Thursday 17 September 2015

बुद्ध पुरूषों के साथ कथाएं क्यों जुड़ जाती हैं। कृपा करके समझाइए।
महत्‍वपूर्ण है यह। सभी बुद्धपुरुषों के साथ पुराण कथाएं जुड़ जाती हैं। कारण है।
पहली बात, बुद्धपुरुषों के जीवन से अगर हम कथाओं को अलग कर लें, तो बचता क्या है! कोरा खाका बचता है—बुद्ध कब पैदा हुए, किस तारीख को पैदा हुए, किस घर में पैदा हुए। लेकिन इसको जानने से क्या होगा? पहली तारीख को पैदा हुए कि दूसरी तारीख को पैदा हुए कि तीसरी तारीख को पैदा हुए, इससे क्या अंतर पड़ता है! कभी पैदा हुए, इससे क्या अंतर पड़ता है! कब मरे, इससे क्या अंतर पड़ता है! बुद्धपुरुषों का मूल्य तो कुछ ऐसी चीज से है जो न कभी पैदा हुई और न कभी मरी। जो पैदा हुआ और मरा, वह तो देह थी, वह तो रूप था। उसके संबंध में हिसाब रखने से कुछ भी सार नहीं है। वह तो गौण है, असार है।
उस असार पर ध्यान देता है इतिहास। पुराण पकड़ता है सार को। पुराण यह फिकर नहीं करता कि बुद्ध कब पैदा हुए, पुराण यह फिकर करता है कि बुद्धत्व क्या है? पुराण अखबार नहीं है, घटनाओं की चिंता नहीं करता, घटनाओं के पीछे अंदर छिपी आभा को पकड़ता है।
दोनों में बड़ा फर्क है। दोनों पकड़ने के बिलकुल अलग ढंग हैं।
बुद्धत्व क्या है, यह एक बात है, और गौतम बुद्ध कौन हैं, यह बिलकुल दूसरी बात है। गौतम बुद्ध इतिहास के अंग हो जाएंगे। लेकिन इतिहास में तुम क्या पाओगे? एक छोटी सी टिप्पणी कि गौतम बुद्ध नाम का बेटा शुद्धोदन नाम के राजा के घर पैदा हुआ। मां का नाम यह था, इतनी उम्र में घर छोड्कर चला गया। फिर इतनी उम्र में लोग कहते हैं कि ज्ञानी हो गया, फिर इतनी उम्र में प्रचार करने लगा, लोगों को समझाने लगा। फिर अस्सी साल की उम्र में मर गया। यह ऊपरी ढांचा है। यह असली बात नहीं है। यह तो बहुत रेखाचित्र जैसा हुआ, इसमें मांस—मज्जा बिलकुल नहीं है। मांस—मज्जा तो बड़ी और बात है।
उस रात जब बुद्ध ने अपना महल छोड़ा, तो बुद्ध के भीतर क्या हुआ? महल
छोडा, यह बाहर की घटना है, यह इतिहास में आ जाएगी। लेकिन महल छोड़ते वक्त बुद्ध की चेतना में कैसे तूफान उठे, कोई इतिहास उन्हें अंकित नहीं कर सकता। कैसा आंदोलन उठा—उठा होगा आंदोलन, सुंदरतम पत्नी को छोड्कर जाते थे, अभी— अभी पैदा हुए बेटे को छोड्कर जाते थे—कैसा तूफान उठा? छोड्कर जब गए, आखिरी बार मन हुआ कि जाकर एक बार और देख लें, कम से कम बेटे को देख लें, फिर दुबारा तो देखने मिले न मिले! बेटा मां के आंचल में छिपा हुआ सो रहा था, करवट लिए यशोधरा सोयी है। बुद्ध को मन हुआ कि आंचल उठाकर बेटे का मुंह देख लें। फिर सोचकर रुक गए कि अगर आंचल उठाया, कहीं यशोधरा जग गयी, तो फिर मैं जा सकूंगा या न जा सकूंगा? कहीं यशोधरा रोने लगी, चीखने—चिल्लाने लगी, तो मैं जा सकूंगा या न जा सकूंगा? तो बिना आहट किए चुपचाप लौट गए द्वार से।
अब यह बात घटी कि नहीं, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है, मगर यह बात घटनी चाहिए। इस फर्क को समझना। इतिहास कहेगा कि हम तो इसे तब लिखेंगे जब यह घटी हो। पुराण कहेगा, यह घटी या नहीं घटी, यह बात तो बिलकुल अर्थहीन है, लेकिन यह घटनी चाहिए। फर्क समझ रहे हो! घटनी चाहिए।
जिस स्त्री को प्रेम किया, जिस स्त्री से बच्चा पैदा हुआ, तुम्हारा बेटा पैदा हुआ, उसके द्वार तक न जाओगे? बुद्ध गए कि नहीं, यह बात जरा भी महत्वपूर्ण नहीं है, मगर जाना चाहिए। मनुष्य का स्वभाव है कि जाएगा। यह मनुष्य के स्वभाव का लक्षण है कि जाएगा—बेटे को तो देख लें!
