Thursday 27 August 2015

नुष्‍य का शरीर एक रहस्यमय यंत्र है। और यह दो आयामों में काम करता है। बाहर जाने के लिए तुम्हारी चेतना इंद्रियों के द्वारा यात्रा करती है और संसार से, पदार्थ से मिलती है। लेकिन यह तुम्हारे शरीर के सिर्फ एक आयाम का काम हुआ। तुम्हारे शरीर का एक दूसरा आयाम भी है—वह तुम्हें भीतर ले जाता है। जब चेतना बाहर जाती है तो वह पदार्थ को जानती है। और जब वही चेतना भीतर जाती है तो वह अपदार्थ को जानती है।
यथार्थत: तो कोई विभाजन नहीं है, पदार्थ और अपदार्थ एक हैं। यह सत्य आंख से, इंद्रियों से देखे जाने पर पदार्थ की भांति मालूम होता है। और यही सत्य भीतर. से देखे जाने पर—इद्रियों द्वारा नहीं, बल्कि केंद्र के द्वारा देखे जाने पर—अपदार्थ की भांति मालूम होता है। सत्य तो एक है, लेकिन तुम उसे दो ढंग से देख सकते हो। एक इंद्रियों के द्वारा और दूसरा अतींद्रिय द्वारा।
ये जो केंद्रित होने की विधियां हैं वे तुम्हें तुम्हारे भीतर उस बिंदु पर ले जाने के लिए हैं जहां इंद्रियों का कोई काम नहीं रहता, जहां तुम इंद्रियों के पार चले जाते हो। इन विधियों में प्रवेश करने के पहले तीन चीजें समझने जैसी हैं।
पहली बात। जब तुम आंखों से देखते हो तो आंखें नहीं देखती हैं, वे मात्र देखने के द्वार हैं। द्रष्टा तो आंखों के पीछे है। यही कारण है कि तुम आंखें बंद कर ले सकते हो और तब भी सपने, दृश्य और चित्र देखते रह सकते हो। द्रष्टा तो इंद्रियों के पीछे है, वह इंद्रियों के माध्यम से संसार में गति करता है। लेकिन अगर तुम अपनी इंद्रियों को बंद कर लो तो भी द्रष्टा भीतर बना रहता है।
अगर यह द्रष्टा, यह चेतना केंद्रित हो जाए तो उसे अचानक अपना बोध हो जाता है, वह अपने को जान लेती है। और जब तुम अपने को जान लेते हो तो तुम समग्र अस्तित्व को जान लेते हो, क्योंकि तुम और अस्तित्व दो नहीं हैं।’” लेकिन अपने को जानने के लिए केंद्रित होने की जरूरत है। और केंद्रित होने से मेरा मतलब है कि तुम्हारी चेतना अनेक दिशाओं में बंटी न हो, वह कहीं गति न करती हो, अपने आप में थर हो, अचल हो, आधारित हो; बस भीतर हो।
भीतर होना कठिन लगता है, क्योंकि हमारे मन के लिए भीतर कैसे रहें, इसका विचार भी बाहर जाने जैसा लगता है। हम विचार करने लगते हैं, ‘कैसे’ पर विचार करने लगते हैं। इस भीतर के संबंध में सोचना भी हमारे लिए विचार है। और प्रत्येक विचार बाहर का है, भीतर का नहीं, क्योंकि तुम अपने अंतर्तम केंद्र पर मात्र चेतना हो। विचार बादलों जैसे हैं। वे तुम्हारे पास आए हैं, लेकिन वे तुम्हारे नहीं हैं। सब विचार बाहर से आते हैं, भीतर तुम एक भी विचार नहीं निर्मित कर सकते। प्रत्येक विचार बाहर से आता है, भीतर उसे पैदा करने का कोई उपाय नहीं है। विचार बादलों की भाति तुम्हारे पास आते हैं।
इसलिए जब तुम विचार कर रहे हो तब तुम भीतर नहीं हो, यह याद रहे। विचारणा मात्र बाहर होना है। अगर तुम भीतर के संबंध में, आत्मा के संबंध में भी सोच रहे हो तो भी तुम भीतर नहीं हो। आत्मा, अंतस, भीतर के संबंध के सब विचार बाहर से आए हैं, वे तुम्हारे नहीं हैं। वह जो शुद्ध चेतना है, निरभ्र आकाश की भांति, वही तुम्हारी है। तो क्या किया जाए? भीतर की सीधी—सरल चेतना को कैसे उपलब्ध किया जाए?
