Tuesday 14 July 2015

ध्यान रखना, भीतर प्यास हो, तो ही बाहर जल में संगीत सुनायी पड़ सकता है।
रसेल ठीक अवसर में नहीं था। ठीक क्षण न था, जहां गीता से मेल हो जाए। चूक गया। बुद्ध से थोड़ा मेल रसेल का हुआ, क्योंकि बुद्ध प्रखर बुद्धिवादी हैं। यद्यपि बुद्धि के पार ले जाते हैं, लेकिन बुद्धि के ही माध्यम से ले जाते हैं।
कृष्ण का सूत्र तो समर्पण है। बुद्ध का सूत्र समर्पण नहीं है। बुद्ध का सूत्र तो ध्यान है। बुद्ध तो कहते हैं, बुद्धि से विचार करो जितना कर सकते हो, अंततः करो, आत्यंतिक रूप से विचार करो। और ऐसी घड़ी आ जाएगी कि विचार करते—करते ही तुम विचार के पार हो जाओगे, क्योंकि विचार की एक सीमा है, और तुम्हारी सीमा नहीं है। लेकिन विचार से ही तुम पाओगे।
बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म है। रसेल को जमा। रसेल को जीसस भी इतने नहीं जमते हैं, यद्यपि वह ईसाई घर में पैदा हुआ है। क्योंकि जीसस का भी तालमेल कृष्ण से ज्यादा है—समर्पण, प्रार्थना, भक्ति— भाव! तर्क पर नहीं है जोर जीसस का। लेकिन बुद्ध बड़े तर्कनिष्ठ हैं। इसलिए दुनिया में जो आदमी भी तर्कनिष्ठ है, वह बुद्ध से निश्चित प्रभावित होगा।
लेकिन बुद्ध के साथ भी रसेल बहुत दूर तक न गया। वह वहीं तक गया, जहां तक बुद्ध रसेल के साथ गए। इस फर्क को समझ लेना।
जहां तक बुद्ध रसेल के साथ गए, वहां तक रसेल उनके साथ गया। उसके आगे रास्ते अलग हो गए। फिर वह बुद्ध के साथ नहीं गया, इसलिए बुद्ध का शिष्य नहीं बना।
जहां तक रसेल के साथ बुद्ध ने मेल खाया, रसेल ने कहा, बिलकुल ठीक। जहां मेल भिन्न हुआ, टूटा, रसेल ने बुद्ध से कहा, अपने रास्ते और तुम्हारे रास्ते अलग, अब हम अलग—अलग जाते हैं। यहां तक साथ रहा, ठीक; लेकिन यात्रा सदा हमारी साथ नहीं हो सकती। अब तुम गड़बड़ बात करते हो!
क्योंकि रसेल मानता है, बुद्धि के ऊपर कोई तत्व है ही नहीं। इस संबंध में वह बहुत मताग्रही है। वह कहता है, बुद्धि आखिरी तत्व है। इसके ऊपर तुमने बात की कि अंधविश्वास शुरू हुआ। इसके ऊपर तुमने बात की कि फिर तुमने उपद्रव शुरू किया। फिर दुनियाभर के उपद्रव आ जाएंगे; भूत—प्रेत, भगवान, सब पीछे से आ जाएंगे; मोक्ष, स्वर्ग—नर्क, पाप—पुण्य, पादरी, पुरोहित, पंडित, सब आ जाएंगे। जैसे ही तुमने तर्क का साथ छोड़ा कि ये सब अंधेरे के वासी एकदम प्रवेश कर जाएंगे। और रसेल कहता है, इनसे बचना है। रसेल कहता है, धर्म से बचना है।
रसेल की बात में थोड़ी सचाई है, क्योंकि धर्मों ने बहुत अहित किया है। अहित इसीलिए किया है कि धर्म धर्म नहीं रहे, संप्रदाय हो गए। लेकिन अहित तो हुआ है। मनुष्य को अंधेरे में डाल रखने में सहयोगी बन गए धर्म। ले जाना था प्रकाश की तरफ, ले नहीं गए। कारागृह बन गए; बनना थी मुक्ति, स्वतंत्रता। जंजीरें ढाली उन्होंने। प्राणों में पंख न लगाए कि तुम आकाश में उड़ जाते। चर्च और मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे तुम्हें घेरकर खड़े हो गए, वे जेलखाने बन गए। उनमें तुमने स्वतंत्रता का संगीत न सुना; कारागृह की बास, दुर्गंध आयी।
रसेल भी ठीक कहता है कि इससे ऊपर जाने में खतरा है। इसलिए इससे आगे वह बुद्ध के साथ नहीं जाता। इसलिए उनका शिष्य भी नहीं बन पाता। उसकी जरूरत नहीं है अभी। अभी विचार उसको काफी मालूम पड़ता है।
जरूरत का सवाल है। जैसे एक सात साल का बच्चा है, कामवासना की उसे अभी जरूरत नहीं है; चौदह का होगा, तब जरूरत होगी। एक समय होता है हर चीज का।
अगर विचार में रसेल चलता ही चला जाए, तो एक दिन शापेनहार की स्थिति में आएगा। विचार विषाद में ले जाएगा। और जब विचार विषाद में ले जाएगा, तब संबंध जुड़ेगा। तब या तो वह बुद्ध के साथ जाने को राजी हो जाएगा विचार के पार, या कृष्ण के साथ राजी हो जाएगा समर्पण को।
जहां तुम्हारे विचार की समाप्ति होती है वहीं बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट खड़े हैं। तुम्हारी विचार की सीमा के पार खड़े हैं। जब तक तुम विचार के खिलौनों से खेल रहे हो, तब तक तुम्हारा उनसे संबंध न होगा।
रसेल बहुत प्रगाढ़ विचारक नहीं है। अगर प्रगाढ़ विचारक हो, तो विषाद पैदा होगा। क्योंकि जिसने गौर से देखा, उसे दुख दिखायी पड़ेगा ही। दुख है। और जिसे दुख दिखायी पड़ेगा, वह आनंद की खोज में निकलेगा ही। क्योंकि दुख से प्राण राजी नहीं होते हैं।

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