फिर दुविधा खड़ी हुई होगी—हुई या नहीं, खयाल रखना, महत्वपूर्ण नहीं है—हों सकता है बुद्ध चुपचाप भाग गए हों, गए ही न हों वहा। नहीं, लेकिन मुझे भी लगता है पुराण महत्वपूर्ण है, बुद्ध को ले गया पुराण वहां। यह सभी मनुष्य के भीतर घटेगा।
तुम थोड़ा सोचो, एक रात, आधी रात तुम घर छोड्कर जाने लगे, अपनी पत्नी को एक बार न देख लेना चाहोगे—जिसे इतना चाहा, जिसे सारी चाहत दी! अपने बेटे पर एक दफा हाथ न फेर लेना चाहोगे? यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह मनोवैज्ञानिक है। ऐतिहासिक है या नहीं, इससे कुछ अर्थ नहीं।
तो जिसने यह बात लिखी, वह मनुष्य के मन को समझकर लिख रहा है। हो सकता है, बुद्ध जिद्दी किस्म के आदमी रहे हों और चले गए हों। लेकिन बात जंचेगी नहीं। अगर ऐसा लिखा जाए कि बुद्ध चुपचाप उठे और चल दिए और लौटकर भी न देखा, तो यह बात मानवीय नहीं है, अमानवीय हो जाती है। आदमी तो लौट—लौटकर देखेगा, पछताएगा, सोचेगा हजार बार, लौट—लौट आएगा, जाकर भी लौट—लौट आएगा।
फिर कथा कहती है—चलो यह भी बात समझ में आ जाती है कि शायद हुई भी हो, ऐतिहासिक भी हो सकती है—जब बुद्ध अपने रथ पर सवार होकर चलने लगे तो उनके घोड़े की टापें इतने जोर से पड़ती हैं कि सारा नगर जग जाएगा। राजा के घोड़े, राजा का रथ, घोड़े की टापें—वे श्रेष्ठतम घोड़े थे उस समय के, उनकी टापें इतने जोर से पड़ेगी कि सारा गांव जाग जाएगा, अड़चन हो जाएगी। पुराण कहता है, देवताओं को लगा कि कहीं लोग जाग गए तो बुद्ध का यह जो महा अभिनिष्कमण है, रुक जाएगा। देवताओं को लगा!
देवता प्रतीक है शुभ का, जैसे शैतान प्रतीक है अशुभ का। कोई देवता कहीं है, ऐसा नहीं है। लेकिन देवता प्रतीक है शुभ का—इस अस्तित्व को भी शुभ को बचाने की आकांक्षा होती है, होनी चाहिए, ऐसा पुराण कहता है।
तो देवताओं को लगा कि यह घोड़ों की टाप से तो बुद्ध का जाना न रुक जाए। बुद्ध का जाना रुका, तो अनंत— अनंत काल में कभी कोई बुद्ध होता है, वह महा घटना रुक जाएगी। अगर बुद्धू बुद्ध न हुए, तो करोड़ों लोग ‘ जो उनके पीछे चलकर बुद्धत्व की यात्रा करते, वे वंचित रह जाएंगे। तो अस्तित्व में जो शुभ का तत्व है, उसने तत्क्षण इंतजाम किया। उसने बड़े—बड़े कमल के फूल बिछा दिए, घोड़ों के पैर कमल के फूलों पर पड़ने लगे, उनकी चोट गांव में किसी को सुनायी न पड़ी।
अब यह हुआ, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। मगर ऐसा होना चाहिए, यह हमारी आकांक्षा है। पुराण मनुष्य की उदात्त आकांक्षा है।
पुराण यह कह रहा है, यह अस्तित्व हमारे प्रति उपेक्षापूर्ण नहीं हो सकता, जब तुम शुभ करोगे तो अनंत शक्तियां तुम्हारा साथ देंगी। इस बात को प्रतीक में रख दिया। जब तुम बुरा करोगे, तब तुम अकेले, जब तुम भला करोगे, तो सारा अस्तित्व तुम्हारा साथ देगा। होना भी ऐसा ही चाहिए! होना भी ऐसा ही चाहिए।
