Wednesday 22 July 2015

नुष्य की गहरी से गहरी उलझनों में घृणा आधारभूत है। कहें कि घृणा का जहर ही मनुष्य की और समस्त विषाक्त अभिव्यक्तियों में प्रगट होता है।
घृणा का अर्थ है. दूसरे के विनाश की आतुरता। प्रेम का अर्थ है : दूसरे के जीवन की आकांक्षा। घृणा का अर्थ है दूसरे की मृत्यु की आकांक्षा। प्रेम का अर्थ है, जरूरत पड़े तो दूसरे के लिए स्वयं को समाप्त कर देने की तैयारी।घृणा का अर्थ है : जरूरत न भी पड़े तो भी स्वयं के लिए दूसरे को समाप्त कर लेने की तैयारी।
और हम सब जैसे जीते हैं उसमें प्रेम का कोई स्वर नहीं होता, घृणा का ही विस्तार होता है। वस्तुत: तो जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह भी हमारी घृणा का ही एक रूप होता है। हम प्रेम में भी दूसरे को साधन बना लेते हैं। और जब भी कोई दूसरे को साधन बनाता है, तभी घृणा शुरू हो जाती है। हम प्रेम में भी अपने लिए जीते हैं। और अगर दूसरे के लिए कुछ करते हुए मालूम पड़ते हैं, तो सिर्फ इसलिए कि उससे हमें कुछ मिलने को है। दूसरे के लिए हम कुछ करते हैं तभी, जब उससे कुछ मिलने की आशा, फल की आकांक्षा होती है। अन्यथा हम नहीं करते हैं।
इसीलिए हमारा प्रेम किसी भी क्षण घृणा बन सकता है। बन जाता है। घड़ीभर पहले जिसे हमने प्रेम किया था, घड़ीभर बाद वही प्रेम घृणा बन सकता है। जरा सी हमारी आकांक्षा में बाधा पड़ी कि प्रेम घृणा में रूपांतरित हुआ। जो प्रेम घृणा में बदल सकता है, वह घृणा का ही छिपा हुआ रूप है। भीतर घृणा ही है, ऊपर आवरण है प्रेम का।
ईशावास्य एक बहुत बहुमूल्य सूत्र की बात कर रहा है। वह सूत्र यह है — और तभी प्रेम संभव है, अन्यथा प्रेम संभव नहीं है; तभी प्रेम का फूल खिल सकता है; इस सूत्र के अतिरिक्त प्रेम के फूल की कोई संभावना नहीं है — वह सूत्र यह है कि जब कोई व्यक्ति समस्त भूतों में स्वयं को देखने लगता है और स्वयं में समस्त भूतों को देखने लगता है, तभी घृणा का अंत होता है।
ध्यान रहे, ईशावास्य यह नहीं कहता कि तभी प्रेम का जन्म होता है। कहता है, तभी घृणा का अंत होता है। ऐसा कहने का बहुत सुविचारित कारण है।
यह बहुत मजे की बात है कि प्रेम के जन्म में सिवाय घृणा की मौजूदगी के और कोई बाधा नहीं है। घृणा न हो तो प्रेम खिलता है अपने आप। वह स्पाटेनियस है, वह सहज खिलता है। उसे खिलाने के लिए फिर और कुछ करना नहीं पड़ता। ठीक ऐसे ही जैसे किसी झरने के ऊपर एक पत्थर रखा हो और हम पत्थर को हटा लें और झरना फूट पड़े। ऐसे ही घृणा का पत्थर हमारे ऊपर है।
