Sunday 12 July 2015

 जो दिव्य—दृष्टि अर्जुन को मिली, वह अर्जुन की उपलब्धि न थी, कृष्ण की भेंट थी। वह कृष्ण ने दी थी। वह उधार थी। अर्जुन की पात्रता से ज्यादा थी। पात्र कंप गया, भयभीत हो गया। अर्जुन इतनी विराट घटना के लिए तब तैयार न था। अर्जुन ने बूंद मांगी थी और सागर आ गया! बूंद होती, सम्हाल लेता; सागर को न सम्हाल पाया। जड़ों तक कंप गया, भयभीत हो गया, चिल्लाने लगा, अब बंद करो यह। वापस लौट आओ अपने मनमोहक रूप में। यह मुझसे नहीं देखा जाता।
कृष्ण ने जानकर यह धक्का दिया। नहीं कि कृष्ण को पता नहीं है कि अर्जुन अभी तैयार नहीं है; लेकिन साधना के लंबे पथ पर बहुत—से धक्कों की भी जरूरत पड़ती है। क्योंकि तुम अपने जीवन की आदतों में इतने जड़ हो गए हो कि जब तक कोई विराट धक्का न लगे, तब तक तुम हिलते ही नहीं। तुम अपनी आदतों के वर्तुल में इस भांति घूमते रहते हो, जैसे यंत्र। जब तक कोई आकर जोर से तुम्हें धक्का ही न दे, तब तक तुम पटरी से नीचे नहीं उतरते।
एक विद्युत के धक्के की तरह, एक इलेक्ट्रिक शॉक की तरह बहुत बार गुरु को शिष्य के ऊपर टूट पड़ना पड़ता है। वैसा ही कृष्ण ने किया। वही जो झेन फकीर करते हैं, लेकर डंडा शिष्य पर टूट पड़ते हैं। मारते भी हैं, पीटते भी हैं; कभी उठाकर द्वार के बाहर भी फेंक देते हैं। ऐसे ही कृष्ण टूट पड़े बड़े सूक्ष्म रूप से।
अर्जुन बार—बार कह रहा था कि मुझे भरोसा नहीं आता, तुम यह जो कहे जाते हो कि तुम्हीं हो केंद्र सारे अस्तित्व के, कि तुम्हीं ने बनाया, इस पर मुझे संदेह है। मैं तो तुम्हारा यही रूप देखता हूं जो सदा से देखा, तुम मेरे सखा हो। अगर ऐसा सच है, तो दिखाओ मुझे वह विराट रूप जिसकी तुम बात करते हो।
एक ऐसी घड़ी आ गयी कि कृष्ण को वह विराट रूप अर्जुन पर गिरा देना पड़ा। उससे अर्जुन हिला, कंपा; सदा के लिए कैप गया, फिर दुबारा वापस अपने पुराने ढांचे में बैठ न पाया। उसकी जिज्ञासा ने नया आयाम ले लिया।
लेकिन वह दृष्टि उधार थी। वे कृष्ण ने आंखें दी थीं, इसलिए उन आंखों से उसने देखा। कृष्ण ने आंखें वापस ले लीं, वापस संसार, वापस माया का जगत दिखायी पड़ने लगा।
इसका बड़ा महत्वपूर्ण अर्थ है। इसका अर्थ है कि बुद्ध पुरुष अगर तुम्हें कुछ झलक भी दिखा दें, तो वह तुम्हारी न हो पाएगी। तुम्हें निखरना होगा। तुम्हें अपनी जीवन—दृष्टि को उतना पारदर्शी करना होगा।
तो बुद्ध पुरुषों से दृष्टि उधार मत मांगना, दृष्टि को स्वच्छ करने के उपाय भर मांगना। उनसे यह मत कहना कि एक बार आपकी आंख से इस संसार को देख लेने दो। तुम देख भी लोगे, तो सिर्फ घबडाओगे। तुम उसे पचा न पाओगे। जो तुम देखोगे, वह इतना विराट होगा कि तुम्हारे अपान में समा न पाएगा; तुम्हारा आंगन टूट जाएगा; दीवालें गिर जाएंगी; तुम एक खंडहर हो जाओगे।
समय के पहले कुछ भी न मांगना; हालांकि मन होता है समय के पहले माग लेने का। मन तो बच्चों जैसा है। जिसकी न पात्रता है, न तैयारी है, उसको भी पा लेने की आकांक्षा होती है।
अर्जुन जिद्द किए गया। फिर कृष्ण ने देखा कि ठीक है, योद्धा है, क्षत्रिय है, गिरने दो इस पर पूरा आकाश। शायद वही इसे कंपाएगा; शायद वही इसे मेरे प्रति सजग करेगा कि मैं कौन हूं। नहीं तो यह मुझे ऐसे ही देखता रहेगा, जैसा इसे मैं दिखायी पड़ रहा हूं।
