Friday 4 September 2015

केवल मनुष्य अपनी ऊर्जा को दिशा देने और रूपांतरित करने की क्षमता रखता है। अन्यथा मृत्यु स्वाभाविक घटना है, प्रत्येक चीज मरती है। केवल मनुष्य अमृत को, चिन्मय को जान सकता है।
तो तुम इस पूरी चीज को एक नियम में सीमित कर सकते हो। अगर ऊर्जा बाहर जाती है तो मृत्यु उसका परिणाम है, और तब तुम कभी न जानोगे कि जीवन क्या है! तुम धीरे— धीरे मरना भर जानोगे, जीवित होने की प्रगाढ़ता का तुम्हें पता नहीं चलेगा। अगर किसी चीज की भी ऊर्जा बाहर जाती है तो उसकी मृत्यु अपने आप घटित होती है। और अगर तुम ऊर्जा की दिशा बदल देते हो, बाहर बहने की बजाय वह भीतर को ओर बहने लगे तो रूपांतरण संभव है। तब यह भीतर की ओर बहने वाली ऊर्जा एक बिंदु पर केंद्रित हो जाती है।
वह बिंदु नाभि—केंद्र के पास है, क्योंकि तुम नाभि के रूप में ही जन्म धारण करते हो। तुम अपनी नाभि से ही अपनी मां से जुड़े होते हो। फिर नाभि से ही मां की जीवन—ऊर्जा तुम्हें प्राप्त होती है। और नाभि के विच्छिन्न किए जाने पर ही तुम व्यक्ति बनते हो; उसके ‘पहले तुम व्‍यक्‍ति नहीं हो, मां के ही एक अंग हो। असली जन्म तो नाभि—रज्यू के कटने पर ही घटित होता है। तभी बच्चा अपना जीवन शुरू करता है, अपना केंद्र बनता है। वह केंद्र नाभि के पास होगा, क्योंकि नाभि से ही बच्चे को जीवन—ऊर्जा मिलती है। वही सेतु है। और तुम जानो न जानो, अभी भी नाभि ही तुम्हारा केंद्र है।
इसलिए अगर ऊर्जा भीतर बहने लगे, दिशा बदलने पर जब वह भीतर मुडने लगे, तो वह नाभि—केंद्र पर ही चोट करेगी। और जब ऊर्जा इतनी हो जाएगी कि केंद्र उसे अपने में समा न सके तो विस्फोट घटित होगा। उस विस्फोट में तुम पुन: व्यक्ति नहीं रह जाते। जैसे जब तुम मां से जुड़े थे तो व्यक्ति नहीं थे वैसे ही पुन: तुम व्यक्ति न रहोगे।
अब तुम्हारा एक नया जन्म हुआ। तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो गए। अब तुम्हारा कोई केंद्र न रहा, अब तुम ‘मैं’ नहीं कह सकते, क्योंकि अब अहंकार न रहा। बुद्ध, कृष्ण या महावीर ‘मैं’ का प्रयोग किए जाते हैं, लेकिन वह औपचारिक है। उनका अहंकार जाता रहा है, वे नहीं हैं।
बुद्ध मर रहे थे। जिस दिन उनकी मृत्यु होने को थी, अनेक लोग, उनके शिष्य और संन्यासी उनके पास इकट्ठे थे और रो रहे थे। बुद्ध ने पूछा, क्यों रोते हो? उन्होंने कहा कि शीघ्र ही आप विदा हो जाएंगे, इसलिए हम रोते हैं। बुद्ध हंसे और बोले, मैं तो चालीस वर्षों से नहीं हूं। मैं तो उसी दिन मर गया जिस दिन बुद्धत्व को प्राप्त हुआ। चालीस वर्षों से केंद्र नहीं रहा है। मत रोओ, मत दुखी होओ। अब कौन मरता है? मैं हूं ही नहीं।
लेकिन तो भी शब्द का प्रयोग तो करना ही होगा, यह भी बताने के लिए कि मैं नहीं हूं मैं का प्रयोग करना होगा।
ऊर्जा की अंतर्यात्रा ही धर्म का सारा सार है। धार्मिक खोज का वही अर्थ है, कैसे ऊर्जा को भीतर ले जाया जाए। और ये विधियां सहयोगी हैं। लेकिन स्मरण रहे, केंद्रित होना समाधि नहीं है, अनुभव नहीं है। केंद्रित होना समाधि का द्वार है। और जब अनुभव होता है तो केंद्र भी जाता रहता है। इसलिए केंद्रित होना मात्र मार्ग है।
