Monday 13 July 2015

अर्जुन को दृष्टि तो मिली थी, लेकिन उस दिन कृष्ण में बाढ़ आयी। अर्जुन तैयार न था उतनी बड़ी बाढ़ के लिए। उसके पास बांध न था कि इस बाढ का उपयोग कर लेता। इस विराट जल को भर लेता, इतनी उसके भीतर क्षमता न थी। सात अध्याय और लग गए, एक पूरा संसार और लग गया, तब कहीं जाकर उसे अपनी दृष्टि उत्पन्न हुई।
दोनों में बड़ा फर्क है। जब अर्जुन कृष्ण से दृष्टि मांग रहा था, तब वह अहंकारी है। वस्तुत: वह मानता नहीं है कि कृष्ण यह कर सकते हैं। उसे विश्वास नहीं है, भीतर संदेह है। वह तो परीक्षा ले रहा है। शिष्य गुरु की परीक्षा ले रहा है! दुर्घटना घटेगी।
गुरु शिष्य की परीक्षा ले, समझ में आ सकता है। लेकिन अर्जुन जब पूछ रहा है, दिखाओ अपना विराट रूप! तो वह यह नहीं सोच रहा है कि ये दिखा पाएंगे। वह जानता है कि भलीभांति इनको जानता हूं बचपन के साथी हैं, सखा हैं; अच्छे—बुरे सब कामों में साथ रहे हैं, धोखाधड़ी में भी तालमेल रहा है; षड्यंत्र में सहयोगी रहे हैं; अचानक ये विराट के दावेदार हो गए! ये भगवान हैं?
इसको एकदम इनकार भी नहीं कर सकता, क्योंकि कृष्ण की मौजूदगी भीतर उसे हलके—हलके हृदय को भी छूती है; कहीं ऐसा लगता भी है, हो न हो ठीक ही हों। लेकिन भरोसा भी नहीं आता, संदेह प्रबलता से खड़ा है, पैर जमाकर खड़ा है, अंगद की भांति खड़ा है, वह हटता नहीं। वह तो बाढ़ न आ जाएगी, तब तक अंगद हटेगा भी नहीं; आकाश न टूटेगा, तब तक अंगद हटेगा भी नहीं। पूछता है कृष्ण से अर्जुन। उसे भरोसा नहीं था। और कृष्ण ने जो उसे अपना विराट रूप दिखाया, वह इसलिए नहीं दिखाया कि उसका समर्पण था और वह विराट देखने के योग्य हो गया था। उसका अहंकार था, और अहंकार मिटेगा नहीं, जब तक वह विराट के नीचे दब न जाए, टूटेगा नहीं।
तो पहली घटना तो अहंकार से ही उपजी थी, संदेह से उपजी थी। दूसरी घटना सात अध्यायों के बाद समर्पण से उपजी है। अब उसने अपने को कृष्ण के चरणों में छोड़ा है। उसने कहा, जो तुम्हारी आज्ञा, जो तुम्हारी मर्जी। मुझे स्मृति उपलब्ध हो गयी। मेरा प्राण थिर हुआ, प्रज्ञा स्थिर हुई। अब मैं देखने में समर्थ हुआ हूं। जीवन का सब राज मुझे दिखाई पड़ गया है, तुम्हारी प्रसाद—रूप कृपा से। अब तुम्हारी जो आज्ञा। अब मैं नहीं हूं; अब तुम ही हो। अब तुम जो कराओ, वही होगा। पहले भी तुम जो करा रहे थे, वही हो रहा था, लेकिन मैं समझता था कि मैं कर रहा हूं। अब सच बात दिखायी पड़ गयी।
होता तो वैसा ही है, जैसा परमात्मा करवाता है, तुम चाहे मानो, या न मानो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। न मानने से तुम सिर्फ अज्ञान में जीते हो, मानने से तुम बोध को उपलब्ध हो जाते हो। होता तो वही है, जो वह कराता है। रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ता तुम्हारे करने से। लेकिन तुम्हें बहुत फर्क पड़ जाता है, जमीन—आसमान का फर्क पड़ जाता है।
अब यह जो घटना घटी है, यह समर्पण से घटी है, श्रद्धा से घटी है। संदेह जा चुका है। स्मृति उपलब्ध हुई है।
यह बड़ा प्यारा उदघोष है कि मुझे स्मृति उपलब्ध हुई; मैं जाग गया; मैं अपने को देख लिया हूं। अब कोई झंझट नहीं। अब मैं जानता हूं कि मैं हूं ही नहीं।
अब यह बड़े मजे की बात है। जिन्होंने अपने को नहीं देखा, वे मानते हैं कि हैं; और जिन्होंने अपने को देखा, उन्होंने जाना कि वे नहीं हैं। जो अपने से मिले नहीं, उनको पक्का भरोसा है कि वे हैं, और जिन्होंने अपने से मुलाकात की, उन्होंने पाया कि वहां कोई है ही नहीं, घर सूना है, सिर्फ परमात्मा की आवाज गूंजती है, वही है। जो अपने भीतर गए, उन्होंने परमात्मा को पाया, स्वयं को कभी पाया ही नहीं। जो अपने से बाहर—बाहर रहे, उन्होंने स्वयं को पाया। इसलिए तो कबीर उलटबासिया कहते हैं। वे कहते हैं, बड़ी उलटी बातें संसार में हो रही हैं। वे कहते हैं कि मैंने देखा कि नदी में आग लगी है; मैंने देखा कि मछलियां झाडू पर चढ़ गयी हैं! वे इसी बात की तरफ इशारा कर रहे हैं।
कहते हैं, एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आग।
वे इसी अचंभे की तरफ कह रहे हैं कि जो है ही नहीं, जो हो ही नहीं सकता, नदी में आग लगना, वह मैंने होते देखा है।
तुम हो ही नहीं और तुम्हारे न होने के बिना भी तुममें आग लगी है। तुम जले जा रहे हो, तडूपे जा रहे हो, परेशान हुए जा रहे हो; दौड़े जा रहे हो उस अहंकार को भरने को, जो है ही नहीं! जिसे भरने का उपाय भी कैसे हो सकेगा, जो है ही नहीं? होता, तो भर भी लेते! और जिन्होंने अपने को जाना—अब यह बड़े मजे की बात है—जिन्होंने अपने को जाना, उन्होंने यही जाना कि नहीं हैं। अज्ञानी हैं और ज्ञानी नहीं हैं!
