Tuesday 8 September 2015

सा है मानो बिना केंद्र का वर्तुल। उसका जीवन सतही है, उसका जीवन बस परिधि पर है। तुम बाहर—बाहर रहते हो, कभी भीतर नहीं रहते। तुम भीतर नहीं रह सकते, जब तक कि केंद्र उपलब्ध न हो। तुम भीतर नहीं रह सकते हो। सच तो यह है कि केंद्र के बिना अंतस भी नहीं होता है।
यही कारण है कि हम अंतस की बात किए जाते हैं कि कैसे भीतर जाएं, कि कैसे अपने को जानें, लेकिन ये बातें कुछ प्रामाणिक अर्थ नहीं रखतीं। शब्दों का अर्थ तो तुम जानते हो, लेकिन भीतर गए बिना उनके अर्थ को अनुभव नहीं कर सकते।
और तुम कभी वहां गए नहीं हो। जब तुम अकेले भी होते हो तब भी मन से तुम भीड़ में होते हो। जब बाहर कोई नहीं है तब भी तुम भीतर नहीं होते, तुम दूसरों की ही सोचे जाते हो, तुम बाहर ही गति करते हो। यहां तक कि नींद में भी तुम दूसरों के सपने देखते रहते हो। तुम भीतर कभी होते ही नहीं। सिर्फ बहुत गहरी नींद में, जब स्वप्न नहीं चलते, तुम भीतर होते हो; लेकिन तब तुम मूर्च्छित हो जाते हो।
इस तथ्य को याद रखो कि जब तुम सचेत होते हो तब भीतर नहीं होते, और जब गहरी नींद में कभी भीतर होते हो तब तुम अचेत होते हो। इसलिए तुम्हारा पूरा चेतन बाहर—बाहर से बना है। और इसलिए जब हम भीतर जाने की बात करते हैं तो शब्द तो समझ लेते हैं, लेकिन उनके अर्थ हाथ नहीं आते। क्योंकि अर्थ शब्दों से नहीं आते, अर्थ अनुभव से आते हैं।
शब्द तो बिना अर्थ के हैं। जब मैं ‘भीतर’ शब्द बोलता हूं तो तुम शब्द को समझ लेते हो, लेकिन केवल शब्द को, उसके अर्थ को नहीं। यह भीतर क्या है, तुम नहीं जानते; क्योंकि सचेतन रूप से तुम कभी भीतर नहीं गए। तुम्हारा मन सतत बाहर ही बाहर जा रहा है। तुम्हें कुछ भी बोध नहीं है कि अंतस क्या है, उसका अर्थ क्या है।
जब मैं कहता हूं कि तुम बिना केंद्र के वर्तुल हो, केवल परिधि हो, उसका यही मतलब है। केंद्र तो है, लेकिन तुम उसमें तब उतरते हो जब अचेत रहते हो। और जब तुम सचेत होते हो तो बाहर यात्रा करते हो। और यही कारण है कि तुम्हारे जीवन में त्वरा नहीं है, तुम्हारे जीवन में जीवन नहीं है। तुम्हारा जीवन कुनकुना—कुनकुना है। तुम ऐसे जीवित हो जैसे मरे हुए हो, या साथ—साथ। तुम मृत जीवन जीते हो। तुम उच्चतम पर नहीं, तुम उच्‍चतम पर नहीं। शिखर पर नहीं, घाटी में। तुम इतना ही कह सकते हो कि मैं हूं बस। तुम्हारे जीवित होने का इतना ही अर्थ है कि तुम मरे नहीं हो।
लेकिन जीवन को परिधि पर कभी नहीं जाना जा सकता है। जीवन को तो उसके केंद्र पर ही जाना जा सकता है, केंद्र पर ही जीया जा सकता है। परिधि पर तो सिर्फ कुनकुना जीवन संभव है। इसलिए यथार्थ में तुम बहुत ही अप्रामाणिक जीवन जीते हो। और तब तुम्हारी मृत्यु भी अप्रामाणिक हो जाती है। क्योंकि जो ठीक से जीता नहीं है वह ठीक से मर भी नहीं सकता। प्रामाणिक जीवन ही प्रामाणिक मृत्यु बन सकता है। और तब मृत्यु सुंदर है, क्योंकि जो भी प्रामाणिक है वह सुंदर है। और अगर जीवन भी अप्रामाणिक हो तो वह कुरूप है। उसका कुरूप होना लाजिमी है।
