Saturday 4 July 2015

मेरे प्रिय आत्‍मन,
प्रेम क्‍या है?
जीना और जानना तो आसान है, लेकिन कहना बहुत कठिन है। जैसे कोई मछली से पूछे कि सागर क्‍या है? तो मछली कह सकती है, यह है सागर, यह रहा चारों और , वही है। लेकिन कोई पूछे कि कहो क्‍या है, बताओ मत, तो बहुत कठिन हो जायेगा मछली को। आदमी के जीवन में जो भी श्रेष्‍ठ है, सुन्‍दर है, और सत्‍य है; उसे जिया जा सकता है, जाना जा सकता है। हुआ जा सकता है। लेकिन कहना बहुत कठिन बहुत मुश्‍किल है।/
और दुर्घटना और दुर्भाग्‍य यह है कि जिसमें जिया जाना चाहिए, जिसमें हुआ जाना चाहिए, उसके संबंध में मनुष्‍य जाति पाँच छह हजार साल से केवल बातें कर रही है। प्रेम की बात चल रही है, प्रेम के गीत गाये जा रहे है। प्रेम के भजन गाये जा रहे है। और प्रेम मनुष्‍य के जीवन में कोई स्‍थान नहीं है।
अगर आदमी के भीतर खोजने जायें तो प्रेम से ज्‍यादा असत्‍य शब्‍द दूसरा नहीं मिलेगा। और जिन लोगों ने प्रेम को असत्‍य सिद्ध कर दिया है और जिन्‍होंने प्रेम की समस्‍त धाराओं को अवरूद्ध कर दिया है…..ओर बड़ा दुर्भाग्‍य यह है कि लोग समझते है कि वे ही प्रेम के जन्‍मदाता है।
धर्म-प्रेम की बातें करता है, लेकिन आज तक जिस प्रकार का धर्म मनुष्‍य जाति के ऊपर दुर्भाग्‍य की भांति छाया हुआ है। उस धर्म ने मनुष्‍य के जीवन से प्रेम के सारे द्वार बंद कर दिये है। और न उस संबंध में पूरब और पश्‍चिम में फर्क है न हिन्‍दुस्‍तान और न अमरीका में कोई फर्क है।
मनुष्‍य के जीवन में प्रेम की धारा प्रकट ही पायी। और नहीं हो पायी तो हम दोष देते है कि मनुष्‍य ही बुरा है, इसलिए नहीं प्रकट हो पाया। हम दोष देते है कि यह मन ही जहर है, इसलिए प्रकट नहीं हो पायी। मन जहर नहीं है। और जो लोग मन को जहर कहते रहे है, उन्‍होंने ही प्रेम को जहरीला कर दिया,प्रेम को प्रकट नहीं होने दिया है।
मन जहर हो कैसे सकता है? इस जगत में कुछ भी जहर नहीं है। परमात्‍मा के इस सारे उपक्रम में कुछ भी विष नहीं है, सब अमृत है। लेकिन आदमी ने सारे अमृत को जहर कर लिया है और इस जहर करेने में शिक्षक, साधु, संत और तथाकथित धार्मिक लोगों का सबसे ज्‍यादा हाथ है।
इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्‍योंकि अगर यह बात दिखाई न पड़े तो मनुष्‍य के जीवन में कभी भी प्रेम…भविष्‍य में भी नहीं हो सकेगा। क्‍योंकि जिन कारणों से प्रेम नहीं पैदा हो सका है, उन्‍ही कारणों को हम प्रेम प्रकट करने के आधार ओर कारण बना रहे है।
हालतें ऐसी है कि गलत सिद्धांतों को अगर हजार वर्षों तक दोहराया जाये तो फिर यह भूल ही जाते है कि सिद्धांत गलत है। और दिखाई पड़ने लगता है कि आदमी गलत है। क्‍योंकि वह उन सिद्धांतों को पूरा नहीं कर पा रहा है।
दस हजार साल में जो नहीं हो पाय, वह आगे भी दस हजार वर्षों में होने वाला नहीं है। क्‍योंकि आदमी यही है, कल भी यही होगा आदमी हमेशा से यही है, और हमेशा यही होगा। और संस्‍कृति और धर्म जिनके हम नारे दिये चले जा रहे है, और संत और महात्‍मा जिनकी दुहाइयां दिये चले जा रहे है। सोचने के लिए भी तैयार नहीं है कि कहीं बुनियादी चिंतन की दिशा ही तो गलत नहीं है?
मैं कहना चाहता हूं कि वह गलत है। और गलत—सबूत है यह आदमी। और क्‍या सबूत होता है गलत का?