नहीं तो फिर अस्तित्व का अर्थ हुआ कि वह तटस्थ है, उसे हमारे जीवन से कुछ लेना—देना नहीं है —हम चोरी करें, हत्या करें, या हम पुण्य करें, दान करें, हम प्रेम करें कि घृणा करें, हम धन जुटाएं कि ध्यान में उतरें, अस्तित्व को कोई प्रयोजन नहीं है। यह दुनिया बडी फीकी हो जाएगी। इसका अर्थ हुआ, कुछ लेना—देना नहीं है अस्तित्व को, हम कुछ भी करते रहें। फिर हमारे करने का मूल्य क्या है? फिर हमने धन इकट्ठा किया कि ध्यान इकट्ठा किया, अगर दोनों में अस्तित्व कोई भेद ही नहीं करता, तो फिर यहां साधु —असाधु बराबर।
पुराण कहता है, नहीं, अस्तित्व फिक्र करता है। जब तुम बुरा करते हो, तब तुम अकेले, तब तुम्हें अस्तित्व साथ नहीं देता। बुरे के तुम अकेले जिम्मेवार हो। तो बुरा करते वक्त खयाल रखना। और जब तुम शुभ करते हो तो सारा अस्तित्व साथ देता है। अस्तित्व चाहता है कि शुभ हो। इस महत्वाकांक्षा को, इस अभीप्सा को प्रगट किया है कथा में।
कथा में तो प्रतीक होते हैं, कहानी में तो प्रतीक होते हैं, प्रतीकों में बात छिपी होती है। देवताओं ने कमल के फूल बिछा दिए, घोड़ों की टाप किसी को सुनायी नहीं पड़ी। देवताओं ने ऐसी नींद फैला दी गांव में कि सारी राजधानी गहरी निद्रा में खो गयी। जो द्वार था गांव का, उसके खुलने की आवाज कोसों तक सुनायी पड़ती थी—पुराने राजकोटों के द्वार—जब द्वार खोला गया तो सारा गांव जैसे क्लोरोफार्म दे दिया गया।
अब ऐसा हुआ हो, यह सवाल नहीं है। यह पूछना ही मत कि ऐसा हुआ कि नहीं हुआ। यह पूछा कि तुमने गलत प्रश्न पूछा। मगर ऐसा होना चाहिए। बुद्ध के महा अभिनिष्कमण की रात्रि, जीवन के शुभतत्व ने सब तरह से साथ दिया।
पुराण का अर्थ होता है, जो दिखायी पड़ता है वही नहीं, जो अनदिखा है उसको उघाड़ना है। जो दिखायी पड़ता है वह तो इतिहास पकड़ लेगा, जो नहीं दिखायी पड़ता उसे पुराण पकड़ता है। पश्चिम में पुराण जैसी कोई बात नहीं है, इसलिए पश्चिम का इतिहास दरिद्र है। पश्चिम के इतिहास में काव्य नहीं है। जब इतिहास में काव्य जुड़ जाता है तो पुराण पैदा होता है। पूरब ने इतिहास नहीं लिखा, पुराण लिखा, पश्चिम ने इतिहास लिखा।
इसलिए जब पश्चिम का कोई विचारक आता है तो वह व्यर्थ की बातें पूछता है, वह कहता है कि बुद्ध इस तारीख में हुए कि नहीं हुए? इस पर वर्षों मेहनत करते हैं लोग कि किस तारीख को पैदा हुए। हम इसकी चिंता ही नहीं करते, हम कहते हैं, कोई भी तारीख काम दे देगी।
अब देखो, बुद्ध के जीवन में यह उल्लेख है कि बुद्ध पूर्णिमा की रात्रि में पैदा हुए। फिर पूर्णिमा की रात्रि में ही संबोधि को उपलब्ध हुए, फिर पूर्णिमा की रात्रि में ही मरे। यह बात पुराण की लगती है, इतिहास की नहीं लगती। ऐसा हो भी सकता है संयोगवशांत, कोई आदमी पूर्णिमा को ही पैदा हो, पूर्णिमा ही को ज्ञान को उपलब्ध हो, पूर्णिमा को ही मरे, लेकिन यह बात जरा पौराणिक मालूम पड़ती है, ऐतिहासिक कम। वही दिन पैदा होना, वही दिन ज्ञान को पाना, वही दिन मर जाना, इतना संयोग बैठना जरा मुश्किल होता है। यह शायद इतिहास की बात नहीं भी हो, लेकिन यह बात मूल्यवान है।
