Sunday 9 August 2015

जीवन को उसके सभी स्तरों पर दो भांति देखा जा सकता है। दो पहलू हैं जीवन के। एक उसका पौदगलिक, मैटीरियल, पदार्थगत पहलू है, दूसरा उसका आत्मगत, स्प्रिचुअल पहलू है। यौन को भी दो दिशाओं से देखना आवश्यक है। एक तो यौन का जैविक, बायोलाजिकल पहलू है, पौदगलिक, पदार्थगत, शरीर से जुड़ा हुआ, शरीर के अणुओं से जुड़ा हुआ। दूसरा यौन का शक्तिगत, आत्मिक पहलू है, मन से, चेतना से जुड़ा हुआ।
इसलिए दो शब्दों को पहले समझ लें। एक तो जैविक ऊर्जा, जो मनुष्य के जीवकोष्ठों से संबंधित है, जिनके द्वारा व्यक्ति को शरीर उपलब्ध होता है। ये जो जीव कोष्ठ हैं, ये जो सेल्स हैं, ये शरीर के ही हिस्से हैं। जैविक, बायोलाजिकल हिस्सा हम सब की आंखों में प्रत्यक्ष है–जिसे हम वीर्य कहें, यौन-ऊर्जा कहें या कोई और नाम दें। लेकिन एक और पहलू भी उसके पीछे जुड़ा है जो आत्मगत है, शक्तिगत है। उसे मैं काम-ऊर्जा या आत्म- ऊर्जा या जो भी हम नाम देना चाहें, दे सकते हैं।
जैसे कि एक लोहे का चुंबक होता है। एक तो लोहे का टुकड़ा होता है जो साफ दिखायी पड़ता है और एक मैगनेटिक फील्ड होता है उसके चारों तरफ, जो दिखायी नहीं पड़ता है। लेकिन अगर हम आस-पास लोहे के टुकड़े रखें तो वह जो मैगनेटिक शक्ति है चुंबक की, उसे खींच लेती है। एक क्षेत्र है जिसके भीतर वह शक्ति काम करती है। यह लोहे का टुकड़ा कल हो सकता है अपनी चुंबकीय शक्ति खो दे, तो भी लोहे का टुकड़ा रहेगा। उस लोहे के टुकड़े के वजन में अंतर नहीं पड़ेगा, उस लोहे के टुकड़े के कांस्टीटयूशन में भी कोई अंतर नहीं पड़ेगा, उसकी रचना और बनावट में भी कोई अंतर दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन एक मौलिक अंतर हो जाएगा, मैगनेटिक उसमें से मर गया है, उसमें से चुंबक जा चुका है। यह उदाहरण के लिए मैंने कहा।
आत्मा एक फील्ड है, एक चुंबकीय क्षेत्र है। शरीर दिखायी पड़ता है, आत्मा के केवल प्रभाव दिखायी पड़ते हैं, जैसे चुंबक के प्रभाव दिखायी पड़ते हैं। यह जमीन है, यह दिखाई पड़ रही है, लेकिन जमीन पूरे वक्त हमें खींचे हुए है, वह दिखायी नहीं पड़ रहा है। यह जमीन हमें छोड़ दे तो हम एक क्षण भी इस जमीन पर नहीं रह सकेंगे।
अंतरिक्ष में जो यात्री यात्रा कर रहे हैं, उनके लिए अंतरिक्ष की यात्रा में जो सबसे ज्यादा कठिन बात है, वह यही है कि जैसे ही दो सौ मील जमीन के मैगनेटिक फील्ड को छोड़कर उनका यान ऊपर जाता है, वैसे ही जमीन की चुंबकीय शक्ति विदा हो जाती है। तब फिर वे हवा के गुब्बारों की तरह अपने यान में भटक सकते हैं। अगर उनकी पट्टियां छोड़ दी जायें उनकी कुर्सी से, तो जैसे गैस भरा हुआ गुब्बारा मकान की छत को छूने लगे, ऐसे ही वे भी यान की छत को छूने लगेंगे।
यह जमीन हमें खींचे हुए है, लेकिन उसका हमें पता नहीं चलता है। क्योंकि वह दिखायी पड़नेवाली बात नहीं है। जो दिखायी पड़ती है वह जमीन है, जो नहीं दिखायी पड़ता है वह उसका ग्रेवीटेशन है। जो दिखायी पड़ता है वह शरीर है, वह जो नहीं दिखायी पड़ता है वह मनस और आत्मा है। ठीक ऐसे ही काम के साथ, यौन के साथ दो पहलुओं को समझ लेना जरूरी है। जो दिखायी पड़ती हैं वे जैविक कोष्ठ हैं, जो नहीं दिखायी पड़ता है वह काम-ऊर्जा है। इस सत्य को ठीक से न समझने से आगे बातें फैलाकर देखनी कठिन हो जाती हैं।
