विनय का यह तो बहुत गहरा अर्थ हुआ। विनय का अर्थ हुआ, अपने को सब भांति छोड़ देना। असल में विद्यार्थी होना हो तो अज्ञान शर्त नहीं है। शिष्य होना हो तो अज्ञानी होना शर्त है। अपने सारे ज्ञान को तिलांजलि दे देना, खाली स्लेट की तरह, खाली कागज की तरह खड़े हो जाना, ताकि गुरु जो लिखे वही दिखायी पड़े। आपका लिखा हुआ पहले से तैयार हो कागज पर, और फिर गुरु और लिख दे तो सब उपद्रव ही हो जायेगा और जो अर्थ निकलेंगे वे अनर्थ सिद्ध होंगे।
यह अनर्थ घट रहा है, यह हर आदमी पर घट रहा है। हर आदमी एक भीड़ है। उसमें न मालूम कितने विचार है। और जब एक विचार उस भीड़ में घुसता है तो वह भीड़ तत्काल उस विचार को बदलने में लग जाती है, अपने अनुकूल करने में लग जाती है। जब तक वह विचार अनुकूल न हो जाये, तब तक आपका पुराना मन बेचैनी अनुभव करता है। जब वह अनुकूल हो जाये, तब आप निश्चित हो जाते हैं।
गुरु के पास आप जब जाते है तब गुरु जो विचार देता है, उसको आपके पूर्व विचारों के अनुकूल नहीं बनाना है, बल्कि इस विचार के अनुकूल सारे पूर्व विचारों को बनाना है, तब विनय है, चाहे सब टूटता हो, चाहे सब जाता हो।
आपके पास है भी क्या। हम बड़े मजेदार लोग हैं, जिसको बचाते रहते है, कभी यह सोचते नहीं है, है भी क्या! मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते है, मेरा विचार तो ऐसा है। मैं उनसे पूछता हूं अगर यह विचार तुम्हें कहीं ले गया हो तो मजे से पक्के रहो, मेरे पास आओ ही मत। नहीं, वे कहते है, कहीं ले तो नहीं गया। तो फिर इस मेरे विचार को कृपा करके छोड़ दो। जो विचार तुम्हें कहीं नहीं ले गया है, उसी को लेकर अगर तुम मेरे पास भी आते हो और मैं तुमसे जो कहता हूं उसी विचार से उसकी भी जांच करते हो तो मेरा विचार भी तुम्हें कहीं नहीं ले जायेगा। तुम निर्णायक बने रहोगे। लोग सुनते ही नहीं।
मार्क ट्वैन ने एक मजाक की है, बड़ा संपादक था, बड़ा लेखक था और एक हंसोडू आदमी था। और कभी—कभी हंसने वाले लोग गहरी बातें कह जाते है जो कि रोने वाले लाख रोयें तो नहीं कह पाते। उदास लोगों से सत्यों का जन्म नहीं होता। उदास लोगों से बीमारियां पैदा होती हैं। मार्क ट्वैन ने कहां है, कि जब कोई किताब मेरे पास आलोचना के लिए, क्रिटिसिज्य के लिए भेजता है, तो मैं पहले किताब पड़ता नहीं, पहले आलोचना लिखता हूं। क्योंकि किताब पढ़ने से आदमी अगर प्रभावित हो जाये तो पक्षपात हो जाता है। पहले आलोचना लिख देता हूं फिर मजे से किताब पढ़ता हूं। उसने सलाह दी कि आलोचक को कभी भी आलोचना करने के पहले किताब नहीं पढ़नी चाहिए क्योंकि उससे आलोचक का मन अगर प्रभावित हो जाये तो पक्षपात हो जाता है।
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन बुढ़ापे में मजिस्ट्रेट हो गया, जे पी। पहला ही आदमी आया। मिल गया होगा। किसी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, उसको जे पी होना। पहला ही आदमी आया, पहला ही मुकदमा था। एक पक्ष बोल पाया था कि उसने जजमेंट लिखना शुरू किया। कोर्ट क्लर्क नेकहां, महानुभाव, यह आप क्या कर रहे हैं। अभी आपने दूसरे पक्ष को तो सुना ही नही।