बुद्ध को तुमने देखा, महावीर को देखा, कृष्ण को देखा, कुछ भी तो दिखायी नहीं पड़ा; साधारण पुरुष दिखायी पड़े। जैसे तुम थे, ऐसे ही वे थे। इसका कारण यह नहीं था कि वे तुम जैसे थे; इसका कारण कुल इतना था कि तुम्हारे पास और ढंग से देखने की आंख ही न थी। अन्यथा तुम उनमें सब देख लेते। सारे चेतना के शिखर उनमें प्रकट थे; लेकिन तुम्हारी आंख चमड़ी से ज्यादा भीतर न जा सकी। हड्डी—मास—मज्जा की देह ही तुम देख सके। बस, उतनी ही तुम्हारी आंख की क्षमता है।
अर्जुन ने आंख उधार मांग ली। उससे उसे विराट दिखा, ब्रह्म दिखा, विस्तीर्ण दिखा। लेकिन जिसके लिए तुम्हारी तैयारी न हो गयी हो, वह अगर प्रसाद से भी मिल जाए तो तुम्हें उसे छोड़ना पड़ेगा। क्योंकि तुम उसे पचा ही न पाओगे। तुम उसे आत्मसात न कर सकोगे। तुम उसे अपने जीवन का अंग न बना पाओगे। तुममें और उसमें फासला इतना होगा कि वह एक दुख—स्वप्न की भांति हो जाएगा! तुम उसे भुलाना चाहोगे। तुम चाहोगे, जल्दी वापस ले लो।
इस जगत में सब कुछ उधार दिया जा सकता है, दिव्यता उधार नहीं दी जा सकती, यह अर्थ है उस घटना का। दिव्यता के लिए तुम्हें धीरे— धीरे अपने को निखारना होता है, एक शुचिता लानी होती है। फिर भी दिव्यता जब मिलती है, तब प्रसाद—रूप ही मिलती है। तुम्हारी पात्रता के कारण नहीं मिलती, पर तुम्हारी पात्रता के कारण मिलती है तो खोती नहीं। अगर अर्जुन पात्र रहा होता उस क्षण में, तो वह जो दृष्टि मिली थी, वह उसकी हो जाती। गीता वहीं समाप्त हो जाती। सात अध्यायों की और जरूरत न थी।
सात प्रतीकात्मक आकड़ा है। किसी की शादी करते हैं, तो हम सात चक्कर लगवाते हैं। सात यानी संसार। दिव्य—दृष्टि मिल गयी, फिर भी पूरा संसार का चक्कर जारी रहा, सात चक्कर लग गए! सात दिन में हमने समय को बांट दिया है। समय यानी संसार। सात का वर्तुल है। दिव्य—दृष्टि उधार थी, इसलिए पूरा संसार फिर लगा, फिर पूरे संसार से भटकना पड़ा, फिर सात भांवर लीं, तब कहीं वह उस जगह आ पाया, जहां उसको अपनी दृष्टि मिली।
वही है प्रामाणिक, जो तुम्हारे भीतर उगा है, उपजा है। जो फूल तुम्हारे भीतर खिला है, वही सच्चा है। यद्यपि उसको खिलने के लिए भी बहुत हजारों—करोड़ों मील दूर सूरज की किरणों की जरूरत है; वह भी बिना प्रसाद के नहीं खिलेगा।
समझें फर्क! एक कली है, रातभर प्रतीक्षा की है, जन्मों—जन्मों से राह देखी है। छिपी थी कभी बीज में, फिर जमीन में उपजी, अंकुर में छिपी, वृक्ष में छिपी थी; हजारों कठिनाइयों और संघर्षों के बाद कली बनी; रातभर प्रतीक्षा की है; पंखुड़ियां तैयार हैं खुलने को। पर सूरज की प्रसाद—रूप वर्षा हो तभी न!
सुबह सूरज उगा, कली खिल गयी! पास में ही एक प्लास्टिक का फूल भी रखा है, वह बिना ही सूरज के खिला है; न रात देखता, न दिन देखता। वह सच्चा है ही नहीं। उसे खिलने की कोई जरूरत नहीं, मरने की भी कोई जरूरत नहीं। उसमें कोई सुगंध भी नहीं है; उसमें जीवन की लीला भी नहीं है। उसमें न कुछ कंपता, न डुलता। उसमें कोई प्रवाह नहीं है। वह जड़ है, वह मृत है। प्लास्टिक से ज्यादा मुरदा चीज तुम न खोज पाओगे!
