Monday 3 August 2015

मैंने तुम्हें बुलाया और तुम आ भी गए हो, लेकिन बाहर से आ जाना बहुत आसान है। और जब तक भीतर से भी मेरे पास न आ जाओ, तब तक आने और न आने का बहुत अर्थ नहीं है। लेकिन जो बाहर चल कर आ सकता है—जिसकी प्यास है और आकांक्षा है—वह भीतर भी चल कर आ सकता है। बाहर चल कर आना सबूत है कि खोज है, लेकिन उतना सबूत काफी नहीं है। उससे इशारा तो होता है और शुभ इशारा होता है। जरूरी है, लेकिन पर्याप्त नहीं। भीतर भी चलना होगा। और भीतर की यात्रा शुरू हो सके, उसके पहले कुछ बातें तुम्हारे संबंध में समझ लेनी जरूरी हैं। क्योंकि तुम्हीं यात्रा करोगे, कोई और तुम्हारे लिए यात्रा नहीं कर सकता है।
न तो इस जगत में दूसरे की आंखों से देखा जा सकता है और न दूसरे के चरणों से चला जा सकता है। यहां तो मरना भी स्वयं ही पड़ता है स्वयं के लिए और जीना भी। यहां दूसरा आपकी जगह नहीं ले सकता। इसलिए सबसे पहले कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं तुम्हारे संबंध में। क्योंकि वहां अगर भ्रांति है, तो ठीक रास्ता भी गलत जगह पहुंचाएगा। अगर तुम्हें अपने संबंध में ही ठीक समझ नहीं है, तो तुम ठीक रास्ते को भी गलत मंजिल तक ले जाने वाला बना लोगे। और अगर तुम्हें समझ है अपने संबंध में, तो ऐसा कोई भी रास्ता नहीं है, जो तुम्हें ठीक जगह न पहुंचा दे। गलत रास्ते भी ठीक मंजिल पर पहुंच जाते हैं—ठीक आदमी चाहिए, चलने वाले पर सब कुछ निर्भर है। रास्ता नहीं पहुंचाता, चलने वाला ही पहुंचता है।
रास्ता बदल जाता है तुम्हारे साथ। तुम जैसे हो, वैसा ही रास्ता हो जाता है। इसलिए कोई बंधे— बंधाए रास्ते नहीं हैं, जिन पर तुम अंधे की तरह चल सको।
पहली बात, अपने संबंध में ठीक समझ लें। क्योंकि तुम्हारे से ही निकलेगा रास्ता और अंत में तुमसे ही पैदा होगी मंजिल।
तुम्हीं सब कुछ हो। बीज भी तुम्हीं हो, वृक्ष भी तुम्हीं बनोगे। और जब फूल खिलेंगे और सुगंध निकलेगी, तब उन फूलों में, उस सुगंध में भी तुम ही रहोगे। अपने संबंध में गलत समझ हो, तो सारा श्रम व्यर्थ हो जाता है।
पहली बात—पहली बात तो यह ठीक से समझ लो कि तुम्हें कुछ भी पता नहीं। काश, तुम्हें पता ही होता तो फिर मेरे पास आने की कोई भी जरूरत न थी। सूरज की एक किरण भी तुम्हें मिल जाए, तो सूरज तक पहुंचने का मार्ग खुल गया। क्योंकि उसी किरण को पकड़ कर तुम सूरज के मूल स्रोत तक पहुंच जाओगे। और सागर की एक बूंद भी तुम चख लो, तो तुमने सारा सागर चख लिया।
अगर तुम्हें थोड़ा भी पता हो जीवन का, तो फिर किसी से पूछने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह जो थोड़ा सा पता है, उसके सहारे चलो। तो जैसे कोई आदमी एक छोटा सा दीया ले कर अंधेरे में चले, तो दो ही कदम पर प्रकाश पड़ता है; लेकिन जब वह दो कदम चल लेता है, तो दो कदम और आगे प्रकाश पड़ता है। फिर वह और दो कदम चल लेता है, तो दो कदम और आगे प्रकाश पड़ता है। दो कदम प्रकाश पड़ता हो जिस दीए से, उससे भी हजारों मील की यात्रा तय की जा सकती है। कोई हजारों मील के रास्ते को प्रकाशित करने की जरूरत नहीं है। हाथ में दीया हो छोटा, तो भी बड़े से बड़े अंधकारपूर्ण रास्ते को पार किया जा सकता है। दो कदम ही काफी हैं।
अगर तुम्हें थोड़ा भी पता हो अपने संबंध में तो मेरे पास आने की कोई भी जरूरत नहीं है। किसी के भी पास जाने की कोई जरूरत नहीं।
तो पहली बात तो यह ठीक से समझ लेना कि तुम्हें अपने संबंध में कुछ भी पता नहीं है अभी। और तुम जो भी जानते हो, वे सब शब्द हैं। शब्दों में न तो कोई प्राण होते हैं, न कोई अर्थ होता है। शब्द से ज्यादा असत्य इस जगत में और कुछ भी नहीं है।
अनुभव— अनुभव में अर्थ है। मैं कितना ही कहूं जो मैं जानता हूं उसे मैं शब्दों में न डाल पाऊंगा। कभी भी कोई नहीं डाल पाया। और कभी कोई डाल भी नहीं पाएगा। क्योंकि जो मैं जानता हूं वह मेरा अनुभव है। और जब मैं उसे शब्द बनाता हूं तो तुम्हारे कानों में जो सुनाई पड़ता है, वह अनुभव नहीं है, वह कोरा शब्द है।
मैं कहता हूं—परमात्मा। तुम सुन लेते हो। और मैं कहता हूं— आत्मा। और वह भी सुन लिया जाता है। लेकिन न तो आत्मा से कुछ अर्थ प्रकट होता है और न परमात्मा से। शब्द सुनाई पड़ते हैं और बहुत बार सुन लेने पर ऐसा भ्रम भी पैदा हो जाता है कि हम समझ गए। शब्दों की समझदारी नासमझी का दूसरा नाम है।
तुम्हें कुछ भी पता नहीं, यह बात खयाल में ले लें। यह आधारभूत है। क्योंकि जो व्यक्ति यह समझ ले बिना कुछ जाने कि मैं जानता हूं उसके जानने का द्वार बंद हो जाता है। बीमार समझ ले कि स्वस्थ है, तो चिकित्सा की तलाश बंद हो जाती है। अज्ञानी को खयाल हो जाए ज्ञान का, तो अज्ञान जितना नहीं भटकाता था, उतना ज्ञान भटका देगा।
इस बात का खयाल आ जाए कि मुझे कुछ भी पता नहीं, तो यह शान की पहली किरण है। अब तुम ईमानदार हुए। अब तुमने कम से कम एक सच्ची बात स्वीकार की कि मुझे कुछ पता नहीं। तुमने अपने शास्त्र हटा कर रख दिए और तुमने अपने शब्दों को छोड़ दिया। और तुम ईमानदार हुए, प्रामाणिक हुए अपने प्रति कि न मुझे आत्मा का पता है, न मुझे मोक्ष का। मुझे पता ही नहीं कि जीवन क्या है?
