Monday 20 July 2015

बुद्ध ने कहां, ये लोग मेरे पास होने के लिए यहां है। अगर ये बोलते रहें तो ये अपने ही पास होंगे। ये अपने को मिटाने को यहां आये है। ये यहां है ही नहीं। बस इस जंगल में जैसे मैं ही हूं और ये सब मिटे हुए शून्य हैं। ये अपने को मिटा रहे हैं। जिस दिन ये पूरे बिखरे जायेंगे उस दिन ही ये मुझे पूरा समझ पायेंगे। और जो मैं इनसे कहना चाहता हूं वह इनके मौन में ही कहां जा सकता है। और अगर मैं शब्द का भी उपयोग करता हूं तो वह यही समझाने के लिए कि वे कैसे मौन हो जाये। शब्द का उपयोग करता हूं मौन में ले जाने के लिए, फिर मौन का उपयोग करूंगा सत्य में ले जाने के लिये। शब्द से कोई सत्य में ले जाने का उपाय नहीं है। शब्द से, मौन में ले जाया जा सकता है।
बस शब्द की इतनी ही सार्थकता है कि आपकी समझ में आ जाये कि चुप हो जाना है। फिर सत्य में ले जाया जा सकता है। सामीप्य का यह अर्थ है।
सारिपुत्त बुद्ध का खास शिष्य था। जब वह स्वयं बुद्ध हो गया तो बुद्ध ने उससे कहां, कि अब सारिपुत्त तू जा और मेरे संदेश को लोगों तक पहुंचा। सारिपुत्त उठा, नमस्कार करके चलने लगा।
आनंद बुद्ध का दूसरा प्रमुख शिष्य था। उसे अब तक ज्ञान नहीं हुआ था। उसने बुद्ध से कहां, इस भांति मुझे कभी दूर मत भेज देना। मेरी प्रार्थना, इतना खयाल रखना, कभी मुझे ऐसी आज्ञा मत देना कि दूर चला जाऊं। मैं तो समीप ही रहना चाहता हूं।
बुद्ध ने कहां, तू समीप नहीं है, इसलिए समीप रहना चाहता है। सारिपुत्त उठा और चल पड़ा। वह कहीं भी रहे, वह मेरे ही समीप रहेगा। बीच का फासला अब कोई फासला नहीं है।
सारिपुत्त चल पड़ा। वह गांव—गांव जगह—जगह संदेश देता रहा। लेकिन रोज सुबह जैसे उठ कर वह बुद्ध के चरणों में सिर रखता था। जिस दिशा में बुद्ध होते, रोज सुबह उठकर उनके चरणों में सिर रखता। उसके शिष्य उससे पूछते, सारिपुत्त अब तो तुम भी स्वयं बुद्ध हो गये, अब तुम किस के चरणों में सिर रखते हो? अब क्या है जरूरत? सारिपुत्त कहता, जिनके कारण मैं मिट सका जिनके कारण मै समाप्त हुआ, जिनके कारण मैं शुन्य हुआ। फिर उसके शिष्य कहते, लेकिन बुद्ध तो बहुत दूर है, सैंक्ड़ोमील दूर है, यहां से तुम्हारे चरणों में किये गये प्रणाम कैसे पहुंचेंगे? तो सारिपुत्त कहता, अगर वे दूर होते तो मैं उन्हें छोड़कर ही न आता। छोड़कर आ सका इसी भरोसे कि अब कहीं भी रहूं वे मेरे पास है।
एक संबंध है बाहर का जो शरीर से होता है। शरीर कितने ही निकट आ जाये तो भी दूरी बनी रहती है। शरीर के साथ कोई निकटता हो ही नहीं पाती। कितने ही निकट ले जाओ, आलिंगन कर लो किसी का, फिर भी बीच में फासला बना ही रहता है। दो शरीर कभी भी एक शरीर नहीं, नहीं हो सकते। शरीर का होना ही पार्थक्य है। फिर एक और आंतरिक सामीप्य है। सारिपुत्त उसी की बात कर रहा है। वह कह रहा है, अब फासले टूट गये, अब कोई स्पेस, कोई जगह बीच में नहीं है। अब मैं नहीं हूं बुद्ध ही है, या कहूं कि मैं हूं बुद्ध नहीं है, एक ही बात है।
इससे भी ज्यादा मजेदार घटना तो तब घटी, कहते है, महाकाश्यप अपने ही पैर छू लेता था। लोगों का बहुत अजीब लगता होगा। महाकाश्यप बुद्ध का दूसरा शिष्य था और शायद उनके सारे शिष्यों में अदभुत था। महाकाश्यप अपने ही पैर छू लेता था और लोगों ने उससे कहां, यह तुम क्या करते हो? वह कहता है कि बुद्ध के चरण छू रहा हूं। लोग कहते है, ये पैर तुम्हारे हैं। महाकाश्यप कहता कि अब उनसे इतनी निकटता हो गयी कि वह भीतर ही है, पैर उनके ही हैं। महाकाश्यप कहता, मैं किसी के भी पैर छुंऊ, बुद्ध के ही पैर है। इतनी समीपता भी बन सकती है। इस सामीप्य में ही संवाद है। इसलिये महावीर कहते हैं, उनके पास रहता हो, उनके निकट होता हो।
