कृष्ण यही कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि अर्जुन, अनासक्त व्यक्ति को अज्ञानियों पर ध्यान रखकर जीना चाहिए। ऐसा न हो कि। अनासक्त व्यक्ति छोड्कर भाग जाए, तो अज्ञानी भी छोड्कर भाग जाएं। अनासक्त छोड्कर भागेगा, तो उसका कोई भी अहित नहीं है। लेकिन अज्ञानी छोड्कर भाग जाएंगे, तो बहुत अहित है। क्योंकि अज्ञान में छोड्कर वे जहां भागेंगे, वहा फिर कर्म घेर लेगा। उससे. कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। दुकान छोड्कर मंदिर में जाएगा अज्ञानी, तो मंदिर में नहीं पहुंचेगा, सिर्फ मंदिर को दुकान बना देगा। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। खाते—बही पढ़ते—पढ़ते एकदम से गीता पड़ेगा, तो गीता नहीं पड़ेगा, गीता में भी खाते—बही ही पड़ेगा।
अज्ञानी सत्यों का भी दुरुपयोग कर सकता है, करता है। सत्यों का भी दुरुपयोग हो सकता है और असत्यों का भी सदुपयोग हो सकता है। ज्ञानी छोड़ दे सब। अज्ञानी भी छोड़ना चाहता है, लेकिन छोड़ना चाहने के कारण बिलकुल अलग हैं। ज्ञानी इसलिए छोड़ देता है कि पकड़ना, न पकड़ना, बराबर हो गया। चीजें छूट जाती हैं, दे जस्ट विदर अवे। अज्ञानी छोड़ता है, चीजें छूटती नहीं, चेष्टा करके छोड़ देता है। जिस चीज को भी चेष्टा करके छोड़ा जाता है, उसमें पीछे घाव छूट जाता है।
जैसे कच्चे पत्ते को कोई वृक्ष से तोड़ लेता है, कच्ची डाल को कोई वृक्ष से तोड़ लेता है, तो पीछे घाव छूट जाता है। पका पत्ता भी टूटता है, लेकिन कोई घाव नहीं छूटता। पके पत्ते को सम्हलकर छूटना चाहिए, कच्चे पत्तों को टूटने का खयाल न आ जाए। कच्चे पत्ते भी टूटने के लिए आतुर हो सकते हैं। पके पत्ते का आनंद देखेंगे हवाओं में उडूते हुए और खुद को पाएंगे बंधा हुआ। और पका पत्ता हवाओं की छाती पर सवार होकर आकाश में उठने लगेगा, और पका पत्ता पूर्व और पश्चिम दौड़ने लगेगा, और पके पत्ते की स्वतंत्रता—वृक्ष से टूटकर, मुक्त होकर—कच्चे पत्तों को भी आकर्षित कर सकती है। वे भी टूटना चाह सकते हैं। वे भी सोच सकते हैं, हम भी क्यों बंधे रहें इस वृक्ष से! टूटे। लेकिन तब पीछे वृक्ष में भी घाव छूट जाता और कच्चे पत्ते में भी घाव छूट जाता। और घाव खतरनाक है।
इसलिए ध्यान रखें, पका पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता नहीं। कच्चा पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता है। पका पत्ता सडेगा क्या! सड़ने के बाहर हो गया पककर। कच्चा पत्ता जब भी टूटेगा तो सडेगा। अभी कच्चा ही था, अभी पका कहां था? अभी तो सडेगा। और ध्यान रखें, पकना एक बात है, और सड़ना बिलकुल दूसरी बात है।
कच्चा आदमी वैसा ही होता है, जैसे कच्ची लकड़ी को हम ईंधन बना लें। तो आग तो कम जलती है, धुआ ही ज्यादा निकलता है। पकी लकड़ी भी ईंधन बनती है, लेकिन तब धुआ नहीं निकलता, आग जलती है। जो व्यक्ति जानकर जीवन से छूट जाता है सहज, वह पकी लकडी की तरह ईंधन बन जाता है, उसमें धुआ नहीं होता।! कच्चे व्यक्ति अगर छूट जाते हैं पक्के लोगों को देखकर, तो आग पैदा नहीं होती, सिर्फ धुआ ही धुआ पैदा होता है। और लोगों की आंखें भर जलती हैं, भोजन नहीं पकता है।
