Wednesday 12 August 2015

जीवन को दो प्रकार से देखा जा सकता है। एक तो, जैसे—जीवन का केंद्र हम हैं, मैं हूं और सारा जीवन परिधि है। कील मैं हूं और सारा जीवन परिधि है। अज्ञान की यही मनोदशा है। अज्ञानी केंद्र पर होता है, सारा जगत उसकी परिधि पर घूमता है। सब कुछ उसके लिए हो रहा है और सब कुछ, उससे हो रहा है। न तो वह यह देख पाता है कि प्रकृति के गुण काम करते हैं, न वह यह देख पाता है कि परमात्मा की समग्रता कर्म
करती है। जो कुछ भी हो रहा है, वही करता है। उसकी स्थिति ठीक वैसी होती है, जैसे मैंने एक कहानी सुनी है कि छिपकली राजमहल की दीवार पर छत से लटकी है और भयभीत है कि अगर वह छत से हट जाए, तो कहीं छत गिर न जाए! वही संभाले हुए है!
कुछ ही समय पहले, कोपरनिकस के पहले, आज से कुल तीन सौ वर्ष पहले आदमी सोचता था कि जमीन केंद्र है सारे यूनिवर्स का, सारे विश्व का। चांद—तारे जमीन के आस—पास घूमते हैं। सूरज जमीन का चक्कर लगाता है। दिखाई भी पड़ता है। सुबह। उगता है, साझ डूबता है। कोपरनिकस ने एक बड़ी क्रांति उपस्थित कर दी आदमी के मन के लिए, जब उसने कहा कि बात बिलकुल उलटी है; सूरज जमीन के चक्कर नहीं लगाता, जमीन ही सूरज के चक्कर लगाती है। बहुत धक्का पहुंचा। धक्का इस बात से नहीं पहुंचा कि हमें कोई फर्क पड़ता है कि चक्कर कौन लगाता है, सूरज लगाता है कि जमीन लगाती है। हमें क्या फर्क पडता है? नहीं, धक्का इस बात से पहुंचा कि आदमी जिस जमीन पर रहता है, वह जमीन भी चक्कर लगाती है! मैं जिस जमीन पर रहता हूं, वह जमीन भी चक्कर लगाती है सूरज का!
आदमी ने हजारों वर्ष अपने अहंकार के आस —पास सारे विश्व को चक्कर लगवाया। कोपरनिकस का मजाक उड़ाते हुए और आदमी का मजाक उड़ाते हुए बर्नार्ड शा ने एक बार कहा था कि कोपरनिकस की बात गलत है। यह बात झूठ है कि जमीन सूरज का चक्कर लगाती है। सूरज ही जमीन का चक्कर लगाता है।
बर्नार्ड शा जैसे बुद्धिमान आदमी से ऐसी बात की आशा नहीं हो सकती थी। तो किसी आदमी ने सभा में खड़े होकर पूछा कि आप क्या कह रहे हैं! अब तो सिद्ध हो चुका है कि जमीन ही सूरज के चक्कर लगाती है। आपके पास क्या प्रमाण है? बर्नार्ड शा ने कहा, मुझे प्रमाण की जरूरत नहीं। इतना ही प्रमाण काफी है कि बर्नार्ड शा जिस जमीन पर रहता है, वह जमीन किसी का चक्कर नहीं लगा सकती। सूरज ही चक्कर लगाता है।
सारा मनुष्य का अहंकार सोचता है कि वही केंद्र पर है और सब कुछ। अज्ञानी की यह दृष्टि है, सेंटर जो है जगत का, वह मैं हूं। जैसे गाड़ी का चाक घूमता है कील पर, ऐसे कील मैं हूं; और सब कुछ, विराट मेरे ही आस—पास घूम रहा है।