लाओत्से इसीलिए बार—बार कहता है कि एक मुझको छोड्कर सभी समझदार हैं। एक मैं ही नादान हूं; एक मैं ही पागल हूं यहां समझदारों की बस्ती में, सभी होशियार हैं। क्योंकि सभी को पक्का पता है कि वे हैं; एक मैं ही संदिग्ध हो गया हूं; एक मेरी ही नींव कट गई है, जड़ें कट गई हैं; मुझे ही पता है कि मैं नहीं हूं। एक मैं ही कंप रहा हूं हवा के झोंकों में, बाकी लोग तो थिर खड़े हैं, बड़े अडिग खड़े हैं!
यह घटना घट रही है। यह अचंभा रोज घट रहा है।
जिस क्षण अर्जुन ने अपने को देखा, कहा, तुम्हारी जो आज्ञा! क्योंकि तुम्हीं हो। और मैं इनकार करूं, तो भी कर नहीं सकता हूं क्योंकि मैं हूं नहीं। और जो मैंने अब तक इनकार किए थे, वे सब झूठे हो गए, सपने में किए होंगे। क्योंकि यह हो ही कैसे सकता है! जब मैं ही न था, तो इनकार कैसे होते?
इसको कहते हैं, मुझे अपनी स्मृति आ गयी! और स्मृति आते ही प्रज्ञा थिर हो जाती है।
जब मैं हूं ही नहीं, तो कंपेगा कौन? क्या ऐसी कोई पत्ती कंप सकती है तूफानों में जो है ही नहीं? जब तक पत्ती है, कंपेगी, छोटा—सा भी हवा का झोंका आएगा, तो कंपेगी, और तूफान आएंगे, तब तो बहुत कंपेगी, विक्षिप्त होकर कंपेगी। ही, पत्ती हो ही न, तो फिर क्या कंपेगी?
बुद्ध एक गांव से गुजरे हैं। लोगों ने गालियां दी हैं। और उन्होंने कहा कि ठीक, तुम्हें जो करना था, तुमने किया; अब मैं जाऊं? मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। पर उन्होंने कहा, हमने जो गालियां दी हैं, उनका क्या? तो बुद्ध बहुत हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम थोड़ी देर से आए। दस वर्ष पहले आना था, तब मैं था। तब तुम्हारी गालियों के उत्तर मुझसे निकलते। अब कौन उत्तर दे? तुम गालियां देते हो, यहां भीतर सन्नाटा है। वहां उत्तर देने वाला अब नहीं है।
उसी दिन प्रशा थिर होती है, जिस दिन तुम मिट जाते हो। जब तक तुम हो, तब तक थिरता न आएगी। स्थितप्रज्ञ वही हो पाता है, जो शुन्यभाव को उपलब्ध हो जाता है।
यह था अंतराल। सात अध्याय पूर्व उधार थी दृष्टि; सात अध्याय बाद दृष्टि अपनी है।
उधार का भरोसा मत करना; दो कौड़ी उसका मूल्य नहीं है। अपनी ही खोज करना।
बुद्ध पुरुषों से संकेत लेना, सत्य मत लेना। सत्य तो कोई किसी को दे नहीं सकता। उनसे मार्ग लेना, मंजिल मत ले लेना। मंजिल तो कोई किसी को दे नहीं सकता। वे इशारा करें, उनके इशारे पर चलना, लेकिन चलना तुम्हीं। यह मत सोचना कि बुद्ध पुरुष तुम्हारे लिए चलें, और तुम उनकी आंखों से देख लोगे और उनके पहुंचने में तुम पहुंच जाओगे।
नहीं; कृष्ण जैसा पुरुष भी अपनी आंख देकर अर्जुन को केवल पीड़ा ही दे पाता है, कोई आनंद नहीं दे पाता। उधार आंख का कोई भी मूल्य नहीं है।
तुम बुद्ध पुरुषों के हृदय से न धड़क सकोगे, धड़कोगे भी तो घबड़ा जाओगे, क्योंकि वह हृदय बड़ा है, वह विराट है। उसमें तुम तूफानों की गंज पाओगे, आंधियों का अंधड़ पाओगे, पहाड़ों का गिरना पाओगे, सृजन पाओगे, प्रलय पाओगे। उस धड़कन को तुम सह न पाओगे। तुम्हारा छोटा—सा हृदय, घड़ी की तरह टिक—टिक होने वाला हृदय, उस विराट उथल—पुथल को सह न पाएगा। तुम उसके नीचे दबकर मिट जाओगे।
तो अगर कृष्ण जल्दी ही न खींच लें अपनी दृष्टि को वापस, तो अर्जुन खो जाएगा, जल जाएगा, भस्मीभूत हो जाएगा।
नहीं; दृष्टि उधार नहीं पायी जा सकती। दृष्टि के लिए स्वयं को निखारना जरूरी है।

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