Thursday 13 August 2015

अहंकाररूपी भ्रम से आसक्ति उत्पन्न होती है, अहंकार कैसे उत्पन्न होता है? दो—तीन बातें समझ लेनी उपयोगी हैं। पहली बात तो अहंकार कभी उत्पन्न नहीं होता, सिर्फ प्रतीत होता है। उत्पन्न कभी नहीं होता, सिर्फ प्रतीत होता है। जैसे रस्सी पड़ी हो और सांप प्रतीत हो। उत्पन्न कभी नहीं होता, सिर्फ प्रतीत होता है। लगता है कि है, होता नहीं। अहंकार भी लगता है कि है, है नहीं।
जैसे हम लकड़ी को पानी में डालें और लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ती है—होती नहीं, जस्ट एपियर्स—बस प्रतीत होती है। बाहर निकालें, सीधी पाते हैं। फिर पानी में डालें, फिर तिरछी दिखाई पड़ती है। और हजार दफे देख लें और पानी में डालें, अब आपको भलीभांति पता है कि लकड़ी तिरछी नहीं है, फिर भी लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ती है। ठीक ऐसे ही अहंकार दिखाई पड़ता है, पैदा नहीं होता। इस बात को तो पहले खयाल में ले लें। क्योंकि अगर अहंकार पैदा हो जाए, तब उससे छुटकारा बहुत मुश्किल है। अगर दिखाई ही पडता हो, तो समझ से ही उससे छुटकारा हो सकता है। फिर चाहे वह दिखाई ही पड़ता रहे, तो भी छुटकारा हो जाता है। अहंकार कैसे दिखाई पड़ता है, अहंकार के दिखाई पड़ने का जन्म कैसे होता है, यह मैं जरूर कहना चाहूंगा।
पहली बात। एक बच्चा पैदा होता है। हम उसे एक नाम देते हैं—अ, ब, स। कोई बच्चा नाम लेकर पैदा नहीं होता। किसी बच्चे का कोई नाम नहीं होता। सब बच्चे अनाम, नेमलेस पैदा होते हैं। लेकिन बिना नाम के काम चलना मुश्किल है। अगर आप सबके नाम छीन लिए जाएं, तो बड़ी कठिनाई पैदा हो जाएगी। और मजा यह है कि नाम बिलकुल झूठा है, फिर भी उस झूठ से काम चलता है। अगर नाम छीन लिए जाएं, तो सचाई तो यही है कि नाम किसी का कोई भी नहीं है। सब बिना नाम के हैं। लेकिन बड़ी कठिनाई हो जाएगी। जिस जगत में हम जीते हैं संबंधों के, जिस माया के जगत में हम जीते हैं, उस जगत में झूठे नाम बड़े काम के हैं। और कोई चीज काम की हो, इसीलिए सच नहीं हो जाती। और कोई चीज काम में न आती हो, इसीलिए झूठ नहीं हो जाती। यूटिलिटी और टथ में फर्क है; उपयोगिता और सत्य में फर्क है। बहुत—सी झूठी चौजें उपयोगी होती हैं।
घर में मिठाई रखी है और बच्चे को हम कह देते हैं, भूत है, भीतर मत जाना। भूत होता नहीं, मिठाई होती है, लेकिन बच्चा भीतर नहीं जाता। भूत का होना काम करता है, यूटिलिटेरियन है, उपयोगिता तो सिद्ध हो जाती है। और बच्चे को अगर समझाते कि मिठाई के खाने से क्या—क्या दोष हैं, और मिठाई के खाने से क्या—क्या हानियां हैं, और मिठाई के खाने से क्या—क्या बीमारियां होंगी, तो वे सब बेकार थीं। वे सच थीं, लेकिन वे कारगर नहीं थीं। बच्चे के लिए तो बिलकुल अर्थ की नहीं थीं। भूत काम कर जाता है; बच्चा कमरे के भीतर नहीं जा पाता। जो भूत नहीं है, वह मिठाई और बच्चे के बीच खड़ा हो जाता है। उपयोगी है।
नाम बिलकुल नहीं है, लेकिन आपके और जगत के बीच एक लेबल की जरूरत है, अन्यथा मुश्किल और कठिनाई हो जाती। एक भूत खड़ा हम कर देते हैं कि इसका नाम राम, इसका नाम कृष्ण, इसका नाम अर्जुन, इसका नाम यह, उसका नाम वह। नाम एक झूठ है। लेकिन नाम गहरे उतर जाता है। और इतना गहरे उतर जाता है कि आपको नींद में भी पता होता है कि आपका नाम क्या है, बेहोशी में भी पता होता है कि आपका नाम क्या है! जो नहीं है, वह भी पता होता है। आपके नाम को कोई गाली दे दे, तो खून में जहर दौड़ जाता है। अब नाम बिलकुल झूठ है, लेकिन खून में दौड़ने वाला जहर बिलकुल सच है।
