Wednesday 29 July 2015

कई बार विज्ञान जिन अनुभूतियों को बहुत बाद में उपलब्ध कर पाता है, रहस्य में डूबे हुए संत उसे हजारों साल पहले देख लेते है। दस—पंद्रह वर्ष का वक्त है, इस बीच काम जोर से चल रहा है। बड़ा काम रूस के वैज्ञानिक कर रहे हैं। और वे निरंतर इस बात के निकट पहुंचते जा रहे है कि समय ही मनुष्य की चेतना है। इसे ऐसा समझें तो थोड़ा खयाल में आ जाए तो हमें फिर ध्यान की धारणा में, महावीर की धारणा में उतरना आसान हो जाए। इसे ऐसा समझें कि पदार्थ बिना समय के भी कल्पना की जा सकती है, कंसीवेबल है। लेकिन चेतना बिना समय के कल्पना भी नहीं की जा सकती। सोच लें कि समय नहीं है जगत में, तो पदार्थ तो हो सकता है, पत्थर हो सकता है, लेकिन चेतना नहीं हो सकेगी।
क्योंकि चेतना की जो गति है, वह स्थान में नहीं है, समय में है। चेतना की जो गति है, वह समय में है, वह स्थान में नहीं है, वह स्पेस में नहीं है—वह टाइम में है, समय में है। जब आप यहां उठकर आते हैं अपने घर से, तो आपका शरीर यात्रा करता है, एक वह यात्रा होती है स्थान में। आप घर से निकले, और कार में बैठे, बस में बैठे, ट्रेन में बैठे, चले; यह यात्रा स्थान में है। आपकी जगह एक पत्थर भी रख देते तो वह भी कार में बैठकर यहां तक आ जाता। लेकिन कार में बैठे हुए आपका मन एक और गति भी करता है जिसका कार से कोई संबंध नहीं है। वह गति समय में है। हो सकता है आप जब घर में हों, और जब कार में बैठे हों, तभी आप समय में इस हाल में आ गए हों, मन में इस हाल में आ गए हों। लेकिन कार अभी घर के सामने खड़ी है। सच तो यह है कि आप कार में बैठते ही इसलिए हैं कि आपका मन कार के पहले इस हाल की तरफ गति करता है। इसलिए आप कार में बैठते है, नहीं तो आप कार में नहीं बैठेंगे।
पत्थर खुद कार में नहीं बैठेगा, उसे किसी को बिठाना पड़ेगा। बैठकर भी वह वैसा ही रहेगा जैसा अनबैठा था। बैठकर उसे आप यहां उतार लेंगे, लेकिन उस पत्थर के भीतर कुछ भी न होगा। जब आप कार में बैठे हुए हैं तो दो गतियां हो रही हैं—एक तो आपका शरीर स्थान में यात्रा कर रहा है और एक आपका मन, आपका शरीर स्थान में यात्रा कर रहा है, और आपका मन समय में यात्रा कर रहा है। चेतना की गति समय में है।
महावीर ने चेतना को समय ही कहा है, और ध्यान को सामायिक कहा है। अगर चेतना की गति समय में है तो चेतना की गति के ठहर जाने का नाम सामायिक है। शरीर की सारी गति ठहर जाए ,उसका नाम आसन है, और चित्त की सारी गति ठहर जाए, उसका नाम ध्यान है। अगर आप कार में ऐसे बैठकर आ जाएं जैसे पत्थर आता है तो आप ध्यान में थे। आपके भीतर कोई गति न हो सिर्फ शरीर गति करे और आप कार में बैठकर ऐसे आ जाएं जैसे पत्थर आया है, तो आप ध्यान में थे। ध्यान का अर्थ है—चेतना हो, गति शून्य हो जाये, मूवमेंट शून्य हो जाये। यह ध्यान का अर्थ है महावीर का। अब इस ध्यान की तरफ जाने के लिए महावीर आपको क्या सलाह देते हैं, इसे हम दो—तीन हिस्सों में समझने की कोशिश करें।
