Friday 31 July 2015

जिस दिन कोई व्यक्ति निर्विचार हो जाता है उस दिन चेतना पर उसका ध्यान जाता है। तब तक ध्यान नहीं जाता। और एक बार चेतना पर ध्यान चला जाए तो फिर चेतना का विस्मरण नहीं होता है। चाहे आप विचार में लगे रहें, दुकान पर लगे रहें, बाजार में काम करते रहें, कुछ भी करते रहें, भीतर चेतना है, इसकी स्पष्ट प्रतीति बनी रहती है। बीमार हो जाएं रुग्ण हो जाएं दुखी हो जाएं हाथ पैर कट जाएं फिर भी भीतर चेतना है, इसकी स्पष्ट स्मृति बनी रहती है। और जब चाहें तब गेस्टाल्ट बदल सकते हैं। एक्सिडेंट हो रहा है और शरीर टूटकर गिर पड़ा, पैर अलग हो गए है। जरूरी नहीं है कि आप पैर को ही देखकर दुखी हों। आप गेस्टाल्ट बदल सकते है। आप चेतना को देखने लगे, शरीर गया। शरीर का कोई दुख नहीं होगा। आप शरीर नहीं रहे।
जब महावीर के कान में खीलियां ठोंकी जा रही है तो आप यह मत समझना कि महावीर आप ही जैसे शरीर है। आप ही जैसे शरीर होंगे तो खीलियों का दर्द होगा। महावीर का गेस्टाल्ट बदल जाता है। अब महावीर शरीर को नहीं देख रहे है, वे चेतना को देख रहे है। तो शरीर में खीलियां ठोंकी जा रही है तो वे ऐसी ही मालूम पड़ती हैं, जैसे किसी और के शरीर में खीलियां ठोंकी जा रही है। जैसे
कहीं और दूर डिस्टेंस पर खीलियां ठोंकी जा रही हैं। महावीर दूर हो गए। महावीर मर रहे हैं तो आप ही जैसे नहीं मर रहे हैं। गेस्टाल्ट और है। महावीर चेतना को देख रहे हैं, जो नहीं मरती।
जब जीसस को सूली पर लटकाया जा रहा है तो गेस्टाल्ट और है। जीसस उस शरीर को नहीं देख रहे हैं, जो सूली पर लटकाया जा रहा है। जब मंसूर को काटा जा रहा है तो गेस्टाल्ट और है। मैसूर उस शरीर को नहीं देख रहा है, जो काटा जा रहा है, इसलिए मैसूर हंस रहा है। और कोई पूछता है—मंसूर, तुम काटे जा रहे हो और हंस रहे हो? तो मंसूर ने कहा कि मैं इसलिए हंसता हूं कि जिसे तुम काट रहे हो वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं तुम उसे छू भी नहीं पा रहे हो तो मुझे बड़ी हंसी आ रही है। तुम्हारी तलवारें मेरे आसपास से गुजर जा रही हैं लेकिन मुझे स्पर्श नहीं कर पाती हैं। यह गेस्टाल्ट का परिवर्तन है, ध्यान का परिवर्तन है, ध्यान का फोकस बदल गया है, वह कुछ और देख रहा है।
तो रात्रि विचार के लिए तीन प्रक्रियाएं—सुबह पहले विचार की प्रतीक्षा की एक प्रक्रिया और शेष सारे दिन साक्षी का भाव, विटनेस है। जो भी हो रहा है उसका मैं साक्षी हूं कर्त्ता नहीं। भोजन कर रहे हैं तो दो चीजें रह जाती हैं। दो भी नहीं रह जातीं, साधारण आदमी को एक ही चीज रह जाती है— भोजन रह जाता है। अगर थोड़ा बुद्धिमान आदमी है तो दो चीजें होती हैं— भोजन होता है, भोजन करनेवाला होता है।
