Sunday 5 July 2015

मैं आपसे कहना चाहता हूं कि बुनियादी बाधाएं आदमी ने खड़ी की है। प्रेम की गंगा तो बह सकती है और परमात्‍मा के सागर तक पहुंच सकती है। आदमी बना इसलिए है कि वह बहे और प्रेम बढ़े और परमात्‍मा तक पहुंच जाये। लेकिन हमने कौन सी बाधाएं खड़ी कर ली?
पहली बात, आज तक मनुष्‍य की सारी संस्कृति यों ने सेक्‍स का, काम का, वासना का विरोध किया है। इस विरोध ने मनुष्‍य के भीतर प्रेम के जन्‍म की संभावना तोड़ दी, नष्‍ट कर दी। इस निषेध ने….क्‍योंकि सचाई यह है कि प्रेम की सारी यात्रा का प्राथमिक बिन्‍दु काम है, सेक्‍स है।
प्रेम की यात्रा का जन्‍म, गंगो त्री—जहां से गंगा पैदा होगी प्रेम की—वह सेक्‍स है, वह काम है।
और उसके सब दुश्‍मन है। सारी संस्‍कृतियां,और सारे धर्म, और सारे गुरु और सारे महात्‍मा–तो गंगो त्री पर ही चोट कर दी। वहां रोक दिया। पाप है काम, जहर है काम, अधम है काम। और हमने सोचा भी नहीं कि काम की ऊर्जा ही, सेक्‍स एनर्जी ही, अंतत: प्रेम में परिवर्तित होती है और रूपांतरित होती है।
प्रेम का जो विकास है, वह काम की शक्‍ति का ही ट्रांसफॉमेंशन है। वह उसी का रूपांतरण है।
एक कोयला पडा हो और आपको ख्‍याल भी नहीं आयेगा कि कोयला ही रूपांतरित होकर हीरा बन जाता है। हीरे और कोयले में बुनियादी रूप से कोई फर्क नहीं है। हीरे में भी वे ही तत्‍व है, जो कोयले में है। और कोयला ही हजारों साल की प्रक्रिया से गुजर कर हीरा बन जाता है। लेकिन कोयले की कोई कीमत नहीं है, उसे कोई घर में रखता भी है तो ऐसी जगह जहां कि दिखाई न पड़े। और हीरे को लोग छातियों पर लटकाकर घूमते है। जिससे की वह दिखाई पड़े। और हीरा और कोयला एक ही है, लेकिन कोई दिखाई नहीं पड़ता है कि इन दोनों के बीच अंतर-संबंध है, एक यात्रा है। कोयले की शक्‍ति ही हीरा बनती है। अगर आप कोयले के दुश्‍मन हो गये—जो कि हो जाना बिलकुल आसान है। क्‍योंकि कोयले में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है—तो हीरे के पैदा होने की संभावना भी समाप्‍त हो गयी, क्‍योंकि कोयला ही हीरा बन सकता है।
सेक्‍स की शक्‍ति ही, काम की शक्‍ति ही प्रेम बनती है।
लेकिन उसके विरोध में—सारे दुश्‍मन है उसके, अच्‍छे आदमी उसके दुश्‍मन है। और उसके विरोध में प्रेम के अंकुर भी नहीं फूटने दिये है। और जमीन से, प्रथम से, पहली सीढ़ी से नष्‍ट कर दिया भवन को। फिर वह हीरा नहीं पाता कोयला, क्‍योंकि उसके बनने के लिए जो स्‍वीकृति चाहिए,जो उसका विकास चाहिए जो उसको रूपांतरित करने की प्रक्रिया चाहिए, उसका सवाल ही नहीं उठता। जिसके हम दुश्‍मन हो गये, जिसके हम शत्रु हो गये, जिससे हमारी द्वंद्व की स्‍थिति बन गयी हो और जिससे हम निरंतर लड़ने लगे—अपनी ही शक्‍ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। सेक्‍स की शक्‍ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। और शिक्षाऐं दी जाती है कि द्वंद्व छोड़ना चाहिए, कानफ्लिक्‍ट्स छोड़नी चाहिए, लड़ना नहीं चाहिए। और सारी शिक्षाऐं बुनियाद में सिखा रही है कि लड़ों।
मन जहर है तो मन से लड़ों। जहर से तो लड़ना पड़ेगा। सेक्‍स पाप है तो उससे लड़ों। और ऊपर से कहा जा रहा है कि द्वंद्व छोड़ो। जिन शिक्षाओं के आधार पर मनुष्‍य द्वंद्व से भर रहा है। वे ही शिक्षाऐं दूसरी तरफ कह रही है कि द्वंद्व छोड़ो। एक तरफ आदमी को पागल बनाओ और दूसरी तरफ पागलख़ाने खोलों कि बीमारियों का इलाज यहां किया जाता है। एक बात समझ लेना जरूरी है इस संबंध।
मनुष्‍य कभी भी काम से मुक्‍त नहीं हो सकता। काम उसके जीवन का प्राथमिक बिन्‍दु है। उसी से जन्‍म होता है। परमात्‍मा ने काम की शक्‍ति को ही, सेक्‍स को ही सृष्‍टि का मूल बिंदू स्‍वीकार किया है। और परमात्‍मा जिसे पाप नहीं समझ रहा है, महात्‍मा उसे पाप बात रहे है। अगर परमात्‍मा उसे पाप समझता है तो परमात्‍मा से बड़ा पापी इस पृथ्‍वी पर, इस जगत में इस विश्‍व में कोई नहीं है।
फूल खिला हुआ दिखाई पड़ रहा है। कभी सोचा है कि फूल का खिल जाना भी सेक्‍सुअल ऐक्‍ट है, फूल का खिल जाना भी काम की एक घटना है, वासना की एक घटना है। फूल में है क्‍या—उसके खिल जाने में? उसके खिल जाने में कुछ भी नहीं है। वे बिंदु है पराग के, वीर्य के कण है जिन्‍हें तितलियों उड़ा कर दूसरे फूलों पर ले जाएंगी और नया जन्‍म देगी।
एक मोर नाच रहा है—और कवि गीत गा रहा है। और संत भी देख कर प्रसन्‍न हो रहा हे—लेकिन उन्‍हें ख्‍याल नहीं कि नृत्‍य एक सेक्‍सुअल ऐक्‍ट है। मोर पुकार रहा है अपनी प्रेयसी को या अपने प्रेमी को। वह नृत्‍य किसी को रिझाने के लिए है? पपीहा गीत गा रहा है, कोयल बोल रही है, एक आदमी जवान हो गया है, एक युवती सुन्‍दर होकर विकसित हो गयी है। ये सब की सब सेक्सुअल एनर्जी की अभिव्‍यंजना है। यह सब का सब काम का ही रूपांतरण है। यह सब का सब काम की ही अभिव्‍यक्‍त,काम की ही अभिव्‍यंजना है।
सारा जीवन, सारी अभिव्‍यक्‍ति सारी फ्लावरिगं काम की है।

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