यह करीब—करीब ऐसे होता है जैसे सपने में आप डर गए और एक जंगली जानवर ने आपकी छाती पर पंजा रख दिया। अब नींद खुल गई। अब पता चल गया कि सपना है, लेकिन पसीना अभी भी बहे चला जाता है और छाती अभी भी धडके चली जाती है। अब मालूम है कि सपना था, कोई जंगली जानवर नहीं है। अपने घर में सोए हुए हैं। दरवाजा बंद है, कहीं कोई नहीं दिखाई पड़ता, बिजली जल रही है, लेकिन अभी धड़कन जारी है। वक्त लगेगा, मोमेंटम पकड़ गया। हृदय धड़कने लगा। धड़केगा थोड़ी देर।
एकदम से बंद नहीं हो सकता। एकदम से बंद हो जाए, तो खतरा भी है; धीरे— धीरे, धीरे—धीरे उतरेगा। जैसे धीरे— धीरे चढ़ा, वैसे धीरे— धीरे उतरेगा। अब आप भलीभांति जानते हैं कि बड़ी अजीब बात है—सपना और हृदय को धडका जाता है! हृदय बहुत सच है और सपना बिलकुल झूठ है।
नाम जिंदगीभर काम देता है। लेकिन आपका नाम दूसरों के लिए काम देता है, आपके लिए काम नहीं देता। तो आपको स्वयं को बुलाने के लिए भी तो कोई इशारा चाहिए, वह इशारा मैं, ईगो, अहंकार है। तो दो तरह के नाम हैं। एक नाम जो मेरा दूसरों के। बुलाने के लिए है—वह मेरा नाम, और एक जो मैं स्वयं अपने को बुलाऊगा—मैं। अन्यथा बड़ी मुश्किल हो जाएगी कि मैं कौन हूं। और अगर मैं अपना नाम बुलाऊं, तो आपको समझने में मुश्किल होगी कि मैं किसके बाबत कह रहा हूं अपने बाबत या दूसरों के बाबत। इसलिए मैं सबके लिए काम कर जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए मैं कहता है, वह कामन नेम है खुद के लिए। और दूसरे के लिए, उपयोग के लिए एक नाम है। इसलिए हो भी सकता है, आप अपना नाम कभी भूल जाएं, लेकिन मैं को आप कभी नहीं भूल सकते। क्योंकि आपका नाम दूसरे लोग उपयोग करते हैं, वह उनको याद रहता है। आप तो सिर्फ मैं का ही उपयोग करते हैं।
मैंने सुना है, पहले महायुद्ध में अमेरिका में पहली बार राशनिंग हुई। और एडिसन, एक बड़ा वैज्ञानिक, उसको भी अपना राशनकार्ड लेकर और राशन के लिए क्यू में खड़ा होना पड़ा। लेकिन एडिसन बहुत बड़ा वैज्ञानिक था। कोई एक हजार उसने आविष्कार किए। शायद पृथ्वी पर किसी दूसरे आदमी ने इतने आविष्कार नहीं किए। गहन से गहन प्रतिभा का मनुष्य था। सैकड़ों लोग उसे आदर देते थे। तो कोई उसका नाम तो कभी लेता नहीं था। तीस साल से उसने अपना नाम नहीं सुना था सीधा, कि किसी ने कहा हो, एडिसन। कोई उसको प्रोफेसर कहता, कोई उसको कुछ कहता। लेकिन नाम तो उसका कोई सीधा नहीं लेता था। क्यू में खड़ा है। उसका कार्ड लगा हुआ है राशन का।
जब उसके कार्ड का नंबर आया और क्यू में वह सामने आया, तो कार्ड वाले क्लर्क ने चश्मा ऊपर उठाकर आवाज लगाई कि थामस अल्वा एडिसन कौन है? वे सज्जन खड़े ही रहे, एडिसन खड़े ही रहे। फिर उसने दुबारा कहा कि भई, यह कौन आदमी है एडिसन, आगे आओ! तब क्यू में से किसी ने झांककर देखा और उसने कहा कि मालूम होता है, जो आदमी सामने खड़ा है, वह एडिसन है, मैंने अखबार में तस्वीर देखी है, लेकिन वह तो चुप ही खड़ा है! आदमी क्यू के बाहर आया और उसने कहा, महाशय! जहां तक हमें याद आता है, आपकी शकल णइडसन से मिलती—जुलती है। उसने कहा कि हो न हो यह मेरा ही नाम होना चाहिए। लेकिन सच बात यह है कि तीस साल से मुझे किसी ने कभी पुकारा नहीं, तो मुझे खयाल में नहीं रहा। लेकिन परिचित मालूम पड़ता है, नाम मेरा ही होना चाहिए!