और अब वैज्ञानिक कहते हैं कि जल्दी हम हृदय भी प्लास्टिक के लगा देंगे। आदमी के शरीर के अंग भी प्लास्टिक के कर देंगे। आदमी वैसे ही बहुत झूठा हो गया है। अब कृपा करो! अब उसको और प्लास्टिक का मत करो, नहीं तो वह और झूठा हो जाएगा। अभी थोड़ी—बहुत उसकी कली कभी—कभी खिलती है किसी कृष्ण के सूर्य के पास, वह भी मुश्किल हो जाएगी। प्लास्टिक का हृदय क्या धड्केगा?
यह संजय कहता है कि ये वचन मैंने स्वयं ही सुने, स्मरण कर—करके मेरा हृदय आह्लादित होता है।
कहीं प्लास्टिक का होता हृदय, तो यह कहता, वचन सुने; मेरे हृदय में कुछ भी नहीं होता है। प्लास्टिक का हृदय कहीं हर्षित होगा स्मरण कर—करके!
यह बात ही रोमांचित करती है संजय को। वह कहता है, मैंने सिर्फ सुनी है, दूर से सुनी है; गुरु की कृपा से सुनी है, व्यास की कृपा से सुनी है। मैंने सिर्फ सुनी है। मैं कोई भागीदार न था। मुझसे बात कही भी न गयी थी। कहने वाले कृष्ण थे, सुनने वाला अर्जुन था; मैं तो बहुत दूर, व्यास की कृपा से मुझे दृष्टि मिली, उसे देख रहा था। लेकिन मेरा हृदय भी आंदोलित होता है आनंद से। सुन—सुनकर भी मैं पुलकित हो गया हूं। ऐसी अनूठी, ऐसी विस्मयकारक घटना घटी! हरि का ऐसा रूप देखा!
होता प्लास्टिक का हृदय, तो जैसे टेलीविजन दूर से देख लेता है, ऐसा संजय ने भी देखा होता। संजय न हुए होते, टेलीविजन हुए होते। कुछ भी पुलकित न होता, कुछ भी हर्षित न होता। टेलीविजन को क्या फर्क पड़ता है कि फिल्म अभिनेता का चित्र उतरता है उस पर, कि कोई तस्कर का, कि कृष्ण का, कि बुद्ध का! कोई फर्क नहीं पड़ता; यंत्रवत है।
असली फूल खिलता है अपने भीतर से, लेकिन जरूरत होती है सूरज के प्रसाद की। नकली फूल कभी खिलता ही नहीं; उसे किसी प्रसाद की भी कोई जरूरत नहीं होती।
तुम जब खिलोगे, तब दो घटनाओं का मेल होगा। तुम तैयार होओगे कली की भांति और सूरज आएगा, और तुम्हें तुम्हारी नींद से जगाएगा। सूरज फैलाएगा अपनी किरणों का जाल तुम्हारे चारों तरफ।
वही तो कृष्ण करते हैं, वही बुद्ध करते हैं। वही अगर तुम राजी हो, तो मैं कर रहा हूं। तुम्हारी कली के आस—पास किरणों का एक जाल, किरणों की अंगुलियों से धीमे— धीमे तुम्हें सहलाना और जगाना! नींद लंबी है, बहुत प्राचीन है। उठना बहुत मुश्किल है। पर अगर कली जीवित है, तो उठ ही आएगी।
एक घड़ी घटी अर्जुन के जीवन में, जब आंख उधार थी। उससे केवल भय पैदा हुआ। उससे अर्जुन महात्मा न बना। उससे अर्जुन के जीवन में महत का अवतरण न हुआ। विराट देख लिया और महात्मा न बना! महत का अवतरण न हुआ! विराट द्वार पर खड़ा हो गया, उसने घबड़ाकर आंखें बंद कर लीं। जैसे सूरज की तरफ तुमने देखा हो और आंखें धुंधिया गईं, कुछ दिखाई न पड़ा, आंखें बंद हो गईं, अंधेरा फैल गया।
विराट को देखने का अर्थ है, अरबों—खरबों सूरज को एक साथ देखना। यह एक सूरज तो बहुत छोटा सूरज है, टिमटिमाता दीया है। अरबों—खरबों सूरज देखे अर्जुन ने कृष्ण के भीतर, सूरजों का जन्म देखा, उनका विलीन होना देखा; सृष्टि का बनना देखा और मिटना देखा; सृजन के क्षण से लेकर प्रलय के क्षण तक पूरा एक क्षण में सब संग्रहीभूत देखा; जन्म में छिपी मौत देखी, प्रकाश में छिपा अंधेरा देखा; सौंदर्य में छिपी कुरूपता देखी। घबड़ा गया। कंप गया। कहा, बंद करो! यह आंख अपनी वापस लो।

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