कभी आपने छप्पर छाए हुए मकान के नीचे देखा होगा कि कोई रंध से प्रकाश की किरणें भीतर घुस आती हैं। प्रकाश की एक वल्लरी, एक धारा कमरे में गिरने लगती है। सारा कमरा अंधेरा है। छप्पर से एक धारा प्रकाश की नीचे तक उतर रही है। तब आपने एक बात और भी देखी होगी कि उस प्रकाश की धारा के भीतर धूल के हजारों कण उड़ते हुए दिखाई पड़ते है। अंधेरे में वे दिखाई नहीं पड़ते, कमरे में वे सभी जगह उड़ रहे हैं। अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ते, सभी जगह उड़ रहे है। उस प्रकाश की वल्लरी में दिखाई पड़ते है। क्योंकि दिखाई पड़ने के लिए प्रकाश होना जरूरी है। शायद आपको खयाल आता होगा कि प्रकाश की वल्लरी में ही वे उड़ रहे है तो आप गलती में है। वे तो पूरे कमरे में उड़ रहे है। लेकिन प्रकाश की वल्लरी में दिखाई पड़ रहे हैं।
आपकी चेतना ऐसी ही स्थिति में है। जितने हिस्से में ध्यान पड़ता है, उतने हिस्से में विचार के कण दिखाई पड़ते हैं। बाकी में भी विचार उड़ते रहते हैं, वे आपको दिखाई नहीं पड़ते।
इसलिए मनोवैज्ञानिक मन को दो हिस्सों में तोड़ देता है—एक को वह कांशस कहता है, एक को अनकाशस कहता है। एक को चेतन, एक को अचेतन। चेतन उस हिस्से को कहता है जिस पर ध्यान पड़ रहा है और अचेतन उस हिस्से को कहता है जिस पर ध्यान नहीं पड़ रहा है। चेतना उस हिस्से को कहेंगे जिसमें कि प्रकाश की किरण पड़ रही है और धूल के कण दिखाई पड़ रहे है; और अचेतन उसको कहें… बाकी कमरे को जहां अंधेरा है, जहां प्रकाश नहीं पड़ रहा है, धूल कण तो वहां भी उड़ रहे हैं पर उनका कोई पता नहीं चलता है।
आपके चेतन मन में आपको विचारों का उड़ना दिखाई पड़ता है, चौबीस घंटे विचार चलते रहते है। सरकते रहते हैं। कभी आपने खयाल नहीं किया, कि जब प्रकाश की किरण उतरती है अंधेरे कमरे में तो जो धूल का कण उनमें उड़ता हुआ आता है, आपने खयाल किया, वह आसपास के अंधेरे से उड़ता हुआ आता है। फिर प्रकाश की किरण में प्रवेश करता है, थोड़ी देर में फिर अंधेरे में चला जाता है। शायद आपको यह भ्रांति हो कि वह जब प्रकाश में होता है तभी उसका अस्तित्व है, तो आप गलती में हैं। आने के पहले भी वह था, जाने के बाद भी वह है।
आपने कभी अपने विचारों का अध्ययन किया है कि वे कहां से आते हैं और कहां चले जाते हैं। शायद आप सोचते होंगे कि इधर से प्रवेश करते हैं और नष्ट हो जाते हैं। पैदा होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। पैदा और नष्ट नहीं होते। आपके अंधेरे चित्त से आते हैं, आपके प्रकाश चित्त में दिखाई पड़ते है, फिर अंधेरे चित्त में चले जाते हैं। अगर आप अपने विचारों को उठता देखने की कोशिश करें
कि कहां से उठते हैं तो धीरे— धीरे आप पाएंगे कि वे आपके ही भीतर अंधेरे से आते हैं। और अगर आप उनके जन्म स्रोत पर ध्यान रखें तो धीरे— धीरे आप पाएंगे कि वे आपको अंधेरे में भी दिखाई पड़ने लगे हैं, और जब वे चले जाते हैं तब भी आपके सामने से भरे जा रहे हैं, मिट नहीं रहे हैं। अगर आप उनका पीछा करेंगे तो वे धीरे— धीरे आपको अंधेरे में भी जाते हुए दिखाई पड़ेंगे। आप उनका अंधेरे में भी पीछा कर सकते हैं।
