Monday 3 August 2015

जब मैं भूला रे भाई, मेरे सत गुरु जुगत लखाई।
किरिया करम अचार मैं छाड़ा, छाड़ा तीरथ नहाना।
सगरी दुनिया भई सुनायी, मैं ही इक बौराना।।
ना मैं जानूं सेवा बंदगी ना मैं घंट बजाई।
ना मैं मूरत धरि सिंहासन ना मैं पुहुप चढ़ाई।।
ना हरि रीझै जब तप कीन्हे ना काया के जारे।
ना हरि रीझै धोति छाड़े ना पांचों के मारे।।
दाया रखि धरम को पाले जगसूं रहै उदासी।
अपना सा जिव सबको जाने ताहि मिले अनिवासी।।
सहे कसबद बदा को त्यागे छाड़े गरब गुमाना।
सत्य नाम ताहि को मिलि है कहै कबीर दिवाना।।
क अंधेरी रात की भांति है तुम्हारा जीवन, जहां सूरज की किरण तो आना असंभव है, मिट्टी के दिए की छोटी सी लौ भी नहीं है। इतना ही होता तब भी ठीक था, निरंतर अंधेरे में रहने के कारण तुमने अंधेरे को ही प्रकाश भी समझ लिया है। और जब कोई प्रकाश से दूर हो और अंधेरे को ही प्रकाश समझ ले तो सारी यात्रा अवरुद्ध हो जाती है। इतना भी होश बना रहे कि मैं अंधकार में हूं, तो आदमी खोजता है, तड़फता है प्रकाश के लिए, प्यास लेती है, टटोलता है, गिरता है, उठता है, मार्ग खोजता है, गुरु खोजता है, लेकिन जब कोई अंधकार को ही प्रकाश समझ ले तब सारी यात्रा समाप्त हो जाती है। मृत्यु को ही कोई समझ ले जीवन, तो फिर जीवन का द्वार बंद हो गया।
एक बहुत पुरानी यूनानी कथा है। एक सम्राट को ज्योतिषियों ने कहा कि इस वर्ष पैदा होने वाले बच्चों में से कोई एक तेरे जीवन का घाती होगा।
ऐसी बहुत कहानियां हैं संसार के सभी देशों में। कृष्ण के साथ भी ऐसी कहानी जोड़ी है और जीसस के साथ भी है कहानी जोड़ी है। लेकिन यूनानी कहानी का कोई मुकाबला नहीं।
सम्राट ने जितने बच्चे उस वर्ष पैदा हुए, सभी को कारागृह मग डाल दिया, मारा नहीं। क्योंकि सम्राट को लगा कि कोई एक इनमें से हत्या करेगा और सभी हत्या मैं करूं, यह महा-पातक हो जाएगा। छोटे-छोटे बच्चे बड़ी मजबूत जंजीरों में जीवन भर के लिए कोठरियों में डाल दिए गए। जंजीरों में जीवन भर के लिए कोठरियों में डाल दिए गए। जंजीरों में बंधे-बंधे हुए ही वे बड़े हुए। उन्हें याद भी न रही कि कभी ऐसा भी कोई क्षण था जब जंजीरें उनके हाथ में न रही हों।
जंजीरों को उन्होंने जीवन के अंग की तरह ही पाया और जाना। उन्हें याद भी तो नहीं हो सकती थी, कि कभी वे मुक्त थे। गुलामी ही जीवन थी, और इसीलिए उन्हें कभी गुलामी अखरी नहीं। क्योंकि तुलना हो तो तकलीफ होती है। तुलना का कोई उपाय ही न था। गुलाम ही वे पैदा हुए थे, गुलाम ही वे बड़े हुए थे। गुलामी ही उनका सार-सर्वस्थ थी। तुलना न थी स्वतंत्रता की। और दीवारों से बंध थे वे, भयंकर मजबूत जंजीरों से।
और उनकी आंखें अंधकार की इतनी आधीन हो गई थी कि वे पीछे लौटकर भी नहीं देख सकते थे, जहां प्रकाश का जगत था। प्रकाश कष्ट देने लगा था। अंधेरे से इतनी राजी हो गए थे, कि अब प्रकाश से राजी नहीं हो पाती थी आंखें। सिर्फ अंधेरे में ही आंख खुलती थीं, प्रकाश में तो बंद हो जाती थीं।
तुमने भी देखा होगा, कभी घर के शांत स्थान से भरी दुपहरी में बाहर आ जाओ, आंख तिलमिला जाती है। छोटे बच्चे पैदा होते हैं, नौ महीने अंधकार में रहते हैं मां के पेट में। प्रकाश की एक किरण भी वहां नहीं पहुंचती।
और जब बच्चा पैदा होता है, तब नासमझ डाक्टरों का कोई अंत नहीं है। बच्चा पैदा होता है अस्पताल में, वहां से इतना प्रकाश रखते हैं, कि बच्चे की आंखें तिलमिला जाती हैं। और सदा के लिए आंखों को भयंकर चोट पहुंच जाती है। बच्चे को पैदा होना चाहिए मोमबत्ती के प्रकाश में। वहां हजार-हजार कैंडल के बल्ब लगाने की जरूरत नहीं है। दुनिया में जो इतनी कमजोर आंखें हैं, उनमें से पचास प्रतिशत के लिए अस्पताल का डाक्टर जिम्मेवार है।
