Wednesday 30 September 2015

बुद्ध का स्वाद पकड़ना हो तो अनुकंपा शब्द को पकड़ लेना। बुद्ध की उत्सुकता न तो किसी शास्त्र में है, न किसी सिद्धात में, न किसी दर्शन में। बुद्ध की सारी आस्था अनुकंपा में है। तो जो भी कहा, करुणा से कहा। तर्कजाल नहीं है। इसलिए यह कभी खयाल नहीं रखा है कि जो कल कहा था उससे आज कही गयी बात तालमेल खाती है या नहीं? तर्कशास्त्री को दिक्कत तो न होगी? वह विचार ही न किया। जो आज सामने है उसको झलकाया। जो आज सामने खड़ा है उसको उत्तर दिया। उत्तर बंधा—बंधाया नहीं है, उत्तर तैयार नहीं है। और तैयार उत्तर दो कौड़ी के होते हैं। बुद्धपुरुष तो दर्पण की भांति हैं, जो आया उसका ही प्रतिबिंब झलकता है। एक कहानी मैंने सुनी है—एक था चूहा, एक थी गिलहरी। चूहा शरारती था, दिनभर चीं—चीं करता हुआ मौज उड़ाता। गिलहरी बड़ी भोली— भाली थी, टीं—टीं करती हुई इधर—उधर घूमा करती। संयोग से एक बार दोनों का आमना—सामना हो गया। अपनी प्रशंसा करते हुए चूहे ने कहा, मुझे लोग शकराज कहते हैं और गणेश जी की सवारी के रूप में खूब जानते हैं। मेरे बिना गणेश जी भी चल नहीं सकते हैं। मेरे पैने—पैने हथियार—सरीखे दात लोहे के पिंजरे तो क्या, किसी भी चीज को काट सकते हैं। मैं तर्कशास्त्री हूं। जैसे तर्कशास्त्री की कैंची चलती है, ऐसा मैं चलता हूं।
मासूम सी गिलहरी को सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ, हैरानी भी लगी। बोली, भई, तुम दूसरों का नुकसान करते हो, फायदा नहीं। यदि अपने दांतों पर तुम्हें इतना गर्व है, तो इनसे कोई नक्काशी क्यों नहीं करते? इनका उपयोग करो तो जानूं! जहां तक मेरा सवाल है, मुझमें आप—सरीखा कोई भी गुण नहीं। मेरे बदन पर तीन धारियां देख रहे हो न, बस यही मेरी खास चीज है। जो दाना—पानी मिल जाता है, उसका कचरा साफ करके संतोष से खा लेती हूं। चूहा बोला, तुम्हारी तीन धारियों की विशेषता क्या है, यह भी खूब रही! इन धारियों में क्या रखा है?
गिलहरी बोली, वाह, तुम्हें पता नहीं। आसपास दो काली धारियां हैं, उनके बीच में एक सफेद है। इनका मतलब है कि कठिनाइयों की पर्तों के बीच से ही असली सुख झांकता है। दो काली रातों के बीच में एक उजाला भरा हुआ दिन है। मैं इसी सुनहली धारी पर ध्यान रखती हूं। काली को आकती ही नहीं, हिसाब में नहीं लेती। भगवान ने ये धारियां मुझे इसीलिए दी हैं कि बीच की धारी पर ध्यान रखना। उसको ध्यान रखने के कारण बड़ा संतोष है, बड़ा आनंद है। मौत दिखायी ही नहीं पड़ती, जीवन ही जीवन! दुख दिखायी ही नहीं पड़ता, सुख ही सुख!
विचार चूहे जैसा है। उसे अंधेरा ही अंधेरा दिखायी पड़ता है, उसे विरोधाभास ही विरोधाभास दिखायी पड़ता है। यह गलत, यह गलत, निंदा और आलोचना ही दिखायी पड़ती है। श्रद्धा भोली— भाली है, गिलहरी जैसी है। गिलहरी ने ठीक ही कहा कि दो काली धारियों के बीच में जो सफेद धारी देखते हैं न, वही मेरी खूबी है। उस पर ही मैं ध्यान रखती हूं।
तर्क व्यर्थ की बातों में उलझ जाता है, व्यर्थ की बातों में उलझकर व्यर्थ को बढ़ावा देने लगता है, तूल देने लगता है। श्रद्धा सार्थक को पकड़ती है। धीरे— धीरे व्यर्थ आख से ओझल हो जाता है, सार्थक ही रह जाता है।
उस सार्थक में जिसने जीना सीख लिया, वही संन्यासी है।

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