Friday 10 July 2015

लोग जब अति बुद्धि—केंद्रित होते हैं, तब बुद्धि एक घाव की तरह हो जाती है। बुद्धि का उपयोग तो उचित है, लेकिन बुद्धि के द्वारा संचालित होना उचित नहीं है। बुद्धि उपकरण रहे, उपयोगी है, बुद्धि मालिक बन जाए, घातक है।
चूंकि युग बुद्धि—केंद्रित है, बुद्धि एक घाव बन गयी है। उससे न तो जीवन में आनंद फलित होता, न शांति का आविर्भाव होता, न जीवन में प्रसाद बरसता। जीवन केवल चिंताओं, और चिंताओं से भर जाता है। विचार, और विचारों की विक्षिप्त तरंगें व्यक्ति को घेर लेती हैं।
बुद्धि अगर मालिक हो जाए, तो विक्षिप्तता तार्किक परिणाम है। बुद्धि अगर सेवक हो, तो अनूठी है। उसके ही सहारे तो सत्य की खोज होती है। फर्क यही ध्यान रखना कि बुद्धि तुम्हारी मालिक न हो; मालिक हुई, कि बुद्धि उपाधि हो गयी।
इसीलिए कृष्ण का उपयोग है। उनकी समर्पण की दृष्टि औषधि बन सकती है।
एक तरफ ढल गया है जगत, बुद्धि की तरफ। अगर थोड़ा भक्ति, थोड़ी श्रद्धा का संगीत भी पैदा हो, तो बुद्धि से जो असंतुलन पैदा हुआ है, वह संतुलित हो जाए; यह जो एकागीपन पैदा हुआ है, एकांत पैदा हुआ है, वह छूट जाए; जीवन ज्यादा संगीतपूर्ण हो, ज्यादा लयबद्ध हो।
हृदय और बुद्धि अगर दोनों तालमेल से चलने लगें, तो तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे।
ऐसा ही समझो कि कोई आदमी यात्रा पर निकला हो; बायां पैर कहीं जाता हो, दायां कहीं जाता हो; वह कैसे पहुंचेगा मंजिल तक? हृदय कुछ कहता हो, बुद्धि कुछ कहती हो, दोनों में तालमेल न हो, तो तुम कैसे पहुंच पाओगे? बुद्धि ले जाएगी व्यर्थ के विचारों में, व्यर्थ के ऊहापोह में, कुतूहल में; हृदय तड़पेगा प्रेम के लिए, प्यासा होगा श्रद्धा के लिए। दोनों दो दिशाओं में खींचते रहेंगे; तुम न घर के रह जाओगे, न घाट के।
ऐसी ही दशा मनुष्य की हुई है।
समर्पण का यह अर्थ नहीं है कि बुद्धि को तुम नष्ट कर दो। समर्पण का इतना ही अर्थ है कि बुद्धि अपने से महत्तर की सेवा में संलग्न हो जाए।
अभी श्रेष्ठ को अश्रेष्ठ चला रहा है; यही तुम्हारी पीड़ा है।
श्रेष्ठ अश्रेष्ठ को चलाने लगे, यही तुम्हारा आनंद हो जाएगा। अभी तुम सिर के बल खड़े हो; जीवन में पीड़ा ही पीड़ा है, नर्क ही नर्क है। तुम पैर के बल खड़े हो जाओ। अभी तुम उलटे हो।
बुद्धि कीमती है, इसे ध्यान रखना। लेकिन बुद्धि घातक है, अगर अकेली ही कब्जा करके बैठ जाए। और बुद्धि की वृत्ति है मोनोपोली की, एकाधिकार की। बुद्धि बड़ी ईर्ष्यालु है। जब बुद्धि कब्जा करती है, तो फिर किसी को मौका नहीं देती। जब विचार तुम्हें पकड़ लेते हैं, तो फिर निर्विचार के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते। अगर दो विचारों के बीच निर्विचार भी तिरता रहे, तो विचारों से कुछ बिगड़ता नहीं, तुम उनका भी उपयोग कर लोगे।
जो होशियार हैं, जो कुशल हैं, वे जीवन में किसी चीज का इनकार नहीं करते, वे सभी चीज का उपयोग कर लेते हैं। जो कुशल कारीगर है, वह किसी पत्थर को फेंकता नहीं; वह मंदिर के किसी न किसी कोने में उसका उपयोग कर लेता है। और कभी—कभी तो ऐसा हुआ है कि जो पत्थर किसी भी काम का न था और फेंक दिया गया था, आखिर में वही शिखर बना।
जीवन में कुछ भी फेंकने योग्य नहीं है, क्योंकि परमात्मा व्यर्थ तो देगा ही नहीं। अगर तुम्हें फेंकने जैसा लगता हो, तो तुम्हारी नासमझी होगी। जीवन में सभी कुछ सम्यकरूपेण उपयोग कर लेने जैसा है। आज मनुष्य ज्यादा बुद्धि की तरफ झुक गया है। वह पक्षपात ज्यादा हो गया; संतुलन टूट गया है। आदमी गिरा—गिरा ऐसी अवस्था में है; नाव डूबी—डूबी ऐसी अवस्था में है, एक तरफ झुक गयी है। कृष्ण की बात इसीलिए मौजूं है।
संकल्प का भी मूल्य है, जैसे बुद्धि का मूल्य है। वस्तुत: जिसके भीतर संकल्प न हो, वह समर्पण भी कैसे करेगा?