खुद के बुलाने के लिए मैं, दूसरों के बुलाने के लिए नाम। एक ही मैं से काम चल जाता है। नाम अनेक रखने पड़ते हैं, क्योंकि दूसरे बुलाएंगे। यह मैं बचपन से ही बच्चे को स्मरण हम दिलाना शुरू करते हैं। लेकिन साइकोलाजिस्ट कहते हैं कि बच्चे को पहले मैं का पता नहीं चलता, पहले तू का पता चलता है। बच्चे को पहले मैं का पता नहीं चलता। इसलिए छोटे बच्चे अक्सर कहते हैं कि इसको भूख लगी है, वे यह नहीं कहते कि मुझे भूख लगी है। मुझे का अभी बोध नहीं होता। वे कहते हैं, इसको भूख लगी है। या पेट बता देते हैं कि यहां भूख लगी है। मैं का बोध बच्चे को बाद में आता है, तू का बोध पहले आता है, क्योंकि तू पहले दिखाई पड़ता है चारों तरफ। बच्चे को अपना पूरा शरीर भी अपना है, यह भी बहुत बाद में पता चलता है।
छोटे बच्चे अगर अपना अंगूठा चूसते हैं, तो आप समझते हैं कि वे अपना अंगूठा चूस रहे हैं। मनोवैशानिक, खासकर जिन्होंने बच्चों पर प्रयोग किया है—जीनपियागेट, जिंदगीभर जिसने बच्चों के अध्ययन में लगाई है—वह कहता है, बच्चों को पता नहीं होता कि अपना अंगूठा चूस रहे हैं। वे तो कोई और ही चीज समझकर चूसते रहते हैं। उनको यह पता नहीं होता कि यह उनका अंगूठा है। जिस दिन पता चल जाएगा, उनका अंगूठा है, उस दिन तो वे भी नहीं चूसेंगे।
शरीर भी पूरा अपना है, इसका भी बच्चे को पता नहीं होता। बच्चे को सपने में और जागने में भी फर्क नहीं होता। सुबह जब उठता है, तो सपने के लिए रोता है कि मेरा खिलौना कहां गया, जो सपने में उसके पास था! बच्चे को अभी मैं का भी पता नहीं होता। मैं का बोध उसे तू को देखकर पैदा होता है। चारों तरफ और लोग हैं, और धीरे— धीरे उसे पता चलता है कि मैं अलग हूं मेरा हाथ है, मेरा मुंह अलग, मेरे पैर अलग, मैं उठता हूं तो अलग, दूसरे उठते है तो अलग। धीरे—धीरे यह चारों तरफ जो जगत है, इससे वह अपने को आइसोलेट करना सीखता है कि मैं अलग हूं।
फिर उसके मैं का जन्म होना शुरू होता है। वह प्रयोग करना शुरू करता है, मुझे भूख लगी है।
कभी आप खयाल करें। जब भी आपको भूख लगती है, तब अगर ठीक से गौर से देखें, तो आपको पता चलता है कि भूख लगी है; आपको भूख कभी नहीं लगती। पता चलता है, भूख लगी है, पेट में लगी है। पता चलता है, पैर में चोट लगी है, दर्द हो रहा है। लेकिन आप कहते हैं, मुझे भूख लगी है। बहुत गौर से देखें और बहुत ठीक से अगर ठीक भाषा का प्रयोग करें, तो आपको कहना चाहिए, पता चलता है कि पेट में भूख लगी है। फैक्यूअल, अगर तथ्यगत सूचना देना चाहें, तो आपको कहना चाहिए, पता चलता है कि पैर में चोट लगी है। पता ही चलता है।
लेकिन अगर ऐसा कहेंगे, तो पागल समझे जाएंगे। जिंदगी की उपयोगिता मैं के आस—पास खड़ी है। पर कभी हम भूल जाते हैं धीरे— धीरे कि यह मैं एक कामचलाऊ शब्द है, यह सत्य नहीं है। यह कामचलाऊ शब्द है, यह सत्य नहीं है। और धीरे—धीरे इस कामचलाऊ शब्द को हम सत्य मानकर जीने लगते हैं। फिर हम विभाजन कर लेते हैं। विभाजन वैसा ही जैसे आप कहते हैं कि यह मेरा आगन है! आपका आगन है, बिलकुल सच है, लेकिन पृथ्वी बंटती नहीं। आपका आगन भला हो, लेकिन पृथ्वी अनबंटी है। पड़ोसी के आगन और आपके आगन के बीच में पृथ्वी में कोई दरार नहीं पड़ती। आपके मकान और पडोसी के मकान के बीच में पृथ्वी टूटती नहीं। न हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच में कोई खाई है, और न हिंदुस्तान और चीन के बीच में पृथ्वी टूटती है। पृथ्वी एक है। लेकिन कामचलाऊ शब्द है कि मेरा देश। तो ऐसा लगता है कि मेरा देश कहीं टूट जाता है और दूसरे का देश वहां से शुरू होता है और बीच में कोई खाई है। कहीं कोई खाई नहीं है। मेरा देश एक राजनैतिक शब्द है, जो खतरनाक सिद्ध होता है, अगर आपने समझा कि यह जीवन का शब्द बन गया है।