पूर्णिमा तो प्रतीक है पूर्णता का। उस पूर्णता के प्रतीक को पकड़कर पुराण कहता है, बुद्ध पूरे पैदा हुए—पूर्णिमा की रात पैदा हुए—शीतल पैदा हुए, पूरी छवि से पैदा हुए, पूरे सौंदर्य से पैदा हुए, अपूर्व अमृत को लेकर पैदा हुए। फिर पूर्णिमा की रात्रि ही उनके भीतर छिपा हुआ यह अमृत बहा, प्रगट हुआ, स्फुटित हुआ, यह कमल खिला। फिर पूर्णिमा की रात को ही बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए, क्योंकि ज्ञान भी पूर्णिमा की रात्रि है। फिर बुद्ध पूर्णिमा की रात्रि ही विदा हुए, क्योंकि मृत्यु भी बुद्ध की पूर्ण होगी, जन्म भी पूर्ण होगा। बुद्ध के जीवन में सभी पूर्ण है। इस बात को कहने के लिए कि बुद्ध के जीवन में सभी पूर्ण है, हमने यह प्रतीक चुन लिया, यह पूर्णिमा की रात्रि। प्रतीक लोग अलग— अलग चुनते हैं, लेकिन प्रतीक मूल्यवान न होकर, प्रतीकों में जो हम अर्थ डालते हैं वह मूल्यवान है।
इसलिए बुद्धपुरुषों के पास पुराण खड़ा होता, पुराण कथाएं निर्मित होतीं। उन्हीं पुराण कथाओं के अर्थ को पकड़ लेकर तुम बुद्धत्व को समझोगे कि क्या अर्थ है।
दुनिया में दो तरह के नासमझ हैं। एक हैं जो सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि ये पुराण कथाएं सच हैं, ऐतिहासिक अर्थों में सच हैं, ये पागल हैं। इनकी वजह से व्यर्थ की झंझट खड़ी होती है। ये कविताओं को सत्य सिद्ध करने में लग जाते हैं। जैसे किसी ने कहा कि चांद को देखकर मुझे अपनी प्रेयसी की याद आ गयी, और चांद ऐसे लगा जैसे मेरी प्यारी का मुखड़ा हो।
अब तुम इससे झगड़ा करने लग सकते हो कि चांद और प्यारी के मुखड़े में कोई संबंध नहीं है। कहा चांद, कहां प्यारी का मुखड़ा! तुम्हें कुछ होश है! कितना बड़ा चांद और कितना सा मुखड़ा, छोटा सा। अब यह प्यारी के ऊपर इतना बड़ा चांद रख दो तो मर ही जाएगी। और चांद, तुम्हें पता है, अभी तो वैज्ञानिक पत्थर—कंकड़ भी ले आए वहा से, वहा कुछ सौंदर्य नहीं है। कंकड़—पत्थर, मिट्टी, खाई—खड्ड, यही है। कहां प्यारी का मुखड़ा और कहां चांद! कहां खाई——खड्डों से तुम प्यारी के मुखड़े की बात कर रहे हो! होश में हो?
अगर कोई ऐसी जिद्द करे तो मुश्किल में डाल देगा। तुम सिद्ध न कर पाओगे, तुम कहोगे कि क्षमा करो, कविता लिखी, गलती हो गयी।
मगर तुम समझे नहीं। क्योंकि कविता जिसने लिखी थी वह यह कह भी नहीं रहा था, जो तुम कह रहे हो। वह तो इतना ही कह रहा था कि कुछ साम्य, कुछ तालमेल, चांद को देखकर किसी सौंदर्य का भीतर आगमन, चांद को देखकर भीतर किसी लहर का जन्म लेना। वह लहर ठीक वैसे ही है जैसी मेरी प्रेयसी के चेहरे को देखकर मेरे भीतर लेती है। उन दोनों सौंदर्यों में कुछ समता है, कुछ तालमेल है—एक ही वेवलेंथ—इतना ही कह रहा है वह।
यह नहीं वह कह रहा कि चांद और मेरी प्रेयसी का मुखड़ा एक सी चीज हैं, वह कोई गणित के हिसाब से नहीं बोल रहा है, वह इतना ही कह रहा है कि चांद को देखकर भी मेरे भीतर कुछ वैसी ही कसमसाहट हो जाती है जैसी मेरी प्यारी के चेहरे को देखकर हो जाती है। चांद के साथ भी मैं वैसा ही लवलीन हो जाता हूं जैसा मैं अपनी प्यारी के चेहरे को देखकर लवलीन हो जाता हूं इतना ही कह रहा है। वह एक साम्य की बात कर रहा है। और साम्य बड़ा बारीक है और साम्य चांद में और प्यारी के चेहरे में नहीं है, साम्य उसके हृदय में है।