इसके लिए कुछ उपाय उपयोग किए जाते हैं, क्योंकि तुम उनके साथ सीधे—सीधे कुछ नहीं कर सकते। कुछ उपाय जरूरी हैं, जिनके द्वारा तुम भीतर फेंक दिए जाते हो, वहां पहुंचा दिए जाते हो। इस केंद्र के साथ सदा परोक्ष रूप से ही कुछ किया जा सकता है, तुम वहां प्रत्यक्ष रूप से नहीं जा सकते। इस बात को बहुत साफ—साफ समझ लो, क्योंकि यह बहुत बुनियादी बात है।
तुम खेल रहे हो। बाद में तुम कहते हो कि खेल बहुत आनंदपूर्ण था, मुझे बहुत सुख मिला, मैंने बहुत मजा लूटा। एक सूक्ष्म सुख पीछे छूट गया है। फिर कोई तुम्हें सुनता है। वह भी सुख की खोज में है। कौन नहीं है? वह कहता है कि तब मैं भी खेलूंगा, क्योंकि अगर खेल से सुख मिलता हो तो मुझे भी यह सुख पाना है। वह खेलता भी है, लेकिन उसका ध्यान सीधे—सीधे सुख, आनंद, खुशी पर है। और तब उसे वह सुख, वह आनंद नहीं मिलता है। सुख तो उप—उत्पत्ति है। अगर तुम समग्रता से खेलते हो, उसमें डूबे हो, तो सुख फलीभूत होता है। लेकिन अगर तुम सतत सुख की चिंता कर रहे हो, उसका पीछा कर रहे हो, तो कुछ भी नहीं होता।
तुम संगीत सुन रहे हो। कोई कहता है कि मुझे बहुत आनंद आ रहा है। लेकिन तुम अगर निरंतर सीधे आनंद के पीछे पड़े रहे तो सुनना भी कठिन हो जाएगा। आनंद के लिए वह फिक्र, वह लालच ही बाधा बन जाएगा। आनंद उप—उत्पत्ति है। तुम उसे सीधे झपट्टा मारकर नहीं ले सकते। वह इतनी नाजुक चीज है कि तुम्हें उसके पास परोक्ष रूप से जाना होगा। कुछ और चीज करो और आनंद घटित होगा। उसके साथ सीधे कुछ नहीं किया जा सकता है।
जो भी सुंदर है, जो भी शाश्वत है, वह इतना नाजुक है, सुकुमार है कि अगर तुमने उसे सीधे पकड़ने की चेष्टा की तो वह नष्ट ही हो जाता है। विधियों और उपायों का यही उपयोग है। ये विधियां तुम्हें कुछ करने को कहती हैं। तुम क्या करते हो, वह महत्वपूर्ण नहीं म् है, लेकिन तुम्हारे मन को करने से, विधि से मतलब रखना चाहिए, उसके फल से नहीं। फल तो आता है, उसे आना ही है। लेकिन वह सदा परोक्ष रूप से आता है। इसलिए फल की फिक्र मत करो। सिर्फ विधि की फिक्र करो; उसे उतनी समग्रता से करो जितनी समग्रता से कर सको, और फल को भूल जाओ। फल घटता है, लेकिन तुम उसकी राह में बाधा बन सकते हो। अगर तुम फल की ही फिक्र करते रहे तो कभी नहीं घटेगा।
और तब एक अजीब बात घटती है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि आपने कहा था कि फलां ध्यान करो तो उससे ऐसा होगा। हम वह ध्यान कर रहे हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा है।
वे सही हैं, लेकिन उन्होंने शर्त भुला दी है। तुम्हें फल को भूल जाना होगा, तभी कुछ होता है। तुम्हें कर्म में समग्रता से जुटना होगा। जितना ही तुम कर्म में होओगे उतना ही शीघ्र फल आएगा। लेकिन फल सदा परोक्ष है। तुम उसके प्रति आक्रामक नहीं हो सकते, हिंसक नहीं हो सकते; वह ऐसी नाजुक घटना है कि उस पर आक्रमण नहीं किया जा सकता। वह तुम्हारे पास तब आता है जब तुम कहीं इस समग्रता से उलझे होते हो कि तुम्हारा आंतरिक आकाश खाली होता है।
ये विधियां सब परोक्ष हैं। आध्यात्मिक घटना के लिए कोई प्रत्यक्ष विधि नहीं है।

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