अभी तुम केंद्रित नहीं हो। अभी तो तुम्हारे बहुत से केंद्र हैं, इसलिए केंद्रित नहीं हो। और जब केंद्रित होगे तब एक ही केंद्र रह जाएगा। तब जो ऊर्जा अनेक केंद्रों में चक्कर लगाती थी, वह लौट आती है। उसे ही घर वापिस आना कहते हैं। तब तुम अपने केंद्र पर हो। और तब विस्फोट घटित होता है। और तब फिर केंद्र खो जाता है। लेकिन तब तुम्हारे बहुत से केंद्र नहीं हैं, तब कोई भी केंद्र नहीं है। तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो गए। तब अस्तित्व और तुम एक ही अर्थ रखते हो।
उदाहरण के लिए, एक बर्फ का टुकड़ा सागर में तैर रहा है। उस हिमखंड का अपना एक केंद्र है, उसका अपना अलग व्यक्तित्व है। अभी वह सागर से भिन्न है। बहुत गहरे में तो वह सागर से अलग नहीं है, क्योंकि वह एक विशेष तापमान पर स्थित पानी ही है। स्वभावत: सागर के पानी और हिमखंड के पानी में भेद क्या है? वे एक ही हैं, फर्क सिर्फ तापमान का है। फिर सूरज उगता है और मौसम गर्म हो उठता है। और फिर हिमखंड पिघलने लगता है। तब फिर हिमखंड नहीं रहा, वह पिघलकर पानी हो गया। अब तुम उसे नहीं पा सकते, क्योंकि उसकी वैयक्तिकता नहीं रही, उसका केंद्र नहीं रहा, वह सागर के साथ एक हो गया।
वैसे ही तुम में और बुद्ध में, जीसस को सूली देने वालों में और जीसस में, कृष्ण में और अर्जुन में स्वभाव के तल पर कोई अंतर नहीं है। अर्जुन हिमखंड जैसा है और कृष्ण सागर जैसे हैं। स्वभाव में कोई फर्क नहीं है, वे वही हैं। लेकिन अर्जुन का एक रूप है, नाम है; उसका एक पृथक अस्तित्व है, और वह समझता है कि मैं हूं।
इन केंद्रित होने की विधियों के द्वारा तापमान बदलेगा, हिमखंड पिघलेगा, और तब कोई फर्क नहीं रह जाएगा। सागर होने का भाव समाधि है, हिमखंड होना मन है। सागर सा अनुभव करना अ—मन को उपलब्ध होना है। और केंद्रित होना मार्ग है—मार्ग का वह बिंदु जहां हिमखंड रूपांतरित होगा, हिमखंड नहीं रहेगा। रूपांतरण के पूर्व सागर नहीं था, सिर्फ हिमखंड था। रूपांतरण के पश्चात हिमखंड नहीं होगा, सिर्फ सागर होगा। सागर का भाव समाधि है—अपने को समस्त के भाव के साथ एक करना समाधि है।
लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने को समस्त के साथ एक रूप में सोचो। तुम सोच—विचार कर सकते हो, लेकिन सोच—विचार केंद्रित होने के पहले है, वह ज्ञानोपलब्धि नहीं है। तुम स्वयं नहीं जानते हो, तुमने सुना है, पढ़ा है और तुम चाहते हो कि किसी दिन तुम्हें भी यह घटित हो। लेकिन तुम स्वयं इस ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए हो। केंद्रित होने के पहले तुम सोच—विचार कर सकते हो, लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है। और केंद्रित होने के बाद विचार करने वाला कहां रहता है! तब तुम जानते हो। तब यह अनुभव घटित हुआ है। तब तुम नहीं हो, केवल सागर है।