इस देश में काम-ऊर्जा पर बड़े प्रयोग हुए हैं। इस देश में पांच हजार वर्ष का लंबा इतिहास है। शायद उससे भी ज्यादा पुराना है, क्योंकि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में भी ऐसी मूर्तियां मिली हैं जो इस बात की खबर देती हैं कि योग की धारणा तब तक विकसित हो चुकी होगी। हड़प्पा की मूर्तियां कोई सात हजार साल पुरानी हैं। सात हजार साल के लंबे इतिहास में इस मुल्क ने काम-ऊर्जा पर, सेक्स एनर्जी पर, बहुत अनूठे प्रयोग किए हैं। लेकिन उनको समझने में भूल हो जाती है। क्योंकि काम-ऊर्जा से हम जीव-ऊर्जा, बायोलाजिकल अर्थ लेकर कठिनाई में पड़ जाते हैं।
इस देश के योगियों ने कहा है कि काम-ऊर्जा, सेक्स एनर्जी, नीचे से ऊपर की तरफ ऊर्ध्वगमन कर सकती है। वैज्ञानिक कहता है, हम शरीर में काटकर भी देख लेते हैं योगी के, लेकिन उसके वीर्य-कण तो वहीं पड? रहते हैं। उसी जगह, जहां साधारण आदमी के शरीर में पड़े होते हैं। वीर्य ऊपर चढ़ता हुआ दिखायी नहीं पड़ता है।
वीर्य ऊपर चढ़ता भी नहीं है, चढ़ भी नहीं सकता। लेकिन जिस काम-ऊर्जा के चढ़ने की बात की है उसे हम समझ नहीं पाए। वीर्य-कणों की वह बात नहीं है, वीर्य-कणों के साथ एक और ऊर्जा जुड़ी हुई है, जो दिखायी नहीं पड़ती है, वह ऊर्जा ऊपर ऊर्ध्वगमन कर सकती है। और जब कोई व्यक्ति यौन-संबंध से गुजरता है तो उसके जैविक परमाणु तो उसके शरीर को छोड़ते ही हैं, साथ ही उसकी काम-ऊर्जा, उसकी सेक्स एनर्जी भी उसके शरीर से बाहर जाती है। वह सेक्स एनर्जी आकाश में खो जाती है। और यौनकण नए व्यक्ति को जन्म देने की यात्रा पर निकल जाते हैं।
संभोग के क्षण में दो घटनाएं घटती हैं–एक जैविक और एक साइकिक। एक तो जीव शास्त्रीय दृष्टि से घटना घटती है, जैसा कि बायोलाजिस्ट अध्ययन कर रहा है, वह वीर्य- कण का स्खलन है। वह वीर्य-कण का यात्रा पर निकलना है अपने विरोधी कणों की खोज में, जिससे कि नए जीवन को वह जन्म दे पाये। और एक दूसरी घटना है। जिसकी योग खोज करता है, वह दूसरी घटना है। इस कृत्य के साथ ही मनस की शक्ति भी स्खलित होती है। वह तो सिर्फ शून्य में खो जाती है।
इस मनस-शक्ति को ऊपर ले जाने के उपाय हैं। और जब वीर्य के ऊर्ध्वगमन की बात कही जाती है तो कोई शरीर-शास्त्री, कोई डाक्टर भूल कर यह न समझे कि वह वीर्य की, या वीर्य-कणों के ऊपर ले जाने की बात है। वीर्य-कण ऊपर नहीं जा सकते। उनके लिए कोई मार्ग नहीं है शरीर में ऊपर। सहस्रार तक तथा मस्तिष्क तक पहुंचने के लिए कोई उपाय नहीं है उनके पास। जो चीज जाती है वह ऊर्जा है। वह मैगनेटिक फोर्स है जो ऊपर की तरफ जाती है। यह जो मैगनेटिक फोर्स है, इसके ही नीचे जाने पर वीर्य-कण भी सक्रिय होते हैं।
बच्चा जब पैदा होता है, लड़की जब पैदा होती है, तब वे अपने यौन संस्थान को पूरा का पूरा लेकर पैदा होते हैं। स्त्री तो अपने जीवन में जितने रजकणों का उपयोग करेगी उन सबको लेकर ही पैदा होती है। फिर कोई नया रजकण पैदा नहीं होता। कोई तीन लाख छोटे अंडों को लेकर स्त्री पैदा ही होती है। बच्ची पैदा ही होती है। एक दिन की बच्ची के पास भी तीन लाख अंडों की सामग्री मौजूद होती है। इसमें से ज्यादा से ज्यादा दो सौ अंडे जीवन लेने के लिए तैयार होकर उसके गर्भाधान तक पहुंचते हैं। उनमें से भी दस-बारह, ज्यादा से ज्यादा बीस, सक्रिय और जीवन में सफल उतर पाते हैं।
लेकिन तेरह या चौदह साल तक लड़की को भी इस सारी की सारी व्यवस्था का कोई पता नहीं चलेगा। उसका शरीर पूरा तैयार है, लेकिन अभी उसकी काम-ऊर्जा उसके अंडों तक नहीं पहुंचती है। तेरह और चौदह साल में जब उसका मस्तिष्क पूरा विकसित होगा तब मस्तिष्क काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ भेजेगा। और मस्तिष्क की सूचना मिलते ही उसका सेक्सऱ्यंत्र सक्रिय होगा। और इससे उलटी घटना भी घटती है। पैंतालीस या पचास साल की उम्र में स्त्री के सारे के सारे अंडे, जो उसके पास सामग्री थी, वह सब समाप्त हो जाएगी। उसके बायोलाजिकल सेक्स का अंत हो जाएगा। लेकिन उसके मन की ऊर्जा अभी भी नीचे उतरती रहेगी।