ज्ञानी की मनोदशा इससे बिलकुल उलटी है। ज्ञानी कहता है, केंद्र हो कहीं भी, हम परिधि पर हैं, यह भी परमात्मा की बहुत कृपा है। केंद्र तो हम नहीं हैं। ज्ञानी कहता है, केंद्र मैं नहीं हूं। केंद्र अगर होगा, तो परमात्मा होगा। हम तो परिधि पर उठी हुई लहरों से ज्यादा नहीं हैं। कोई उठाता है, उठ आते हैं। कोई गिराता है, गिर जाते हैं। कोई करवाता है, कर लेते हैं। कोई रोक देता है, रुक जाते हैं। किसी का इशारा जिंदगी बन जाती है, किसी का इशारा मौत ले आती है। न हमें जन्म का कोई पता है, न हमें मृत्यु का कोई पता है। न हमें पता है कि श्वास क्यों भीतर जाती है और क्यों बाहर लौट जाती है। नहीं, हमें कोई भी पता नहीं है कि हम क्यों हैं, कहां से हैं, कहा के लिए हैं।
तो ज्ञानी कहता है, विराट का कर्म है और मैं तो उस कर्मों की लहरों पर एक तिनके से ज्यादा नहीं हूं। इसलिए कर्म मेरा नहीं, कर्म विराट का है। और जो भी फलित हो रहा है—हार या जीत, सुख या दुख, प्रेम या घृणा, युद्ध या शांति—जो भी घटित हो रहा है जगत में, वह प्रकृति के गुणों से घटित हो रहा है। ऐसा जो व्यक्ति जान लेता है, उसके जीवन में अनासक्ति फलित हो जाती है। उसके जीवन में फिर आसक्ति का जहर नहीं रह जाता है। फिर आसक्ति की बीमारी नहीं रह जाती है।
एक घटना मैंने सुनी है। मैंने सुना है, एक झेन फकीर हुआ, रिंझाई। वह एक गांव के रास्ते से गुजरता था। एक आदमी पीछे से आया, उसे लकड़ी से चोट की और भाग गया। लेकिन चोट करने में उसके हाथ से लकड़ी छूट गई और जमीन पर नीचे गिर गई। रिंझाई लकड़ी उठाकर पीछे दौड़ा कि मेरे भाई, अपनी लकड़ी तो लेते जाओ। पास एक दुकान के मालिक ने कहा, पागल हो गए
हो? वह आदमी तुम्हें लकड़ी मारकर गया और तुम उसकी लकड़ी लौटाने की चिंता कर रहे हो! रिंझाई ने कहा, एक दिन में एक वृक्ष के नीचे लेटा हुआ था। वृक्ष से एक शाखा मेरे ऊपर गिर पड़ी। तब मैंने वृक्ष को कुछ भी नहीं कहा। आज इस आदमी के हाथ से लकड़ी मेरे ऊपर गिर पड़ी है, मैं इस आदमी को क्यों कुछ कहूं! नहीं समझा वह दुकानदार। उसने कहा, पागल हो! वृक्ष से शाखा का गिरना और बात है। इस आदमी से लकड़ी तुम्हारे ऊपर गिरना वही बात नहीं है।
रिंझाई कहने लगा, एक बार मैं नाव खे रहा था। एक खाली नाव आकर मेरी नाव से टकरा गई। मैंने कुछ भी न कहा। और एक बार ऐसा हुआ कि मैं किसी और के साथ नाव में बैठा था। और एक नाव, जिसमें कोई आदमी सवार था और चलाता था, आकर टकरा गई। तो वह जो नाव चला रहा था मेरी, वह गालियां बकने लगा। मैंने उससे कहा, अगर नाव खाली होती, तब तुम गाली बकते या न बकते? तो उस आदमी ने कहा, खाली नाव को क्यों गाली बकता! रिंझाई ने कहा, गौर से देखो, नाव भी एक हिस्सा है इस विराट की लीला का। वह आदमी जो बैठा है, वह भी एक हिस्सा है। नाव को माफ कर देते हो, आदमी पर इतने कठोर क्यों हो? शायद वह दुकानदार फिर भी नहीं समझा होगा। हममें से कोई भी नहीं समझ पाता है।
एक आदमी क्रोध से भर जाता है और किसी को लकड़ी मार देता है। इस मारने में प्रकृति के गुण ही काम कर रहे हैं। एक आदमी शराब पीए होता है और आपको गाली दे देता है, तब आप बुरा नहीं मानते; अदालत भी माफ कर सकती है उसे, क्योंकि वह शराब पीए था। लेकिन अगर एक आदमी शराब पीए, तो हम माफ कर देते हैं, और एक आदमी के शरीर में क्रोध के समय ऐड्रीनल नामक ग्रंथि से विष छूट जाता है, तब हम उसे माफ नहीं करते।
