Thursday 6 August 2015

क ज्ञान है, जो भर तो देता है मन को बहुत जानकारी से, लेकिन हृदय को शून्य नहीं करता।
एक ज्ञान है, जो मन को भरता नहीं, खाली करता है। हृदय को शून्य का मंदिर बनाता है। एक ज्ञान है, जो सीखने से मिलता है और एक ज्ञान है जो अनसीखने से मिलता है। जो सीखने से मिले, वह कूड़ा करकट है। जो अनसीखने से मिले, वही मूल्यवान है। सीखने से वही सीखा जा सकता है, जो बाहर से डाला जाता है। अनसीखने से उसका जन्म होता है, जो तुम्हारे भीतर सदा से छिपा है।
ज्ञान को अगर तुमने पाने की यात्रा बनाया, तो पंडित होकर समाप्त हो जाओगे। ज्ञान को अगर खोने की खोज बनाया, तो प्रज्ञा का जन्म होगा।
पांडित्य तो बोझ है; उससे तुम मुक्त न होओगे। वह तो तुम्हें और भी बांधेगा। वह तो गले में लगी फांसी है, पैरों में पड़ी जंजीर है। पंडित तो कारागृह बन जाएगा, तुम्हारे चारों तरफ। तुम उसके कारण अंधे हो जाओगे। तुम्हारे द्वार दरवाजे बंद हो जाएंगे। क्योंकि जिसे भी यह भ्रम पैदा हो जाता है, कि शब्दों को जानकर उसने जान लिया, उसका अज्ञान पत्थर की तरह मजबूत हो जाता है।
तुम उस ज्ञान की तलाश करना जो शब्दों से नहीं मिलता, निःशब्द से मिलता हैं। जो सोचने विचारने से नहीं मिलेगा, निर्विचार होने से मिलता है। तुम उस ज्ञान को खोजना, जो शास्त्रों में नहीं है, स्वयं में है। वही ज्ञान तुम्हें मुक्त करेगा, वही ज्ञान तुम्हें एक नए नर्तन से भर देगा। वह तुम्हें जीवित करेगा वह तुम्हें तुम्हारी कब्र के ऊपर बाहर उठाएगा। उससे ही आएंगे फूल जीवन के। और उससे ही अंततः परमात्मा का प्रकाश प्रकटेगा।
पंडित जानता है और नहीं जानता। लगता है कि जानता है। ऐसे ही, जैसे बीमार आदमी बजाय औषधि लेने के, चिकित्साशास्त्र का अध्ययन करने लगे। जैसे भूखा आदमी पाकशास्त्र पढ़ने लगे।
ऐसे सत्य की अगर भूख हो, तो भूल कर भी धर्मशास्त्र में मत उलझ जाना। वहां सत्य के संबंध में बहुत बातें कहीं गई हैं, लेकिन सत्य नहीं है। क्योंकि सत्य तो कब कहा जा सका है? कौन हुआ है समर्थ जो उसे कह सके? इसलिए गुरु ज्ञान नहीं देता, वस्तुतः तुम जो ज्ञान लेकर आते हो उसे भी छीन लेता है। गुरु तुम्हें बनाता नहीं, मिटाता है। तुम्हारी याददाश्त के संग्रह को बढ़ाता नहीं, तुम्हारी याददाश्त, तुम्हारे संग्रह को खाली करता है। जब तुम पूरे खाली हो जाते हो, तो परमात्मा तुम्हें भर देता है। शून्य हो जाना पूर्ण को पाने का मार्ग है।
कोई बीस वर्ष पहले, मैं एक वर्ष तक रायपुर में रहा था। जिस मकान में मैं रहता था, एक बूढ़ा आदमी उसी मकान में पड़ोस में रहता था। वह दांत का मंजन बेचने का काम करता था। जब मेरा उससे परिचय हो गया तो मैंने उससे पूछा, कि दांत तो तुम्हारे एक भी नहीं। तुमसे दांत का मंजन कौन खरीदता होगा? तुम अपने दांत नहीं बचा सके और तुम तख्ती लगाकर बैठते हो बाजार में कि ये मंजन से दांत मजबूत हो जाते हैं, दांत गिरने से बच जात हैं और तुम्हारा एक दांत नहीं है। कौन तुमसे मंजन खरीदता होगा? और किस हिम्मत से तुम मंजन बेच आते हो?
उस बूढ़े ने थोड़ी नाराजगी से कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है? कई लोग पुरुष होते हुए भी चोलियां बेचते हैं, साड़ियां बेचते हैं, चूड़ियां बेचते हैं। मैं उससे राजी हुआ, तो उसने इतनी बात और जोड़ी, और उसने कहा, कि फिर लोग अपने दांतों में उत्सुक हैं।मेरे दांत की तरफ देखते कहां? वस्तुतः उस बूढ़े आदमी ने कहा कि आप मेरे पहले पूछनेवाले हैं, जिसने यह संदेह उठाया। लोग अपने दांत की चिंता कर रहे हैं। दंत-मंजन का डब्बा देखते हैं। मेरे दांत की कौन फिकर करता है?
