Monday 10 August 2015

पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि जो भी चीज नीचे जा सकती है वह चीज ऊपर भी जा सकती है। इसे वैज्ञानिक सूत्र समझा जा सकता है। असल में जिस चीज का भी नीचे जाने का उपाय है, उसके ऊपर जाने का भी उपाय होगा ही, चाहे हमें पता हो चाहे हमें पता न हो। जिस रास्ते से हम नीचे जा सकते हैं, उसी रास्ते से ऊपर भी जा सकते हैं। रास्ता वही होता है, सिर्फ रुख बदलना होता है।
आप यहां तक आये हैं जिस रास्ते से अपने घर से, उसी रास्ते से आप घर वापस लौटेंगे। तब सिर्फ आपकी पीठ घर की तरफ थी, अब मुंह घर की तरफ होगा। कोई दरवाजा ऐसा नहीं है जो बाहर लाये और भीतर न ले जा सके। जिंदगी दोहरे आयाम में फैलती है। अगर ऊर्जा नीचे उतर सकती है तो ऊर्जा ऊपर जा सकती है। इस पहले नियम को मन को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जो हो सकता है मन केवल उसी को करने को राजी होता है कि यह हो सकता है। मन असंभव की तलाश छोड़ देता है। उसे साफ खयाल में आना चाहिए कि यह हो सकता है।
अगर पहाड़ से पानी नीचे की तरफ गिरता है तो साधारणतः पानी पहाड़ से नीचे की तरफ ही गिरता है, ऊपर की तरफ नहीं जाता। हजारों साल तक ऊपर तक ले जाने का हमें कुछ भी पता नहीं था। लेकिन जो चीज नीचे आ सकती है तो ऊपर भी जा सकती है। लेकिन अब हम पहाड़ों की ऊंचाई पर पानी को पहुंचा भी सकते हैं। क्योंकि जिस नियम से पानी नीचे आता है उस नियम के विपरीत प्रयोग करने से पानी ऊपर चढ़ जाता है।
यौन-ऊर्जा नीचे की तरफ सहज आती है। प्रकृति की तरफ से आती है। अगर किसी मनुष्य को उस ऊर्जा को ऊपर ले जाना है तो यह सहज नहीं होगा। प्रकृति की तरफ से नहीं होगा। यह संकल्प से होगा। यह मनुष्य के प्रयास, मनुष्य की आकांक्षा और अभीप्सा और श्रम से होगा। मनुष्य को इस दिशा में श्रम करना पड़ेगा, क्योंकि प्रकृति से उलटी दिशा में बहना पड़ेगा। नदी में अगर नीचे की तरफ बहना हो, सागर की तरफ, तब तैरने की कोई भी जरूरत नहीं है। तब हम हाथ-पैर छोड़कर सागर की तरफ बह जा सकते हैं। नदी ही सागर की तरफ ले जाएगी, हमें कुछ भी करना नहीं। लेकिन अगर नदी के मूल स्रोत की तरफ, उदगम की तरफ जाना हो तो फिर तैरना पड़ेगा, श्रम उठाना पड़ेगा। फिर एक संघर्ष होगा। नदी की धारा से संघर्ष होगा।
तो जो लोग भी ऊपर की तरफ जाना चाहते हैं, उन्हें दूसरी बात समझ लेनी चाहिए कि संकल्प और संघर्ष मार्ग होगा। ऊपर जाया जा सकता है, और ऊपर जाने के अपूर्व आनंद हैं। क्योंकि नीचे जाकर जब सुख मिलता है–क्षणिक सही, पर मिलता है–तो ऊपर जाकर क्या मिल सकता है, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
यौन-ऊर्जा नीचे बहकर जो लाती है वह सुख है, और यौन-ऊर्जा ऊपर उठकर जो लाती है वह आनंद है। यौन-ऊर्जा नीचे जाकर जिसे लाती है वह क्षणिक है, क्योंकि वह घटना ही क्षणिक है। खोने की घटना क्षणिक ही होगी, संग्रहीत करने की घटना शाश्वत हो सकती है। नीचे जाकर आप खोते हैं, खोने की घटना क्षणिक है। एक क्षण को खोने का क्षण ही सब कुछ है। लेकिन ऊपर आप संग्रहीत करते हैं। ऊपर रिजर्वायर बनाते हैं। यह रिजर्वायर अनंत हो सकता है। वह रोज बढ़ता जाता है।