कृष्ण कह रहे हैं, ज्ञानी को बहुत ही तलवार की धार पर चलना होता है। उसे ध्यान रखना होता है अपने ज्ञान का भी, चारों तरफ घिरे हुए अज्ञानियों का भी। इसलिए ऐसा उसे बर्तना चाहिए कि वह किसी अज्ञानी के कर्म की श्रद्धा को चोट न बन जाए; वह उसके कर्म के भाव को आघात न बन जाए; वह उसके जीवन के लिए आशीर्वाद की जगह अभिशाप न बन जाए।
बन गए बहुत दफा ज्ञानी अभिशाप! और अगर ज्ञान के प्रति इतना भय आ गया है, तो उसका कारण यही है। बुद्ध को देखकर लाखों लोग घर छोड्कर चले गए। चंगेज खा ने भी लाखों घरों को बरबाद किया। लेकिन चंगेज खां को इतिहास दोषी ठहराएगा, बुद्ध को नहीं ठहराएगा। हजारों स्त्रियां रोती, तड़पती —पीटती रह गईं। हजारों बच्चे अनाथ हो गए पिता के रहते। हजारों स्त्रिया पतियों के बूते विधवा हो गईं। हजारों घरों के दीए बुझ गए। कृष्ण यही कह रहे हैं…। और इसके दुष्परिणाम घातक हुए और लंबे हुए। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि संन्यास में एक तरह का भय समाहित हो गया।
अब अगर मेरे पास कोई आता है—और मेरा संन्यास बिलकुल भौर है; अभिशाप की तरह नहीं है, वरदान की तरह है —तो वह कहता है, मेरी पत्नी खिलाफ है। क्योंकि पत्नी संन्यासी के खिलाफ होगी ही। पत्नी अगर आती है, तो वह कहती है, मेरा पति खिलाफ है कि भूलकर संन्यास मत ले लेना। क्योंकि संन्यास की जो धारणा निर्मित हुई हमारे देश में, वह धारणा कच्चे पत्तों के टूटे होने की धारणा थी। तो डर लगता है कि अगर पति संन्यासी हुआ, तो क्या होगा? सब बरबाद हो जाएगा। पत्नी संन्यासिनी हो गई, तो क्या होगा? सब बरबाद हो जाएगा।
बुद्ध और महावीर के अनजाने ही कच्चे पत्ते टूटे। और कच्चे पत्ते टूटे, तो पीछे घाव छूट गए। वे घाव अब तक भी मनस, हमारे समाज के मानस में भर नहीं गए हैं। अभी भी दूसरे का बेटा संन्यासी हो, तो हम फूल चढ़ा आते हैं उसके चरणों में, खुद का बेटा संन्यासी होने लगे, तो प्राण कंपते हैं। खुद का बेटा चोर हो जाए, तो भी चलेगा, संन्यासी हो जाए, तो नहीं चलता है। डाकू हो जाए, तो भी चलेगा। कम से कम घर में तो रहेगा! दो साल सजा काटेगा, वापस आ जाएगा। संन्यासी हो जाए, तो गया; फिर कभी वापस नहीं लौटता। इसलिए इस देश में संन्यास को हमने इतना आदर भी दिया, उतने ही हम भयभीत भी हैं भीतर, डरे हुए भी हैं; घबडाए हुए भी हैं। यह घबड़ाहट उन ज्ञानियों के कारण पैदा हो जाती है, जो अज्ञानियों का बिना ध्यान लिए वर्तन करते हैं।
तो कृष्ण कहते हैं कि तू ऐसा बर्त कि तेरे कारण किसी अज्ञानी के सहज जीवन की श्रद्धा में कोई बाधा न पड़ जाए। ही, ऐसी कोशिश जरूर कर कि तेरी सुगंध, तेरे अनासक्ति की सुवास, उनके जीवन में भी धीरे— धीरे अनासक्ति की सुवास बने, अनासक्ति की सुगंध बने और वे भी जीवन में रहते हुए अनासक्ति को उपलब्ध हो सकें। तो शुभ है, तो मंगल है, अन्यथा अनेक बार मंगल के नाम पर अमंगल हो जाता है।

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