Sunday 23 August 2015

र्तमान युग के एक बहुत बड़े तांत्रिक, जार्ज गुरजिएफ का कहना है कि एक ही पाप है और वह तादात्म्य है। और केंद्रित होने के संबंध में जो अगला सूत्र है, दसवां सूत्र है—जिसमें हम आज रात प्रवेश करने जा रहे है—वह इसी तादात्म्य से संबंधित है। इसलिए पहले साफ समझ लेना है कि यह तादात्म्य क्या है।
तुम कभी बच्चे थे, अब नहीं हो। शीघ्र ही तुम जवान हो जाओगे, शीघ्र ही तुम बूढ़े हो जाओगे। और बचपन अतीत में खो जाएगा। जवानी भी चली गई, लेकिन अब भी तुम अपने बचपन से तादात्म्य किए बैठे हो। तुम यह नहीं देख सकते कि यह किसी और के साथ घटित हो रहा है, तुम इसके साक्षी नहीं हो पाते हो। जब भी तुम अपने बचपन को देखते हो, तुम उसके साथ एकात्म अनुभव करते हो; तुम उससे अलग नहीं होते हो। वैसे ही जब कोई अपनी जवानी को याद करता है तो वह उससे एकात्म हो जाता है। लेकिन हकीकत यह है कि यह अब केवल स्वप्न है।
और अगर तुम अपने बचपन को स्‍वप्‍न की तरह देख सको, वैसे ही जैसे पर्दे पर फिल्म देखते हो और उससे तादात्म्य नहीं करते, बस उसके साक्षी रहते हो, अगर ऐसा कर सको तो तुममें एक सूक्ष्म अंतर्दृष्टि का उदय होगा। अगर तुम अपने अतीत को फिल्म की तरह, स्वप्न की तरह देख सको—तुम उसके हिस्से नहीं हो, तुम उसके बाहर हो, और सचमुच बाहर हों—तो बहुत चीजें घटित होंगी।
अगर तुम अपने बचपन के बारे में सोच रहे हो; तुम वह नहीं हो, हो नहीं सकते। बचपन अब एक स्मृति भर है, अतीत स्मृति; तुम उसे देख रहे हो। तुम उससे भिन्न हो, तुम मात्र साक्षी हो। अगर तुम्हें इस साक्षीत्व की प्रतीति हो सके और तुम अपने बचपन को पर्दे पर फिल्म की तरह देख सको, तो अनेक चीजें घटित होंगी।
एक, अगर बचपन स्‍वप्‍न बन जाए और तुम उसे वैसे देख लो, तो अभी तुम जो कुछ हो वह भी अगले दिन स्वप्न हो जाएगा। यदि तुम जवान हो तो तुम्हारी जवानी स्वप्न हो जाएगी। यदि तुम बूढ़े हो तो तुम्हारा बुढ़ापा स्‍वप्‍न हो जाएगा। किसी दिन तुम बच्चे थे, अब वह बचपन स्वप्न बन गया। तुम इस तथ्य को देख सकते हो।
अतीत से शुरू करना अच्छा है। अतीत को देखो और उसके साथ अपना तादात्म्य हटा लो, सिर्फ गवाह हो जाओ। तब भविष्य को देखो, भविष्य के बारे में तुम्हारी जो कल्पना है, उसे देखो और उसके भी द्रष्टा बन जाओ। तब तुम अपने वर्तमान को आसानी से देख सकोगे, क्योंकि तब तुम जानते हो कि जो अभी वर्तमान है, कल भविष्य था और कल फिर वह अतीत हो जाएगा। लेकिन तुम्हारा साक्षी न कभी अतीत है न कभी भविष्य, तुम्हारी साक्षी चेतना शाश्वत है। साक्षी चेतना समय का अंग नहीं है। और यही कारण है कि जो भी समय में घटित होता है वह स्वप्न बन जाता है।
यह भी याद रखो कि जब रात में तुम सपने देखते हो तो सपने के साथ एकात्म हो जाते हो, स्वप्न में तुम्हें यह स्मरण बिलकुल नहीं रहता कि यह स्‍वप्‍न है। सिर्फ सुबह जब तुम नींद से जागते हो तो तुम्हें याद आता है कि वह सपना था, यथार्थ नहीं। क्यों? इसलिए कि अब तुम उससे अलग हो, उसमें नहीं हो; अब एक अंतराल है। और अब तुम देख सकते हो कि यह स्‍वप्‍न था।
