Friday 3 July 2015

हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश! हम उस जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा—सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा। लेकिन उस प्रकाश को हम जानते नहीं हैं जो हम हैं, और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं जो हम नहीं हैं। उस प्रकाश से हम परिचित नहीं हो पाते जो हमारा प्राण है, जो हमारा जीवन है, जो हमारी सत्ता है; और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं, जो हम नहीं हैं।
मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनुष्य अमृत है। समस्त जीवन अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आख ही नहीं उठाते हैं। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं। इसलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का।
मुझे कहा गया है कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में बोलूं। यह असंभव है बात। प्रश्न तो है सिर्फ जीवन का और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन शात नहीं होता, तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है। जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ कभी भी समस्या की तरह खड़े नहीं होते। या तो हमें पता है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु नहीं है। और या हमें पता नहीं है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु ही है, जीवन नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ मौजूद नहीं होती हैं, नहीं हो सकती हैं। लेकिन हम सारे लोग तो मृत्यु से भयभीत हैं।
मृत्यु का भय बताता है कि हम जीवन से अपरिचित हैं। मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है —जीवन से अपरिचय। और जीवन हमारे भीतर प्रतिपल प्रवाहित हो रहा है —श्वास—श्वास में, कण—कण में, चारों ओर, भीतर—बाहर सब तरफ जीवन है और उससे ही हम अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी नींद में है। नींद में ही हो सकती है यह संभावना कि जो हम हैं, उससे भी अपरिचित हों। इसका ‘एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी मूर्च्छा में है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी के प्राणों की पूरी शक्ति सचेतन नहीं है, अचेतन है, अनकाशस है, बेहोश है।
एक आदमी सोया हो तो उसे फिर कुछ भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूं? क्या हूं? कहां से हूं? नींद के अंधकार में सब डूब जाता है और उसे कुछ पता नहीं रह जाता कि मैं हूं भी या नहीं हूं? नींद का पता भी उसे तब चलता है, जब वह जागता है। तब उसे पता चलता है कि मैं सोया था, नींद में तो इसका भी पता नहीं चलता कि मैं सोया हूं। जब नहीं सोया था, तब पता चलता था कि मैं सोने जा रहा हूं। जब तक जागा हुआ था, तब तक पता था कि मैं अभी जागा हुआ हूं, सोया हुआ नहीं हूं। जैसे ही सो गया, उसे यह भी पता नहीं चलता कि मैं सो गया हूं। क्योंकि अगर यह पता चलता रहे कि मैं सो गया हूं, तो उसका यह अर्थ है कि आदमी जागा हुआ है, सोया हुआ नहीं है। नींद चली जाती है तब पता चलता है कि मैं सोया था, लेकिन नींद में पता नहीं चलता कि मैं हूं भी या नहीं हूं। जरूर मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता है कि मैं हूं या नहीं हूं? या क्या हूं।
इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि कोई बहुत गहरी आध्यात्मिक नींद, कोई स्प्रिचुअल हिप्नोटिक स्लीप, कोई आध्यात्मिक सम्मोहन की तंद्रा मनुष्य को घेरे हुए है। इसलिए उसे जीवन का ही पता नहीं चलता कि जीवन क्या है।

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