इसलिए सत्तर साल की बूढ़ी स्त्री भी कामातुर हो सकती है, यद्यपि उसके शरीर में अब काम का कोई उपाय नहीं रह गया। अब काम का कोई जैविक अर्थ नहीं रह गया। अब उसकी बायोलाजिकल बात समाप्त हो गई है। पुरुष भी नब्बे साल का बूढ़ा हो जाए तब भी, उसकी काम-ऊर्जा उसके चित्त से उसके शरीर के नीचे हिस्से तक उतरती रहती है। वही काम-ऊर्जा उसे पीड़ित करती रहती है। यद्यपि शरीर अब सार्थक नहीं रह गया, लेकिन मन अभी भी कामना किए चला जाता है।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि हम समझ सकें कि चौदह या तेरह साल तक, जब तक मस्तिष्क से सूचना नहीं मिलती…और अब तो बायोलाजिस्ट भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जब तक मस्तिष्क से आर्डर नहीं मिलता है शरीर को, तब तक सेक्सऱ्यंत्र सक्रिय नहीं होता है।
इसलिए अगर हम मस्तिष्क के कुछ हिस्से को काट दें, तो व्यक्ति का सेक्स जीवन भर के लिए समाप्त हो जाएगा। या मस्तिष्क के कुछ हिस्से को हारमोन के इंजेक्शन देकर जल्दी आर्डर देने के लिए तैयार कर लें, तो सात साल का लड़का या पांच साल की लड़की, उसका भी सेक्सऱ्यंत्र सक्रिय हो जाएगा। अगर हम बूढ़े आदमी को वीर्य-कणों का इंजेक्शन दे सकें तो वह अस्सी साल में भी गर्भाधान करा सकेगा। अगर हम स्त्री के ओवरी में अंडा रख सकें, नब्बे साल की स्त्री के, तो भी गर्भाधान हो जायेगा। क्योंकि काम-ऊर्जा तो प्रवाहित हो ही रही है, सिर्फ उसका बाडिली पार्ट, उसका शारीरिक हिस्सा समाप्त हो गया है।
यह जो काम-ऊर्जा है, यह अनंत है। महावीर ने उसे अनंत वीर्य कहा है। असल में महावीर को नाम ही महावीर इसीलिए मिला क्योंकि उन्होंने कहा कि यह अनंत वीर्य…अनंत वीर्य से अर्थ, जैविक वीर्य से नहीं, सीमेन से नहीं है। अनंत वीर्य से अर्थ उस काम-ऊर्जा का है जो निरंतर मन से शरीर तक उतरती है। और जो मन से शरीर तक उतरती है, वह मन से नहीं आती है। वह आती है आत्मा से मन तक और मन से शरीर तक। यह आत्मा से मन तक उतरेगी और मन से शरीर तक उतरेगी। यह उसकी सीढ़ियां हैं। इसके बिना वह उतर नहीं सकती। अगर बीच में से मन टूट जाये, तो आत्मा और शरीर के बीच सारे संबंध टूट जाएंगे।
जिस शक्ति को मैं काम-ऊर्जा कह रहा हूं, जिस शक्ति को योग ने और तंत्र ने काम-ऊर्जा कहा है, वह जीव शास्त्रीय काम-ऊर्जा नहीं है। यह काम-ऊर्जा ऊपर की तरफ पुनः गति कर सकती है। और अगर किसी वृद्ध में भी यह काम-ऊर्जा ऊपर की तरफ गति कर जाये तो उसकी जिंदगी उतनी ही सरल और इनोसेंट और निर्दोष हो जाएगी जितनी छोटे बच्चे की थी। उसकी आंखों में फिर वही सरलता झलकने लगेगी। उसके व्यक्तित्व में फिर वही भोलापन लौट आएगा जो छोटे बच्चे का था। बल्कि उससे भी ज्यादा। क्योंकि छोटे बच्चे का भोलापन खतरे से भरा हुआ है, अब यह भोलापन उसका नष्ट होगा। अभी उसके भोलेपन के नीचे ज्वालामुखी धधक रहे हैं, तैयार हो रहे हैं। वह अभी फूटेंगे। अगर बूढ़े आदमी की काम-ऊर्जा वापस लौट जाए तो बच्चे से भी ज्यादा सरल, निर्दोष, इनोसेंट उसकी जिंदगी में उतर आता है। साधुता इसी निर्दोषता का नाम है। काम-ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन साधु की यात्रा है।

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