सुख मिलते ही घटना शुरू हो जाता है। आनंद मिलते ही बढ़ना शुरू हो जाता है। और सुख जब घटता है तो दुख बढ़ता है। इसलिए हर सुख के पीछे दुख की काली छाया खड़ी होती है, और हर आनंद के पीछे आनंद की और बढ़ती हुई प्रकाशित दुनिया होती है। आनंद के पीछे दुख की कोई छाया नहीं होती। आनंद और गहरा होता चला जाता है, क्योंकि संग्रह रोज बढ़ता जाता है और अनंत संग्रह की संभावना है।
दूसरी बात, संकल्प और संघर्ष। संकल्प को थोड़ा समझना उपयोगी है कि संकल्प से क्या अर्थ है, और कैसे यह ऊर्जा संकल्प से ऊपर जा सकती है। दो-चार उदाहरण दूं, उनसे खयाल में आ सकेगा।
कल ही एक मित्र मुझसे पूछ रहे थे कि मुसलमान रोजा रखते हैं, जैन, हिंदू उपवास करते हैं, क्रिश्चियन उपवास करते हैं, इसका क्या संबंध है? भूखे रहने से क्या होगा?
भूखे रहने से कभी कुछ भी नहीं होता। भूखे रहने से कभी कुछ भी नहीं हो सकता है। लेकिन ये सारे लोग पागल नहीं हैं। उन्हें नहीं कह रहा हूं जो कर रहे हैं, क्योंकि उनमें से अधिक लोग पागल ही होंगे। क्योंकि उन्हें कुछ भी पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। लेकिन जिन लोगों से इन सूत्रों की यात्रा शुरू हुई, वे लोग पागल नहीं हैं।
आदमी की जिंदगी में भोजन की आकांक्षा सबसे गहरी है। क्योंकि सर्वाइवल के लिए, बचने के लिए, सबसे जरूरी चीज है। आदमी प्रेम छोड़ सकता है भोजन के लिए। मां बच्चे को काट सकती है भोजन के लिए। बंगाल के अकाल में माताओं ने अपने बच्चे बेच दिए। पति पत्नी को काट सकता है, बेच सकता है, पत्नी पति को फेंक सकती है। मरने के क्षण में जहां अंतिम स्थिति बचाने की हो जाये वहां चित्त पूरे जोर से कहेगा कि अपने को बचाओ। क्योंकि शेष सब फिर से हो सकता है। लेकिन बचना फिर दुबारा नहीं हो सकता है। पति फिर मिल सकता है, बेटा फिर पैदा हो सकता है लेकिन स्वयं के पाने का दुबारा क्या उपाय है? इसलिए भोजन सर्वाइवल की गहरी से गहरी आकांक्षा है।
अब एक आदमी को महीने भर के लिए भूखा रख दिया गया है। जब वह भूखा है तब चौबीस घंटे उसे याद आती है: भोजन करूं, भोजन करूं, भोजन करूं। चौबीस घंटे उसके शरीर का रोआं-रोआं कहेगा कि भोजन करो। जागते में, सपने में, शरीर कहेगा: भोजन करो। एक जगह खाली हो गई है। एक बायोलाजिकल गैप भीतर पैदा हो गया है। शरीर कहेगा भोजन करो और वह इसी वक्त परमात्मा की प्रार्थना में लगता है। शरीर चिल्ला रहा है भोजन की प्यास, और वह चिल्ला रहा है परमात्मा की प्यास। थोड़े ही समय में, दिन दो-दिन, चार-दिन बीतेंगे और शरीर की जो भोजन की प्यास है, कनवर्ट हो जाएगी और परमात्मा की प्यास बन जाएगी। वह जो शरीर की भोजन की मांग है, अगर वह नहीं झुका और संकल्प किए ही चला गया कि नहीं, भोजन नहीं, परमात्मा ही; नहीं, भोजन नहीं परमात्मा। अगर शरीर के सामने नहीं झुका और कहता चला गया: भोजन नहीं, परमात्मा! तो चार-छह दिन के भीतर शरीर भोजन की जगह परमात्मा को पुकारने लगेगा।