उसको सुविधा होती है ज्यादा प्रकाश में। वह देख पाता है, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। क्या करना है, क्या नहीं करना। लेकिन उसकी सुविधा का सवाल नहीं है, सुविधा तो बच्चों की है।
जो जीवन भर रहे हैं अंधकार में, नौ महीने नहीं, पूरे जीवन, वे पीछे लौटकर भी नहीं देख सकते थे। वे दीवाल की तरफ ही देखते थे। राह पर चलते लोगों, खिड़की-द्वार के पास से गुजरते लोगों की छायाएं बनती थीं सामने दीवाल पर। वे समझते थे, वे छायाएं सत्य है। यही असली लोग हैं। उस छाया को ही वे जगत समझते थे।
छाया के इस जगत को ही हिंदुओं ने माया कहा है। असली तो दिखाई नहीं पड़ता, असली का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। असली को देखने के लिए आंख चाहिए–समर्थ आंख, जो प्रकाश में खुल सके। जो सूरज के सामने-सामने हो सके। अंधेरे की आदी आंख सत्य को नहीं देख सकती। सत्य ढंका हुआ नहीं है। सत्य तो प्रकट है, उघड़ा हुआ है। तुम्हारी आंख कमजोर है और सत्य को न देख पाएगी।
धीरे-धीरे उन्होंने पीछे लौट कर देखना ही बंद कर दिया। पीछे लौट कर देखने का मतलब यह था, आंख में आंसू आ जाएं। वह पीड़ा का जगत था।
तुमने भी सत्य को देखना बंद कर दिया है। और जब भी कोई तुम्हें सत्य दिखा देता है तो पीड़ा होती है। आनंद जन्मता नहीं, कष्ट होता है। जब भी कहीं कोई सत्य कह देता है तो कष्ट ही होता है।
लेकिन एक आदमी ने हिम्मत की। क्योंकि उसे शक होने लगा। ये छायाएं छायाएं नहीं हैं। क्योंकि इनसे बोलो तो ये उत्तर नहीं देती। इन्हें छुओ, तो कुछ भी हाथ नहीं आता। इन्हीं पकड़ो तो कुछ पकड़ में नहीं आता। एक आदमी को शक होने लगा। कोई मनीषी, कोई बुद्ध!
उस आदमी ने धीरे-धीरे पीछे देखने का अभ्यास शुरू किया। वर्षों लग गए। बड़ा कष्ट हुआ। जब भी पीछे देखता, आंखें तिलमिला जातीं। आंसू गिरते। लेकिन उसने अभ्यास जारी रखा। वह बड़ी तपश्चर्या थी। फिर धीरे-धीरे आंखें राजी होने लगीं।
और तब वह चकित हुआ, कि हम किसी कारागुह में पड़े हैं, और हमने छायाओं को सत्य समझ लिया है। वह पीछे देखने में समर्थ हो गया। उसकी गर्दन मुड़ने लगी और उसकी आंखें देखने लगीं बाहर के रंग, वृक्ष और वृक्षों में खिले फूल, राह से गुजरते लोग। रंगीन थी दुनिया काफी। छायाएं बिलकुल रंगहीन थीं, उदास थीं। बाहर उत्सव था। छायाओं में कोई उत्सव पकड़ में नहीं आता था। बच्चे नाचते गाते निकलते थे। छायाएं तो बिलकुल चुप थीं। वह वाणी न थी, वहां मुखरता न थी–बाहर। पीछे छुपा हुआ असली जगत था।
उस आदमी ने धीरे-धीरे इसकी चर्चा दूसरे कैदियों से शुरू की। बाकी कैदी हंसने लगे, कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। हम तो सदा से यही सुनते आए हैं कि यही सत्य है, जो सामने है। और हम तो पीछे मुड़ कर देखते हैं तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता, सिवाय अंधकार के। जब आंख बंद हो जाए तो सिवाय अंधकार के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
जरूरी नहीं है कि अंधकार हो। हो सकता है, सिर्फ आंख बंद हो जाती हो। लेकिन दोष कोई अपने ऊपर कभी लेता नहीं। तो कोई यह तो मानता नहीं कि मेरी आंख बंद हो सकती है, इसलिए अंधकार है। लोग मानते हैं, अंधकार है, इसलिए अंधकार है। मेरी आंख और बंद हो सकती है? यह कभी संभव है? हम अपनी आंख तो सदा खुली मानते हैं। अपना हृदय तो सदा प्रेम से भरपूर मानते हैं। अपनी प्रज्ञा तो सदा प्रज्वलित मानते हैं। अपनी आत्मा तो सदा जाग्रत मानते हैं। और वही हमारी भ्रांतियों की जड़ है।
फिर कैदियों की संख्या बहुत थी, वह अकेला था। लोकतंत्र कैदियों के पक्ष में था। बहुमत उनका था। और उन्होंने कहा कि अगर ऐसा ही है तो सबकी सलाह ले ली जाए। एक भी मत मिला नहीं उस आदमी को। और लोग हंसे, खूब मजाक की उन्होंने। धीरे-धीरे उस आदमी को पागल मानने लगे।

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