एक बीज को हम बोये और फल ज़हरीले और कड़वे हो तो क्‍या सिद्ध होता है? सिद्ध होता है कि वह बीज जहरीला और कड़वा रहा होगा। हालांकि बीज में पता लगाना मुश्‍किल है कि उससे जो फल पैदा होगें,वे कड़वे पैदा होंगे। बीज में कुछ खोजबीन नहीं की जा सकती। बीज को तोड़ो-फोड़ो कोई पता नहीं चल सकता है कि इससे जो फल पैदा होते होंगे। वे कड़वे होंगे। बीज को बोओ,सौ वर्ष लग जायेंगे—वृक्ष होगा, बड़ा होगा,आकाश में फैलेगा, तब फल आयेंगे और तब पता चलेगा कि वे कड़वे है।
दस हजार वर्ष में संस्‍कृति और धर्म के जो बीज बोये गये है, वह आदमी उसका फल है। और यह कड़वा है। और घृणा से भरा हुआ है। लेकिन उसी की दुहाई दिये चले जाते है हम और सोचते है उसमे प्रेम हो जायगा। मैं आपसे कहना चाहता हूं,उससे प्रेम नहीं हो सकता है। क्‍योंकि प्रेम के पैदा होने की जो बुनियादी संभावना है, धर्मों ने उसकी ही हत्‍या कर दी है। और उसमें जहर घोल दिया है।
मनुष्‍य से भी ज्‍यादा प्रेम पशु और पक्षियों और पौधों में दिखाई पड़ता है; जिनके पास न कोई संस्‍कृति है, न कोई धर्म है, संस्‍कृत और संस्‍कृति और सभ्‍य मनुष्‍यों की बजाय असभ्‍य और जंगल के आदमी में ज्‍यादा प्रेम दिखाई पड़ता है। जिसके पास न कोई विकसित धर्म है, न कोई सभ्‍यता है, न कोई संस्‍कृति है। जितना आदमी सभ्‍य, सुसंस्‍कृत और तथा कथित धर्मों के प्रभाव में मन्दिर ओर चर्च में पार्थना करने लगता है, उतना ही प्रेम से शून्‍य क्‍यों होता चला जाता है।
जरूर कुछ कारण है। और दो कारणों पर मैं विचार करना चाहता हूं। अगर वे ख्‍याल में आ जाएं तो प्रेम के अवरूद्ध स्‍त्रोत फूट सकते है। और प्रेम की गंगा बह सकती है। वह हर आदमी के भीतर है उसे कहीं से लाना नहीं है।
प्रेम कोई ऐसी बात नहीं है कि कहीं खोजने जाना है उसे। वह प्राणों की प्‍यास है प्रत्‍येक के भीतर, वह प्राणों की सुगंध है प्रत्‍येक के भीतर। लेकिन चारों तरफ परकोटा है उसके और वह प्रकट नहीं हो पाता। सब तरफ पत्‍थर की दीवाल है और वह झरने नहीं फूट पाते। तो प्रेम की खोज और प्रेम की साधना कोई पाजीटिव, कोई विधायक खोज और साधना नहीं है कि हम जायें और कही प्रेम सीख लें।
एक मूर्तिकार एक पत्‍थर को तोड़ रहा था। कोई देखने गया थ कि मूर्ति कैसे बनायी जाती है। उसने देखा कि मूर्ति तो बिलकुल नहीं बनायी जा रही है। सिर्फ छैनी और हथौड़े से पत्‍थर तोड़ा जा रहा था। उस आदमी ने पूछा ‘’यह क्‍या कर रहे हो, मूर्ति नहीं बनाओगे, मैं तो मूर्ति बनाते देखने के लिया आया था, आप तो केवल पत्‍थर तोड़ रहे है।‘’
और उस मूर्ति कार ने कहा कि मूर्ति तो पत्‍थर के भीतर छिपी है, उसे बनाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ उसके ऊपर जो व्‍यर्थ पत्‍थर जुड़ा है उसे अलग कर देने की जरूरत है और मूर्ति प्रकट हो जायेगी। मूर्ति बनायी नही जाती है मूर्ति सिर्फ आविष्‍कृत होती है। डिस्क वर होती है। अनावृत होती है, उघाड़ी जाती है।
मनुष्‍य के भीतर प्रेम छिपा है, सिर्फ उघाड़ने की बात है। उसे पैदा करने का सवाल नहीं है। अनावृत करने की बात है। कुछ है, जो हमने ऊपर ओढा हुआ है। जो उसे प्रकट नहीं होने देता?

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