तो जिन्होंने लिखा है कि बुद्ध पूर्णमा को पैदा हुए, बुद्ध पूर्णमा को ज्ञान को उपलब्ध हुए, बुद्ध ने पूर्णिमा को शरीर त्यागा, हो सकता है यह पूर्णिमा उनके भक्तों के हृदय में हो, यह भक्तों ने अनुभव किया हो कि ऐसा होना ही चाहिए। बुद्ध और किसी और दिन पैदा हो जाएं, यह बात जंचेगी नहीं। अब जैसे दसमी को पैदा हो गए, जरा जंचेगी नहीं, जरा बेहूदा लगेगा, ऐसा होना नहीं चाहिए कि बुद्ध और दसमी को पैदा हो गए! कि म्यारस को ज्ञान हो गया! यह बात कुछ जंचेगी नहीं। जरा सोचो तुम, दसमी को बुद्ध का पैदा होना जंचता नहीं, पूर्णिमा को बात बिलकुल ठीक पड़ती है, ऐसा होना चाहिए। जिन्होंने बुद्ध को प्रेम किया है, उनके हृदय में झांको तो बात खयाल में आ जाएगी।
जब बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो कथाएं कहती हैं, जिस वन में निरंजना के तीर पर बैठकर उनको ज्ञान हुआ, अचानक बेमौसम फूल खिल गए। अगर कोई वैज्ञानिक इसका परीक्षण करने जाएगा तो मुझे लगता नहीं कि कोई बेमौसम फूल खिलेंगे। लेकिन खिलने चाहिए। इतने लोगों के हृदय के फूल खिले, इसको कैसे प्रगट करैं! इसको प्रगट करने के लिए एक व्यवस्था खोज ली, एक काव्य बनाया कि जब बुद्ध को ज्ञान हुआ तो वृक्षों में बेमौसम फूल खिल गए। अभी मौसम न था, लेकिन इतनी बड़ी घटना घटी हो तो कौन मौसम की और गैर—मौसम की फिकर करता है, यह मौका आ गया है कि फूल खिलने ही चाहिए। सूखे वृक्ष पुन: हरे हो गए, जिनमें वर्षों से अंकुर नहीं आए थे फिर अंकुर आ गए। होना चाहिए ऐसा। कितने सूखे हृदय अंकुरित हुए! इसको कैसे कहोगे? कितने लोग जन्मों से सूखे पड़े थे, बुद्ध का अमृतकण उन पर पडा और वे हरे हो गए और उनमें नए अंकुर आ गए और जीवन ने नयी हरियाली देखी, नए गीत गाए। इस बात को प्रतीक की तरह स्वीकार करके, तो फिर पुराण का अर्थ साफ हो जाएगा।
तो एक तो इस तरह के पागल हैं, जो सिद्ध करते हैं कि जो पुराण में लिखा है वह वैसा ही है। वे भी पुराण की हत्या कर देते हैं। और दूसरे ऐसे भी पागल हैं, वे कहते हैं कि जो भी पुराण में है वह सब असत्य है। वे भी हत्या कर देते हैं।
न तो सब सत्य है और न सब असत्य है। पुराण में बडा काव्यात्मक सत्य है। काव्यात्मक सत्य का अर्थ होता है, सत्य बड़े प्यारे और मीठे ढंग से कहा गया है। जब हम किसी बात को प्यारे और मीठे ढंग से कहते हैं तो असत्य का उपयोग किया जाता है। सत्य को इस ढंग से उपयोग किया गया है और असत्य को इस ढंग से उपयोग किया गया है कि दोनों में विरोध नहीं रहा। पुराण का अर्थ है, सत्य को कहने में असत्य का भी उपयोग कर लिया है।
यह बड़ी अदभुत बात है। होना ऐसा ही चाहिए कि असत्य भी सत्य की सीढ़ी बन जाए। असत्य का भी उपयोग कर लिया, उसको भी व्यर्थ नहीं जाने दिया। काव्य का भी उपयोग कर लिया, कथा का भी उपयोग कर लिया, उसको व्यर्थ नहीं जाने दिया। कुछ छोडा नहीं, जीवन में जो भी था सबको ठीक से जमा लिया उस महासंगीत के लिए।

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