बुद्धिमान से मेरा मतलब है? जो थोड़ा सोच—समझकर जीता है। जो बिलकुल ही गैर—सोच—समझकर जीता है, भोजन ही रह जाता है, इसलिए वह ज्यादा भोजन कर जाता है, क्योंकि भोजन करनेवाला तो मौजूद नहीं था। कल उसने तय किया था कि इतना ज्यादा भोजन नहीं करना है। पच्चीस दफे तय कर चुका है कि इतना ज्यादा भोजन नहीं करना है। इससे यह बीमारी पकड़ती है, यह रोग आ जाता है। रोग से दुखी होता है—यह भोजन इतना नहीं करना। तय कर लिया। कल जब फिर भोजन करने बैठता है तो ज्यादा भोजन करता है और वही चीजें खा लेता है जो नहीं खानी थीं। क्यों? भोजन करनेवाला मौजूद ही नहीं रहता। सिर्फ भोजन रह जाता है। भोजन ने तो तय नहीं किया था, इसलिए भोजन को जितना करवाना है, करवा देता है।
जिसको हम थोड़ा बुद्धिमान आदमी कहें, वह दोनों का होश रखता है— भोजन का भी, भोजन करनेवाले का भी। लेकिन महावीर जिसे साक्षी कहते है, वह तीसरा होश है। वह होश इस बात का है कि न तो मैं भोजन हूं और न मैं भोजन करनेवाला हूं। भोजन भोजन है, भोजन करनेवाला शरीर है, मैं दोनों से अलग हूं। एक ट्राएंगल का निर्माण है, एक त्रिकोण का, एक त्रिभुज का। तीसरे कोण पर मैं हूं। इस तीसरे कोण पर, इस तीसरे बिंदु पर चौबीस घण्टे रहने की कोशिश साक्षीभाव है। कुछ भी हो रहा है, तीन हिस्से सदा मौजूद है और मैं तीसरा हूं मैं दो नहीं हूं। ज्यादा भोजन कर लेनेवाला एक ही कोण देखता है। अगर कहीं प्राकृतिक चिकित्सा के संबंध में थोड़ी जानकारी बढ़ गयी तो दूसरा कोण भी देखने लगता है कि मैं करनेवाला, ज्यादा न कर लूं। पहले भोजन से एकात्म हो जाता था, अब करने वाले शरीर से एकात्म हो जाता है। लेकिन साक्षी नहीं होता। साक्षी तो तब होता है, जब दोनों के पार तीसरा हो जाता है। और जब वह देखता है कि यह रहा भोजन, यह रहा शरीर, यह रहा मै—और मैं सदा अलग हूं।
इसलिए महावीर ने कहा है—पृथकत्व। साक्षी भाव का उन्होंने प्रयोग नहीं किया। उन्होंने पृथकत्व शब्द का प्रयोग किया है—अलगपन। इसको महावीर ने कहा है भेद विज्ञान, द साइंस आफ डिवीजन। महावीर का अपना शब्द है, भेद विज्ञान। द साइंस टु डिवाइड़। चीजों को अपने—अपने हिस्सों में तोड़ देना है। भोजन वहां है, शरीर यहां है, मैं दोनों के पार हूं—इतना भेद स्पष्ट हो जाए तो साक्षी जन्मता है।
तो तीन बातें स्मरण रखें — रात नींद के समय स्मरण, प्रतिक्रमण, पुनर्जीवन। सुबह पहले विचार की प्रतीक्षा, ताकि अंतराल दिखाई पड़े और अंतराल में गेस्टाल्ट बदल जाए। धूलकण न दिखाई पड़े, प्रकाश की धारा स्मरण में आ जाए। और पूरे समय, चौबीस घण्टे, उठते—बैठते—सोते तीसरे बिन्दु पर ध्यान—तीसरे पर खड़े रहना। ये तीन बातें अगर पूरी हो जाएं तो महावीर जिसे सामायिक कहते हैं, वह फलित होती है। तो हम आत्मा में स्थिर होते हैं।
यह जो आत्मस्थिरता है, यह कोई जड़, स्टैगनेंट बात नहीं। शब्द हमारे पास नहीं हैं। शब्द हमारे पास दो हैं—चलना, ठहर जाना; गति, आति; डायनेमिक, स्टैगनेंट। तीसरा शब्द हमारे पास नहीं है। लेकिन महावीर जैसे लोग सदा ही जो बोलते है वह तीसरे की बात है, द थर्ड। और हमारी भाषा दो तरह के शब्द जानती है, तीसरे तरह के शब्द नहीं जानती। तो इसलिए महावीर जैसे लोगों के अनुभव को प्रगट करने के लिए दोनों शब्दों का एक साथ उपयोग करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। तब पैराडाक्सिकल हो जाता है। अगर हम ऐसा कह सकें, और कोई अर्थ साफ होता हो—ऐसी आति जो पूर्ण गति है; ऐसा ठहराव जहां कोई ठहराव नहीं है; मूवमेंट, विदाउट मूवमेंट; तो शायद हम खबर दे पाएं। क्योंकि हमारे पास दो शब्द हैं, और महावीर जैसे व्यक्ति तीसरे बिंदु से जीते हैं। तीसरे बिंदु की अब तक कोई भाषा पैदा नहीं हो सकी। शायद कभी हो भी नहीं सकेगी।