और तुम्हारा जीवन कुरूप है, सड़ा हुआ है। वहां कुछ भी तो नहीं होता है। तुम महज आशा और प्रतीक्षा किए जा रहे हो कि किसी दिन कुछ होगा। इस क्षण तो वहां रिक्तता ही रिक्तता है। और ऐसे ही तुम्हारे अतीत का प्रत्येक क्षण रिक्त और खाली गया है। तुम तो मात्र भविष्य के इंतजार में हो कि किसी दिन कुछ होगा। तुम महज आशा में जीते हो।
और ऐसे प्रत्येक क्षण नष्ट हो रहा है। जैसे अतीत में कुछ नहीं हुआ वैसे ही भविष्य में भी कुछ नहीं होने वाला है। जो भी होता है, हमेशा वर्तमान में होता है। लेकिन तब तुम्हें त्वरा और तीव्रता की जरूरत होगी—गहन तीव्रता की। तब तुम्हें केंद्र में अपनी जड़ें फैलानी होंगी, परिधि से काम नहीं चलेगा। तब तुम्हें अपना क्षण खोज लेना होगा। सच तो यह है कि हम कभी सोचते ही नहीं कि हम क्या हैं! और जो कुछ हम सोचते भी हैं वह कचरा है।
एक समय मैं विश्वविद्यालय कैम्पस में एक प्रोफेसर के साथ रहता था। एक दिन वे आए और बोले कि मैं बहुत बेचैन हूं। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें बुखार है। मैं कुछ पढ़ रहा था, सो मैंने उनसे कहा कि जाकर सो जाओ, यह कंबल ओढ़ लो और आराम करो। वे लेट भी गए, लेकिन थोड़ी ही देर में बोले कि मुझे बुखार नहीं है, दरअसल मैं क्रुद्ध हूं गुस्से में हूं क्योंकि किसी ने मेरा अपमान कर दिया। और मैं उसके प्रति हिंसा से भरा हूं।
तो मैंने कहा कि तब आपने ऐसा क्यों कहा कि मुझे बुखार है? उन्होंने कहा कि मैं कबूल नहीं कर पाया कि मैं गुस्से में हूं लेकिन सच में मुझे बुखार नहीं, क्रोध पकड़े है। और यह कहकर उन्होंने कंबल फेंक दिया। तो मैंने उनसे कहा कि यदि यह बात है तो यह तकिया लो और उसे पीटो, उसके साथ मार—पीट करो, इससे तुम्हारी हिंसा निकल जाएगी। और अगर तकिया काफी नहीं है तो मैं उपलब्ध हूं, तो मुझे मारो और इस हिंसा को निकाल फेंको।
मेरी यह बात सुनकर वे हंस पड़े, लेकिन उनकी हंसी नकली थी, उसे उन्होंने अपने चेहरे पर ओढ़ लिया था। इसलिए वह हंसी उनके चेहरे पर आकर तुरंत विलीन हो गई। वह अंतस से नहीं आयी थी, ऊपर से आरोपित थी। लेकिन वह नकली हंसी भी एक अंतराल तो बना ही गई। और तब उन्होंने कहा कि मैं सच में क्रुद्ध भी नहीं हूं किसी ने सबके सामने कुछ कह दिया और मैं उससे मन ही मन बहुत लज्जित अनुभव करने लगा। सच्ची बात यह है।
मैंने उनसे कहा कि तुमने आधे घंटे के अंदर अपने भाव के बारे में अपना वक्तव्य तीन—तीन बार बदला। पहले तुमने कहा कि तुम्हें बुखार है, फिर कहा कि तुम्हें गुस्सा है, और त्रिनेत्र अब कहते हो कि तुम लज्जित हो, कुंठित हो। आखिर सच क्या है? उन्होंने कहा कि कुंठा
सच है। मैंने कहा कि जब तुमने कहा कि बुखार है तब भी तुम उसके बारे में निश्चित थे; और जब कहा कि क्रोध है तब भी निश्चित थे, और तुम इस लज्जा के बारे में भी निश्चित हो। तुम एक व्यक्ति हो या अनेक? यह नया निश्चय कब तक टिकने वाला है?