जब एक आदमी क्रोध में होता है, तो होता क्या है? उसके खून में विष छूट जाता है। उसके भीतर की ग्रंथियों से रस—स्राव हो जाता है। वह आदमी उसी हालत में आ जाता है, जैसा शराबी आता है। फर्क इतना ही है, शराबी ऊपर से शराब लेता है, इस आदमी को भीतर से शराब आ जाती है। अब जिस आदमी के खून में जहर छूट गया है, अगर वह घूंसा बांधकर मारने को टूट पड़ता है, तो इसमें इस आदमी पर नाराज होने की बात क्या है! यह इस आदमी के भीतर जो घटित हो रहा है प्रकृति का गुण, उसका परिणाम है।
कृष्ण यह कह रहे हैं कि जो आदमी जीवन के इस रहस्य को समझ लेता है, वह आदमी अनासक्त हो जाता है।
बुद्ध एक गांव में ठहरे हैं—अंतिम दिन, जहां उनकी बाद में मृत्यु हुई—एक गरीब आदमी ने उन्हें भोजन पर बुलाया। बिहार के गरीब सब्जी तो नहीं जुटा पाते थे। अब भी नहीं जुटा पाते हैं। तो कुकुरमुत्ता बरसात में पैदा हो जाता है—वृक्षों पर, पत्थरों पर, जमीन में—छतरी, उसको ही काटकर रख लेते हैं। फिर उसे सुखा लेते हैं। फिर उसी की सब्जी बना लेते हैं। गरीब था आदमी। उसके घर में कोई सब्जी न थी। लेकिन बुद्ध को निमंत्रण कर आया, तो कुकुरमुत्ते की सब्जी बनाई। कुकुरमुत्ता कभी—कभी विषाक्त हो जाता है, पायजनस हो जाता है। कहीं भी उगता है; अक्सर गंदी जगहों में उगता है।
वह सूखा कुकुरमुत्ता विषाक्त था। बुद्ध ने चखा, तो वह कडुवा था। लेकिन वह गरीब पंखा झल रहा था, और उसकी आंखों से आनंद के आसू बह रहे थे। तो बुद्ध ने कुछ कहा न, वे खाते चले गए। वह कड़वा जहर था। लौटे तो बेहोश हो गए। चिकित्सकों ने कहा कि बचना मुश्किल है। खून में जहर फैल गया है। उस आदमी ने बेचारे ने कहा कि आपने कहा क्यों नहीं कि कडुवा है!
बुद्ध ने कहा, देखा मैंने तुम्हारे आंखों के आसुओ को, उनके आनंद को देखा मैंने कुकुरमुत्ते के कडवेपन को। देखा मैंने मेरे खून में फैलते हुए जहर को। देखा मैंने मेरी आती हुई मौत को। फिर मैंने कहा, मौत तो रोकी नहीं जा सकती, आज नहीं कल आ ही जाएगी। कुकुरमुत्ता कडुवा है, इसमें नाराजगी क्या! जहर मिल गया होगा। तुम इतने आनंदित हो कि जो मृत्यु आने ही वाली है, जो रोकी न जा सकेगी, आज—कल आ ही जाएगी, उस छोटी—सी घटना के लिए तुम्हारी खुशी को छीनने वाला क्यों मैं बनूं? कहूं कि कडुवा है, तो तुम्हारी खुशी कड्वी हो जाए। और सब चीजें अपने गुण से हो रही हैं जहर कडुवा है, भोजन कराने वाला आनंदित है, भोजन करने वाला भी आनंदित है। बुद्ध ने कहा, मैं पूरा आनंदित हूं। जहर मुझे नहीं मार पाएगा। जहर जिसे मार सकता है, उसे मार लेगा। जहर का जो गुण है, वह शरीर के जो गुण हैं, उन पर काम कर जाएगा। मैं देखने वाला हूं, मैं मरने वाला नहीं हूं।