तुम इन बातों को सुनकर चुनाव करने में मत लग जाना, अन्यथा पछताओगे। ये बातें चुनाव करने के लिए नहीं हैं; ये बातें तुम्हें पूरे जीवन की एक विहंगम दृष्टि देने के लिए हैं। जीवन की समग्रता तुम्हें दिखायी पड़नी चाहिए। और जब भी कभी एक चीज ज्यादा हो जाती है, तो उससे विपरीत पर जोर देना पड़ता है, ताकि संतुलन थिर हो जाए।
समर्पण का यह अर्थ मत समझना कि जिनके जीवन में संकल्प की कोई क्षमता नहीं, वे समर्पण कर पाएंगे। वे समर्पण भी कैसे करेंगे? समर्पण से बड़ा संकल्प है कोई? सब कुछ छोड़ता हूं इससे बड़ा कोई संकल्प हो सकता है? सब कुछ परमात्मा के चरणों में रख देता हूं इससे बड़ा कोई संकल्प हो सकता है? यह तो महा संकल्प है।
संकल्प का भी उपयोग कर लेता है समझदार व्यक्ति। वह संकल्प को समर्पण में नियोजित कर देता है। वह संकल्प के बैलों को समर्पण की गाड़ी में जोत देता है। यात्रा तो वह समर्पण की करता है, लेकिन संकल्प की सारी ऊर्जा का उपयोग कर लेता है। और ध्यान रखना, ऊर्जा तटस्थ है। ऊर्जा कहीं भी नहीं ले जा रही है; तुम जहां ले जाना चाहो, वहीं ले जाएगी।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक कार बेचने वाली दुकान में गया। उसने एक कार बड़ी देर तक गौर से देखी। दुकानदार ने बहुत समझाया। उसकी उत्सुकता देखी, लगा कि खरीददार है। प्रशंसा में उसने कहा कि यह कार दो घंटे में दिल्ली पहुंचा देती है, बड़ी तेज गाड़ी है। नसरुद्दीन ने कहा, फिर सोचकर कल आऊंगा।
वह कल आया। कहने लगा कि नहीं भाई, नहीं खरीदनी है। दुकानदार ने कहा, लेकिन हो क्या गया? क्या भूल—चूक मिली? उसने कहा, भूल—चूक का सवाल ही नहीं। मुझे दिल्ली जाना ही नहीं; मुझे लखनऊ जाना है! रातभर सोचा कि दिल्ली जाने का कोई कारण? कोई कारण दिखायी नहीं पड़ता!
अब कार न तो दिल्ली ले जाती है, न लखनऊ ले जाती है, सिर्फ ले जाती है। ऊर्जा तटस्थ है।
संकल्प अहंकार में भी ले जा सकता है, समर्पण में भी। यह बड़ी गुह्य बात है। इसे थोड़ा ध्यानपूर्वक समझना।
संकल्प अहंकार में भी ले जा सकता है; वह तो ऊर्जा है। तुमको अगर अहंकार भरना हो, तो तुम अपने सारे संकल्प को अहंकार के भरने के लिए ही नियोजित कर देना। तुम परमात्मा की तरफ पीठ कर लेना। लेकिन पीठ करने में भी ताकत लगती है। वह ताकत उतनी ही है, जितनी चरणों में सिर रखने में लगती है।
परमात्मा के खिलाफ लड़ने में उतनी ही ताकत लगती है, जितनी उसके आनंद में विभोर होकर नाचने में लगती है। नास्तिक परमात्मा के खिलाफ तर्क खोजने में उतनी ही शक्ति लगाता है, जितना आस्तिक उसकी अर्चना में लगाता है।
नास्तिक नासमझ है। क्योंकि अगर यह सिद्ध भी हो जाए कि परमात्मा नहीं है, तो भी नास्तिक को कुछ मिलेगा नहीं। उसकी जीवन— धारा मरुस्थल में खो गयी, वह सागर तक पहुंचेगी नहीं। इसी जीवन— धारा से सागर तक पहुंचा जा सकता था।
नास्तिक को मैं गलत नहीं कहता, सिर्फ नासमझ कहता हूं। आस्तिक को मैं समझदार कहता हूं। नास्तिक को मैं पापी नहीं कहता, सिर्फ भूल से भरा हुआ कहता हूं। और भूल से किसी और को वह नुकसान नहीं पहुंचाता, अपने को ही पहुंचाता है। जितनी ताकत परमात्मा से लड़ने में लगती है, उतनी ताकत में तो परमात्मा मिल जाता है।

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