Wednesday 15 July 2015

थोड़ा जीवंत, थोड़ा प्राणवान चैतन्य हो, तो सुनकर भी द्वार खुलने लगेंगे। बात संजय से कही न गयी थी। संजय तो केवल एक गवाह है। कही थी किसी और ने, कही थी किसी और के लिए। संजय तो एक प्रत्यक्षदर्शी गवाह है, एक चश्मदीद गवाह है। संजय तो सिर्फ एक साक्षी है। उसने वही दोहरा दिया है अंधे धृतराष्ट्र के सामने, जो घटा था। संजय तो एक रिपोर्टर है, एक अखबारनवीस। लेकिन उसके जीवन में भी कुछ घटने लगा।
सत्य की महिमा ऐसी है कि तुम उसके निकट जाओगे, तो वह तुम्हें छू ही लेगा। तुम शायद गवाही की तरह ही गए थे, या तुम सिर्फ एक दर्शक की भांति गुजरे थे, लेकिन सत्य की महिमा ऐसी है, उसका रहस्य ऐसा है कि तुम्हारे हृदय में कुछ होना शुरू हो जाएगा। तुम दर्शक की भांति गए हो, लेकिन दर्शक की भांति वापस न लौट सकोगे।
अभी ऐसा हुआ। एक युवक अफ्रीका से मुझे मिलने आया। वह मुझे मिलने निकला ही नहीं था। जा रहा था न्यूजीलैंड। जिस हवाई जहाज में सफर कर रहा था, एक संन्यासी मिल गया। उत्सुकता जगी। माला देखी, चित्र देखा, पूछा। तो उसने सोचा कि एक दिन के लिए उतर जाऊं। कुतूहलवश आया था। सब छोड्कर न्यूजीलैंड जा रहा था अफ्रीका से। वहीं बसने का इरादा था।
यहां आया, मुझे मिला। कुछ बात छू गयी। दिन लंबाने लगे। एक दिन की जगह सात दिन रुका, सात दिन की जगह तीन सप्ताह रुका। फिर संन्यस्त हो गया। फिर न्यूजीलैंड जाने की बात छोड़ दी।
फिर एक दिन मुझसे आकर कहने लगा, यह भी अजीब बात हुई! कभी स्वप्न में सोचा नहीं था कि संन्यस्त हो जाऊंगा। संन्यास शब्द से ही कभी कोई संबंध न था। कभी यह भी न सोचा था कि मैं कोई धार्मिक व्यक्ति हूं। चर्च से मेरा कोई नाता नहीं रहा। जा रहा था किसी और प्रयोजन से, योजना कुछ और बनाई थी, कुछ का कुछ हो गया। और अब? अब क्या करूं, वह मुझसे पूछने लगा, अब कहा जाऊं? अफ्रीका वापस लौट जाऊं? न्यूजीलैंड जाऊं? कि यहीं रह जाऊं?
मैंने उससे कहा, तू सोच ले जहां तुझे जाना हो। उसने कहा कि अब न सोचूंगा, क्योंकि सोचकर तो न्यूजीलैंड जा रहा था! और वर्षों से सोच रहा था। और सब इंतजाम करके निकला था। सब बेच—बाचकर आया हूं। पीछे सब समाप्त कर आया हूं। आगे जाने की कोई जगह न रही। और जहां बीच में आज खड़ा हूं यहां कभी सोचा न था। तो जब अनसोचा होता है और सोचा नहीं होता, तो अब सोचना क्या! आप ही कह दें। जो आज्ञा!
कभी दर्शक भी कभी कुतूहलवशात आ जाए सत्य के करीब, तो उसके हृदय में भी रोमाच हो जाता है।
इसके उपरांत संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना। मेरा भी रोमांच हो गया है! मैं भी आपूरित हो गया हूं! सुन—सुनकर मैं भी और हो गया!
और संजय कहता है, महात्मा अर्जुन!
उसने एक अपूर्व जन्म देखा है। वह एक ऐसे जन्म की घटना का गवाह रहा है कि कोई दूसरा गवाह खोजना मुश्किल है। जिसने संदेह को समर्पण बनते देखा, जिसने अहंकार को विसर्जित होते देखा; जिसने योद्धा को संन्यासी बनते देखा; जिसने क्षत्रिय के अहंकार को ब्राह्मण की विनम्रता बनते देखा; जिसने अर्जुन का नया जन्म देखा। शुरू से लेकर, अ से लेकर आखिर तक, पूरी जीवन—यात्रा देखी। वह कहता है, महात्मा अर्जुन! अब साधारण अर्जुन कहना ठीक न होगा।
श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य—दृष्टि द्वारा मैंने इस परम रहस्ययुक्त गोपनीय योग को साक्षात कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना है।
इसलिए हे राजन, श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अदभुत संवाद को पुन: —पुन: स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूं।
जैसे एक झरना भीतर कलकलित हो रहा है, जैसे भीतर एक फुहार पडी जाती है, बार—बार मेघ घिर आते हैं, बार—बार वर्षा हो जाती है!
बारंबार हर्षित होता हूं स्मरण कर—करके!
जो देखा है, वह अपूर्व है। जैसा आंखों से देखा नहीं जाता, ऐसा देखा है! जो कभी सुना नहीं, ऐसा सुना है! और जो घटना देखी है, भरोसे के योग्य नहीं है!
अहंकार समर्पण बन जाए, इससे ज्यादा रहस्ययुक्त घटना इस संसार में दूसरी नहीं है। इससे बड़ी कोई रोमांचकारी घटना नहीं है। यह अपूर्व है। यह असाधारण से भी असाधारण बात है।
और व्यक्ति तब तक साधारण ही रहता है, जब तक अहंकार में रहता है। जिस दिन अहंकार समर्पण बनता है, उस दिन व्यक्ति भी असाधारण हो जाता है। उसके पैर जहां पड़ते हैं, वहा मंदिर हो जाते हैं। वह मिट्टी छूता है और स्वर्ण हो जाती है। उसकी हवा में काव्य होता है। उसके स्पर्श से सोए लोग जाग जाते हैं, मृत जीवित हो जाते हैं।
मरे हुए अर्जुन को पुन: जीवित होते देखा है। हाथ—पांव शिथिल हो गए थे, गांडीव छूट गया था, उदास, थका—मादा अर्जुन बैठ गया था। विषाद की कथा को आनंद तक पहुंचते देखा है! नर्क से स्वर्ग तक की पूरी की पूरी सोपान—सीढ़ियां देखी हैं!
पुन: स्मरण करके बारंबार हर्षित होता हूं।
तथा हे राजन, श्री हरि के उस अदभुत रूप को भी पुन: —पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है…….।
कितनी करुणा! कितनी बार अर्जुन छूटा; भागा; फिर—फिर खींचकर उसे ले आए। जरा भी नाराज न हुए! एक बार भी उदासी न दिखाई! कितना अर्जुन ने पूछा, थका डाला पूछ—पूछकर वही—वही बात। लेकिन कृष्ण उदास न हुए; वे फिर—फिर वही कहने लगे, फिर—फिर नए द्वारों से कहने लगे, नए शब्दों में कहने लगे!
कृष्ण पराजित न हुए! अर्जुन का संदेह पराजित हुआ, कृष्ण की करुणा पराजित न हुई। अर्जुन का अज्ञान पराजित हुआ, ज्ञान कृष्ण का पराजित न हुआ।
महान आश्चर्य होता है और मैं बारंबार हर्षित होता हूं।

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