नहीं हो सकेगी, इसलिए कि भाषा के लिये द्वंद्व जरूरी है। आपको कभी खयाल नहीं आता कि भाषा कैसा खेल है। अगर आप डिक्वानरी में देखने जाएं तो वहा लिखा हुआ है—पदार्थ क्या है? जो मन नहीं है। और जब आप मन को देखने जाएं तो वहां लिखा है—मन क्या है? जो पदार्थ नहीं है। कैसा पागलपन है! न पदार्थ का कोई पता है, न मन का कोई पता है। लेकिन व्याख्या बन जाती है, दूसरे के इनकार करने से व्याख्या बना लेते है! अब यह कोई बात हुई कि पुरुष कौन है? जो सी नहीं! सी कौन है? जो पुरुष नहीं! यह कोई बात हुई? यह कोई डेफिनीशन हुई? यह कोई परिभाषा हुई? अंधेरा वह है जो प्रकाश नहीं, प्रकाश वह है जो अंधेरा नहीं! समझ में आता है कि बिलकुल ठीक है, लेकिन बिलकुल बेमानी है। इसका कोई मतलब ही न हुआ। अगर मैं पूछूं, दायां क्या है? आप कहते है, बायां नहीं है। मैं पूछूं बायां क्या है? तो उसी दाएं से व्याख्या करते हैं जिसकी व्याख्या बाएं से की थी! यह व्हिसियस है, सर्कुलर
लेकिन आदमी का काम चल जाता है। सारी भाषा ऐसी है। डिक्शनरी से ज्यादा व्यर्थ की चीज जमीन पर खोजनी बहुत मुश्किल है—शब्दकोश से ज्यादा व्यर्थ की चीज। क्योंकि शब्दकोश वाला कर क्या रहा है? वह पांचवें पेज पर कहता है कि दसवां पेज देखो, और दसवें पेज पर कहता है कि पांचवां देखो। अगर मैं आपके गांव में आऊं और आपसे पूछूं कि रहमान कहां रहते हैं? आप कहें कि राम के पड़ोस में? मैं अं राम कहां रहते है? आप कहें, रहमान के पड़ोस में। इससे क्या अर्थ होता है? हमें अशात की परिभाषा उससे करनी चाहिए जो ज्ञात हो। तब तो कोई मतलब होता है। हम एक अतात की परिभाषा दूसरे अज्ञात से करते है। वन अननोन इज डिफाइड़ बाई एन अदर अननोन। हमें कुछ भी पता नहीं है, एक अज्ञात को हम दूसरे अज्ञात से व्याख्या कर देते हैं। और इस तरह ज्ञात का भ्रम पैदा कर लेते हैं।
नालेज, ज्ञान का जो हमारा श्रम है वह इसी तरह खड़ा हुआ है। मगर इससे काम चल जाता है। इससे काम चल जाता है। काम चलाऊ है यह ज्ञान। पर इससे कोई सत्य का अनुभव नहीं होता। महावीर जैसे व्यक्ति की तकलीफ यह है कि वह तीसरे बिंदु पर खड़ा होता है जहां चीजें तोडी नहीं जा सकतीं। जहां द्वंद्व नहीं रह जाता, जहां दो नहीं रह जाते। जहां अनुभूति एक बनती है और उस अनुभूति को वह किससे व्याख्या करे, क्योंकि हमारी सारी भाषा यह कहती है कि यह नहीं। तो किससे व्याख्या करे? वह ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकता है निषेधात्मक, लेकिन वह निषेधात्मक भी ठीक नहीं है। वह कह सकता है, वहां दुख नहीं, अशांति नहीं। लेकिन जब हम मतलब समझते है, तो हमारा क्या मतलब होता है?