तुम्हारा समूचा अतीत क्या है? जो अंतराल है, जो अवकाश है, उससे देखो कि वह सपना है। अतीत अब सपना ही है, सपने के सिवाय कुछ भी नहीं है। क्योंकि जैसे स्वप्न स्मृति बन जाता है वैसे ही अतीत भी स्मृति बन जाता है। तुम सचमुच सिद्ध नहीं कर सकते कि जो भी तुम अपने बचपन के रूप में सोचते हो, वह यथार्थ था या सपना। यह सिद्ध करना कठिन है। हो सकता है वह सपना ही रहा हो; हो सकता है वह सच ही हो। स्मृति नहीं कह सकती है कि वह स्वप्न था या सत्य।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बूढ़े लोग अक्सर अपने स्वप्न और यथार्थ में भेद नहीं कर पाते हैं। और बच्चों को तो हमेशा यह उलझन पकड़ती है, सुबह नींद से जागकर उन्हें यह उलझन होती है। रात उन्होंने स्वप्न में जो देखा था वह सत्य नहीं था, लेकिन सुबह जागकर वे सपने में टूट गए खिलौने के लिए जोर—जोर से रोते हैं।
और तुम भी तो नींद के टूटने के बाद थोड़ी देर तक अपने स्‍वप्‍नों से प्रभावित रहते हो। अगर स्वप्न में कोई तुम्हारा खून कर रहा था तो जागने के बाद भी तुम्हारी छाती धड़कती रहती है, तुम्हारे रक्त का संचालन तेज बना रहता है, तुम्हारा पसीना बहता रहता है और एक सूक्ष्म भय अब भी तुम्हें घेरे रहता है। अब तुम जाग गए हो और स्वप्न बीत गया है, तो भी यह समझने में तुम्हें समय लगता है कि सपना सपना ही था। और जब तुम समझ लेते हो कि सपना सपना था तभी तुम उसके बाहर होते हो, और तब भय नहीं रह जाता।
वैसे ही तुम देख सकते हो कि तुम्हारा अतीत भी एक स्वप्न था। तुम्हारा अतीत स्वप्न था, इसे आरोपित नहीं करना है, इसे जबर्दस्ती अपने पर लादना नहीं है। यह तो अंतर्दृष्टि का परिणाम है। यदि तुम अपने अतीत को देख सको, उससे एकात्म हुए बिना उसे देख सकी, उससे अलग होकर उसे देख सको, तो अतीत स्वप्न हो जाता है। जिसे भी तुम साक्षी की तरह देखते हो वह स्वप्न हो जाता।
यही वजह है कि शंकर और नागार्जुन कह सके कि संसार स्वप्न है। ऐसा नहीं है कि यह स्‍वप्‍न है। वे इतने मूढ़ नहीं थे कि यह संसार उन्हें दिखाई नहीं पड़ता था। इसे स्वप्न कहने में उनका यही अभिप्राय था कि वे साक्षी हो गए हैं, इस यथार्थ जगत के प्रति वे साक्षी हो गए हैं। और जब तुम किसी चीज के साक्षी हो जाते हो तो वह स्वप्न बन जाती है। इसी वजह से व जगत को माया कहते हैं। यह नहीं कि वह यथार्थ नहीं है, उसका इतना ही अर्थ है कि कोई इस जगत का भी साक्षी हो सकता है। और एक बार तुम साक्षी हो जाओ, पूरे बोधपूर्ण हो जाओ तो पूरी चीज तुम्हारे लिए स्‍वप्‍नवत हो जाती है। क्योंकि वह तो है, लेकिन अब तुम उससे एकात्म नहीं हो। लेकिन हम तो तादात्म्य किए ही जाते हैं।