चेतना विचार से भरी है; जैसे आकाश वायु से भरा है वैसी चेतना विचार से भरी है। जब वायु का धक्का लगता है, आपको वायु का पता चलता है, और जब धक्का नहीं लगता है तो पता नहीं चलता है। जब कोई विचार आपको धक्का देता है तब आपको पता चलता है, अन्यथा आपको पता भी नहीं चलता। विचार बहते रहते हैं। आप अपने सौ विचारों में से एक का भी मुश्किल से पता रखते है, बाकी निन्यानबे ऐसे ही बहते रहते हैं। और भी मजे की बात है कि हवा तो धक्का देती है तब पता भी चलता है, लेकिन आकाश का आपको कोई पता नहीं चलता क्योंकि वह धक्का भी नहीं देता।
तो आपकी चेतना में जो विचार उड़ते रहते हैं उनका आपको पता चलता है और चेतना का कभी पता नहीं चलता, क्योंकि उसका कोई धक्का नहीं है। दो उपाय हैं—या तो आप इन विचारों से बचना चाहें तो इस खपड़े से जो छेद हो गया है उसे बंद कर दें, तो आपको विचार दिखाई नहीं पड़ेंगे। नींद में यही होता है। वह जो चेतना की थोड़ी—सी धारा आपको दिखाई पड़ती थी जागने में आप उसको भी बंद करके सो जाते हैं। फिर आपको कुछ दिखाई नहीं पड़ता सब बंद हो जाता है।
गहरी बेहोशी में भी यही होता है। हिप्रोसिस, सम्मोहन में भी यही होता है। इसलिए विचार से जो लोग पीड़ित हैं, वे लोग अनेक बार आत्म—सम्मोहन की क्रियाएं करने लगते हैं और आत्म—सम्मोहन को ध्यान समझ लेते हैं। वह ध्यान नहीं है। वह सिर्फ अपनी चेतना को बुझा लेना है। अंधेरे में डूब जाना है। उसका भी सुख है। शराब में उसी तरह का सुख मिलता है, गांजे में, अफीम में, उसी तरह का सुख मिलता है। चेतना की जो छोटी—सी धारा बह रही थी वह भी बंद हो गयी, घुप्प अंधेरे में खो गए। बड़ी शांति मालूम पड़ती है। वह अशांति मालूम पड़ती थी प्रकाश की किरण। महावीर का ध्यान ऐसा नहीं है जिसमें प्रकाश की किरण को बुझा देना है। महावीर का ध्यान ऐसा है जिसमें सारे खपड़ों को अलग कर देना है, पूरे छप्पर को खुला छोड़ देना है ताकि पूरे कमरे में प्रकाश भर जाए। यह भी बड़े मजे की बात है, जब पूरे कमरे में प्रकाश भर जाता है तब भी धूलकण दिखाई पड़ना बंद हो जाते है। जब पूरे कमरे में प्रकाश भर जाता है तब भी धूलकण नहीं दिखाई पड़ते; जब पूरे कमरे में अंधेरा हो जाता है तब भी धूलकण दिखाई नहीं पड़ते। जब पूरे कमरे में अंधेरा होता है और जरा से स्थान में रोशनी होती है तब धूलकण दिखाई पड़ते हैं। असल में धूलकणों को दिखाई पड़ने के लिए प्रकाश की धारा भी चाहिए और अंधेरे की पृष्ठभूमि भी चाहिए।
तो दो उपाय हैं इन कणों को भूल जाने का। एक उपाय तो है कि पूरा अंधेरा हो जाए तो इसलिए दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि प्रकाश ही नहीं है, दिखाई कैसे पड़ेंगे। या पूरा प्रकाश हो जाए तो भी दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि इतना ज्यादा प्रकाश है कि उतने छोटे—से धूलकण दिखाई नहीं पड़ सकते, प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है। पृष्ठभूमि न होने से धूलकण खो जाते हैं।
तो पहला तो यह फर्क समझ लें कि बहुत से प्रयोग है ध्यान के जो वस्तुत: मूर्च्छा के प्रयोग हैं, ध्यान के प्रयोग नहीं है। जिनमें आदमी अपने कांशस को अनकाशस में डुबा देता है। जिनमें वह गहरी नींद में चला जाता है। उठने के बाद उसे शांति भी मालूम पड़ेगी, स्वस्थ भी मालूम पड़ेगा, ताजा भी मालूम पड़ेगा। लेकिन वे उपाय सिर्फ चेतना को डुबाने के थे। उससे कोई क्रांति घटित नहीं होती।

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