Thursday 24 September 2015

मैं कुछ अर्थ करता हूं, वह समझने की कोशिश करो।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा भौतिकशास्त्री है—ली कांते दूनाय उसने एक अनूठी बात कही—ली कांते दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे लगा कि यह तो मध्यदेश की बात कर रहा है। मगर बुद्ध और ली कांते दूनाय में तो पच्चीस सौ साल का फासला है। और बिना ली कांते दूनाय के बुद्ध के मध्यदेश की परिभाषा नहीं हो सकती। इसलिए मैं क्षमा करता हूं जिन्होंने दो हजार पाच सौ साल में मध्यदेश की इस तरह की व्याख्या की है। उन पर मैं नाराज नहीं हूं क्योंकि वे कुछ कर नहीं सकते थे।
एक अनूठी बात तय ने खोजी है और वह यह कि मनुष्य अस्तित्व में ठीक मध्य में है। मध्यदेश है। छोटे से छोटा है परमाणु, एटम और बड़े से बड़ा है विश्व। और ली कांते दूनाय ने सिद्ध किया है कि मनुष्य इनके, दोनों के ठीक बीच में मध्यदेश है। ठीक बीच में है। इसका अर्थ होता है, परमाणु में और मनुष्य के बीच में जो अनुपात है, मनुष्य जितने गुना बड़ा है परमाणु से, उतने ही गुना बड़ा विश्व है मनुष्य से। मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है—एक छोर पर परमाणु है, परमाणु और मनुष्य के बीच. जितना फासला है, उतना ही फासला मनुष्य और विश्व की परिधि के बीच है। वे फासले बराबर हैं। और मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है।
ली कांते दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे धम्मपद का यह वचन याद आया। शायद ली कांते दूनाय को तो बुद्ध के इस वचन का कोई पता भी न होगा। हो भी नहीं सकता। लेकिन यह मध्यदेश का अर्थ हो सकता है—होना चाहिए—कि बुद्धपुरुष मनुष्य में ही पैदा होते हैं, मनुष्य—योनि में ही पैदा होते हैं।
अब तक सुना भी नहीं गया कि कोई हाथी, कोई घोड़ा बुद्धपुरुष हुआ हो। देवता भी बुद्धपुरुष नहीं होते। मनुष्य से पीछे भी कोई बुद्धपुरुष नहीं होता, मनुष्य के आगे भी कोई बुद्धपुरुष नहीं होता, मनुष्य चौराहा है, चौरस्ता है। मनुष्य की कुछ खूबी है, वह समझ लेनी चाहिए, वह क्यों मध्यदेश है?
मध्यदेश की कुछ खूबी है, कुछ अड़चन भी है मध्यदेश की। मध्यदेश का मतलब होता है, बीच में खड़े हैं। न इस तरफ हैं, न उस तरफ, चौराहे पर खड़े हैं। मनुष्य का अर्थ है, अभी कहीं गए नहीं, खड़े हैं, सीढ़ी के बीच में हैं, दोनों तरफ जाने की सुविधा है—निम्नतम होना चाहें तो मनुष्य से ज्यादा नीच और कोई भी नहीं हो सकता। मनुष्य पशुओं से भी नीचा गिर जाता है। जब तुम कभी—कभी कहते हो, मनुष्य ने पशुओं जैसा व्यवहार किया, तो तुम कभी सोचना कि पशुओं ने ऐसा व्यवहार कभी किया है?