घृणा के पत्थर का क्या अर्थ होगा? हम दूसरों में स्वयं को नहीं देख पाते और स्वयं में दूसरों को भी नहीं देख पाते। न तो हमें दिखाई पड़ता है कि समस्त भूतों में हमारी ही छवि है और न हमें यह दिखाई पड़ता है कि समस्त भूत हम में भी छविमान हैं। न तो समस्त भूत हमारे लिए दर्पण बन पाते हैं कि हम अपने चेहरे को उनमें देखें। और न ही हम दर्पण बन पाते हैं कि समस्त भूतों का चेहरा हममें प्रतिफलित हो जाए। ये दोनों घटनाएं एक साथ घटती हैं। जो व्यक्ति समस्त भूतों में, समस्त प्राणियों में, समस्त अस्तित्व में अपने को देख लेगा, वह प्राणी अनिवार्यत: सबको अपने में भी देख पाएगा। जिसके लिए जगत दर्पण बन जाएगा, वह स्वयं भी जगत के लिए दर्पण बन जाता है। यह घटना एक ही साथ घटती है। एक ही घटना के दो पहलू हैं।
और उपनिषद कहता है कि ऐसा होते ही घृणा गिर जाती है।
तो फिर क्या पैदा होता है? अब प्रेम पैदा होता है, ऐसा उपनिषद ने नहीं कहा है। क्योंकि प्रेम शाश्वत है, वह हमारा स्वभाव है। वह न तो पैदा होता है, न मरता है। जैसे, वर्षा के दिन हैं और आकाश में बादल घिर गए हैं, सूरज ढंक गया। तो क्या हम यह कहेंगे कि जब बादल हट जाएंगे तो सूरज पैदा होगा? नहीं, तब हम इतना ही कहेंगे कि बादल हट जाएंगे तो सूरज तो सदा था, प्रगट होगा। बादल जब आ गए हैं तब भी सूरज नष्ट नहीं हो गया है, सिर्फ दब गया, आच्छादित हो गया। दिखाई नहीं पड़ता, छिप गया, आडू में हो गया। बादल हट जाएंगे, सूरज प्रगट हो जाएगा। बादलों का जन्म होता है और बादलों की मृत्यु होती है — सूरज सदा है। उसका न कोई जन्म होता है, न मृत्यु होती है।
प्रेम है जीवन का स्वभाव, इसलिए प्रेम का कोई जन्म नहीं है, कोई मृत्यु नहीं है। घृणा के बादल जन्मते हैं और मरते हैं। जन्म जाते हैं तो प्रेम आच्छादित हो जाता है। विसर्जित हो जाते हैं, मर जाते हैं, तो प्रेम प्रगट हो जाता है। लेकिन प्रेम शाश्वत है। इसलिए प्रेम के जन्मने की बात उपनिषद नहीं कर रहा है। उपनिषद कह रहा है, बस घृणा मर जाती है, घृणा गिर जाती है।
पर कैसे?
सूत्र तो सरल दिखाई पड़ता है, इतना सरल नहीं है। बहुत बार जो चीजें बहुत कठिन दिखाई पड़ती हैं, कठिन नहीं होती हैं। बहुत बार जो चीजें बहुत सरल दिखाई पड़ती हैं, सरल नहीं होती हैं। अधिकांशत: तो सरलता के भीतर बहुत गहराई होती है और बहुत जटिलता होती है।
अब यह सूत्र सीधा सा है। दो पंक्तियों में पूरा हो गया है कि जिसे समस्त भूतों में स्वयं का दर्शन हो जाए, या समस्त भूतों का दर्शन स्वयं में होने लगे, उसकी घृणा नष्ट हो जाती है। लेकिन सबको दर्पण बना लेना या सबके लिए स्वयं दर्पण बन जाना, सबसे बड़ी कीमिया और कला है। उससे बड़ी कोई आर्ट नहीं।
सुनी है मैंने एक छोटी सी कहानी, वह मैं आपसे कहूं। सुना है मैंने कि एक ईरानी बादशाह के दरबार में एक चीनी चित्रकार ने निवेदन किया कि मैं चीन से आया हूं। बहुत बड़ी कला का धनी हूं। चित्र बना सकता हूं ऐसे, जैसे कि आपने कभी न देखे हों। सम्राट ने कहा, जरूर बनाओ। लेकिन हमारे दरबार में चित्रकारों की कमी नहीं है और बहुत अनूठे चित्र मैंने देखे हैं। उस चीनी चित्रकार ने कहा तो मैं प्रतियोगिता के लिए भी तैयार हूं।