यह रूपांतरण हुआ। यह ट्रांसफार्मेशन हुआ। एनर्जी, जो भोजन को मांगती थी, वह परमात्मा को मांगने लगी। इस तरह भोजन की तरफ जाते हुए संकल्प को परमात्मा की तरफ मोड़ दिया गया है। यह बड़ा रूपांतरण है।
संकल्प शक्तियों के रूपांतरण का नाम है। जब चित्त मांगता है यौन, जब चित्त मांगता है दूसरे को, अपोजिट को, स्त्री पुरुष को, पुरुष स्त्री को, जब चित्त मांगता है कि दूसरे की तरफ बहो, तब बहाव का रूपांतरण करना पड़ेगा। जब चित्त जिस ढंग से दूसरे को, मांगता है उससे उलटी प्रक्रिया करनी पड़ेगी ताकि चित्त की यह मांग परमात्मा की, मोक्ष की, निर्वाण की मांग बन जाये।
अब इसके लिए दोत्तीन बातें खयाल में लेनी जरूरी हैं।
जैसे ही चित्त यौन की मांग करता है, सेक्स की मांग करता है, शरीर सेक्स की तैयारी करने लगता है। यौन-केंद्र मूलाधार से दूसरे की मांग की स्फुरणा शुरू हो जाती है। यौन-केंद्र बहिर्गामी हो जाता है। इस क्षण में तंत्र कहता है कि अगर यौन-केंद्र को अंतर्गामी किया जा सके, भीतर की तरफ खींचा जा सके–जिसे यौन-मुद्रा का नाम दिया है–अगर यौन-केंद्र मूलाधार को भीतर की तरफ खींचा जा सके, तो तत्काल आप दो क्षण में पायेंगे कि शरीर ने यौन की मांग बंद कर दी। मांग लेकिन पैदा हो गई थी। शक्ति जग गई थी, और अब मांग बंद हो गई। इस शक्ति को ऊपर ले जाया जा सकता है।
जैसे ही हम सेक्स का विचार करते हैं वैसे ही हमारा चित्त जननेंद्रिय की तरफ बहने लगता है। तो तुरंत जननेंद्रिय को भीतर की ओर खींच लेते ही जननेंद्रिय से बाहर जानेवाले सब द्वार बंद हो जाते हैं। और जो ऊर्जा जग गई है, अगर उस क्षण में हम आंखों को बंद कर लें और आंख बंद करके सिर की छत की तरफ, अंदर से जैसे ऊपर की तरफ देख रहे हों, देखना शुरू कर दें, तो ऊर्जा ऊपर की तरफ बहना शुरू हो जाती है।
यह एक महीने भर के प्रयोग से अभूतपूर्व अनुभव में किसी भी व्यक्ति को उतार दिया जा सकता है। जब भी यौन का खयाल उठे तभी यौन-केंद्र को, मूलाधार को भीतर की ओर खींच लें, आंख बंद करें और सिर की छत की तरफ अंदर से जैसे ऊपर देख रहे हों, देखना शुरू कर दें। और आप एक महीने भर के भीतर, इक्कीस दिन के भीतर पायेंगे कि आपके भीतर से कोई चीज नीचे से ऊपर की तरफ जानी शुरू हो गई है। यह वस्तुतः अनुभव होगा कि कोई चीज ऊपर बहने लगी, कोई चीज ऊपर उठने लगी। उसे कोई कुंडलिनी का नाम कहता है, उसे कोई और कोई नाम दे सकता है।
इसमें दो बिदुओं पर ध्यान देना जरूरी है। एक तो सेक्स-सेंटर पर, मूलाधार पर, और दूसरे सहस्रार पर। सहस्रार हमारे ऊपर का केंद्र है सबसे ऊपर, और मूलाधार हमारे सबसे नीचे का केंद्र है। मूलाधार को सिकोड़ लें भीतर की तरफ। तो उसमें जो शक्ति पैदा हुई है, वह शक्ति मार्ग खोज रही है। और अपने चित्त को ले जायें ऊपर की तरफ, तो वही मार्ग खुला रह जाता है। चित्त जिस तरफ देखता है उसी तरफ शरीर की शक्तियां बहनी शुरू हो जाती हैं। यह ट्रांसफार्मेशन की छोटी-सी विधि है।

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