टालस्टाय ने लिखा है कि जब भी कोई कहता है कि इस मनुष्य ने पशुओं जैसा व्यवहार किया तो मुझे क्रोध आता है कि यह आदमी पशुओं के साथ ज्यादती कर रहा है। क्योंकि जैसे व्यवहार मनुष्य ने किए हैं, वैसे तो पशुओं ने कभी नहीं किए।
कौन से पशु ने एडोल्फ हिटलर जैसा काम किया है—या चंगेज खां, या तैमूर लंग, या जोसेफ स्टैलिन—किस पशु ने ऐसा काम किया है? किसी पशु ने ऐसा काम नहीं किया। पशु मारता है जरूर, हिंसा भी करता है, लेकिन भोजन के अतिरिक्त और किसी कारण से नहीं। अगर सिंह का पेट भरा हो, तो तुम उस,के पास से निकल सकते हो, वह हमला भी नहीं करेगा।
सिर्फ आदमी अजीब है, यह खिलवाड़ में भी मारता है, यह कहता है, शिकार करने जा रहे हैं! इसको कोई प्रयोजन नहीं है, यह मारकर खाएगा भी नहीं, भूखा भी नहीं है, भरा पेट है, लेकिन खेल के लिए जा रहा है! और जब यह आदमी जाकर जंगल में किसी जानवर को मार लेता है, तो कहता है, खूब मजा आया! शिकार हुई! और अगर जंगली जानवर इसको मार ले, तब यह नहीं कहता कि खूब मजा आया, शिकार हुई। जंगली जानवर ने शिकार की, तब शिकार नहीं कहता। और जंगली जानवर कभी शिकार के लिए शिकार नहीं करता, जब भूखा होता है तभी।
मैंने सुना है, एक दिन एक सिंह और एक खरगोश एक होटल में गए। दोनों बैठ गए, तो खरगोश ने बेयरे को बुलाया और कहा कि नाश्ता ले आओ। तो बेयरे ने पूछा, और आपके मित्र क्या लेंगे? खरगोश ने कहा, बात ही मत करो, अगर मित्र भूखे होते तो तुम सोचते हो मैं यहां इनके पास बैठा होता! वह नाश्ता कर चुके होते! मित्र भूखे नहीं हैं, तभी तो मैं इनके पास बैठा हूं।
जानवर तो केवल तभी मारता है जब भूखा होता है। आदमी खेल में, खिलवाड़ में मारता है। हिंसा खिलवाड़ है। दूसरे का जीवन जाता है, तुम्हारे लिए खेल है! फिर कोई जानवर अपनी ही जाति के जानवरों को नहीं मारता—कोई सिंह सिंह को नहीं मारता है, और कोई सांप किसी सांप को नहीं काटता, और कोई बंदर कभी किसी बंदर की गर्दन काटते नहीं देखा गया है। आदमी अकेला जानवर है जो आदमियों को काटता है। और एक—दों में नहीं, करोड़ों में काट डालता है। इसके पागलपन की कोई सीमा नहीं है।
तो अगर आदमी गिरे तो पशु से बदतर हो जाता है, और अगर आदमी उठे तो परमात्मा के ऊपर हो जाता है। बुद्धत्व का अर्थ है, उठना; पशुत्व का अर्थ है, गिरना; और मनुष्य मध्य में है। इसलिए दोनों तरफ की यात्रा बराबर दूरी पर है। जितनी मेहनत करने से आदमी परमात्मा होता है, उतनी ही मेहनत करने से पशु भी हो जाता है। तुम यह मत सोचना कि एडोल्फ हिटलर कोई मेहनत नहीं करता है, मेहनत तो बड़ी करता है तब हो पाता है। यह मेहनत उतनी ही है जितनी मेहनत बुद्ध ने की भगवान होने के लिए, उतनी ही मेहनत से यह पशु हो जाता है।
उतने ही श्रम से तुम ध्यान की संपदा पा लोगे, जितने श्रम से तुम अपने को गंवा दोगे। तुम पर निर्भर है, तुम ठीक मध्य में खड़े हो, उतने ही कदम उठाकर तुम पशु के पास पहुंच जाओगे, पशु से भी नीचे। और उतने ही कदम उठाकर तुम परमात्मा हो जा सकते हो। यह अर्थ है मध्यदेश का। और स्वभावत: मध्य में से ही चौराहा जाता है।
पुरूष श्रेष्ठ दुर्लभ है, वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता, वह मध्यदेश में ही उत्पन्न होता है और जन्म से ही महाधनवान होता है।