उस आदमी ने कहा कि मैं ठीक—ठीक नहीं जानता कि मेरा भाव क्या है; मेरा असल भाव क्या है, मैं नहीं जानता। मैं सिर्फ विचलित हूं अशात हूं। इसे क्रोध कहूं? लज्जा कहूं? क्या कहूं कुछ समझ में नहीं आता। और यह समय भी नहीं है कि मेरे साथ इस पर बहस करो। मुझे अकेला छोड़ दो। तुमने मेरी स्थिति को एक दर्शनिक समस्या बना दिया है। तुम पूछ रहे हो कि क्या प्रामाणिक है, क्या यथार्थ है, और मैं बहुत परेशानी में हूं।
यह बात किसी अ, ब, स व्यक्ति की नहीं है। यह तुम्हारी बात है, तुम्हारी सच्चाई है। तुम कभी निश्चित नहीं हो, क्योंकि निश्चय केंद्रित होने से आता है। तुम अपने संबंध में भी निश्चित नहीं हो। और दूसरों के संबंध में निश्चित होना तो असंभव ही है जब तुम अपने संबंध में ही अनिश्चित हो। तुम अपने संबंध में धुंधले—धुंधले हो।
कुछ ही दिन पहले एक व्यक्ति यहां आया था। उसने मुझसे कहा कि मैं किसी लड़की को प्रेम करता हूं और मैं उससे शादी करना चाहता हूं। मैं कुछ क्षणों के लिए उसकी आंखों में गहरे झांककर देखता रहा—बिना कुछ कहे। वह बेचैन हो उठा और उसने कहा, आप क्यों मुझे इस तरह देख रहे हैं? मैं अजीब सा अनुभव कर रहा हूं। पर मैं उसे देखता ही रहा। फिर उसने कहा, क्या आप सोचते हैं कि मेरा प्रेम झूठा है? फिर भी मैंने कुछ नहीं कहा, उसे देखता ही रहा। और तब उसने कहा, आप ऐसा क्यों समझते हैं कि यह विवाह अच्छा नहीं होगा? और वह अपने ही आप बोला, मैंने खुद इस पर बहुत सोच—विचार नहीं किया था। और यही कारण है कि मैं आपके पास आया हूं। मैं नहीं जानता कि मैं प्रेम में हूं भी या नहीं।
मैंने एक शब्द भी नहीं कहा था। मैं सिर्फ उसकी आंखों में झांकता रहा था। लेकिन वह बेचैन हो गया और जो बातें उसके अंतस में छिपी थीं वे उभरकर बाहर आने लगीं।
तुम निश्चित नहीं हो। तुम किसी भी चीज के बाबत निश्चित नहीं हो सकते—न अपने प्रेम के बाबत, न अपनी घृणा के बाबत, न अपनी मित्रता के बाबत। तुम किसी भी चीज के बाबत निश्चित नहीं हो सकते, क्योंकि तुम्हारा केंद्र नहीं है। केंद्र के बिना निश्चय नहीं है। तुम्हारे निश्चय के सभी भाव झूठे और क्षणिक हैं। एक क्षण तुम्हें लगेगा कि मैं निश्चित हूं, लेकिन दूसरे ही क्षण वह निश्चय जा चुका होगा; क्योंकि प्रत्येक क्षण तुम्हारा केंद्र भिन्न है। तुम्हारा कोई स्थायी केंद्र नहीं है, कोई क्रिस्टलाइज्‍ड केंद्र नहीं है। प्रत्येक क्षण का अपना आणविक केंद्र है, इसलिए प्रत्येक क्षण की अपनी अस्मिता है।
जार्ज गुरजिएफ कहते थे कि आदमी एक भीड़ है। व्यक्तित्व एक धोखा है, क्योंकि तुम एक व्यक्ति नहीं, अनेक व्यक्ति हो। इसलिए जब एक व्यक्ति तुम्हारे भीतर बोलता है तो वह उस क्षण का केंद्र हुआ। दूसरे क्षण दूसरा आ जाता है। प्रत्येक क्षण के साथ, प्रत्येक आणविक स्थिति के साथ तुम निश्चित महसूस करते हो, लेकिन तुम कभी इस बोध को उपलब्ध नहीं होते कि मैं बस एक बहाव हूं जिसमें लहरें ही लहरें हैं, केंद्र नहीं। और तब अंत में तुम पाओगे कि जीवन व्यर्थ हुआ। ऐसा होना अनिवार्य है। वह महज एक प्रयोजनहीन, अर्थहीन भटकाव है।
तंत्र, योग, धर्म, सबकी बुनियादी फिक्र है कि पहले केंद्र को कैसे पा लें, पहले कैसे व्यक्ति हो जाएं। वे फिक्र करते हैं कि कैसे उस केंद्र को प्राप्त करें जो कि प्रत्येक स्थिति में भीतर विराजमान रहता है; जब जीवन बाहर बदलता रहता है, जब जीवन—प्रवाह की लहरें आती हैं और जाती हैं, तब भी भीतर कोई केंद्र बना रहता है। तब तुम एक हुए—आधारित और केंद्रित।
ये सूत्र उस केंद्र को पाने के सूत्र हैं। केंद्र है, क्योंकि संभव नहीं है कि वर्तुल बिना केंद्र के हो। वर्तुल केंद्र के साथ ही हो सकता है। इसका अर्थ है कि केंद्र विस्मृत हो गया है। वह है, लेकिन हमें उसका पता नहीं है। वह है, लेकिन हमें उसे देखना नहीं आता; हमें पता नहीं है कि कैसे उस पर अपनी चेतना को एकाग्र करें।

No comments:

Post a Comment