यह अज्ञान की स्वीकृति—शान का पहला चरण है।
यहां अगर कोई ज्ञानी आ गया हो—वापस लौट जाए। मैं उन्हीं के साथ काम कर सकूंगा, जिन्हें इस बात का बोध है कि वे अज्ञानी हैं। तुम्हारा शान बाधा बन जाएगा। फिर शान हो ही गया हो तो व्यर्थ श्रम उठाने की जरूरत नहीं है। इसलिए इसे ठीक से समझ लेना, कि तुम अगर बीमार हो तो मैं दवा दूंगा। तुम अगर अज्ञानी हो तो मैं शान की तरफ ले चलने की कोशिश करूंगा। तुम अगर अंधेरे में हो तो मैं तुम्हें प्रकाश का रास्ता बताऊंगा। लेकिन अगर तुम प्रकाश में ही खड़े हो, तो मेरा श्रम और अपना श्रम व्यर्थ मत करना। जो आदमी सोया हो उसे जगाना बहुत आसान है। जो आदमी जाग कर पड़ा हो और सोचता हो कि सोया है—उसे जगाना बहुत मुश्किल है।
दूसरी बात, जीवन सबका एक ही बात को खोज रहा है—कैसे दुख मिटे? कैसे आनंद उपलब्ध हो? एक ही तलाश है और एक ही प्यास है। वह वृक्ष भी अगर उठ रहा है जमीन से आकाश की तरफ, तो इसी तलाश में है। अगर पक्षी उड़ रहे हैं और पशु चल रहे हैं और आदमी जी रहा है—तलाश वही है। एक पत्थर भी अगर अस्तित्व में है, तो उसकी भी भीतरी खोज आनंद की है। तो दूसरी बात खयाल
में ले लेना कि खोज क्या रहे हो?
बहुत लोग परमात्मा को खोजने निकल पड़ते हैं, लेकिन परमात्मा की खोज मुश्किल है। मुश्किल इसलिए है कि परमात्मा के संबंध में कोई भी तो भीतर गहरी प्यास नहीं है। अपनी प्यास को पकड़ कर चले—स्व दिन शायद वही प्यास परमात्मा की प्यास बन जाए। लेकिन अभी नहीं है। अभी तो आप ठीक से समझ लें कि आपकी तलाश आनंद की तलाश है। शायद यह खोज आगे बड़े, और यह छोटी सी गंगोत्री से निकली गंगा आनंद की तलाश में चले। और धीरे— धीरे जैसे—जैसे खोज गहरी हो, वैसे— वैसे पता चले कि आनंद तो परमात्मा का ही एक नाम है। और शायद पता चले कि आनंद तो परमात्मा का ही एक गुण है। और शायद पता चले कि हमारी खोज सिर्फ आनंद की नहीं है, कुछ और ज्यादा की है। लेकिन प्रारंभिक खोज आनंद की है, परमात्मा की नहीं है।
कुछ लोग पहले से ही परमात्मा की बात में पड़ जाते हैं, तो कठिनाई हो जाती है। बीज बिना हुए वृक्ष होने की कोशिश शुरू हो जाती है। फिर अड़चन होती है। फिर दौड़— धूप बहुत होती है, परिणाम कुछ भी नहीं आता। और जब परिणाम नहीं आता, तो निराशा पकड़ती है, विषाद घेर लेता है।
तो एक बात— आनंद की तलाश के लिए यहां आए हैं। छोड़े परमात्मा को, जल्दी नहीं है। आप आनंद की खोज पर यात्रा शुरू करें और अंत परमात्मा की उपलब्धि पर होगा। लेकिन शुरुआत परमात्मा से मत करें। पहली सीढ़ी से ही चढ़ना उचित है, और क ख ग से ही शुरुआत करनी ठीक है। आनंद सबकी समझ में आता हैं—फिर वह नास्तिक हो तो भी, फिर वह हिंदू हो, या मुसलमान हो, या ईसाई हो, या जैन हो तो भी। ईश्वर को मानता हो, न मानता हो; धर्म में आस्था रखता हो या न रखता हो—कोई भी हो, आनंद की खोज सार्वभौम है। उससे ही शुरू करें, जो सबकी खोज है।

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