कुछ दिन पहले मैं जीन जेकुअस रूसो की पुस्तक कन्‍फेशंन पढ़ रहा था। यह एक अदभुत पुस्तक है। विश्व—साहित्य में यह पहली किताब है जिसमें किसी ने अपने को पूरा उघाड़कर रख दिया है। रूसो ने जो भी पाप किए थे, जो भी अनैतिकता की थी, सबको उसने पूरी नग्नता में प्रकट कर दिया है। लेकिन अगर तुम उसकी कन्‍फेशंन को पढ़ो तो तुम्हें स्पष्ट पता चलेगा कि रूसो अपने पापों का मजा ले रहा है, वह उनसे आनंदित है। अपने पापों और अनाचारों की चर्चा करते हुए रूसो बहुत आह्लादित मालूम पड़ता है। पुस्तक की भूमिका में रूसो ने लिखा है कि जब अंतिम न्याय का दिन आएगा तो मैं परमपिता से कहूंगा कि तुम मेरी फिक्र मत करो, बस मेरी किताब पढ़ लो। और पुस्तक के अंत में उसने लिखा है कि हे परमपिता! अब मेरी एक ही इच्छा पूरी कर दो, मैंने सब कुछ स्वीकार कर लिया है। अब एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी होकर मेरे कन्‍फेशंन को सुन ले।
अब यह संदेह किया जाता है और सही संदेह किया जाता है कि रूसो ने वे पाप भी स्वीकार किए जो उसने नहीं किए थे। क्योंकि वह पूरी चीज से इतना आह्लादित है, उसने सबके साथ तादात्म्य कर लिया है। रूसो ने एक ही पाप स्वीकार नहीं किया है, और वह है तादात्म्य का पाप। उसने अपने किए और अनकिए सभी पापों के साथ तादात्म्य किया हुआ है। और जो मनुष्य के मन को गहराई में जानते हैं वे कहते हैं कि तादात्म्य मौलिक पाप है।
जब पहली दफा रूसो ने बुद्धिजीवियों के एक समूह के सामने अपनी कन्‍फेशंन पढ़कर सुनाई तब उसे खयाल था कि कोई भूकंपकारी घटना शुरू हो रही है। क्योंकि जैसा उसने कहा, वह पहला व्यक्ति था जिसने इतनी सच्चाई से सब कुछ स्वीकारा था। लेकिन जो सुविधाजन उसे सुन रहे थे वे सुनते—सुनते ऊबने लगे। रूसो बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि उसे खयाल था कि कोई चमत्कार घटित होने जा रहा है।
जब उसने पढ़ना समाप्त किया तब श्रोताओं ने राहत की सांस ली और किसी ने कुछ कहा नहीं। कुछ देर तक पूरा सन्नाटा रहा। रूसो की तो छाती बैठ गई। उसने तो सोचा था कि कोई बड़ी क्रांतिकारी, भूकंपकारी, ऐतिहासिक घटना घट रही है, और यहां सन्नाटा है, और लोग सोच रहे हैं कि कैसे यहां से सरका जाए।
तुम्हारे पापों में कौन उत्सुक है? न कोई तुम्हारे पापों में उत्सुक है, न कोई तुम्हारे पुण्यों में उत्सुक है। लेकिन आदमी है कि वह अपने पुण्य के मजे लेता है और अपने पाप के भी मजे लेता है, कि वह अपने पुण्य से अहंकार को भरता है और अपने पाप से भी अहंकार को भरता है। कन्‍फेशंन लिखकर रूसो अपने को संत—महात्मा समझने लगा था, लेकिन मौलिक पाप अपनी जगह खड़ा था।
समय में हुई घटनाओं के साथ तादात्म्य ही बुनियादी पाप है। जो भी समय में होता है वह स्‍वप्‍नवत है। और जब तक तुम उससे निसंग नहीं होते तब तक तुम नहीं जान सकते कि आनंद क्या है। तादात्म्य दुख है, गैर—तादात्म्य आनंद है।

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