मैं एक मनोवैज्ञानिक उपयोगिता है। लेकिन आप सोचते हैं, मैं का मतलब है, जहां मैं समाप्त होता हूं, वहां मैं बिलकुल समाप्त होता हूं और दूसरे शुरू होते हैं। आप कहीं समाप्त नहीं होते। अगर हम विज्ञान से भी पूछें, तो विज्ञान भी कहेगा, आप कहीं समाप्त नहीं होते। दस करोड़ मील दूर जो सूरज है, वह अगर ठंडा हो जाए, तो मैं ठंडा हो जाऊं। तो मैं और सूरज अलग— अलग हैं? अगर अलग— अलग हैं, तो सूरज हो जाए ठंडा, मैं क्यों ठंडा होऊं! सूरज और मैं कहीं जुड़े हैं। तभी तो सूरज ठंडा हो, तो मैं ठंडा हो जाऊं। अभी हवाओं में आक्सीजन है, कल न रह जाए, तो मैं समाप्त। यह मेरे भीतर जलता हुआ दीया बुझा! तो फिर इन हवाओं से मैं अलग हूं?
एक क्षण को अलग नहीं हैं। आप जो श्वास ले रहे हैं, वह आपसे हवा का जोड़ है। आप प्रतिपल जुडे हुए हैं। आप हवा में ही जी रहे हैं, जैसे मछली पानी में, सागर में जी रही है। सागर न रह जाए, तो मछली नहीं है। ऐसे ही आप भी हवा के सागर में जी रहे हैं। हवा न रह जाए, तो आप भी नहीं हैं। लेकिन आप कहते हैं, मैं अलग हूं। अगर आप अलग हैं, तो ठीक है, एक पांच मिनट श्वास न लें और जीकर देखें। तब आपको पता चलेगा कि यह मैं उपयोगी तो था, सत्य नहीं है।
हवा भी मुझसे जुड़ी है। अभी जो श्वास आपके पास थी थोड़ी देर पहले, अब वह मेरे पास है। और मैं कह भी नहीं पाया कि मेरे पास है, कि वह किसी और के पास चली गई। वह श्वास किसकी थी? आपके खून में जो अणु दौड रहे हैं, वे अभी आपके पास हैं, कल किसी वृक्ष में थे, परसों किसी नदी में, उसके पहले किसी बादल में थे। किसके हैं वे? आपके शरीर में जो हड्डी है, वह न मालूम कितने लोगों के शरीर की हड्डी बन चुकी है और अभी न मालूम कितने लोगों के शरीर की हड्डी बनेगी। उस पर जल्दी से अपना कब्जा मत कर लेना। वह आपकी क्या है? आपके पास जो आंख है, वे आंख के अणु और न मालूम किन—किन आंखों के अणु बन चुके हैं। पूरी जिंदगी इकट्ठी है।
जब कृष्ण कहते हैं यह कि अज्ञानीजन अपने को अहंकार में बांधकर व्यर्थ फंस जाते हैं, तो उसका मतलब केवल इतना है। इसका मतलब यह नहीं है कि कृष्ण मैं का उपयोग न करेंगे। कृष्ण भी उपयोग करेंगे, उपयोग तो करना ही पड़ेगा। लेकिन उपयोग को कोई सत्य न मान ले। उपयोग तो करना ही पड़ेगा, लेकिन उपयोग को कोई पकड़कर यह न समझ ले कि वही सत्य है। बस, इतना स्मरण रहे, तो जीवन से आसक्ति कम होनी शुरू हो जाती है। क्योंकि आसक्ति वहीं है, जहां मैं है। मेरा वहीं है, जहा मैं है। अगर मुझे यह पता चल जाए कि मेरी जैसी कोई सत्ता ही नहीं है, सब इकट्ठा है, तो मैं किस चीज को मेरा कहूं और किस चीज को पराया कहूं! फिर कोई चीज अपनी नहीं, कोई चीज पराई नहीं, सब उसकी है, सब प्रभु की है। ऐसी मनोदशा में आसक्ति विलीन हो जाती है।

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