अशांति और शांति हमारे लिए द्वंद्व है, महावीर के लिए द्वंद्व से मुइक्त है। हमारे लिए शांति का वही मतलब है जहां अशांति नहीं है। महावीर के लिए शांति का वही मतलब है जहां शांति भी नहीं, अशांति भी नहीं। क्योंकि जब तक शांति है तब तक थोड़ी बहुत अशांति मौजूद रहती है। नहीं तो शांति का पता नहीं चलता। अगर आप परिपूर्ण स्वस्थ हो जाएं तो आपको स्वास्थ्य का पता नहीं चलेगा। थोड़ी बहुत बीमारी चाहिए स्वास्थ्य के पता होने को। या आप पूरे बीमार हो जाएं तो भी बीमारी का पता नहीं चलेगा। क्योंकि बीमारी के लिए भी स्वास्थ्य का होना जरूरी है, नहीं तो पता नहीं चलता।
तो बीमार से बीमार आदमी में भी स्वास्थ्य होता है, इसलिए पता चलता है। और स्वस्थ से स्वस्थ आदमी में भी बीमारी होती है इसलिए स्वास्थ्य का पता चलता है। लेकिन हमारे पास कोई उपाय नहीं है। हम बाहर से ही खोजते रहते है। और बाहर सब द्वंद्व है। लक्षण बाहर से हम पकड़ लेते हैं और भीतर कोई लक्षण नहीं पकड़े जा सकते क्योंकि कोई द्वंद्व नहीं है। तो महावीर ने वह जो तीसरे बिन्दु पर खड़ा हो जाएगा व्यक्ति ध्यान में, उसे क्या होगा, इसे समझाने की कोशिश बारहवें तप में की है। वह कोशिश बिलकुल बाहर से है, बाहर से ही हो सकती है। फिर भी बहुत आंतरिक घटना है, इसलिए उसे अंतर—तप कहा और अंतिम तप रखा है।
ध्यान के बाद महावीर का तप कायोत्सर्ग है। उसका अर्थ है—जहां काया का उत्सर्ग हो जाता है, जहां शरीर नहीं बचता, गेस्टाल्ट बदल जाता है पूरा। कायोत्सर्ग का मतलब काया को सताना नहीं है। कायोत्सर्ग का मतलब है, ऐसा नहीं है कि हाथ—पैर काट—काट कर चढ़ाते जाना है— कायोत्सर्ग का मतलब है, ध्यान को परिपूर्ण शिखर पर पहुंचना है तो गेस्टाल्ट बदल जाता है। काया का उत्सर्ग हो जाता है। काया रह नहीं जाती, उसका कहीं कोई पता नहीं रह जाता। निर्वाण या मोक्ष, संसार का खो जाना है, जस्ट डिसएपियरेन्स। आत्म—अनुभव, काया का खो जाना है। आप कहेंगे महावीर तो चालीस वर्ष जिए, वह ध्यान के अनुभव के बाद भी काया थी। वह आपको दिखाई पड़ रही है। वह आपको दिखाई पड़ रही है, महावीर की अब कोई काया नहीं है, अब कोई शरीर नहीं है। महावीर का काया—उत्सर्ग हो गया। लेकिन हमें तो दिखाई पड़ रही है। इसलिए बुद्ध के जीवन में बड़ी अदभुत घटना है। जब बुद्ध मरने लगे तो शिष्यों को बहुत दुख, पीड़ा…! सारे रोते इकट्ठे हो गए, लाखों लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा—अब हमारा क्या होगा? लेकिन बुद्ध ने कहा—पागलों, मैं तो चालीस साल पहले मर चुका। वे कहने लगे कि माना कि यह शरीर है, लेकिन इस शरीर से भी हमें प्रेम हो गया। लेकिन बुद्ध ने कहा कि यह शरीर तो चालीस साल पहले विसर्जित हो चुका है।
जापान में एक फकीर हुआ है लिंची। एक दिन अपने उपदेश में उसने कहा कि यह बुद्ध से झूठा आदमी जमीन पर कभी नहीं हुआ। क्योंकि जब तक यह बुद्ध नहीं था, तब तक था, और जिस दिन से बुद्ध हुआ, उस दिन से है ही नहीं। तो लिंची ने कहा—बुद्ध है, बुद्ध हुए हैं ये सब भाषा की भूलें हैं। बुद्ध कभी नहीं हुए थे। निश्‍चित ही लोग घबरा गए, क्योंकि यह फकीर तो बुद्ध का ही था। पीछे बुद्ध की प्रतिमा रखी थी। अभी—अभी इसने उस पर दीप चढ़ाया था। एक आदमी ने खड़े होकर पूछा कि ऐसे शब्द तुम बोल रहे हो? तुम कह रहे हो, बुद्ध कभी हुए नहीं? ऐसी अधार्मिक बात! तो लिंची ने कहा कि जिस दिन से मेरे भीतर काया खो गयी, उस दिन मुझे पता चला। तुम्हारे लिए मैं अभी भी हूं लेकिन जिस दिन से सच में न हुआ, उस दिन से मैं बिलकुल नहीं हो गया हूं।
यह नहीं हो जाने का अन्तिम चरण है। वह एक्सप्लोजन है। उसके बाद फिर कुछ भी नहीं है, या सब कुछ है। या शून्य है, या पूर्ण है।

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