तुम पंडितों के दांतों की थोड़ी फिकर करो। वे जो बेच रहे हैं, वह उन्हें भी बचा सका। वे जो तुम्हें समझा रहे हैं, उससे उनकी भी समझ नहीं जागी। वे जो तुम्हें दे रहे हैं उससे उन्हें भी कुछ मिला नहीं है। उनके जीवन को थोड़ा परखो। वहां तुम पाओगे। एक रिक्तता पाओगे। भारी तुम पाओगे उन्हें। वजन से दबे हुए पाओगे, लेकिन तुम्हें वह नृत्य वहां न दिखाई पड़ेगा जो कबीर कह रहे हैं–पाइबो रे पाइबो रे ब्रह्मज्ञान।
नाच उठता है हृदय, जब ज्ञान की पहली किरण उतरती है। मोर को नाचते देखा? आषाढ़ के प्रथम दिवसों में आकाश में मेघ घिरने लगते हैं और मोर पंख फैला देते है और नाचता है। वैसा ही ब्रह्मज्ञानी भी नाचता है, जब उसके जीवन में परमात्मा के मेघ घिर जाते हैं। आषाढ़ का दिन आ जाता है। वर्षा होने के करीब हो जाती है। जन्मों-जन्मों की छाती प्यासी थी। मेघ घिर उठे, आषाढ़ का दिवस आ गया। नाच उठता है मन-मयूर। तुमने कोयल को गाते देखा है? पुकारती है प्यारे को, पुकारती रहती है।
विरह की वैसी ही अग्नि खोजी को जलाती है, जब तक कि प्रेमी मिल ही न जाए। मिलन पर बड़ी गहन शांति, बड़ा गहन आनंद।
ज्ञानी का अस्तित्व बदलता है। पंडित की केवल स्मृति भरती है। स्मृति तो यंत्र मात्र है। उसका कोई मूल्य नहीं। तुम्हारा पूरा अस्तित्व अहोभाव से भर जाए। तुम्हारा रोआं-रोआं धन्यवाद देने लगे। तुम्हारे सब द्वार-दरवाजों से उस परमात्मा का प्रकाश भीतर आ जाए। सब तरफ से तुम्हें आपूर परमात्मा घेर ले। आकंठ तुम भर जाओ। बाढ़ आ जाए उसकी, कि तुम समझ ही न पाओ, कैसे धन्यवाद दें। शब्द खो जाएं, बोलने का कुछ न बचे। तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही बोलने लगे। वाणी छोटी पड़ जाए। आनंद लक्षण है। सच्चिदानंद लक्षण है। पंडित के दांत खुद ही टूट हुए हैं। और तुम उससे सीख ले रहे हो।
आनंद को कसौटी समझो, अन्यथा तुम धोखा खाओगे। शब्दों के धनी बहुत है, आनंद का धनी खोजो। जिसके जीवन में सब शांति और परिपूर्ण हो गया हो। जिसे कुछ पाने को न बचा हो, वही तुम्हें कुछ दे सकेगा। वही गुरु हो सकता है। पंडित तो तुम्हारे ही साथ है। तुमसे थोड़ा ज्यादा जानता है, तुम थोड़ा कम जानते हो। तुम भी थोड़ी मेहनत करो, तो थोड़ा ज्यादा जान लोगे। पंडित में और तुम में कोई गुणात्मक भेद नहीं है। मात्रा का भले हो, गुण का नहीं है। ज्ञानी और तुम में गुणात्मक भेद है।
जैसे दो आदमी सोते हों, एक आदमी अपना देखता हो कि चोर है; और एक आदमी सपना देखता हो, कि साधु है। क्या तुम सोचते हो, उन दोनों में कोई गुणात्मक भेद है? दोनों सो रहे हैं। दोनों सपना देख रहे हैं। दोनों के हाथ में सत्य नहीं है। और एक तीसरा आदमी जागा हुआ पास ही बैठा है। जागा हुआ है, सपना नहीं देख रहा है। इस आदमी उन दो सोए आदमियों में गुणात्मक भेद है। इसकी चेतन-दशा ही अलग है। यह जागा हुआ है।
सपने इसे नहीं सताते हैं। क्योंकि सपने तो गहन तंद्रा में ही आते हैं। जब तुम बेहोश होते हो, तब ही सपने तुम्हें आते हैं। जागे हुए व्यक्ति को वासना नहीं सताती, क्योंकि वासना एक स्वप्न है। जागे हुए व्यक्ति को लोभ नहीं सताता, क्योंकि लोभ एक स्वप्न है। जागे हुए व्यक्ति को पाप नहीं सताता, क्योंकि पाप एक स्वप्न है। और मैं तुमसे कहता हूं, जागे हुए व्यक्ति को पुण्य भी नहीं सताता, क्योंकि पुण्य भी एक स्वप्न है। अशुभ तो सताता ही नहीं, शुभ भी नहीं सताता। न तो जागा हुआ आदमी शैतान होने की कामना करता है, और न साधु होने की कामना करता है। जागा हुआ आदमी, जागा हुआ आदमी है। अब इन स्वप्नों से कुछ लेना-देना नहीं है।

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