जो श्रेष्ठतम कलाकार था सम्राट के दरबार का, वह प्रतियोगिता के लिए चुना गया। और सम्राट ने कहाकि पूरी शक्ति लगाना है, यह साम्राज्य की प्रतिष्ठा का सवाल है। एक परदेशी तुम्हें हरा न जाए। छह महीने का उन्हें समय मिला था।
ईरानी चित्रकार बड़ी मेहनत में लग गया। दस—बीस सहयोगियों को लेकर उसने एक भवन की पूरी दीवार को चित्रों से भर डाला। उसकी मेहनत की खबर दूर—दूर तक पहुंच गई। लोग दूर—दूर से उसकी मेहनत को देखने आने लगे। लेकिन उससे भी ज्यादा चमत्कार: की बात तो यह थी कि वह चीनी चित्रकार ने कहा कि मुझे किसी उपकरण की जरूरत नहीं और न रंगों की कोई जरूरत है। सिर्फ मेरा इतना ही आग्रह है कि जब तक चित्र पूरा न बन जाए तब तक मेरी दीवार के सामने से पर्दा नहीं उठाया जा सके।
वह रोज अपने पर्दे के पीछे चला जाता। सांझ को थका—मादा लौटता, माथे पर पसीने की बूंदें होतीं। लेकिन बड़ी कठिनाई और बड़ी हैरानी और बड़ी अचंभे की बात यह थी कि वह न तो तूलिका ले जाता, न रंग ले जाता पर्दे के पीछे। उसके हाथों में रंग के कोई निशान न होते। उसके कपड़ों पर रंग के कोई दाग न होते। उसके हाथ में कोई तूलिका न होती। सम्राट को शक होने लगा कि वह पागल तो नहीं है! क्योंकि प्रतियोगिता होगी कैसे? लेकिन छह महीने प्रतीक्षा करनी जरूरी थी। शर्त पूरी करनी जरूरी थी।
छह महीने बडी मुश्किल से कटे। दूर—दूर तक ईरानी चित्रकार के चित्रों की खबर पहुंवी। साथ ही यह खबर भी पहुंची कि एक पागल प्रतियोगी भी है, जो बिना किसी रंग के प्रतियोगिता कर रहा है। छह महीने लोग ऐसी आतुरता से प्रतीक्षा किए कि जिसका कोई हिसाब नहीं। वह छह महीने बाद पर्दा उठने को था।
सम्राट गया। ईरानी चित्रकार के चित्र देखकर वह दंग हो गया। बहुत चित्र उसने जीवन में देखे थे। लेकिन नहीं, ऐसा श्रम शायद ही कभी किया गया हो! फिर उसने चीनी चित्रकार से कहा। चीनी चित्रकार ने अपनी दीवार के सामने का पर्दा हटा दिया। सम्राट तो बहुत हैरान हो गया। ठीक वही चित्र! जो ईरानी चित्रकार ने बनाया था, वही चित्र चीनी चित्रकार ने भी बनाया था। पर एक और खूबी थी कि वह चित्र दीवार के ऊपर नहीं, दीवार के भीतर बीस फीट अंदर दिखाई पड़ता था। सम्राट ने पूछा, तुमने किया क्या है! क्या जादू है?
उसने कहा, मैंने कुछ किया नहीं। मैं सिर्फ दर्पण बनाने में कुशल हूं। तो मैंने दीवार को दर्पण बनाया। वह छह महीने दीवार को घिस—घिसकर मैंने दर्पण बनाया। और जो चित्र आप देख रहे हैं दीवार में, वह तो ईरानी चित्रकार का ही है सामने की दीवार पर। मैंने सिर्फ दीवार दर्पण बनाई है।

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