केंद्रित होना उपाय है; समाधि मंजिल है। और समाधि में क्या घटित होता है, उसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा गया है, क्योंकि कुछ कहा ही नहीं जा सकता। और शिव बहुत वैज्ञानिक हैं। कहने में उनका कोई रस नहीं है, इसलिए वे सूत्रों में बोलते हैं। वे एक भी फिजूल शब्द नहीं उपयोग करेंगे। इसलिए वे इंगित करते हैं, इन शब्दों से इंगित करते हैं—अनुभव, आनंद, घटना। इतना ही नहीं, कभी—कभी तो वे सिर्फ ‘तब’ कहकर काम चला लेते हैं—’दो श्वासों के बीच केंद्रित हो, और तब।’ वे ‘तब’ पर ही रुक जाते हैं। और कभी वे कहेंगे कि दो अतियों के मध्य होओ और ‘वह’। ये उनके इशारे है—वह, तब, अनुभव, आनंद, घटना, विस्फोट। और वे वहीं रुक जाते हैं। क्यों त्र: हम तो चाहेंगे कि वे कुछ और कहें। उसके दो कारण हैं।
एक कि उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है। क्यों नहीं व्याख्या की जा सकती? ऐसे विचारक हैं, जैसे कि यूरोप के आधुनिक विधेयवादी, भाषा—विश्लेषक और अन्य, जो कहते हैं कि जो अनुभव किया जा सकता है वह बताया भी जा सकता है।
और उनके कहने में थोड़ी सचाई है। वे कहते हैं कि जिसे तुम अनुभव कर सकते हो उसे कह क्यों नहीं सकते हो? आखिर अनुभव क्या है? तुमने उसको समझा है तो तुम दूसरों को क्यों नहीं समझा सकते हो? इसलिए उनका कहना है कि अगर अनुभव है तो उसे व्यक्त भी किया जा सकता है। और अगर तुम व्यक्त नहीं कर सकते हो तो उसका यही मतलब है कि अनुभव ही नहीं है। तब तुम भ्रम में हो, उलझे हुए हो। जो अभिव्यक्त नहीं कर सकता, वह अनुभव क्या खाक करेगा! इस दृष्टिकोण के कारण वे कहते हैं कि धर्म बकवास है। तुम यह कहते हो कि मैंने अनुभव किया है, तो फिर तुम उसे अभिव्यक्त क्यों नहीं कर सकते?
बहुतों को उनकी बात जमती, लेकिन उनका तर्क निराधार है। धार्मिक अनुभवों की बात छोड़ो, साधारण अनुभव भी, बहुत सरल अनुभव भी नहीं व्यक्त किए जा सकते हैं, न समझाए जा सकते हैं।
समझो कि मेरे सिर में दर्द है। लेकिन अगर तुम्हें कभी सिरदर्द नहीं हुआ हो तो मैं तुम्हें सिरदर्द क्या है, यह नहीं समझा सकता। उसका यह अर्थ नहीं है कि मैं मंदबुद्धि हूं या कि मैं सिर्फ सोचता हूं मैंने अनुभव नहीं किया है। सिरदर्द है और उसे मैं उसकी समग्रता में अनुभव करता हूं उसकी पूरी पीड़ा के साथ अनुभव करता हूं। लेकिन अगर तुम्हें कभी भी सिरदर्द नहीं हुआ है तो मैं मेरा सिरदर्द तुम्हें कभी बता न सकूंगा। ही, अगर तुम्हें भी सिरदर्द का अनुभव है तो कोई समस्या नहीं है, बात बतायी जा सकती है।
बुद्ध की कठिनाई यही है कि उन्हें गैर—बुद्धों के साथ—गैर—बौद्धों के साथ नहीं, क्योंकि गैर—बौद्ध भी बुद्ध हो सकते हैं, जीसस गैर—बौद्ध होकर भी बुद्ध थे—उन्हें गैर—बौद्धों के साथ बात करनी है। बुद्ध को उनसे संवाद करना है जिन्हें अनुभव नहीं हुआ है। यही कठिनाई है। तुम्हें नहीं मालूम कि सिरदर्द क्या है। बहुत हैं जिन्हें सिरदर्द नहीं मालूम है। उन्होंने सिरदर्द का नाम ही सुना है, जिसका कोई मतलब नहीं।