तो मनुष्य की महिमा भी अपार है, क्योंकि यहीं से द्वार खुलता है। और मनुष्य का खतरा भी बहुत बड़ा है, क्योंकि यहीं से कोई गिरता है। तो सम्हलकर कदम रखना, एक—एक कदम फूंक—फूंककर रखना। क्योंकि सीढ़ी यहीं से नीचे भी जाती है, जरा चूके कि चले जाओगे।
और सदा खयाल रखना, गिरना सुगम मालूम पड़ता है, क्योंकि गिरने में लगता है कुछ करना नहीं पड़ता, उठना कठिन मालूम पड़ता है। यद्यपि गिरना भी सुगम नहीं है, उसमें भी बड़ी कठिनाई है, बड़ी चिंता, बड़ा दुख, बड़ी पीड़ा। लेकिन साधारणत: ऐसा लगता है कि गिरने में आसानी है—उतार है। चढ़ाव पर कठिनाई मालूम पड़ती है। लेकिन चढ़ाव का मजा भी है। क्योंकि शिखर करीब आने लगता है आनंद का, आनंद की हवाएं बहने लगती हैं, सुगंध भरने लगती है, रोशनी की दुनिया खुलने लगती।
तो चढ़ाव की कठिनाई है, चढ़ाव का मजा है। उतार की सरलता है, उतार की अड़चन है। मगर हिसाब अगर पूरा करोगे तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि बराबर आता है हिसाब। बुरे होने में जितना श्रम पड़ता है, उतना ही श्रम भले होने में पड़ता है। इसलिए वे नासमझ हैं, जो बुरे होने में श्रम लगा रहे हैं। उतने में ही तो फूल खिल जाते। जितने श्रम से तुम दूसरों को मार रहे हो, उतने में तो अपना पुनर्जन्म हो जाता।
और भी आगे बुद्ध ने कहा कि वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में ही उत्पन्न होते हैं। इसकी भी झंझट रही है सदियों तक। क्षत्रिय या ब्राह्मण. कुल में ही उत्पन्न होते हैं। तो फिर वैश्य और शूद्रों का क्या? फिर रैदास तो शूद्र हैं। रैदास का क्या! तो क्या फिर वैश्यों और शूद्रों में कभी कोई बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुआ?
ब्राह्मण और क्षत्रिय तो ऐसा मानना चाहेंगे कि नहीं, कोई कभी उत्पन्न नहीं हुआ। लेकिन यह बात गलत है। जीसस तो बढ़ई हैं। मोहम्मद व्यवसायी हैं। मोहम्मद व्यवसाय ही करते थे, जब उन्हें पहली दफा इलहाम हुआ। तो यह अर्थ तो नहीं हो सकता। और यह अर्थ इसलिए भी नहीं हो सकता कि बुद्ध ने तो बार—बार इनकार किया है कि मैं वर्णों को मानता नहीं, मैं मानता नहीं कि कोई ब्राह्मण है, कि कोई शूद्र है, कि कोई क्षत्रिय है। जन्म से तो कोई वर्ण हैं नहीं, इसलिए बुद्ध के वचन का यह अर्थ तो हो नहीं सकता। बुद्ध ने तो वर्णों की पूरी धारणा को ही इनकार किया है—वही तो उनकी क्रांति थी। फिर बुद्ध का क्या अर्थ होगा?
मैं कुछ अर्थ करता हूं वह अर्थ ऐसा कि वही व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, जिसमे ब्राह्मण के जैसी ब्रह्म को खोजने की आकांक्षा हो, और क्षत्रिय जितना साहस हो जीवन को दाव पर लगा देने का। मैं इसकी भी फिकर नही करता कि बौद्ध पंडित मुझसे राजी होंगे कि नहीं—पंडितों की मैं फिकर ही नहीं करता हूं। लेकिन मेरा यह अर्थ है। क्षत्रिय से मेरा अर्थ है, साहस। वह प्रतीक है साहस का। दाव पर लगाने की बात है।
यही मैं भी मानता हूं कि व्यवसायी बुद्धि का आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो सकता। मैं यह नहीं कहता—कि वैश्य उपलब्ध नहीं हो सकता, लेकिन व्यवसायी बुद्धि का आदमी नहीं उपलब्ध हो सकता। क्योंकि व्यवसायी कभी हिम्मत ही नहीं करता, वह कौड़ी—कौड़ी का हिसाब लगाता रहता है, हिम्मत क्या करे! जुआरी उपलब्ध हो सकता है, वह सब दाव पर लगाने की हिम्मत करता है—वह कहता है, या इस तरफ, या उस तरफ। या तो पार हो जाएंगे, या डूब जाएंगे, ठीक।
