Thursday 16 July 2015

लेकिन, आदमी जब अपने की ही हत्या पर उतरने की स्थिति आ जाती है, और जब ध्यान में ऐसी घड़ी आती है कि शरीर छूट तो नहीं जायेगा! सांस बंद तो नहीं हो जायेगी! तब आपकी बुद्धि कोई भी उपयोग की नहीं, क्योंकि आपका कोई अनुभव काम नहीं पड़ेगा। वहां गुरु कहता है कि ठीक है, हो जाने दो बंद सांस। उस वक्त क्या करिएगा? अगर आज्ञा मानने की आदत न बन गयी हो। अगर गुरु के साथ असंगत में भी उतरने की तैयारी न हो गयी हो, तो आप वापस लौट आयेंगे, आप भाग जायेंगे। उस वक्त तो मृत्यु को एक किनारे रख कर वह गुरु जो कहता है, वह ठीक है।
और बड़े मजे की बात है, आप मरेंगे नहीं, बल्कि इस ध्यान में जो मृत्यु घटेगी, इससे ही आप पहली दफा जीवन का स्वाद, जीवन का अनुभव कर पायेंगे। लेकिन उसके लिए आपकी बुद्धि तो कोई भी सहारा नहीं दे सकती। बुद्धि तो वही सहारा दे सकती है जो जानती हो। यह आपने कभी जाना नहीं है। यह तो मामला ठीक ऐसा ही है कि बेटा हाथ बाप का पकड़ लेता है और फिर फिक्र छोड़ देता है कि ठीक, बाप साथ है, उसकी चिंता नहीं है कुछ। अब जंगल में शेर भी चारों तरफ भटक रहे हों तो बेटा गुनगुनाता हुआ, गीत गाता, बाप का हाथ पकड़ कर चलता है। बाप के हाथ में हाथ है, बात खत्म हो गयी। अगर बाप उससे कह दे कि यह सामने जो शेर आ रहा है, इससे गले मिल लो, तो बेटा मिल लेगा।
आशा का अर्थ है—असंगत घटनाएं घटेंगी साधना में, जिनके लिए बुद्धि कोई तर्क नहीं खोज पाती। तब कठिनाइयां शुरू होती है, तब संदेह पकड़ना शुरू होता है। तब लगता है कि भाग जाओ इस आदमी से, बच जाओ इस आदमी से। तब बुद्धि बहुत—बहुत उपाय करेगी कि यह आदमी बहुत गलत है, इसकी बात मत मानना। तब बुद्धि ऐसी पच्चीस बातें खोज लेगी, जिनसे यह सिद्ध हो जाये कि यह आदमी गलत है, इसलिए इसकी यह बात मानना भी उचित नहीं है। छोड़ दो।
इसलिए महावीर कहते हैं, ‘जो मनुष्य गुरु की आज्ञा पालन करता हो, उसके पास रहता हो’।
पास रहना बड़ी कीमती बात थी। पास रहना एक आंतरिक घटना है। शारीरिक रूप से पास रहना, रहने का उपयोग है लेकिन आत्मिक रूप से, मानसिक रूप से पास रहने का बहुत उपयोग है। यह जो जीवन की आत्यंतिक कला है, इसे सीखना हो तो गुरु के इतने पास होना चाहिए, जितने हम अपने भी पास नहीं। जैसे कोई आपकी छाती में झा भोंक दे तो गुरु का स्मरण पहले आये, बाद में अपना, कि मैं मर रहा हूं। यह अर्थ हुआ पास रहने का।
पास रहने का मतलब है, एक आंतरिक निकटता सामीप्य। हम अपने से भी ज्यादा पास है, अपने से भी ज्यादा भरोसा, अपने से भी ज्यादा स्मरण। यह जो घटना है पास होने की, निकट होने की, यह शारीरिक तल पर भी बड़ी मूल्यवान है। इसलिए गुरु के पास शारीरिक रूप से रहने का भी बड़ा अर्थ है। अधिकतम गुरु, अगर हम उपनिषद के गुरुओं में लौट जायें, या महावीर—महावीर के साथ दस हजार साधु—साध्वियों का समूह चलता था। महावीर के पास होना ही मूल्य था उसका।
क्या अर्थ है इस पास होने का?