लेकिन बुद्ध की मृत्यु हो गई। मृत्यु के पहले बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को बुलाकर कहा कि जाओ गांव में डुंडी पीट दो, सारे गांव में खबर कर दो कि जिस आदमी ने बुद्ध को अंतिम भोजन दिया, वह परम पुण्यशाली है। भिक्षुओं ने कहा, आप क्या कहते हैं! वह आदमी हत्यारा है। बुद्ध ने कहा, तुम्हें पता नहीं है; कभी—कभी हजारों—लाखों वर्षों में बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है। उसको जो मां पहली दफे भोजन देती है, वह भी धन्यभागी है। और जो आदमी उसे अंतिम भोजन देता है, वह भी कम धन्यभागी नहीं है। इस आदमी ने मुझे अंतिम भोजन दिया, यह बहुत धन्यभागी है।
और भिक्षु तो चले गए; आनंद रुका रहा। आनंद ने बुद्ध से कहा कि मेरा मन नहीं होता, आप यह क्या कह रहे हैं! बुद्ध ने कहा, आनंद तू समझता नहीं। जहर ने अपना काम किया, उस आदमी ने अपना काम किया। मैं बुद्ध हूं मुझे मेरे गुणधर्म के अनुसार काम करने दो, अन्यथा लोग क्या कहेंगे। और अगर मैं यह कहकर न जाऊं और मर जाऊं, तो मुझे खयाल है कि तुम मिलकर कहीं उसकी हत्या न कर दो! कहीं उसके घर में आग न लगा दो! अगर तुमने यह भी न किया, तो वह जन्मों—जन्मों के लिए नाहक अपमानित और निंदित तो हो ही जाएगा।
एक और छोटी बात कहूं। उमास्वाति ने उल्लेख किया है एक फकीर का, एक साधु का कि वह पानी में उतरा। एक बिच्छू पानी में डूब रहा है। उसने उसे हाथ में ले लिया। लेकिन बिच्छू जोर से डंक मारता है। हाथ कैप जाता है, बिच्छू गिर जाता है। वह फिर बिच्छू को उठाता है। किनारे खड़ा एक आदमी कहता है कि तुम पागल तो नहीं हो! वह बिच्छु जो तुम्हें काट रहा है और जहर से भरे दे रहा है, तुम उसे बचाने की कोशिश क्यों कर रहे हो?
वह फकीर कहता है कि बिच्छू अपना गुणधर्म निभा रहा है, मैं अपना गुणधर्म न निभाऊं, तो परमात्मा के सामने बिच्छू जीत जाएगा और मैं हार जाऊंगा। मैं साधु हूं बचाना मेरा गुणधर्म है। वह बिच्छू है, काटना उसका गुणधर्म है। वह अपना काम पूरा कर रहा है, तुम मुझे मेरा काम पूरा क्यों नहीं करने देते हो!
कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, जो व्यक्ति, जीवन गुणों के अनुसार वर्तित हो रहा है और कर्म भी महाप्रकृति की विराट लीला के हिस्से हैं, ऐसा जान लेता है, वह कर्म में अनासक्त हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को दुख नहीं व्यापता, ऐसे व्यक्ति को सुख नहीं व्यापता। ऐसे व्यक्ति को सफलता— असफलता समान हो जाती है। ऐसे व्यक्ति को यज्ञ— अपयज्ञ एक ही अर्थ रखते हैं। ऐसे व्यक्ति को जीवन—मृत्यु में भी कोई फर्क नहीं रह जाता है। और ऐसी चित्तदशा में ही परमात्मा का, सत्य का, आनंद का अवतरण है।
इसलिए वे कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, तू भाग मत। तू इस भांति बर्त, समझ कि जो हो रहा है, हो रहा है। तू उसके बीच में अपने को भारी मत बना, अपने को बीच में बोझिल मत बना। जो हो रहा है, उसे होने दे और तू उस होने के बाहर अनासक्त खड़ा हो जा। यदि तू अनासक्त खड़ा हो सकता है, तो फिर युद्ध ही शांति है। और अगर तू अनासक्त खड़ा नहीं हो सकता, तो शांति भी युद्ध बन जाती है।

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