नसरुद्दीन ने कहां, अभी मेरा मन साफ है और अगर मैं दोनों को सुन लूं तो सब कन्फूयजन हो जायेगा, जब तक मन साफ है, मुझे निर्णय लिख लेने दो, फिर पीछे दूसरे को भी सुन लेंगे। फिर कुछ गड़बड़ होने वाली नहीं है। हम सब ऐसे ही कन्फयूजन में हैं, और हम किसी की भी नहीं सुनता चाहते है कि कहीं कच्छ न हो जायें। हम अपने को ही सुने चले जाते हैं। जब हम दूसरे को भी सुन रहे है तब हम पद की ओट से सुनते है छांटते रहते हैं, क्या छोड़ देना है, क्या बचा लेना है? फिर जो बचता है, वह आपका ही चुनाव है। लोग अपने विचार को पकड़ कर चलते हों, तो गुरु से उनका कोई संबंध नहीं हो सकता। वे लाख गुरुओं के पास भटकें वे अपने इर्द—गिर्द ही पस्कि्रमा करते रहते है। वे अपने घर को कभी नहीं छोड़ पाते, उसके आस—पास ही घूमते रहते हैं। इसलिए महावीर ने कहां है, कहता हूं उसे विनय संपन्न, जो गुरु की मुद्राओं तक को वैसा ही समझ लेता हो, जैसी वे है। फिर पंद्रह लक्षण महावीर ने गिनाये। निम्नलिखित पंद्रह लक्षणों से मनुष्य शुविनीत कहलाता है। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण है—
‘उद्धत न हो’, एग्रेसिव न हो, आक्रमक न हो। क्योंकि जो आक्रमक है चित्त से वह ग्रहण न कर पायेगा। रिसेटिव हो, ग्राहक हो, उद्धत न हो।
अलग—अलग बात…स्थितियां है। जब आप उद्धत होते है तब आप दूसरे पर आक्रमण कर रहे हैं। लोग आते हैं, उनके प्रश्न ऐसे होते हैं, जैसे वे प्रश्न न लाकर, एक छुरा लेकर आये हों। प्रश्न पूछने के लिए नहीं होते, हमला करने के लिए होते है। प्रश्न कुछ समझने के लिए नहीं होते है। कुछ समझाने के लिये होते है तो अगर शिष्य गुरु को समझाने आया हो, तो कुछ भी होने वाला नहीं है। यह तो नदी जो है, नाव के ऊपर हो गयी, अगर शिष्य गुरु को समझाने आया हो। हालांकि ऐसे शिष्य खोजना मुश्किल है जो गुरु को समझाने न आते हों। तरकीब से समझाने आते है और फिर भी यह मन में माने चले जाते हैं कि हम शिष्य हैं।
महावीर कहते हैं, उद्धत न हो, नम्र हो। आक्रमक न हो, ग्राहक हो, कुछ लेने आया हो। चपल न हो, स्थिर हो। क्योंकि जितनी चपलता हो, उतना ही ग्रहण करना मुश्किल हो जाता है। चपल आदमी का चित्त वैसे होता है जैसे फूटी बाल्टी हो। ग्राहक भी हो तो किसी काम की नहीं, पानी भरा हुआ दिखायी पड़ेगा जब तक पानी में डूबी रहे। ऊपर निकालो पानी सब गिर जाता है। चपल चित्त छेद वाला चित्त है। जब वह गुरु के पास भी बैठा हुआ है तब तक वह हजार जगह हो आया। बैठे है वहाँ न मालूम कहां—कहां का चक्कर काट आये। तो जितनी देर वह कहीं और रहा उतनी देर गुरु ने जो कहां, वह तो सुनायी भी नहीं पड़ेगा।
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