इस पास होने का एक ही अर्थ है कि मेरे मैं की जो आवाज है, वह धीरे—धीरे कम हो जाये। हम जब भी बोलते हैं तो मैं हमारा केंद्र होता है। गुरु के पास रहने का अर्थ है, मैं केंद्र न रह जाये, गुरु केन्द्र हो जाये। महावीर के पास दस हजार साधु—साध्वी हैं। उनका अपना होना कोई भी नहीं है। महावीर का होना ही सब कुछ है।
बुद्ध एक गांव के बाहर ठहरे है। हजारों भिक्षु—भिक्षुणियां उनके पास है। गांव का सम्राट मिलने आया है। पास आकर उसे शक होने लगा। आम्र—कुंज है, उसके बाहर आकर उसने अपनी वजीरों को कहां कि मुझे शक होता है, इसमें कुछ धोखा तो नहीं है? क्योंकि तुम कहते थे कि हजारों लोग वहां ठहरे है, लेकिन आवाज जरा भी नहीं हो रही है। जहां हजारों लोग ठहरे हो और तुम कहते हो, बस यह जो आम की कतार है, इसके पीछे के ही वन में वे लोग ठहरे है। जरा भी आवाज नहीं है, मुझे शक होता है। उसने अपनी तलवार बाहर खींच ली:। उसने कहां, इसमें कोई षड़यंत्र तो नहीं? उसके वजीरों ने कहां, आप निश्‍चित रहें, वहां सिर्फ एक ही आदमी बोलता है, बाकी सब चुप है। वह बुद्धके सिवाय वहां कोई बोलता ही नहीं। और जंगल में शांति है, क्योंकि बुद्ध नहीं बोल रहे होंगे, और तो वहां कोई बोलता ही नहीं।
मगर वह जो सम्राट था, उसका नाम था, अजातशत्रु। नाम भी हम बड़े मजेदार देते हैं, जिसका कोई शत्रु पैदा न हुआ हो। हालांकि शांति में भी उसे शत्रु दिखायी पड़ता है, सन्नाटे मैं भी। लेकिन वह तलवार निकाले ही गया। जब उसने देख लिया हजारों भिक्षु बैठे है चुपचाप, बुद्ध एक वृक्ष की छाया में बैठे है, तब उसने तलवार भीतर की। तब उसने बुद्ध से पहला प्रश्‍न यही पूछा,इतनी चुप्पी, इतना मौन क्यों है? इतने लोग हैं, कोई बात—चीत नहीं, कोई चर्चा नहीं, दिन—रात ऐसे बीत जाते है?
बुद्ध ने कहां, ये लोग मेरे पास होने के लिए यहां है। अगर ये बोलते रहें तो ये अपने ही पास होंगे। ये अपने को मिटाने को यहां आये है। ये यहां है ही नहीं। बस इस जंगल में जैसे मैं ही हूं और ये सब मिटे हुए शून्य हैं। ये अपने को मिटा रहे हैं। जिस दिन ये पूरे बिखरे जायेंगे उस दिन ही ये मुझे पूरा समझ पायेंगे। और जो मैं इनसे कहना चाहता हूं वह इनके मौन में ही कहां जा सकता है। और अगर मैं शब्द का भी उपयोग करता हूं तो वह यही समझाने के लिए कि वे कैसे मौन हो जाये। शब्द का उपयोग करता हूं मौन में ले जाने के लिए, फिर मौन का उपयोग करूंगा सत्य में ले जाने के लिये। शब्द से कोई सत्य में ले जाने का उपाय नहीं है। शब्द से, मौन में ले जाया जा सकता है।
बस शब्द की इतनी ही सार्थकता है कि आपकी समझ में आ जाये कि चुप हो जाना है। फिर सत्य में ले जाया जा सकता है। सामीप्य का यह अर्थ है।

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