व्यवसायी सोचता है कि लाभ कितना होगा, हानि कितनी होगी, पैसा घर में ही रखें तो इतना तो ब्याज ही आ जाएगा, धंधा करने से क्या सार है! धंधे में कुछ ज्यादा मिलता हो तो ही। लेकिन वह यह भी देखता रहता है कि कहीं ज्यादा मिलने के लोभ में ऐसा न हो कि खो जाए। तो इतनी दूर भी नहीं जाता। वह चालाकी से चलता है। क्षत्रिय और वैश्य का यही फर्क है।
तो व्यवसायी तो नहीं कभी सत्य को उपलब्ध हो पाता, यह मैं भी कहता हूं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वैश्य उपलब्ध नहीं हो पाता। क्योंकि बहुत वैश्य हो सकते हैं जो क्षत्रिय जैसा साहस रखते हों और बहुत से क्षत्रिय हो सकते हैं जो कि वणिक की बुद्धि के हों। कोई क्षत्रिय होने से थोड़े ही क्षत्रिय हो जाता है, साहस चाहिए। क्षत्रिय भी तो कायर होते हैं। इसलिए असली सवाल साहस का है।
और निश्चित ही ब्राह्मण जैसी ब्रह्म की खोज चाहिए। सभी ब्राह्मण में होती भी नहीं। इसलिए जिनमें ब्रह्म की खोज होती है, अभीप्सा होती है, उन्हीं को ब्राह्मण कहना उचित है। उन्हीं को बुद्ध ने भी ब्राह्मण कहा है। ब्रह्म के तलाशी, ब्रह्म को पा लेने वाले ब्राह्मण। शब्द भी साफ है। किसी खास घर में पैदा होने से तो कोई ब्राह्मण नहीं होता। लेकिन किसी खास भावदशा में पैदा हो जाने से ब्राह्मण होता है।
तो यह मैं भी कहता हूं कि ब्राह्मण ही उपलब्ध होंगे, लेकिन ब्राह्मण से जन्मवाची अर्थ मत लेना; ब्रह्म के तलाशी, सत्य के खोजी। स्वभावत: जिसने खोज ही नहीं की, वह पहुंचेगा कैसे? जो चला ही नहीं, वह पहुंचेगा क्यों?
और शूद्र कभी उपलब्ध नहीं हो सकते बुद्धत्व को, इसका मतलब भी जन्मवाची मत लेना। शूद्र का अर्थ ही वही है, जो क्षुद्र में उलझे हैं। छोटी—मोटी चीजों में उलझे हैं। एक मकान बना लें, भोजन मिल जाए, अच्छे वस्त्र मिल जाएं, बस खतम हुआ—जीवन का सार समाप्त हुआ, जीवन की इति आ गयी। क्षुद्र में जिनका उलझाव है, वे ही शूद्र। विराट में जिनका लगाव है, वे ही ब्राह्मण।
तो इस अर्थ में बुद्ध ने ठीक ही किया कि वैश्य और शूद्र को छोड़ दिया। उन्होंने कहा, वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में ही उत्पन्न होते हैं। ठीक ही किया। क्योंकि बहुत से शूद्र भी ब्राह्मण हो सकते हैं, और बहुत से ब्राह्मण भी शूद्र हो सकते हैं। बहुत से वैश्य क्षत्रिय हो सकते हैं, बहुत से क्षत्रिय वैश्य हो सकते हैं। इसे खयाल में लेना, तब एक अलग अर्थ प्रगट होगा।
तो दो गुण चाहिए। बिना दो गुणों के न होगा। ब्रह्म की खोज हो और साहस न हो, तो तुम बैठे रहोगे, तुम्हारी खोज नपुंसक रहेगी। तुम बैठे घर में माला फेरते रहोगे। तुम किसी अनजान पथ पर प्रवेश न करोगे। तो अकेली खोज की आकांक्षा काफी नहीं है, खोज के लिए जाना भी पड़ेगा। फिर कोई दूसरा हो सकता है खोज के लिए तो निकल पड़ा है, लेकिन खोज की कोई प्रगाढ़ आकांक्षा नहीं है। तो वह भटकेगा। वह पहुंचेगा नहीं। सिर्फ घर से निकल पड़ने से थोड़े ही कोई पहुंच जाता है। दिशा भी साफ चाहिए, दृष्टिकोण सुथरा चाहिए। आंखें शुद्ध चाहिए, मन पवित्र चाहिए, प्यास ज्वलंत चाहिए। न
तो जहां खोज और प्यास का मिलन होता है, जहा कोई व्यक्ति ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों होता है, वहीं घटना घटती है, वहीं बुद्धत्व पैदा होता है—उसी कुल में।

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