इस निकटता में भौतिक निकटता ही अंतर्निहित नहीं है, आंतरिक सामीप्य भी है, वही है वस्तुत: अंत में।
‘गुरु के इंगितों को ठीक—ठीक समझता हो।’ हम तो गुरु के शब्द को भी ठीक से नहीं समझ पाते, इंगित तो बड़ी और बात है। इंगित का अर्थ है, इशारा, जो कहां नहीं गया है, फिर भी दिया गया है। शायद इतना बारीक है कि कहने में टूट जायेगा, इसलिए कहां नहीं गया है। सिर्फ दिया गया है। शायद इतना सूक्ष्म है कि शब्द उसके सौंदर्य को नष्ट कर देंगे। स्कूल बना देंगे। इसलिए सिर्फ इशारा दिया गया है।
जो गुरु है, वह धीरे—धीरे शब्दों का सहारा छोड़ता जाता है। जैसे—जैसे शिष्य विनीत होता है, जैसे—जैसे शिष्य झुकता है, वैसे—वैसे गुरु शब्दों का सहारा छोड़ता जाता है। इंगित महत्वपूर्ण हो जाते हैं, इशारे महत्वपूर्ण हो जाते हैं। शब्द भी सहारे है, लेकिन बहुत स्कूल, बहुत ऊपरी।
बुद्ध कैसे चलते हैं, महावीर कैसे बैठते हैं, महावीर कैसे उठते है, महावीर कैसे सोते है इन सब में उनके इंगित हैं। बुद्ध कैसे हाथ उठाते हैं, कैसे आंख उठाते हैं, कैसे आंखें उनकी झपती है, उस सबमें उनके इंगित हैं। धीरे— धीरे जो उनके पास है, उनके शरीर की भाषा को समझने लगता है। हमारी भी शरीर की भाषा तो होती है, हमें भी पता नहीं होता। हमारे शरीर की भी भाषा होती है, और अब तो पश्‍चिम में एक साइंस ही किनेटिक्स निर्मित हो रही है, जो शरीर की भाषा पर निर्भर है, बाडी लैंग्वेज।
और हम सब शरीर से भी बोलते रहते हैं। कभी आपने खयाल न किया होगा, बच्चे शरीर की भाषा को बिलकुल ठीक से समझते है। फिर धीरे— धीरे शब्द सीखने लगते हैं और शरीर की भाषा भूल जाते हैं। इसलिए बच्चों के साथ मां—बाप को कभी—कभी बड़ा स्ट्रेंज, बड़ा विचित्र अनुभव होता है कि मां मुस्‍कुरा रही है चेहरे से लेकिन बच्चा समझता है कि वह क्रोध में है। मां कह रही है, थपका रही है खिलौने ले आऊंगी बाजार से, और बड़ी प्रसन्नता दिखा रही है जैसे कि बच्चे से बडा प्रेम हो, लेकिन बच्चे समझ लेते हैं कि यह सब धोखा है। क्योंकि वह जो कह रही है, उसके हाथ की थपकी से पता नहीं चलता। बच्चे पहले तो बाडी लैंग्वेज सीखते हैं, शरीर की भाषा सीखते है। बच्चे जानते हैं कि मां जब उन्हें दूध पिला रही है, तो उसके स्तन का इशारा भी बच्चे समझते हैं कि इस वक्त वह प्रसन्न है, नाखुश है, पिलाना चाहती है, नहीं पिलाना चाहती, हट जाना चाहती है कि पास आना चाहती है। वह सब समझते है। क्योंकि पहली भाषा उनकी शरीर की भाषा है। वह मां को देखकर समझते हैं। अभी वह बोल नहीं सकते, न मां क्या बोलती है, उसे समझ सकते हैं। लेकिन मां की गेस्वर, उसकी मुद्राएं उनके खयाल में आने लगती हैं। और इसलिए बच्चों को धोखा देना बहुत मुश्किल है। जब तक कि बच्चे थोड़े बड़े न होने लगें। छोटे बच्चों को धोखा नहीं दिया जा सकता।
फिर धीरे— धीरे भाषा आरोपित हो जाती है और हम शरीर की भाषा भूल जाते हैं। और तब बड़ी मजेदार घटनाएं घटती हैं। अकसर आपको खयाल में नहीं है। कभी किसी फिल्म में आपको खयाल में आया हो तो आया हो। कभी फिल्म में ऐसा हो जाता है कि भाषा और भाव—भंगिमा का संबंध टूट जाता है।

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