तुम अंधे आदमी को प्रकाश के संबंध में बता सकते हो, लेकिन वह क्या समझेगा? वह प्रकाश शब्द सुनेगा, वह प्रकाश की व्याख्या सुनेगा, वह प्रकाश का पूरा सिद्धात भी समझ सकता है। लेकिन इसके बावजूद प्रकाश शब्द से उस तक कुछ भी संप्रेषित नहीं होगा। जब तक उसे प्रकाश का अनुभव न हो, संवाद असंभव है।
इसलिए यह बात ध्यान में रख लो कि संवाद तभी संभव है जब समान अनुभव वाले दो व्यक्ति परस्पर संवाद करें। हम सामान्य जीवन में परस्पर संवाद कर पाते हैं, क्योंकि हमारे अनुभव समान हैं। लेकिन सामान्य जीवन में भी अगर कोई बाल की खाल उतारने लगे तो कठिनाई होगी।
मैं कहता हूं कि आसमान नीला है। लेकिन यह कैसे निर्णय हो कि नीलेपन के मेरे और तुम्हारे अनुभव एक ही हैं! तय करना संभव नहीं है। मैं नीलेपन की एक छटा देखूं और तुम उसकी दूसरी छटा देखो। लेकिन तब उसे कैसे संप्रेषित किया जाए? मैं इतना ही कहूंगा कि नीला है, तुम भी उतना ही कहोगे। लेकिन नीलेपन की हजार छटाएं हैं; छटाएं ही नहीं, उसके हजार अर्थ हैं। मेरे मन के ढांचे में नीले का एक अर्थ होगा, तुम्हारे मन के ढांचे में दूसरा अर्थ हो सकता है। क्योंकि नीला अर्थ नहीं है, अर्थ तो सदा मन के ढांचे में है।
तो सामान्य अनुभवों में भी संवाद कठिन है। फिर और थोड़े गहन अनुभव हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति प्रेम में पड़ गया है। वह कुछ अनुभव कर रहा है, उसका पूरा जीवन दांव पर है, लेकिन वह बता नहीं सकता कि उसे क्या हो रहा है। वह रो सकता है, वह गा सकता है, नाच सकता है। ये इशारे हैं कि उसे कुछ हो रहा है। लेकिन उसे क्या हो रहा है? जब किसी को प्रेम घटित होता है तो यथार्थत: क्या होता है?
और प्रेम कोई असामान्य घटना नहीं है। किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति प्रेम के प्रभाव में आता है। लेकिन तो भी हम अब तक व्यक्त नहीं कर पाए कि प्रेम की हालत में प्रेमी के भीतर क्याघटित होता है। ऐसे लोग हैं जिन्हें प्रेम बुखार की तरह, रोग की तरह घेरता है।
रूसो कहता है कि युवावस्था मनुष्य—जीवन का शिखर नहीं हो सकती, क्योंकि युवावस्था प्रेम नामक रोग का शिकार होती है। जब तक कोई इतना पौढ़ न हो जाए कि प्रेम सब अर्थ खो बैठे तब तक आदमी का मन धुएं से भरा रहता है। बहुत वृद्धावस्था में ही विवेक संभव होता है। रूसो का खयाल कि प्रेम बुद्धिमान नहीं होने देता है।
लेकिन दूसरे हैं जो और ही ढंग से सोचते हैं। जो लोग सचमुच बुद्धिमान हैं वे प्रेम के संबंध में चुप रह जाएंगे। वे कुछ नहीं बोलेंगे। क्योंकि प्रेम का भाव इतना असीम है, प्रगाढ़ है कि भाषा वहां व्यर्थ हो जाती है। अगर कोई उसे अभिव्यक्त करे तो उसे अपराध— भाव सताएगा, क्योंकि वह असीम के भाव के साथ न्याय नहीं हो सकता, इसलिए वह चुप रह जाएगा। जितना प्रगाढ़ अनुभव होगा उतनी ही अभिव्यक्ति की संभावनाएं कम होंगी।

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