Monday 17 August 2015

दुनिया में जो भी महत्वपूर्ण सत्य आज तक प्रकट हुए हैं, वे लिखे नहीं गए, बोले गए हैं। इस बात को खयाल में रखना। दुनिया का कोई पैगंबर, कोई तीर्थंकर लेखक नहीं था। और दुनिया का कोई अवतार लेखक नहीं था। यह स्मरण रखना। चाहे बाइबिल, और चाहे कुरान, और चाहे गीता, और चाहे बुद्ध और चाहे महावीर के वचन, और चाहे लाओत्से—ये सब वचन बोले गए हैं, ये लिखे नहीं गए हैं। और इनके मुकाबले लेखक कभी भी कुछ नहीं पहुंच पाता, कहीं नहीं पहुंच पाता। उसका कारण है। बोले गए शब्द में एक लिविंग क्वालिटी है।
जब अर्जुन से कृष्ण ने बोला होगा, तो सिर्फ शब्द नहीं था। हमारे सामने सिर्फ शब्द है। जब कृष्ण ने अर्जुन से कहा होगा कि छोड़ मुझ पर, तो कृष्ण की आंखें, और कृष्ण के हाथ, और कृष्ण की सुगंध, और कृष्ण की मौजूदगी ने, सब ने अर्जुन को घेर लिया होगा। कृष्ण की उपस्थिति अर्जुन को चारों तरफ से लपेट ली होगी। कृष्ण के प्रेम, और कृष्ण के आनंद, और कृष्ण के प्रकाश ने अर्जुन को सब तरफ से भर लिया होगा। नहीं तो अर्जुन भी पूछता कि आप भी क्या बात करते हैं! सारथी होकर मेरे और मुझसे कहते हैं, आपके चरणों में सब छोड़ दूं?
नहीं, अर्जुन यह कहने का उपाय भी नहीं पाया होगा। पाया ही नहीं। अर्जुन को यह प्रश्न भी नहीं उठा, क्योंकि कृष्ण की मौजूदगी ने ये सब प्रश्न गिरा दिए होंगे। कृष्ण की मौजूदगी अर्जुन को वहा—वहां छू गई होगी, जहां—जहा प्राण के अंतराल में छिपे हुए स्वर हैं, जहा—जहा प्राण की गहराइयां हैं—वहा—वहा। और इसलिए अर्जुन को शक भी नहीं उठता कि यह कहीं अहंकार तो नहीं पूछ रहा है मुझसे कि इसके चरणों में मैं छोड़ दूं। अहंकार वहा मौजूद ही नहीं था, वहा कृष्ण की पूरी प्रतिभा, पूरी आभा मौजूद थी।
बुद्ध के चरणों में लोग आते हैं और बुद्ध के चरणों में लोग सिर रखते हैं। और बुद्ध के पास आकर त्रिरत्न की घोषणा करते हैं। वे कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि। एक दिन एक आदमी आया और उसने बुद्ध से कहा, आप तो कहते हैं, किसी की शरण मत जाओ। आप तो कहते हैं, किसी की शरण मत जाओ, और आपकी ही शरण में लोग आकर आपके सामने ही कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि, मैं बुद्ध की शरण जाता हूं। आप रोकते क्यों नहीं पू
बुद्ध ने कहा, जो रोक सकता था, वह अब मेरे भीतर कहो है? जो रोक सकता था, वह अब मेरे भीतर कहां है? और किसने तुमसे कहा कि वे मेरी शरण जाते हैं! मेरी शरण वे जाते नहीं, क्योंकि मै तो बचा नहीं। शायद मेरे द्वारा वे किसी और की शरण जाते होंगे, जो बचा है। मैं तो सिर्फ एक दरवाजा हूं —जस्ट ए डोर, जस्ट ए विंडो—एक खिड़की, एक दरवाजा।
इस खिड़की पर आप हाथ रखकर मकान के भीतर के मालिक को नमस्कार करते हैं। खिड़की क्यों रोके? खिड़की क्यों कहे कि अरे—अरे! यह क्या कर रहे हैं? मत करिए नमस्कार मुझे। लेकिन आप उसको कर ही नहीं रहे हैं।
बुद्ध कहते हैं, मुझे वे नमस्कार करते ही नहीं, मेरी शरण वे जाते नहीं, मैं तो हूं नहीं। एक द्वार है, जहा से वे किसी को निवेदन करते हैं।
कृष्ण जरूर इस क्षण में एक द्वार बेन गए होंगे। नहीं तो अर्जुन भी सवाल उठाता, उठाता ही। अर्जुन छोटा सवाल उठाने वाला नहीं है। द्वार बन गए होंगे। और अर्जुन ने अनुभव किया होगा कि जो कह रहा है, वह मेरा सारथी नहीं है, जो कह रहा है, वह मेरा सखा नहीं है, जो कह रहा है, वह स्वयं परमात्मा है। ऐसी प्रतीति में अगर अर्जुन को कठिनाई लगी होगी, तो वह कृष्ण के भगवान होने की नहीं, वह अपने समर्पण के सामर्थ्य न होने की कठिनाई लगी होगी। वही लगी है।

No comments:

Post a Comment